Wednesday, 31 March 2021

जीसस का पुनरागमन

दोस्तोवस्की ने एक छोटी—सी कथा लिखी है। लिखा है कि जीसस के मरने के अठारह सौ वर्ष बाद जीसस को खयाल आया कि मैं पहले जो गया था जमीन पर, तो बेसमय पहुंच गया था। वह ठीक वक्त न था, लोग तैयार न थे और मुझे मानने वाला कोई भी न था। मैं अकेला ही पहुंच गया था। और इसलिए मेरी दुर्दशा हुई; और इसलिए लोग मुझे स्वीकार भी न कर पाए, समझ भी न पाए। और लोगों ने मुझे सूली दी, क्योंकि लोग मुझे पहचान ही न सके। अब ठीक वक्त है। अगर मैं अब वापस जमीन पर जाऊं, तो आधी जमीन तो ईसाइयत के हाथ में है। हर गांव में मेरा मंदिर है। जगह— जगह मेरे पुजारी हैं। जगह—जगह मेरे नाम पर घंटी बजती है, और जगह—जगह मेरे नाम पर मोमबत्तियां जलाई जाती हैं। आधी जमीन मुझे स्वीकार करती है। अब ठीक वक्त है, मैं जाऊं।

और जीसस यह सोचकर एक रविवार की सुबह बैथलहम, उनके जन्म के गांव में वापस उतरे। सुबह है। रविवार का दिन है। लोग चर्च से बाहर आ रहे हैं। प्रार्थना पूरी हो गई है। और जीसस एक वृक्ष के नीचे खड़े हो गए हैं। उन्होंने सोचा है कि आज वह अपनी तरफ से न कहेंगे कि मैं जीसस क्राइस्ट हूं। क्योंकि पहले एक दफा कहा था, बहुत चिल्लाकर कहा था कि मैं जीसस क्राइस्ट हूं; मैं ईश्वर का पुत्र हूं मैं तुम्हारे लिए संदेश लेकर आया परम जीवन का, और जो मुझे समझ लेगा, वह मुक्त हो जाएगा, क्योंकि सत्य मुक्त कर देता है। लेकिन इस बार, अब तो वे लोग मुझे वैसे ही पहचान लेंगे, घर—घर में तस्वीर है। अब तो कोई जरूरत न होगी मुझे घोषणा करने की। वे चुपचाप खड़े रहे।

लोगों ने पहचाना जरूर, लेकिन गलत ढंग से पहचाना। भीड़ इकट्ठी हो गई, और लोग हंसने लगे, और मजाक करने लगे। और किसी ने कहा कि बिलकुल बन—ठन कर खड़े हो! बिलकुल जीसस जैसे ही मालूम पड़ते हो! खूब स्वांग रचा है! अभिनेता कुशल हो, जरा भी भूल—चूक निकालनी मुश्किल है!

जीसस को कहना ही पड़ा कि तुम गलती कर रहे हो। मैं कोई अभिनय नहीं कर रहा हूं। मैं वही जीसस क्राइस्ट हूं जिसकी तुम पूजा करके बाहर आ रहे हो। तो लोग हंसने लगे और उन्होंने कहा कि जल्दी से तुम यहां से भाग जाओ, इसके पहले कि मंदिर का प्रधान पुरोहित बाहर निकले। नहीं तो तुम मुसीबत में पड़ोगे। और रविवार का दिन है, चर्च में बहुत लोग आए हुए हैं, व्यर्थ तुम्हारी मारपीट भी हो जा सकती है। तुम भाग जाओ।

जीसस ने कहा, क्या कहते हो, ईसाई होकर! पहली दफा जब मैं आया था, तो यहूदियों के बीच में आया था, कोई ईसाई न था; तो मुझे कोई पहचान न सका। यह स्वाभाविक था। लेकिन तुम भी मुझे नहीं पहचान पा रहे हो!

और तभी पादरी आ गया। चर्च के बाहर और लोग आ गए और बाजार में भीड़ लग गई। जीसस पर जो लोग हंस रहे थे, वे जीसस के पादरी के चरणों में झुक—झुक कर नमस्कार करने लगे! लोग जमीन पर लेट गए। बड़ा पादरी! बड़ा पुरोहित मंदिर के बाहर आया है!

