Saturday, 8 January 2022

असग़र वजाहत का लघु उपन्यास - चहार दर (2)

प्रोफे़सर वाई.पी. रंधावा सिर्फ़ मुँह से नहीं, पूरे शरीर से ठहाके लगाते हैं। इस तरह के बेबाक और ईमानदार क़हक़हे लगाने वाले सायमा ने लाहौर में भी देखे हैं। लेकिन योरोप इनसे कुछ ख़ाली है। लंदन के लाहौरी ढाबे में कभी-कभी खाना-वाना खाने के दरम्यिान इस मसले पर गुफ्तुगू भी हो जाया करती थी। बात अक्सर यहाँ से शुरू होती कि यार यहाँ ठंड रहती है न। मुँह खोलकर हँसेंगे तो सर्दी लग जाएगी। दूसरी राय सामने आती-अरे यारो, ये बात नहीं है, अरे, हँसने के पहले कोई सच्ची बात कही जाती है न। ये बंदे कभी सच्ची बात ही नहीं करते।’ कोई और राय देता-यार इनके दिल ही नहीं हैं। दिमाग़ से कोई थोड़ी हँसता है।’

प्रोफे़सर रंधावा के आफिस में सायमा को इतने ठहाके सुनने पड़े कि सारा तकल्लुफ ख़त्म हो गया। ऐसे आदमी से कोई क्या तकल्लुफ करेगा जो बात-बात पर क़हक़हे लगाने के बहारने ढूँढ़ता हो।
”चलो जी, चिंता दी कोई गल्ल नइ...काम हो जावेगा।“
”रंधावा जी, इनको अपने स्टूडेंट्स से मिला देंगे।“
”अजी मिल लेगी स्टूडेंट्स से, कहीं भाग्गे नइ जा रहे...पहले चा तो पी लो। उपाध्याय साब।“ उन्होंने ठहाका लगाया।
चाय देने वाला चपरासीनुमा आदमी से प्रोफे़सर रंधावा ने कहा, ”मुण्डयाँ नूं एधर भेद दे।“
हमारे चाय पीते ही चार पाँच लड़के अंदर आ गए।
”ओए मुण्डयों, कुड़ियों को भी लाओ...ए लाहौर तों आई है...तुम लोगों को फील्ड वर्क कराएगी...पर ऐसा है उपाध्याय जी, क्लास में ही चलो...सबसे बात हो जाएगी। हमारे लिए तो जी बड़ी खुशी की बात है तुसी लाहौर तों आए हो...देखो जी अमृतसर से दिल्ली साढ़े चार सौ किलोमीटर दूर है और लाहौर पचास...बताओ? पड़ोस दिल्ली हुआ कि लाहौर...और जी हमारी ज़बान वही जो लाहौर की, वही खान-पान, वही तौर तरीका, वही तारीख़ और वही कल्चर...।“

प्रो. रंधावा बहुत देर तक लाहौर और अमृतसर के नज़दीकी रिश्तों के बारे में बोलते रहे। मुझे शायद ये बहुत अच्छा नहीं लगा रहा था। लगता है नजदीकियाँ कहीं ‘आईडेंटिटी’ को ख़त्म न कर दें...इसलिए मैं चुप रही। जबकि रंधावा चाहते थे कि  मैं हाँ में हाँ मिलाती रहूँ। उन्हें हैरत भी हो रही थी...‘हम एक हैं’, ‘हम एक हैं’ की तकरार होती रही। मैं ख़ामोशी से सुनती रही। मेरा पक्का यक़ीन है कि हम एक नहीं हैं। हम दो हैं...और रहेंगे...

