Thursday, 23 June 2022

अशोक कुमार पाण्डेय / श्यामाप्रसाद मुखर्जी और कश्मीर

[श्यामाप्रसाद प्रसाद मुखर्जी की कश्मीर में हुई मृत्यु को लेकर लोग बहुत से सवाल करते हैं। पढिए क्या हुआ था उस रोज़] 

एक देश में दो विधान! : कहीं पर निगाहें, कहीं पर निशाना ~

गाँधी की हत्या के बाद अलग-थलग पड़ चुके हिन्दुत्ववादी दक्षिणपंथ के लिए आज़ाद हिन्दुस्तान का इकलौता मुस्लिम बहुल प्रदेश कश्मीर ख़ुद को प्रासंगिक बनाने के लिए सबसे मुफ़ीद ज़रिया बना और श्यामा प्रसाद मुखर्जी तथा मधोक ने प्रजा परिषद के साथ ख़ुद को झोंक दिया. यह मौक़ा मिला उन्हें वहाँ शेख द्वारा भूमि सुधार लागू करने के बाद।

भूमि सुधार : ग़रीब खुश और अमीर नाराज़ ~

यह तथ्य महत्त्वपूर्ण है कि भूमि सुधारों में प्रजा परिषद से जुड़े अनेक लोगों की ज़मीन गई थी और चूँकि क़र्ज़ देने के धंधे में भी वे ही थे तो क़र्ज़ माफ़ी का नुक्सान भी उन्हें ही हुआ था जबकि इसके लाभार्थी ग़रीब और वंचित लोग थे. नतीजतन पहले तो उन्होंने डोगरा शासन को बनाए रखने की कोशिश की लेकिन वह अब संभव नहीं था तो भारतीय संविधान के अन्दर संपत्ति के अधिकार के तहत इसे चुनौती देने की कोशिश की गई लेकिन अनुच्छेद 370 के कारण यह भी संभव नहीं हुआ था जिसके तहत भारतीय संविधान का यह प्रावधान वहाँ लागू नहीं होता था.

इसके विरोध में उन्होंने एक तरफ़ संविधान सभा के चुनावों का बहिष्कार किया तो दूसरी तरफ़ चुनावों के बाद उसे ‘जम्मू के हिन्दुओं के संदर्भ में ग़ैर-प्रातिनिधिक’ बताया.

शेख़ के प्रति उनकी नफ़रत का एक उदाहरण शेख़ द्वारा मुखर्जी को लिखे एक ख़त में मिलता है जहाँ प्रजा परिषद की कार्यकारिणी के सदस्य ऋषि कुमार कौशल के एक बयान का ज़िक्र किया है जिसमें वह कहते हैं- हम शेख़ अब्दुल्ला और नेशनल कॉन्फ्रेंस के अन्य कार्यकर्ताओं को ख़त्म कर देंगे. हम उनका खून चूस लेंगे. हम इस सरकार को जड़ से उखाड़ देंगे और कश्मीर भेज देंगे. यह राज हमें पसंद नहीं.[i] 

फ़रवरी, 1952 के आरम्भ में और फिर नवम्बर-दिसम्बर 1953 तथा मार्च 1953 के अंत में ‘डायरेक्ट एक्शन’ का आह्वान किया गया. आश्चर्यजनक है कि यह शब्दावली सीधे जिन्ना से ली गई थी. इस दौरान जम्मू और कश्मीर राज्य के झण्डे का विरोध करते हुए 370 का विरोध करते हुए जम्मू और कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय की मांग करते हुए जम्मू में लूटपाट और हिंसा की भयानक घटनाएँ हुईं.[ii]

1965 में जब एक साक्षात्कार में ‘शबिस्तान उर्दू डाइजेस्ट’ के एक पत्रकार ने शेख़ अब्दुल्ला से पूछा कि 1953 में नेहरू से उनके सम्बन्ध क्यों ख़राब हुए तो तो वह बताते हैं कि ‘जागीरदारी के ख़ात्मे और किसानों के ऋण माफ़ी को अंजाम दिया गया तो नुक्सान हिन्दू-मुसलमान दोनों ही तरह के जागीरदारों का हुआ लेकिन हिन्दू जागीरदारों के सीधे दिल्ली से सम्पर्क थे और इसे हिन्दू विरोधी साबित कर दिया गया जो बेहद दुर्भाग्यपूर्ण था…मुझे ब्रिटिश एजेंट, कम्युनिस्ट एजेंट और अमेरिकी एजेंट कहा गया…एक षड्यंत्र के तहत मुझे गिरफ़्तार कर लिया गया.’[iii]