जीसस बहुत चकित हुए। फिर भी जीसस के मन में एक आशा थी कि लोग भला न पहचान पाएं, लेकिन मेरा पुजारी तो पहचान ही लेगा! लेकिन पादरी के जब लोग चरण छू चुके, और उसने आंखें ऊपर उठाकर देखा, तो कहा कि बदमाश को पकड़ो और नीचे उतारो! यह कौन शरारती आदमी है? जीसस एक बार आ चुके, और अब दुबारा आने का कोई सवाल नहीं है।

लोगों ने जीसस को पकड़ लिया। जीसस को अठारह सौ साल पहले का खयाल आया। ठीक ऐसे ही वे तब भी पकडे गए थे। लेकिन तब पराए लोग थे और तब समझ में आता था। लेकिन अब अपने ही लोग पकडेंगे, यह भरोसे के बाहर था। और जीसस को जाकर चर्च की एक कोठरी में ताला लगाकर बंद कर दिया गया। आधी रात किसी ने दरवाजा खोला, कोई छोटी—सी लालटेन को लेकर भीतर प्रविष्ट हुआ। जीसस ने उस अंधेरे में थोड़े से प्रकाश में देखा, पादरी है, वही पुरोहित!

उसने लालटेन एक तरफ रखी, दरवाजा बंद करके ताला लगाया। फिर जीसस के चरणों में सिर रखा और कहा कि मैं पहचान गया था। लेकिन बाजार में मैं नहीं पहचान सकता हूं। तुम हो पुराने उपद्रवी! हमने अठारह सौ साल में किसी तरह व्यवसाय ठीक से जमाया है। अब सब ठीक चल रहा है, तुम्हारी कोई जरूरत नहीं; हम तुम्हारा काम कर रहे हैं। तुम हो पुराने उपद्रवी! अगर तुम वापस आए, तो तुम सब अस्तव्यस्त कर दोगे, तुम हो पुराने अराजक। तुम फिर सत्य की बातें कहोगे और सब नियम भ्रष्ट हो जाएंगे। और तुम फिर परम जीवन की बात कहोगे, और लोग स्वच्छंद हो जाएंगे। हमने सब ठीक—ठीक जमा लिया है, अब तुम्हारी कोई भी जरूरत नहीं है। अब तुम्हें कुछ भी करना हो, तो हमारे द्वारा करो। हम तुम्हारे और मनुष्य के बीच की कड़ी हैं। तो मैं तुम्हें भीड़ में नहीं पहचान सकता हूं। और अगर तुमने ज्यादा गड़बड़ की, तो मुझे वही करना पड़ेगा, जो अठारह सौ साल पहले दूसरे पुरोहितों ने तुम्हारे साथ किया था। हम मजबूर हो जाएंगे तुम्हें सूली पर चढ़ाने को। तुम्हारी मूर्ति की हम पूजा कर सकते हैं और तुम्हारे क्रास को हम गले में डाल सकते हैं, और तुम्हारे लिए बड़े मंदिर बना सकते हैं, और तुम्हारे नाम का गुणगान कर सकते हैं, लेकिन तुम्हारी मौजूदगी खतरनाक है।

जब भी ईश्वर अपने परम ऐश्वर्य में कहीं प्रकट होगा, तब उसकी मौजूदगी खतरनाक हो जाती है। वे जो हमारे क्षुद्र अहंकार हैं, उन क्षुद्र अहंकारों को बड़ी पीड़ा शुरू हो जाती है। जब भी विराट ईश्वर सामने होता है, तो हमारा क्षुद्र अहंकार बेचैन हो जाता है। हम मरे हुए ईश्वर को पूज सकते हैं, जीवित ईश्वर को पहचानना मुश्किल है।

( ओशो )

ग़ालिब - करे है सर्फ ब ईमाए शोला / kare hai sarf ba iimaa'e sholaa - Ghalib / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 120.
करे है सर्फ ब ईमाए शोला किस्सा  तमाम,
बतर्ज़ अहले फ़ना है, फ़सानाख़्वानीए शम्म'आ !!

