द्रविड़ आंदोलन का हासिल क्या रहा? 94 वर्ष जीने वाले और अपने आखिरी वक्त तक सक्रिय पेरियार की कितनी छाप आज के तमिलनाडु या भारत पर दिखती है? उत्तर भारतीयों के मन में तमिलों के लिए या तमिलों के मन में उत्तर भारतीयों के लिए क्या जगह है? आज इतने वर्षों बाद देश सांस्कृतिक रूप से विभाजित है, या एक ही ‘भारत माता’ की छवि का अंग है? भविष्य का रोडमैप क्या है?
पहली बात जो तमिलनाडु में लंबे समय से स्पष्ट देखी जा सकती है, कि जातिसूचक उपनाम लगभग खत्म हो गए। उत्तर में आप उपनामों से जाति का पता लगा सकते हैं, आंध्र में भी राव, रेड्डी, नायडू मिलेंगे, केरल में नायर आदि मिल जाएँगे। लेकिन, तमिलनाडु में आप उपनाम ढूँढते रह जाएँगे। जयललिता जयराम हों या एम जी रामचंद्रन, या या कमल हासन। कहीं जातिसूचक उपनाम नहीं। यहाँ प्रथम नाम गाँव का नाम, द्वितीय नाम पिता का नाम, और आखिरी नाम मूल नाम होता है। जैसे- मुथुवेल (ग्राम) करुणानिधि (पिता) स्तालिन (नाम)।
दूसरी चीज कि पिछड़े वर्ग का आरक्षण तमिलनाडु के लगभग सात दशक बाद अखिल भारत में शुरू हुआ। ‘मिड डे मील’ तमिलनाडु के चार दशक बाद शेष भारत में योजनाबद्ध शुरू हुआ। इस तरह कम से कम पिछड़ा वर्ग वहाँ बहुत पहले ही शिक्षित और स्थापित हो गया। यह पेरियार और अन्य विचारकों की उपलब्धि रही।
लेकिन, उपनाम न होने और आरक्षण होने के बावजूद जातिवाद कायम है। जाति-आधारित दलों की संख्या में तमिलनाडु सबसे आगे है। दलितों की स्थिति आज भी चिंतनीय है। यह एक बड़ी असफलता रही।
पेरियार का द्रविड़नाडु या श्रीलंका का ‘तमिल ईलम’, दोनों ही अब फुसफुसाहटों में ही बचे हैं। केंद्र द्वारा भारतीय संघ संरचना में तमिलनाडु को महती स्थान देने की वजह से अलगाववाद की आग अब सिर्फ़ भाषा-विरोध तक सिमट गयी है। मसलन भारत के हर राज्य ने नवोदय विद्यालय अपनाए, लेकिन तमिलनाडु ने सिर्फ़ त्रिभाषा पद्धति के कारण नहीं अपनाया। भाषा-अस्मिता का प्रश्न अन्य राज्यों में भी रहा, लेकिन तमिलनाडु ने इसमें अब तक समझौतावादी रवैया नहीं अपनाया।
धर्म की बात तो क्या ही की जाए। हम यह पढ़ चुके हैं कि एमजीआर और जयललिता खुल कर धर्मनिष्ठ रहे, और दोनों ने लंबे समय तक राज किया। पिछड़े वर्ग और दलितों ने भी नास्तिकता खुल कर नहीं अपनायी। इसके विपरीत धार्मिक संस्थान तमिलनाडु में मजबूत ही होते गए। शंकराचार्य का पीठ ही है। करुणानिधि अवश्य पूरे जीवन नास्तिक रहे, लेकिन उन्होंने भी मंदिरों में पिछड़े वर्ग के पुरोहितों का कानून लाकर धर्म को एक स्थापना मान ही ली। पिछड़े वर्ग से पुरोहित तो खैर न के बराबर बने, क्योंकि वह उनकी न इच्छा थी, न यह प्रायोगिक रहा।
स्त्रियों की मुक्ति पर भी पेरियार-मॉडल असफल रहा। तमिलनाडु की स्त्रियों ने पारंपरिक वस्त्र, विधि-व्यवहार कायम रखे। इसका उदाहरण 2005 में अभिनेत्री खुशबू के कथनों पर उठे विवाद में देखा जा सकता है। आज उत्तर भारत में गाँव-गाँव में पाश्चात्य परिधानों में युवतियाँ दिख सकती है, लेकिन तमिलनाडु के मुख्य शहरों में भी साड़ी और गजरा लगाए दिखेंगी। उन्होंने पेरियार की मुक्त स्त्री नहीं, बल्कि एक प्राचीन ग्रंथ ‘शीलपथकम’ की पतिव्रता स्त्री कन्नगी को आदर्श बनाया।
तमिलनाडु का भविष्य जो भी हो, लेकिन पिछले दशकों की राजनीति से यह अनुमान लगता है कि वहाँ किसी ‘आइकन’ की ज़रूरत है। वे व्यक्ति की छवि को महत्व देते रहे हैं। चाहे पेरियार हों, अन्नादुरइ हों, करुणानिधि हों, एमजीआर या जयललिता हों, ये सभी ऐसे लोग थे जिनके आदमकद ‘कट आउट’ से भी ऊँची इनकी छवि थी।
एक ब्राह्मण अभिनेता कमल हासन आम आदमी पार्टी सरीखी राजनीति करना चाहते हैं। वहीं, एक मराठी मूल के तमिल ‘भगवान’ रजनीकांत आध्यात्मिक राजनीति की बात करते हैं। यह संभवत: स्पष्ट है कि दोनों में कोई भी ‘द्रविड़ कड़गम’ की धारा में नहीं हैं। इनके साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि दोनों ही लगभग सत्तर वर्ष के हैं, तो भविष्य में राजनैतिक सक्रियता का समय ही नहीं बचा।
यह भी कयास लगते हैं कि दोनों ही मुख्य राष्ट्रीय दल तमिलनाडु में निकट भविष्य में बड़ी जगह नहीं बना पाएँगे। ब्राह्मण-विरोध और हिंदी-विरोध की गाज इन दोनों पर ही अलग-अलग कालखंडों में पड़ी। लेकिन, कांग्रेस और भाजपा नियमित इन क्षेत्रीय दलों को अपना सहयोगी बनाती रही है, तो यह विभाजन मामूली पेंच है।
इस पूरे संवाद का उद्देश्य यह था कि उत्तर भारतीय तमिलों और संपूर्ण दक्षिण भारत की भाषा, इतिहास, संस्कृति और राजनीति को अपनी रुचि में शामिल करें। यह आर्य-द्रविड़ का भेद अगर हज़ारों वर्षों पूर्व के डीएनए साक्ष्यों से सिद्ध भी हो जाए, तो आज के भारत में उसे द्वंद्व बनाने की आवश्यकता नहीं है। न तमिलों के मन में। न उत्तर भारतीयों के मन में।
(शृंखला समाप्त)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (18)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/02/18.html
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