उसे बड़ी राहत मिली जब कोर्स के लड़के-लड़कियों ने उससे कैन्टीन चलने के लिए कहा। वह फौरन तैयार हो गई कि वहाँ पिछली पीढ़ी वाले ‘नाॅस्टेल्जिया’ से तो छुट्टी मिल जाएगी।

चाय पीने के बाद सायमा यूनिवर्सिटी में इधर-उधर अकेली घूमती रही। अक्सर वो सोचती है कि ‘यूनिवर्सिटीज़’ है क्या? ये एक जैसी क्यों होती हैं? यहाँ जो आ जाते हैं और जो नहीं आते हैं उनमें इतना फ़र्क क्यों होता है? यहाँ की दुनिया बाहर की दुनिया से इतनी अलग क्यों हैं? मुल्कों के सबसे ज़हीन लोग यहाँ आते हैं, पढ़ते हैं और पढ़ाई खत्म करने के बाद यहाँ पढ़ाने लगते हैं। और उम्र भर इस माहौल में-साफ-सुथरे, एकेडिकिक माहौल में जिंदगी गुज़ार देते हैं। उन्हें शायद यह एहसास भी नहीं होता कि उनके मुल्कों की जो हक़ीक़त है वो इस ‘एकेडेमिक दुनिया’ से बिल्कुल अलग है। क्या जे़हीन लोगों को यूनिवर्सिटी ‘हज़म’ कर लेती है? क्या ‘स्टेटस-को' बनाए रखने के लिए यूनिवर्सिटी प्रतिभाओं को कुंठित कर देती हैं? ये तो वैसा ही हुआ जैस ‘मिडिल एजेज़’ में पढ़े-लिखे लोगों को हुकूमत की तरफ से जागीर मिल जाती थी ताकि पढ़े-लिखे अक्लमंद लोग आराम से खाते-पीते रहें और दीगर कुछ न सोचे, न उसमें दख़ल दें जो उनके चारों तरफ हो रहा है।
 
...होटल के कमरे में नावक़्त सो गई और शाम को ही आँख खुली।
आज अमृतसर में पहला दिन बहुत कामयाबी गुज़रा। शहर तो अभी न के बराबर देख पाई हूँ। हाँ, आते-जाते इधर-उधर देखने का मौक़ा मिला और जे़हन में सिखों की पगड़ियाँ चिपक कर रह गई हैं। जिधर देखो उधर पगड़ियाँ। यहाँ लाहौर की तरह शलवार कमीज़ का रिवाज़ नहीं है। एक भी आदमी सलवार कमीज़ में नहीं नज़र आया। ...और फिर रिक्शे...जिन्हें आदमी खींचते हैं, बहुत बुरे लगे। पहले पाकिस्तान में भी चलते थे। जरनल अय्यूब ने बंद करवा दिए थे। चलो, आर्मी वाले भी कभी-कभी कोई अच्छा काम कर देते हैं।

मिस्टर उपाध्याय कैसे लगे? शायद अपनी जवानी के दिनों में अच्छे दिखते होंगे। हाँ, उतने ही सुलझे हुए लगे जितने आमतौर पर भारतीय ‘इंटेलेक्चुअल’ होते हैं। लेकिन पाकिस्तान के वजूद को ही ग़लत मानते हैं। ‘टु नेशन थ्यिोरी’ को ही बकवास समझते हैं। मैं ऐसे लोगों से लंदन में खूब मिल चुकी और बहस कर चुकी हूँ इसलिए मुझे ये नया नहीं लगा। आज तो बात आई-गई हो गई लेकिन लगता है कभी-न-कभी ये बहस छिड़ेगी। मैं उसके लिए पूरी तरह तैयार हूँ।
प्रोफे़सर रंधावा दिल के साफ और हँसने-हँसाने वाले आदमी हैं। उन्होंने जिंदगी का बुनियादी राज़ हासिल कर लिया है कि बड़ी-सी-बड़ी प्राब्लम को अगर एक ठहाके में उड़ाया जा सके तो जिंदगी बहुत खुशगवार हो सकती हैं। प्रो. रंधावा शायद ये भी समझते हैं कि जिंदगी और उसके मसलों को बहुत सीरियसली लेने की ज़रूरत नहीं है। उनके लिए जान खपाना कहाँ की अक़्लमंदी है। इस तरह के लोग पाकिस्तान वाले पंजाब में भरे पड़े हैं। लगता है, ये इस खित्ते की खू़बी है। लेकिन क्या इसे खू़बी ही माना जाएगा? पता नहीं। दरअसल सवाल करना आसान होता है और सवालों के जवाब मुश्किल हो जाते हैं। बेचारे बाटनी के प्रोफे़सर हैं लेकिन वाइस चांसलर ने मास कम्युनिकेशन का इंचार्ज बना दिया है। यही वजह है कि फैकल्टी बाहर से आती है। बताया गया कि अख़बारों के लोग आकर पढ़ाते हैं। ये वैसे अच्छा ही है।
लड़के-लड़कियों के साथ कैन्टीन में चाय पीना अच्छा लगा। घने पेड़ों के नीचे पत्थर की बेचों पर बैठकर बातें करने से ये फायदा हुआ कि सब लोगों के बारे में कुछ-न-कुछ पता चला। वैसे तो ये सभी स्टोरी में मदद करने का वायदा कर रहे हैं लेकिन देखो होता क्या है?