Kare hai sarf ba iimaae sholaa kissaa tamaam,
Batarz ahale fanaa hai, fasaanaa'khwaanii'e shamm'aa  !!
- Ghalib

प्रेम के सारे किस्से कहानियां, दीपक, अपनी प्रज्वलित लौ द्वारा ही अभिव्यक्त कर देता है। इश्क़ में फ़ना हो जाने, यानी प्रेम में मर मिटने वालों के साथ ही,  उनके किस्से तो तमाम हो जाते हैं, पर वे ही नातमाम किस्से, लोगो के जेहन और दिमाग पर अमर भी हो जाते हैं। दीपक की लौ जो कहानी कह रही है, उसका अंत ही, फ़ना हो जाने पर हैं।

दुनियाभर की प्रसिद्ध प्रेम कहानियों का अंत दुःखद होता रहा है। उन कहानियों की खूबसूरती उनके दुःखान्त होने में हैं। वे कहानियां दुःख के समंदर में डूब कर दंतकथाओं की तरह फैल जाती हैं और फिर साहिल से टकराती लहरें, बार बार उन्हें दुहराती हैं। किस्सो का यूँ लब ब लब फैलते जाना ही उन कहानियों की अमरता का प्रमाण है। वे चाहे लोकगीतों या लोक कथाओं में बरबस छू लेने वाली खुनक हवाओ की तरह हों या फिल्मों में जी गयी प्रेम कथाएं, मन मे आलोड़न के कई दर्द दे कर रह जाती है। याद उनकी बनी रहती हैं। 

इश्क़ में फ़ना होने की तरह, दीपक की प्रकम्पित लौ का प्रतीक और रूपक ऐसी ही अधूरी प्रेम कथाओं की बात, ग़ालिब का यह शेर करता है। दीपक की लौ, उसके इर्दगिर्द मंडराने वाले परवानों के फ़ना हो जाने की आदत को, रेखांकित करता है। शमा और परवाना, प्रेम का एक लोकप्रिय प्रतीक है। न जाने कितने गीत, कितने किस्से इस प्रतीक से बाबस्ता हैं। इस शेर में भी यही कहा गया है कि, दीपक की प्रज्वलित शिखा यानी जलती हुयी लौ, इश्क़ के किस्सों की तरह है। प्रकम्पित दीप शिखा या हिलती हुयी लौ, ये वे प्रेम कथाएं हैं जिनपर परवाने, प्रेमी या प्रेमिका, निसार हो जाते हैं।

इश्क़ के बारे में ग़ालिब की यह पंक्तियां पढ़े, 

जान तुम पर निसार करते हैं,
हम नहीं जानते वफ़ा क्या है !!

यह पंक्तियां उनके एक बेहद खूबसूरत ग़ज़ल की हैं। वफ़ा यानी प्यार का कोई अर्थ होता है क्या ? होता होगा। वह तो हमें नहीं मालूम, बस यह मालूम है कि हम तुम पर अपनी जान निसार, न्योछावर करते हैं। अब यह वफ़ा है या इश्क़ या प्रेम, यह हमें नहीं पता। यह बात इश्क़ हक़ीक़ी दैविक प्रेम के बारे में है या इश्क़ मजाज़ी दैहिक प्रेम के बारे में है, इसका निर्णय तो पाठक को ही करना है, पर शमा परवाना का प्रतीक, आध्यात्मिक प्रेम या सूफियाना इश्क़ का भी सबसे चहेता रूपक और प्रतीक है।

अरब की लोककथा में लैला - मजनू, (मजनू तो कैस की दीवानगी से उसे कहा जाने लगा था) फ़ारसी की अमर प्रेम कथा, शीरी फरहाद, या पंजाब की सदाबहार लोक गाथाए सोहनी महिवाल, सस्सी पुन्नू और हीर रांझा, यह सब अधूरी पर अमर प्रेम कथाएं रही हैं। यह सच मे घटी कोई कहानियां हैं या प्रेम के प्रति सदैव निष्ठुर भाव रखने वाले समाज को एक्सपोज करने वाली कल्पना प्रसूत कहानियां, यह मुझे नहीं पता है, पर लोक मन मे बसी यह कहानिया आज भी समाज के नैतिकता के मानदंड पर कुछ कुछ खरी उतरती है। हॉनर किलिंग की घटनाओं के संदर्भ में इसे देखें। यह सारी कथाएं, ग्रीक ट्रेजडी की तरह दुःखान्त हैं। इन प्रेम कथाओं की खूबसूरती ही इनका अंजाम तक न पहुंचना यानी वियोग रहा है। यह एक टीस के साथ खत्म होती हैं और तीरे नीमकश की तरह हर पल याद आती रहती है।

