Monday, 20 December 2021

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास - भूमिका


तमिल प्रदेश में उत्तर भारतीय कई कारणों से जाते होंगे। मंदिरों में तीर्थ करने। चेन्नई की किसी कंप्यूटर कंपनी में नौकरी करने। किसी सरकारी पोस्टिंग में। शिवकाशी के पटाखा उद्योग में। कोयंबतूर के गुजरातियों और मारवाड़ियों की फैक्ट्री में। सलेम के कारखानों में।

तिरुपुर में मैंने एक बिहार के व्यक्ति से पूछा कि आप यहाँ कैसे। उसने कहा कि गाँव के एक भाई ने नौकरी लगवा दी।

मैंने पूछा, “अंग्रेज़ी आती है?

उसने कहा, “अंग्रेज़ी तो मुश्किल है। इसलिए, तमिल सीख ली।”

एक ‘ब्लू कॉलर जॉब’ में लगे निरक्षर व्यक्ति ने तमिल सीख ली। लेकिन, वहीं चेन्नई में दस वर्षों से ‘वाइट कॉलर जॉब’ कर रहे एक उत्तर भारतीय ने कहा कि उन्होंने एक ही पंक्ति सीखी है- ‘तमिल तेरियातु’ (तमिल नहीं आती)।

तमिल नहीं आती, तो तमिल प्रदेश को समझा नहीं जा सकता। न ही उस विषय में विश्वसनीयता से लिखा जा सकता है। एक उत्तर भारतीय के लिए तो इसलिए भी कठिन है, क्योंकि पूर्वाग्रह या प्रतिरोध अंतर्निहित हो सकता है। श्रेष्ठता-बोध भी हो सकता है, और तमिलों के हिंदी-विरोधी होने की वजह से चिढ़ भी। मेरे लिए रूस, यूरोप, अमरीका या पाकिस्तान पर लिखना जितना सहज रहा, उतना तमिलों पर लिखना शायद न हो।

मैंने अलग-अलग समय तमिलनाडु को फौरी तौर पर देखा। पहले मद्रास को, और 1996 के बाद से चेन्नई को। सुविधा यह थी कि बहुत कुछ अपने आकार से बड़ा दिख रहा था। जैसे पूरी संस्कृति किसी ने ‘ज़ूम’ कर रखी हो। आपको यह पूछने की आवश्यकता नहीं कि सरकार किसकी है। जिस नेता के आदम-कद से भी कहीं ऊँचे पोस्टर पूरे शहर में लगे हों, सरकार उसी की है।

दो दशकों तक वहाँ कृष्ण पक्ष-शुक्ल पक्ष की तरह काला चश्मा लगाए मुस्कुराते करुणानिधि की तस्वीर, और हरी साड़ी में जयललिता की तस्वीर अदल-बदल कर आती रही। इन दो तस्वीरों से जैसे इस प्रदेश का संपूर्ण राजनीतिक इतिहास सामने आ जाता है। न सिर्फ़ इस प्रदेश का, बल्कि संपूर्ण भारत का। नस्ल, जाति, धर्म, भाषा और संस्कृति का।

इनमें एक स्वयं को हिंदू ब्राह्मणी कहती रही, और दूसरे इन दोनों शब्दों यानी ‘हिंदू’ और ‘ब्राह्मण’ पर प्रश्न उठाने वाली विचारधारा के रहे। एक मूर्तिपूजक, तो दूजे मूर्तिभंजक विचारधारा के। सवर्ण-दलित राजनीति तो उत्तर भारत में भी खूब चली, लेकिन दक्षिण में यह उनके तमाम विशाल पोस्टरों की तरह ‘ज़ूम मोड’ में है।

यह कहानी फ़िल्मी नहीं, इसके सभी किरदार भी फ़िल्मी हैं। जैसे उन पोस्टरों से निकल कर हीरो-हीरोइन बाहर आ गए हों। रोमांस, ड्रामा, ऐक्शन करने लगे हों।

एक उत्तर भारतीय वहाँ खड़ा उन पर तंज कर रहा है, “द्रविड़ों! तुम लोग श्रीलंका में अलग देश मांगते हो। भारत में अलग देश क्यों नहीं माँगते?”

वह उत्तर देता है, “आर्यों! यह देश तो सदा से हमारा है। हमारे मूल में कोई संदेह नहीं। तुम्हारे मूल पर संदेह है कि तुम कब और कहाँ से आए।”

तमिल राजनैतिक इतिहास ऐसे और इससे कहीं अधिक असहज प्रश्नों से होकर गुजरता है, जिस पर प्रत्युत्तर की तीव्र इच्छा होगी। कुछ का खून भी खौल सकता है, और कुछ मुझ पर ही बरस सकते हैं।

जब हम चेन्नई में ताज़ा-ताज़ा लगी एम के स्टालिन के पोस्टर से इतिहास में पीछे लौटेंगे। जब हम लौटेंगे उस व्यक्ति के पास, जिनकी मृत्यु पर लगी भीड़ पूरी दुनिया का ‘गिनीज़ रिकॉर्ड’ रही है। या उस ई. वी. रामास्वामी के पास, जिन्हें लोग पेरियार के नाम से जानते हैं।
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

#DravidaHistory
#vss

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