Monday, 10 January 2022

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास - दो (2)

हमारी पीढ़ी ने मंडल कमीशन को कुछ देखा-समझा है। लेकिन, अगर हमें यह जानना है कि आरक्षण का इतिहास क्या है, तो हमें मद्रास चलना ही होगा। यह भले दुराग्रह लगे कि मैं कांग्रेस की कहानी भी मद्रास से शुरू करता हूँ, अब आरक्षण का पालना भी मद्रास बता रहा हूँ। आप कहेंगे कि उत्तर भारत के लोग क्या डुगडुगी बजा रहे थे? इतिहास की किताबें समाज में उत्तर भारत के योगदान से भरी पड़ी है, इसलिए ऐसी कोई बात नहीं। सभी का योगदान रहा है। लेकिन, मैं फिलहाल मद्रास-कथा लिख रहा हूँ और मद्रास के बिना आधुनिक भारत की कथा पूरी नहीं होती। आरक्षण की चर्चा से बात शुरू करता हूँ। 

मैं 1882 में लिखी उस चिट्ठी के अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ, जिसमें पहली बार जाति-आधारित आरक्षण की चर्चा की गयी थी। यह चिट्ठी ज्योतिराव फुले ने हंटर शिक्षा कमीशन को लिखी थी।

“मैंने और मेरी पत्नी ने 1854 में पूना में लड़कियों के लिए विद्यालय की शुरुआत की। उसके बाद हमने महार और मांग जातियों के लिए विद्यालय शुरू किए। उनमें कई विद्यालय अब भी चल रहे हैं, हालाँकि कुछ अच्छी स्थिति में नहीं हैं।

यह कैसी विडंबना है कि आपका सरकारी खजाना भरने के लिए जो समाज अपना पसीना और आँसू बहाता है, मेहनत करता है, उस समाज का बच्चा आपके खजाने से दी जा रही शिक्षा से वंचित है। यह धन उन ब्राह्मणों की शिक्षा पर खर्च हो रहा है, जिनका आर्थिक योगदान बहुजन समाज की अपेक्षा नगण्य है। शूद्रों के परिश्रम की कमाई से ब्राह्मण बच्चे पढ़ रहे हैं, ऊँचे पदों पर जा रहे हैं, और शूद्र निरक्षर रह कर आजीवन उन्हीं ब्राह्मणों की सेवा कर रहे हैं।

मैं सरकार से अनुरोध करता हूँ कि बारह वर्ष की उम्र तक हर बच्चे के लिए शिक्षा अनिवार्य की जाए। जिन स्थानों पर शूद्रों को सवर्ण बच्चों के साथ पढ़ने की इजाज़त नहीं, वहाँ अधिक से अधिक शूद्र-विशेष विद्यालय खोले जाएँ। अभी पूना के विद्यालयों के अधिकांश शिक्षक ब्राह्मण हैं, जो यह जातिगत भेदभाव शिक्षण में अपनाते हैं। मेरा अनुरोध है कि निचली जातियों से शिक्षकों को प्रशिक्षित किया जाए, जो उस समाज के बच्चों को बेहतर समझ सकते हैं।

यह भी देखा गया है कि उच्च-शिक्षा में सरकारी निवेश और छात्रवृत्तियाँ घट गयी हैं। इस कारण समृद्ध परिवारों, ब्राह्मणों और प्रभुओं के बच्चे तो इन स्थानों पर दाखिला ले पाते हैं, बहुजन समाज के बच्चों को पढ़ाई छोड़नी पड़ती है। सरकार को उच्च शिक्षा में उनकी ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए, ताकि वे धन के अभाव में शिक्षा न त्यागें।

मैं इस चिट्ठी का अंत इस विनती से करूँगा कि कमीशन बालिकाओं की प्राथमिक शिक्षा के लिए अधिक से अधिक प्रयास करे।”

इस चिट्ठी के दो दशक बाद पहली बार आधुनिक भारत में आरक्षण लागू किया गया। यह ब्रिटिश सरकार ने नहीं, बल्कि महाराष्ट्र के कोल्हापुर के एक राजा ने किया। 

26 जुलाई 1902 को शाहूजी महाराज ने वह अभूतपूर्व फैसला लिया, जब सभी शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्ग के लिए पचास प्रतिशत आरक्षण तय किया गया। नतीजा? जहाँ इस कानून से पहले कोल्हापुर के नब्बे प्रतिशत प्रशासनिक अधिकारी चितपावन ब्राह्मण थे, एक दशक बाद वे चालीस प्रतिशत रह गए। वही पहले ऐसे राजा बने जिन्होंने प्राथमिक शिक्षा न सिर्फ़ अनिवार्य की, बल्कि 1917 में इसे सभी वर्ग के बच्चों के लिए मुफ्त भी कर दिया।

मगर कोल्हापुर तो भारत की एक छोटी सी रियासत थी। वहाँ अगर किसी जमींदार ने अपने कानून बना ही दिए, तो उससे क्या फर्क पड़ता? अगर पूरी बंबई प्रेसीडेंसी में ऐसा होता, तो कुछ और बात होती। 

उसी वर्ष 1917 में अमरीका के कोलंबिया विश्वविद्यालय में एक विद्यार्थी को पीएचडी दी जा रही थी। 
शोध का शीर्षक था- ‘भारत की जातियाँ: तंत्र, उत्पत्ति और विकास’
शोधकर्ता का नाम था- भीमराव रामजी अम्बेडकर

चार वर्ष बाद, 1921 में पहली बार ब्रिटिश भारत के किसी प्रांत में आरक्षण विधेयक पारित किया गया। हालाँकि यह ज्योतिबा फुले, शाहूजी महाराज और अम्बेडकर की बॉम्बे प्रेसीडेंसी में नहीं संभव हुआ। यह विधेयक पारित हुआ मद्रास प्रेसीडेंसी में। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

दक्षिण भारत का इतिहास - दो (1)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/01/1_9.html 
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