अमीर खुसरो सूफी परंपरा के एक महान कवि और उन्हें क़व्वाली का जन्मदाता माना जाता है। कहते हैं, सूफी संतों की मज़ारो और खानकाहों पर कव्वाली और नात ( ईश्वर और पैगम्बर की प्रशंसा में गाया जाने वाला गीत संगीत ) गाने की परंपरा उन्होंने ही शुरू की थी। आज भी दिल्ली के हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में, जाते समय पहले ग़ालिब की मजार पड़ती है और अंदर दरगाह के पास अमीर खुसरो और तब हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह है। पहले अमीर खुसरो के दर पर हाज़िरी दी जाती है और तब हज़रत निज़ामुद्दीन की दरगाह पर लोग जाते हैं। उन्ही अमीर खुसरो का यह खूबसूरत दोहा है,

खुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी वा की धार,
जो उबरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार !!

यहां भी ग़ालिब के शेर की ही तरह, इश्क़ की पूर्णता फ़ना या समर्पित हो जाने में है। प्रेम की इसी बारीकी को, ग़ालिब ने दीपक की प्रकम्पित लौ के रूपक से व्यक्त किया है।

( विजय शंकर सिंह )

Tuesday, 30 March 2021

ग़ालिब - करे है बादा तेरे लब से / Kare hai baadaa tere lab se - Ghalib / विजय शंकर सिंह


ग़ालिब - 119.
करे है बादा तेरे लब से, कस्बे रंगे फू रोग
खते पियाला सरासर निगाहें गुलचीं है !!

Kare hai baadaa, tere lab se, kasbe range fuu rog
Khate piyaalaa saraasar nigaahen gulchiin hai !!
- Ghalib

मधु तेरे होंठों के स्पर्श से और भी मदिर हो गया है। मधु चषक, (शराब के प्याले) पर खिंची हुयी रेखाएं, फूल चुनने वाले व्यक्ति के पारखी आंखों से की तरह, उक्त चषक में भरी मदिरा की मादकता को और भी बढ़ा दे रही हैं।

इस शेर में मदिरा यानी मधु, जब पीने वाले के सुंदर अधरों को स्पर्श करती है तो उसका माधुर्य और बढ़ जाता है। यदि मदिरा में नशा है तो उसका पान करने वाले होंठों में भी कम नशा नही है। साथ ही प्याले पर जो खूबसूरत नक्काशी है, वह भी ऐसा ही है जैसे, किसी गुलचीं, ( फूल चुनने वाले ) ने, बेहत इत्मीनान और हुनरमंदी से उन्ही फूलों को चुना हो जिंसमे, सुगंध और नशा अधिक है।

शराब, मिर्ज़ा ग़ालिब की कमज़ोरी थी, और शौक़ भी। शराब, साकी, प्याला, आदि के जो भी प्रतीकात्मक सूफियाना अर्थ हों, उससे अलग होकर ग़ालिब की जीवन यात्रा पर नज़र डालें तो शराब ने उन्हें तबाह ही किया है। ग़ालिब का कलाम सूफियाना असर लिये हुए होता है। वे रुमी, उमर खैयाम, आदि महान सूफी शायरों के प्रतीकों को अपनी शायरी में, अक्सर इस्तेमाल करते नज़र आते हैं, पर, आदत में बैठ चुकी इस शराबनोशी का, उन्हें मलाल भी रहा है। वे कहते भी है,

ये मसाइले-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान ग़ालिब,
तुझे हम वली समझते जो न बादाख़्वार होता !! 

यानी वे एक संत की ही तरह समझे जाते, यदि वे शराब न पीते होते तो। क्योंकि बातें तो वे वली यानी सूफी संतों की तरह ही करते हैं।  

अधरों के माधुर्य की थीम पर उर्दू का एक और खूबसूरत शेर, रियाज़ खैराबादी का भी है। उसे पढिये, 

ऐसी दो आतशा मय ए गुलगूँ कहां नसीब,
आदत बुरी पड़ी तेरी जूठी शराब की !!

