“रामायण किसी ऐतिहासिक तथ्य पर आधारित नहीं है। यह एक कल्पना है। रामायण के अनुसार, राम न तो तमिल था और न ही तमिलनाडु का रहने वाला था। वह उत्तर भारतीय था। रावण लंका यानी दक्षिण यानी तमिलनाडु के राजा थे; जिनकी हत्या राम ने की। राम में तमिल-सभ्यता (कुरल संस्कृति) का लेश मात्र भी नहीं है। उसकी पत्नी सीता भी उत्तर भारतीय चरित्र की है। तमिल विशेषताओं से रहित है। वह उत्तरी भारत की रहने वाली थी। रामायण में तमिलनाडु के पुरुषों और महिलाओं को बन्दर और राक्षस कहकर उनका उपहास किया गया है।
रामायण में जिस लड़ाई का वर्णन है, उसमें उत्तर का रहने वाला कोई भी ब्राह्मण या आर्य (देव) नहीं मारा गया। एक आर्य-पुत्र के बीमारी के कारण मर जाने की कीमत रामायण में एक शूद्र को अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है। वे सारे लोग, जो इस युद्ध में मारे गए; वे तमिल थे। जिन्हें राक्षस कहा गया।”
- ई वी रामास्वामी पेरियार की अनूदित पुस्तक ‘सच्ची रामायण’ से
जब अन्नादुरइ को पेरियार ने कम्बण रामायण की आलोचना लिखने कहा, तो उन्होंने कई लेख लिखे। एक नाटक लिखा जिसमें रावण कम्बण को अपने बुरे चित्रण के लिए दोषी ठहरा रहे थे। लेकिन, अंत में अन्नादुरइ ने भी यह माना कि उनके लेख साहित्यिक आलोचना न होकर प्रोपोगेंडा मात्र हैं।
धर्म की आलोचना, ग्रंथों पर टीका-टिप्पणी भारत में नयी नहीं है। बुद्ध, महावीर, चार्वाक, शंकराचार्य से लेकर बसवेश्वर, नारायण गुरु, दयानंद सरस्वती जैसे दर्जनों विचारक हुए जिन्होंने अपने सिद्धांत या मंतव्य दिए और परंपराओं पर प्रश्न रखे। मगर यहाँ मैं तीन किताबों का ज़िक्र करुँगा, जो आर्य-द्रविड़ नैरेटिव के बाद उभरी।
पहली किताब ज्योतिबा फुले की ‘गुलामगिरी’ थी, जिसमें उन्होंने प्रश्नोत्तर शैली में तमाम देवी-देवताओं पर प्रश्न उठाते हुए शूद्रों के सामाजिक स्थान के कारण बताने के प्रयास किए। यह बमुश्किल सौ पृष्ठ की किताब है, और उसमें कम से कम एक स्थान पर तो आज का प्रचलित अपशब्द भी हिंदी अनुवाद में लिखित है।
दूसरी किताब अम्बेडकर की ‘रिडल्स ऑफ हिंदुइज्म’ है, जिसमें अधिक तार्किक स्तर पर प्रश्न रखे गए हैं। यह अंग्रेज़ी में है, तो इसकी पहुँच अधिक है। हालाँकि उनकी अन्य कुछ किताबों की तरह यह किताब भी लंबे समय तक प्रतिबंधित रही, और उनकी मृत्यु के दशकों बाद ही बाज़ार में आनी शुरू हुई।
तीसरी किताब पेरियार की है, जो इन तीनों किताबों में सबसे कमजोर और पतली है। मगर इस किताब ने हंगामा खूब खड़ा किया। यह किताब पढ़ कर यूँ लगता है जैसे आज-कल के व्हाट्सऐप्प फ़ॉर्वर्ड को जमा कर कुछ पन्ने भर दिए गए। इसकी भाषा उत्तर भारतीय हिंदुओं को बहुत चुभ सकती है।
यह राम के प्रति घृणा भले नहीं ला पायी, रावण के प्रति तमिलों में श्रद्धा ज़रूर पैदा की। कम्बण ने भी रावण को कुछ इज़्ज़त दी थी। उन्होंने सीता-हरण में यह वर्णन किया कि रावण ने उनको एक बार भी स्पर्श नहीं किया, और उनकी परिधि की पूरी जमीन काट कर उन्हें लंका ले गए। किंतु कम्बण ने राम को एक पुरुष नहीं भगवान का अवतार माना। इस मायने उन्होंने राम को वाल्मिकी रामायण से ऊँचे स्थान पर बिठाया।
अकादमिक दृष्टि से देखें तो पेरियार की किताब का कोई महत्व नहीं दिखता। उन्होंने हड़बड़ी में बिना संस्कृत और अंग्रेज़ी ज्ञान के, कुछ बिंदु उठा कर, यूँ ही लिख दिया। उसमें कई बाल-कौतुक जैसे प्रश्न भी हैं, जिसका सिर-पैर नहीं। राजनैतिक दृष्टि से देखें तो यही किताब दलित राजनीति के लिए बहुत काम की बन जाती है। इसमें अम्बेडकर जैसे तर्क न होकर ‘ट्रॉल’ सामग्री है। हिंदी में शीर्षक ‘सच्ची रामायण’ रख देना इस चालीस-पचास पृष्ठ की मूल सामग्री को ख़्वाह-म-ख़्वाह प्रामाणिकता देने का प्रयास करती है। जबकि पेरियार स्वयं इसी पुस्तक की पहली पंक्ति में रामायण को एक मिथक मानते हैं।
जैसा मैंने पहले जिक्र किया, यह किताब उन परिस्थितियों में सामने आयी, जब ‘द्रविड़स्तान’ की माँग को पुख़्ता बनाया जा रहा था। इसका मूल ही एक प्रोपोगेंडा था। अगर यह किताब संस्कृत सीख कर, रामायण की मूल या अन्य अनूदित प्रति जाँच कर, सभी सर्गों की व्याख्या करते हुए लिखी जाती, तो इसका महत्व कुछ और होता। खैर, इसका दशांश परिश्रम तो वे भी नहीं करते, जो रामायण की निंदा के लिए पेरियार को अपशब्द कहते हैं।
इस रामायण के बाद तमिल हिंदू जनमानस रामायण से दूर जाने के बजाय, इसे पढ़ने लग गया। राजगोपालाचारी ने भी राम पर पुस्तक लिखी थी- चक्रवर्ती तिरुमुगन (राजा का बेटा)। वहाँ उन्होंने राम की महिमा लिखी थी। आज तमिलनाडु में प्रचलित नाम मुरुगन, सुब्रह्मण्यम, लक्ष्मी, सीताराम, रमेश (रामेश्वर से), धनुष, अधिकांश में देवताओं या राम की छाप है। स्वयं रामास्वामी का नाम उन्हीं पर था, और यह नाम भी दक्षिण में लोकप्रिय है।
इतने राम या देवी-देवता नाम के बच्चे तो संभवत: उत्तर भारत में एक साथ न हों, जितने मद्रास की एक गली में मिल जाएँ। ऐसा करने के लिए किसी रामराज्य या हिंदुत्ववादी आंदोलन की ज़रूरत नहीं पड़ी। तो यह कैसे संभव हुआ?
इस बिंदु पर लौटने से पहले सेलम चला जाए। वहाँ ‘द्रविड़ कड़गम’ नामक एक दल तैयार हो रहा था, जिसकी दो शाखाएँ पिछले पाँच दशकों से तमिलनाडु पर राज कर रही है।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
दक्षिण भारत का इतिहास - दो (16)
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