370 के विरोध का कारण ~

चूँकि, 370 के कारण ही भारतीय संविधान के ‘संपत्ति के अधिकार’ का क़ानून लागू कर मुआवज़ा दिलाने की उम्मीद ख़त्म हुई थी इसलिए भूमि सुधारों के विरोध की जगह 370 का विरोध शुरू किया गया. आख़िर आर्थिक मोर्चे से अधिक ताक़तवर धर्म का मुद्दा होता है और देशभक्ति अक्सर वह सबसे मज़बूत आड़ होती है जिसके पीछे आर्थिक शोषण की प्रणाली को जीवित रखा जा सकता है तो संविधान सभा में 370 पर कोई आपत्ति न करने वाले श्यामा प्रसाद “एक देश में दो विधान/ नहीं चलेगा” के नारे के साथ अपने 3 सांसदों के साथ देशभक्ति के हिंदुत्व आइकन बनकर उभरे.

शेख़ और नेहरू से लम्बी ख़त-ओ-किताबत के बाद [1] 1953 के मई महीने में उन्होंने टकराव का रास्ता चुना था तो यह कश्मीर के मुद्दे को राष्ट्रीय बनाने के लिए ही था. इस मुद्दे पर जनसंघ के साथ खड़े हुए अकाली नेता मास्टर तारा सिंह का कश्मीर को लेकर जो स्टैंड है वह उस दौर में साम्प्रदायिक शक्तियों के कश्मीर को लेकर रवैये को तो बताता ही है साथ ही यह समझने में मदद करता है कि शेख़ अब्दुल्ला और कश्मीर के लोग राज्य की स्वायत्तता को लेकर इतने संवेदनशील क्यों रहे हैं. लखनऊ के एक भाषण में मास्टर तारा सिंह कहते हैं-

‘कश्मीर पाकिस्तान का है. यह एक मुस्लिम राज्य है. लेकिन मैं इस पर दावा उस संपत्ति के बदले करता हूँ जो रिफ्यूजी पश्चिमी पाकिस्तान में छोड़ आए हैं. कश्मीरी मुसलमानों को पाकिस्तान भेज देना चाहिए जहाँ के वे असल में हैं.’[i]

क्या हुआ था कश्मीर में? ~

मुखर्जी से जुड़े घटनाक्रम पर लौटें तो पूर्वोद्धरित इंटरव्यू में शेख़ बताते हैं कि भारत सरकार ने कश्मीर को युद्ध क्षेत्र घोषित कर डिफेन्स ऑफ़ इण्डिया रूल के तहत कश्मीर में आवागमन पर पाबन्दी लगा दी गई थी. मुखर्जी को डल के पास निशात बाग़ के एक निजी घर में रखा गया था. शेख़ इसके लिए तत्कालीन गृहमंत्री बख्शी ग़ुलाम मोहम्मद और जेल तथा चिकित्सा मंत्री श्यामलाल सर्राफ़ को जिम्मेदार बताते हैं, हालाँकि प्रधानमंत्री के रूप में सामूहिक जिम्मेदारी से इंकार भी नहीं करते.

शेख अब्दुल्ला बताते हैं कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु के बाद उन्होंने उनके निजी चिकित्सक बी. सी. रॉय को कश्मीर आकर जाँच का प्रस्ताव भी दिया लेकिन रॉय नहीं आए.[ii]

मुखर्जी की मृत्यु हृदयाघात से हुई थी ~

वह हृदयरोग से ग्रस्त थे और उनके लिए कश्मीर का मौसम एकदम ठीक नहीं था. मधोक को पढ़कर लगता है कि योजना बनाने वालों को यह लगा था कि उन्हें जम्मू की सीमा पर भारतीय सेना द्वारा गिरफ़्तार कर दिल्ली लाया जाएगा लेकिन उनकी गिरफ़्तारी कश्मीर में होने से ऐसा नहीं हो पाया.

हालाँकि मधोक बताते हैं कि मुखर्जी के साथ उनके एक निजी चिकित्सक वैद्य गुरुदत्त भी थे.[iii]  मुखर्जी के जीवनीकार तथागत रॉय बताते हैं कि उनके दाहिने पैर में लगातार दर्द था और उनकी भूख ख़त्म हो गई थी.

19 जून की रात उन्हें सीने में दर्द और तेज़ बुखार की शिक़ायत हुई तो डॉ अली मोहम्मद और अमरनाथ रैना को भेजा गया. लेकिन ज़ाहिर तौर पर ‘स्ट्रेप्टोमाय्सिन’ देने का गुनाह अली मोहम्मद के माथे मढ़ा गया.