अल्का सोनी बड़ी प्यार लगी है। खू़ब तेज़ तर्रार है और काफी बातूनी है। लगता है खुलकर बात करने की आदी है और कुछ दिल में नहीं रखती। उसके दो भाई लंदन में रहते हैं। पिछली गर्मियों में लंदन गई थी और ज़ाहिर है कि जब उसे पता चला कि मैं लंदन में पढ़ चुकी हूँ तो वह खु़श हो गई। मुझे ये भी लगा कि वह पढ़ाई में अच्छी है। काफ़ी ‘एवेयर’ है और ख़ासतौर पर पाॅलिटिक्स में काफी दिलचस्पी लेती है। लगता है उससे जल्दी ही अच्छी दोस्ती हो जाएगी। आज रात अपने घर खाने पर बुला रही थी लेकिन मैंने सोचा, नहीं इतनी तेज़ी से आगे बढ़ना ठीक नहीं हैं...अजनबी देस है और परदेसी लोग हैं...कुछ एहतियात नाम की भी तो चीज़ होती है।

नवजोत काफी स्मार्ट हैं। लगता है अच्छा जर्नलिस्ट बनने की बड़ी ख्वाहिश है उसके अंदर...कह रहा था मेरे साथ अजनाला के इलाके में चल सकता है। मैंने उसे कल सुबह आने के लिए कह दिया है। अब काम तो होना ही है।...ये कैसे हो सकता है कि शेर अली अजनाला इलाके़ के किसी गाँव में आसमान से टपका और मर गया और फिर मर कैसे गया? क्या पाकिस्तान से यहाँ मरने के लिए आया था? फिर पाकिस्तान से ही आया हो, ये भी तय नहीं है। ये बात तो अमृतसर की पुलिस कह रही है जिसका उनके पास खुद कोई पक्का सुबूत नहीं है...अब कल देखते हैं कि गाँवों में क्या बात बनती है।

अमृतसर ज़िले का नक़्शा बहुत तलाश करने पर भी नहीं मिला। बताया गया कि बार्डर ज़िला है इसलिए नक़्शा नहीं छपता। ये क्या बेवकूफी है। आजकल के जमाने में इस तरह की ‘इनफारमेशन’ को छुपाकर नहीं रखा जा सकता। शाम को ही मैंने ‘गूगलअर्थ’ खोलकर अमृतसर के बार्डर एरिया का पूरा नक़्शा डाउनलोड कर लिया है। मेरे पास एक-एक गाँव का नाम है और रोड मैप है। हाँ, हो सकता है रास्ते कच्चे हो।

नवीन गिल को पढ़ने में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं है। वैसे बातें काफी बड़ी-बड़ी कर रहा था लेकिन पता नहीं क्यों गाँव जाने के लिए कुछ तैयार होता नज़र नहीं आया। हो सकता है इसकी वजह कुछ और रही हो। प्रदीप महाजन ‘टिपीकल बिजनेस’ फैमिलीवाला लगा। खू़ब रख-रखाव...कीमती बै्रंडेड कपड़े और बार-बार अपनी खुली जीप का जिक्र कर रहा था। पर फिर भी लगता है वह बड़ी हद तक मदद कर सकता है। लेकिन मैं अभी किसी पर कोई दबाव या ज़ोर नहीं डालना चाहती। ये भी तय है कि इन लोगों की मदद के बगै़र ये स्टोरी हो भी नहीं सकती। पता  नहीं रज़्ज़ाक साहब को ये क्या सूझी कि एकदम से मुझे यहाँ भेज दिया। पहले दिल्ली में जावेद से कहते जो हमारे करेसपांडेंट हैं...अगर बात कुछ बनती नज़र आती तो किसी को भेजते। बहरहाल एडीटर-इन-चीफ हैं उनसे कौन क्या कह सकता है और फिर मेरे लिए, मेरे कैरियर के लिए ये बड़ी बात है। अगर ये स्टोरी हो जाती है तो जलने वाले जलकर राख हो जाएंगे।

