पेरियार जब मूर्तियाँ तोड़ रहे थे, तो धर्मनिष्ठ ब्राह्मण राजागोपालाचारी मुख्यमंत्री थे। उनसे तो समर्थन की कोई उम्मीद नहीं थी। अन्नादुरइ ने भी इस आयोजन में साथ नहीं दिया। पेरियार के सहयोगियों को जान से मारने की धमकी दी जा रही थी। मगर पेरियार कह रहे थे कि चाहे जान चली जाए, पिल्लयार के बाद वह राम की मूर्तियाँ बना-बना कर तोड़ेंगे। उन पर मुकदमा किया गया।
कचहरी में न्यायाधीश रमन नायर ने पूछा, “इन्होंने पिल्लयार की मूर्तियाँ खुद बना कर तोड़ी हैं। किसी दूसरे की संपत्ति या मंदिर नहीं तोड़ा। तो आपत्ति क्यों है?”
याचिकाकर्ताओं ने कहा, “यह हमारी भावनाओं को ठेस पहुँचाता है”
“मगर ये तो तीन महीने से घोषणा कर रहे थे। ऐसे आयोजन में जाना ही क्यों, जिससे दुख पहुँचे?”
उन्होंने क्रोधित होकर कहा, “पेरियार कान खोल कर सुन लें- जितनी मूर्तियाँ टूटेगी, उससे कहीं अधिक मंदिर बन जाएँगे”
पेरियार ने कहा, “फिर तो आप ही हमारा काम हल्का कर दें। हम मूर्तियाँ देंगे, आप जम कर तोड़ें। इसी बहाने आपके कहीं अधिक मंदिर बन जाएँगे।”
पेरियार के इस मूर्ति-भंजक अभियान से भिन्न अन्नादुरइ का दल अलग दिशा में आगे बढ़ रहा था।
युवा नेता करुणानिधि अपने लोगों के साथ घूम-घूम कर रेलवे स्टेशनों में देवनागरी नामों पर कालिख लगा रहे थे। उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। वहीं, अन्नादुरइ राजागोपालाचारी के जाति-कर्म विद्यालयों के विरुद्ध आंदोलन कर रहे थे। उन्हें भी गिरफ़्तार कर लिया गया। इन गिरफ़्तारियों से राजागोपालाचारी के प्रति जनता में रोष उत्पन्न होने लगा।
मद्रास प्रांत में एक और हलचल पहले ही शुरू हो चुकी थी। तेलुगु भाषी तमिलों से अलग होने की माँग कर रहे थे। पेरियार और तमिलों से तो वे चिढ़े ही हुए थे, किंतु जवाहरलाल नेहरू भाषा के आधार पर विभाजन के क़तई समर्थन में नहीं थे।
सबसे पहले 15 अगस्त, 1951 को स्वामी सीताराम एक अलग तेलुगु प्रदेश के लिए आमरण अनशन पर बैठे थे। जब 35 दिन तक व्रत के बाद वह मरणासन्न हुए तो विनोबा भावे ने नेहरू से विनती की। नेहरू के आश्वासन पर उन्होंने व्रत तो तोड़ा, मगर शर्त मानी नहीं गयी।
19 अक्तूबर, 1952 को गांधीवादी नेता पोट्टी श्रीरामलु मद्रास में आमरण अनशन पर बैठ गए। उन्होंने गांधी के साथ पहले ऐसे अनशन किए थे, मगर छह हफ्तों के अनशन के बाद उनकी स्थिति खराब होने लगी। नेहरू ने आखिर राजागोपालाचारी को चिट्ठी लिखी कि मद्रास का विभाजन करना ही होगा, अन्यथा स्थिति बेकाबू हो जाएगी। लिखित करारनामे में देरी हो गयी, और 58 दिन के व्रत के बाद श्रीरामलु चल बसे। आंध्र जल उठा। दंगे होने लगे, बस जलाए जाने लगे।
हड़बड़ी में संसद ने 1 अक्तूबर, 1953 को स्वतंत्र भारत का पहला भाषा-आधारित राज्य बनाया, करनूल राजधानी बनी। बाद में हैदराबाद रियासत को मिला कर 1956 में बड़ा आंध्र राज्य बना (जो 2014 में पुन: विभक्त हो गया)।
आंध्र के अलग होते ही पेरियार का ‘द्रविड़ नाडु’ स्वप्न भी बिखरने लगा। मलयाली पहले ही अलग मिज़ाज के थे, तेलुगु अलग ही हो गए। उनका द्रविड़नाडु स्वप्न सिकुड़ कर तमिलनाडु बनता जा रहा था।
कहीं न कहीं मद्रास की प्रगति इन द्रविड़ आंदोलनों की वजह से रुक रही थी। पेरियार को किसी भी तरह रोकना आवश्यक हो गया था। मगर जो व्यक्ति गांधी से नहीं संभले, राजागोपालाचारी से नहीं संभले; जो भारतीय संविधान को जला रहे हों, मूर्तियाँ तोड़ रहे हों, जिनका ध्येय ही कांग्रेस का अंत हो; उन्हें आखिर कौन रोकता?
उस समय एक ऐसे व्यक्ति ने मद्रास की कमान संभाली, जो भविष्य में पूरे देश के कांग्रेस के चाणक्य बने। उनके आते ही हिंदी विरोधी आंदोलन घटने लगे, कांग्रेस में भरोसा बढ़ने लगा, राज्य प्रगति-पथ पर बढ़ने लगा। और पेरियार?
पेरियार तो जीवन में पहली बार किसी कांग्रेसी के कंधे पर हाथ रख कर उन्हें वोट देने कह रहे थे। दृढ़निश्चयी पेरियार का कामदेव वशीकरण करने वाले वह स्वनामधन्य थे- कुमारस्वामी कामराज!
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (3)
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