ऐसी दो बार खिंची हुयी शराब (आसुत मदिरा ) कहां मेरे नसीब में है, पर मेरी आदत तो तेरे होंठों से लग कर पी हुयी जूठी मदिरा का पान करने की पड़ी है।

एक तो मदिरा का अपना नशा और दूसरे प्रेमिका के नशीले होंठों से स्पर्श से द्विगुणित उस प्याले में भरी शराब का नशा, ग़ालिब ने इसे ही बेहद खूबसूरती से बयां किया है। यही ग़ालिब की अंदाज़ ए बयानी है और यही उन्हें सबसे अलग करती भी है।

( विजय शंकर सिंह )

फासिस्ट यातना के सामने परिहास

हिटलर के यातना शिविर में यहूदी कैदियों को गोली मार देने का हुक्म आया।
अचानक, आखिरी समय में निर्देश हुआ कि गोली से नहीं, फांसी देकर उन्हें मारा जाएं।

एक कैदी ने हँसते हुए कहा – वाह! सालों के पास गोलियां खत्म हो गयी हैं।'

मेरी नज़र में यह कोई साधारण-सा चुटकुला नहीं है। इसका आखिरी वाक्य ईश्वर की किताब के उद्धरण जैसा है। मौत से ठीक पहले एक ऐसा परिहास जो उम्मीद की रोशनी कायम रखता है। सामने दिख रही मौत पर भी हँसा जा सकता है और हँसना एक तानाशाह को हमेशा असहज कर देता है।

दूसरे विश्वयुद्ध से जुड़ा इतिहास या साहित्य पढ़ने वक्त या उस दौर पर बनी फिल्में देखते वक्त मैं कई बार बेचैन हो जाता हूँ। इतने व्यापक नरसंहार और उससे भी बढ़कर उसके पीछे छिपा एक बहुत सोचा-समझा विचार मुझे हतप्रभ कर देता है। कई बार मन में निराशा सी उपजती है और लगता है कि मनुष्यता के भविष्य को लेकर बहुत आशावान नहीं हुआ जा सकता है। मगर एक छोटी सी चीज मुझे इस गहरी निराशा में उम्मीद की तरह नजर आती है और वह है इंसान की हर परिस्थितियों में हँसने की क्षमता।

नाजी जर्मनी में कई चुटकुले प्रचलित थे, जिनको 'व्हिस्पर जोक्स' कहा जाता था। यह बात रोमांचित कर देती है कि घेट्टो और कन्सनट्रेशन कैंप में मौत का इंतजार करते लोगों का सेंस ऑफ ह्यूमर खत्म नहीं हुआ था। होलोकास्ट की पुरानी तस्वीरों में कंटीले तारों के पीछे मुस्कुराते हुए बच्चे दिखते हैं। क्या पता इसके तुरंत बाद उन्हें गैस चेंबर में ले जाया गया हो। मज़ाक उनके लिए एक सरवावइल मैकेनिज़्म था कि वे कहीं मौत आने से पहले न मर जाएं। अगर हमारे भीतर हँसने की ताकत है तो हम ज़िंदा हैं। इस किस्म के कुछ 'व्हिस्पर जोक्स' को आगे देखा जा सकता है।

'एक बार हिटलर अपने सहयोगियों के साथ एक पागलखाने को देखने गया।
वहां पर सभी पागल 'हेल हिटलर, हेल हिटलर’ का शोर करते हुए हिटलर का अभिवादन कर रहे थे। लेकिन उनमें से एक ने ऐसा नहीं किया।

हिटलर ने उससे पूछा, तुम क्यों सलाम नहीं कर रही?

उसने कहा, ‘सर, मैं यहां नर्स हूं, पागल नहीं हूं…’
--- 
'हिटलर और गोअरिंग बर्लिन के एक ऊंचे टावर पर खड़े पूरे शहर को देख रहे थे।

हिटलर ने पूछा, ‘गोअरिंग, मैं इस शहर के तमाम नागरिकों को खुशी से भर देना चाहता हूं। बोलो क्या करूं?’