सोनी चावला के बारे में अल्का बता रही थी कि बहुत अच्छा गाता है और ख़ासतौर पर शिव बटालवी के गीत तो ग़ज़ब गाता है। शिव बटावली का नाम सुनकर ही मेरे दिल की अजीब कैफियत होने लगी। लेकिन मैंने कुछ ज़ाहिर नहीं होने दिया। किसी दिन मौक़ा मिला तो सोनी को सुनूँगी।
रवि अरोड़ा को देखकर लगता है कि किसी बड़े बाप का बेटा है। कुछ अजी-सी अकड़ है उसके अन्दर लेकिन फिर भी अच्छा ही है।
जसबीर कौर काफी रोमांटिक लगती है। जोत की तरफ बडे़ मानीखेज़ अंदाज़ में देख रही थी। नीतू गुलाटी और सोनी में शायद गहरा रिश्ता है। बड़ी अदा के साथ अपनी आधी काॅफी सोनी की तरफ़ बढ़ा दी थी।

कुछ अजीब-सी ‘फिलिंग’ है। क्या अब मैं एक ‘फॉरेन कंट्री’ में हूँ। ये फॉरेन कंट्री है? और पाकिस्तान मेरा अपना मुल्क है। अब सवाल ये पैदा होता है कि यहाँ मुझे सब कुछ नया लगना चाहिए, ये ‘फॉरेन कंट्री’ है। लेकिन ऐसा तो नहीं है और अगर इंडिया ‘फॉरेन कंट्री’ नहीं लगता तो बड़े सिरियस सवाल उठ सकते हैं। उन सवालों के जवाब कौन देगा? ये सब लोग मेरे साथ पंजाबी बोलते हैं। बिल्कुल लाहौर वाली माझी पंजाबी बोलते हैं...ठीक है...दो मुल्कों की एक ज़बान हो सकती है जैसे इंग्लैंड और अमेरिका की ज़बान अंगे्रज़ी है...तो ज़बान से क्या फर्क पड़ता है। लेकिन पता नहीं क्यों मैं यहां पंजाबी नहीं बोलना चाहती। मैं इनकी बातों का जवाब उर्दू में देती हूँ। ये मुझे अच्छा लगता है...उर्दू में...

...दिन का सबसे बड़ा ‘एचीवमेंट’ ये रहा है कि काफी लिखा-पढ़ी और पुलिस के अनपढ़ अफसरों से बहस करने के बाद मुझे शेर अली की लाश देखने का मौक़ा मिल गया। ‘मारचरी’ में मैंने उसका चेहरा देखा। एक पक्के पंजाबी किसान का चेहरा है। चेहरे पर दाढ़ी, गाल धंसे हुए, चैड़ा जबड़ा, उभरी हुई हड्डिया, खड़ी नाक, आँखें लगता था बड़ी होंगी। गहरा साँवला रंग जो पता नहीं कितने सालों धूप में तपने, पानी में भीगने और ठंडी-गरम हवाओं के थपेड़े खा-खाकर बहुत पक्का पड़ गया था।

मुझे सिर्फ उसका चेहरा दिखाया गया। मैं चाहती थी वह हाथ भी देखूँ जिस पर उसका नाम शेर अली गुदा हुआ है लेकिन पुलिस के इंस्पेक्टर ने साफ मना कर दिया। बोला कि लाश का पोस्टमार्टम हो गया और अब सिर्फ़ चेहरा देखा जा सकता है। उसकी तस्वीर भी नहीं लेने दी।

पुलिस ने बताया कि पाकिस्तानी हाईकमीशन को फिर लिख दिया गया है कि शेर अली पाकिस्तानी है और उसकी लाश ले ली जाए। अब तक हाई कमीशन का जवाब नहीं आया है। लगता है वही जवाब आएगा जो पहले आया था।
(जारी)

© असग़र वजाहत 

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