वैसे मुखर्जी की जिद पर उन्हें एक हिन्दू नर्स भी उपलब्ध कराई गई थी जिसकी सुनाई गई कथित कहानी में भी यह स्पष्ट है कि उसने आख़िरी इंजेक्शन दिया था और तबियत बिगड़ने पर डॉक्टर ज़ुत्शी तुरंत पहुँचे थे !

हालाँकि अगले तीन दिनों के घटनाक्रम को रॉय काफी नाटकीय तरीके से पेश करते हैं लेकिन यह स्पष्ट लगता है कि मुखर्जी की मृत्यु हृदयाघात से हुई थी. षड्यंत्र कथाएँ बहुत सी बनाई गई हैं जिसमें एक पंडित की भविष्यवाणी से लेकर 20 जुलाई को संघ के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर की वह रिपोर्ट भी शामिल है जिसमें कोई स्रोत नहीं दिया गया है.

रॉय यह अलग से लिखते हैं कि श्रीनगर से कोलकाता भेजे जाते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा गया कि मुखर्जी की मृत देह किसी मुसलमान से न छू जाए![iv]

 [ राजकमकल प्रकाशन से प्रकाशित मेरी किताब ‘कश्मीर और कश्मीरी पंडित‘ से]

स्रोत
[i] देखें, पेज 46, नेहरू-मुखर्जी-अब्दुल्ला करिस्पांडेस, जनवरी-फरवरी, 1953

[ii] देखें, वही, पेज़ 166

[iii] देखें, पेज़ 38, द टेस्टामेंट ऑफ़ शेख़ अब्दुल्ला, वाय डी गुंडेविया, पालित एंड पालित पब्लिशर्स, दिल्ली -1974

[1] नेहरू-शेख़-मुखर्जी की यह ख़तो-किताबत आर्काइव डॉट ओआरजी पर उपलब्ध है.

[2] हिन्दू कोड बिल और उस पर चले विवाद को गहराई से समझने के लिए पाठक चित्रा सिन्हा की किताब “डिबेटिंग पैट्रियार्की: द हिन्दू कोड बिल कंट्रोवर्सी इन इंडिया (1941-56), प्रकाशक : ओ यू पी इंडिया- 2012 पढ़ सकते हैं.

[i] देखें, पेज 47, नेहरू-मुखर्जी-अब्दुल्ला करिस्पांडेस, जनवरी-फरवरी, 1953

[ii] देखें, पेज़ 42, द टेस्टामेंट ऑफ़ शेख़ अब्दुल्ला, पालित एंड पालित पब्लिकेशन, दिल्ली -1974

[iii] देखें, पेज़ 126, बंगलिंग इन कश्मीर, बलराज मधोक, हिन्द पाकेट बुक्स, दिल्ली- 1974

[iv] देखें, पेज़ 387-90, श्यामा प्रसाद मुखर्जी : लाइफ एंड टाइम्स, तथागत रॉय, पेंग्विन, दिल्ली- 2018

[v] देखें, पेज़ 14-16, माई डेज़ विथ नेहरू, बी एन मलिक, अलाइड पब्लिशर्स, दूसरा संस्करण, दिल्ली- जुलाई, 1971

[vi] देखें, पेज़ 110, द टेस्टामेंट ऑफ़ शेख़ अब्दुल्ला, पालित एंड पालित पब्लिकेशन, दिल्ली -1974

[vii]देखें,पेज़ 426, डॉ अम्बेडकर : लाइफ एंड मिशन, धंनजय कीर, पॉपुलर प्रकाशन, पुनर्मुद्रित संस्करण, मुंबई-1990

[viii] देखें, पेज़ 145, कश्मीर : बिहाइंड द वेल, एम जे अकबर, रोली बुक्स, छठां संस्करण, दिल्ली – 2011

[ix] देखें, पेज़ 196, रिमेम्बरिंग पार्टीशन, ज्ञानेन्द्र पाण्डेय, कैम्ब्रिज़ यूनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली- 2012

[x] देखें, पेज़ 112, फ्लेम्स ऑफ़ चिनार, शेख़ अब्दुल्ला, शेख़ अब्दुल्ला (अनुवाद – खुशवंत सिंह), पेंगुइन- दिल्ली- 1993

[xi] देखें, पेज़ 111, वही

[xii] देखें, पेज़ 30, कश्मीर : द अनटोल्ड स्टोरी, हुमरा क़ुरैशी, पेंग्विन, दिल्ली-2004

[xiii] देखें, पेज़ 111-12, द टेस्टामेंट ऑफ़ शेख़ अब्दुल्ला, पालित एंड पालित पब्लिकेशन, दिल्ली -1974

अशोक कुमार पांडेय 
© Ashok Kumar Pandey 
संपादक, क्रेडिबल हिस्ट्री


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