गोअरिंग ने कहा, ‘फ्युह्रर, अभी इस टावर से नीचे कूद जाओ…’
---
'एक जहाज, जिस पर हिटलर, गोअरिंग और गोएबल्स बैठे हुए थे, अचानक भयंकर समूद्री तूफान में फंस गया।

जहाज के क्रू से लोगों ने कहा, ‘अब तो सब खत्म हो जाएगा।’
क्रू के सदस्यों ने कहा, ‘नहीं, जर्मनी बच जाएगा…’

सन् 1943 में टावर से कूद जाने वाला चुटकुला सुनाने पर एक महिला को मौत की सजा सुनाई गई थी। गिलेटन पर उसका सर धड़ से अलग कर दिया गया। सजा सुनाते वक्त नाजियों पर इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा कि उस महिला का पति हिटलर की सेना एक वफादार सौनिक था जो युद्ध में मारा गया था।

जिन हालात में इन चुटकुलों को गढ़ा, सुना-सुनाया और उन पर हँसा जा रहा होगा, वह जीवन के प्रति आपका नजरिया बदल देते हैं। निराशा और हास्य, भय, आतंक और परिहास के इस मेल को आप महसूस कर पाते हैं तो शायद आप एक बेहतर मनुष्य हो रहे होते हैं।

जर्मन इतिहासकार और फिल्ममेकर रुडोल्फ हरजौग ने उस दौर में कहे गए चुटकुलों का अपनी किताब 'Dead Funny: Telling Jokes in Hitler's Germany' में उस दौर में पॉपुलर इन चुटकुलों का ऐतिहासिक विश्लेषण प्रस्तुत किया है। हिटलर के लिए काम कर रहे जर्मन लोगों के बीच भी ऐसे कई चुटकुले प्रचलित थे।

हरजौग कहते हैं कि ये चुटकुले बताते हैं कि सभी जर्मन नाजी प्रोपोगैंडा मशीन से सम्मोहित नहीं थे। हास्य एक बहुत बड़े प्रतिरोध का काम करता है। हरजौग ने नाजी जर्मनी में ह्यूमर पर 'Laughing With Hitler' नाम से एक डाक्यूमेंट्री भी बनाई है। जिसे बीबीसी और जर्मनी के चैनल वन पर बड़ी संख्या में लोगों ने पसंद किया था।

कठिन समय में हँस पाना इंसान और इंसानियत दोनों को ज़िंदा रख पाता है।
●●● 

Monday, 29 March 2021

ग़ालिब - करते हो मुझ को / Karte ho mujh ko - Ghalib / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 118.
करते हो मुझ को मानअए क़दम बोस किस लिए,
क्या आसमान के भी बराबर नहीं हूं मैं !!

Karte ho mujh ko maan'a'e qadam bos kis liye,
Kyaa aasmaan ke bhi baraabar nahin hun main !!
- Ghalib

हे ईश्वर, तुम मुझे अपने चरणों के चुम्बन से क्यों रोकते हो। क्या मुझे आकाश के बराबर भी नहीं समझते, जिसे कि तुमने चरण चुम्बन की छूट दे रखी है।

ग़ालिब का यह शेर, उनकी एक ग़ज़ल का अंश है। यह ग़ालिब की आध्यात्मिक रुझान को प्रदर्शित करते हुए लिखा गया है। इस शेर में भी ग़ालिब का स्वाभिमान साफ साफ दिख रहा है। वे खुद को भी आसमान से कमतर नहीं देखना चाहते हैं। धरती की धूल और ईश्वर के समक्ष नगण्य भाव के प्रदर्शन की बजाय वे यही कहते हैं कि तुम आसमान को तो अपने कदम चूमने की इजाज़त देते हो, पर मुझे नहीं। फिर आगे कहते हैं, क्या मैं आसमान से भी कमतर हूँ। अनेक अभावों, कठिनाइयों और मुसीबत भरी जिंदगी के बावजूद, ग़ालिब ने अपने आत्मसम्मान को सदैव बनाये रखने की कोशिश की है। ईश्वर के समक्ष भी वे दीन हीन और तुच्छ भाव से रूबरू नहीं होना चाहते हैं !

( विजय शंकर सिंह )

What Sir Syed Would Do ?

Sir Syed Ahmad Khan has, arguably, been the only true thinker among the Indian Muslims in a very long time. Others have either been maulvis or poets, or poet-maulvis, or maulvi-poets. He was a prosaic pragmatist who made practical prescriptions for dragging his qaum out of the despondency, in which they had been wallowing. He had the insight to know what had gone wrong, and pragmatism to suggest what was needed to be done. Even as a Biryani-Sherwani festival is celebrated every year on 17 October to mark his birth anniversary, Syed Ahmad Khan’s religio-philosophical ideas, social thoughts, political attitude and educational endeavours remain buried under tonnes of prejudices of his professed devotees.

If he were alive today, notwithstanding the evolution he would have undergone in the intervening period, the concerns that prematurely greyed his hairs would continue to give him sleepless nights because his qaum (community) remains in the same state as it once was — enamoured of the past, resentful of the present, and fearful of the future. Therefore, in order to assay Syed Ahmad Khan’s relevance, it would be pertinent to speculate what he would do today, if he were amongst us.

● Hindutva, from Sir Syed’s prism

Islam may not be a political religion, but Muslims have a religious passion for politics. So, let’s surmise his response to Hindutva. Would he go on a path of confrontation or conciliation?

Probably, he would do now what he did then to placate the British hostility post 1857, the first war of Independence. His pragmatic wisdom made him urge Muslims into political celibacy, for rubbing the British on the wrong side again would have brought untold misery, far in excess of what had just befallen them. Today, depoliticisation would be an ineluctable imperative for sailing through the tide of Hindutva.

Muslims played the role of enthusiastic volunteer mercenaries for some political parties when the Hindu society was caught in the throes of caste politics. The matter pertained to their internal readjustment of power, but the Muslims got identified as a motivated vote bank. This led to a counter consolidation in which, ironically, those very segments that had risen to power on the back of the Muslim vote played a major role.

In the face of this subaltern ferocity, Sir Syed would advise them political quietude. He would be frightened of the suicidal imprudence of vituperative religio-political rhetoric, which has been the hallmark of the Muslim public discourse; and considering how perceptive he was, he would look askance at their expedient constitutionalism, best illustrated in the Preamble reading chorus. He would caution Muslims against going on a self - defeating offensive on such embarrassing issues as Shah Bano and Triple Talaq. Sir Syed had chafed under the hostility of the orthodoxy. He had to capitulate before them, and abandon the agenda of social reform, in order to neutralise their opposition to his college. He would regret it, and try to seize the initiative from their hands. Albeit late, the Muslims wouldn’t be denied their own Raja Ram Mohan Roy.

● Sir Syed and Sachar Committee report

The 2006 Sachar Committee report should have sent shock waves across the Muslim community, since it showed that they had slid lower than the lowest in some indices. Instead, these findings were welcomed with much malicious glee, insofar as it gave them a stick to beat the State with, for discriminating against them. This report became the canon of victimology.

Having preached political quietude to stay afloat in the rough waters of the Rightist rage, Sir Syed would look inwards, and be shocked at the derelict state of the community. He wouldn’t use these data for recriminatory rejoicing. He didn’t when in 1871, William Hunter’s book — The Indian Musalmans: Are They Bound in Conscience to Rebel Against the Queen? — was published. Sir Syed published an extensive review of it, expostulating against the aspersion inherent in the subtitle. Today, he might bring out a revised edition of The Loyal Mohammadans of India.

One of the findings in Hunter’s book was that the Muslims had begun to lag in modern education and state employment in Bengal. Sir Syed extrapolated this data to the rest of the country, and launched an educational mission that fructified in Muhammadan Anglo-Oriental (MAO) College, and Muhammadan Educational Conference. He didn’t go on a madrasa-building spree while fulminating against the government for not building colleges for the Muslims. Today, he would revive the Muhammadan Educational Conference as the National Educational Conference, and launch a countrywide movement for education for everyone, not for the Muslims alone. Since he preferred communitarian effort in education, he wouldn’t look for the government aid to run these institutions.

● MAO College

If Sir Syed were to establish an educational institution today (and he wouldn’t be content with just one), the same impulse that drove him in 1877 to decide on the name Muhammadan Anglo-Oriental College, would make him name it Indo-Islamic National University, to reflect Islam’s fusion into the Indian nationhood. Having learnt from experience, he wouldn’t keep its scope confined to creating job eligibility for the scions of the decadent Muslim aristocracy. Neither would he cede any grounds to the orthodoxy. It would have become clear to him that modern education had to be imbibed in the spirit of humanism and enlightenment. Bereft of this, it would be like the razor in a monkey’s hands. The community and the country have suffered many cuts. Promotion of liberal education for salvaging the interests of a degenerate gentry was bound to entrench their sense of entitlement and put them on the path of selfish and separatist politics.

● Islam today

Sir Syed reacted to the British conquest as a Muslim aristocrat, and not as an Indian. It betrays the myopia of a decadent nobility, which brimmed with the hubris of having ruled the country for many centuries. If there was no national consciousness yet, the ruling class had defaulted in their duty of being the vanguard of ideas.

Sir Syed told his class -  community that in order to remain relevant, they would have to change their mode of thought. Since religion was central to their thought, and since it was making them lag, they had to develop a new understanding of religion that harmonised the word of God with the work of God in such a way that made religion compatible with science. He wrote an exegesis of the Quran to bring about this reconciliation. In this endeavour he was as much influenced by the West as by the lost tradition of Islamic rationalists.

If he were to write the same book today, it’s interesting to speculate whether he would tap into the indigenous rationalist philosophy of Charvaka, also known as Lokayata. Probably, he would. After all, the same pursuit of reconciliation made him write a commentary on the Bible. He stressed that since both the Quran and the Bible were of the same provenance, there was little scriptural pretext for religious animus between the followers of the two. Would he have, similarly, undertaken to write an exposition of the Vedas and Upanishads to highlight the essential unity of all religions? If he could make a new recension of Ain-i-Akbari, he would definitely embrace Akbar’s Sulh-i-Kul (universal peace) principle as well.

Sir Syed had the wisdom to know that unless Islam fused into the Indian culture, it would remain a stranger in the land, with none too good implications for its followers. He would have been embarrassed that in a thousand years, except for Al-Biruni’s Kitab-ul Hind and Dara Shukoh’s Majma-ul-Bahrain, Muslims had made no serious effort to understand India. What they didn’t do as rulers, they must now as citizens.

नजमुल हुदा
( Najmul Hoda )

The writer is an IPS officer from Tamilnadu. 


राजनीतिक दखलंदाजी और पुलिस सुधार की कवायद / विजय शंकर सिंह

2012 - 13 में जब सुप्रीम कोर्ट ने भरी अदालत में सीबीआई को एक पिजड़े का तोता कहा तो तब खूब हो हल्ला मचा। तत्कालीन सीबीआई प्रमुख से जब पत्रकारों ने पूछा कि, " सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी पर कि सीबीआई पिंजड़े का तोता है, आप की क्या राय है," तो, सीबीआई प्रमुख ने कहा कि अदालत ने यह बात सही कही है। इतना कह कर सीबीआई प्रमुख गाड़ी में बैठ गए। सीबीआई प्रमुख ने जो उत्तर दिया वही उत्तर कोई भी अधिकारी होता तो, वह भी वही कहता। 2012 से लेकर 2014 तक, यूपीए - 2 का पराभव का काल था, फिर तो 2014 में यूपीए सत्ता से बाहर ही हो गयी। उस दौरान, सीएजी हर हफ्ते कोई न कोई घोटाला ढूंढ लेते थे  और अन्ना हज़ारे का आंदोलन चल ही रहा था। उस समय की घटनाओं का स्मरण कीजिए तो लगता है कि देश की सबसे बड़ी समस्या भ्रष्टाचार है और पहले इस राजरोग से निदान पाना ज़रूरी है। सार्वजनिक जीवन मे भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिये लोकपाल की नियुक्ति  की मांग उठी, सीबीआई की तफतीशो में राजनीतिक दखलंदाजी रोकने की मांग तेज हुयी, और फिर इन सारी गतिविधियों का परिणाम हुआ कि 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस सत्ता से बाहर आ गयी। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में आने वाली नयी सरकार, अब चाहे जैसी लगती हो, पर तब तो एक अवतार सरीखी लगती थी। 

पुलिस पर सरकार का नियंत्रण तो हो, पर पुलिस पर सरकार चलाने वाले दल का नियंत्रण न हो, यह एक बारीक पर बेहद महत्वपूर्ण बात है। सरकार और सत्तारूढ़ दल में अंतर है। सरकार, कार्यपालिका है, वह शासन का काम देखती है, शासन की प्रमुख है। जबकि, सत्तारूढ़ दल, वह राजनीतिक दल होता है जो सरकार में रहता है। पुलिस का तालमेल, कैसे, सरकार और सत्तारूढ़ दल के बीच रहै इसे देखना भी सरकार का ही काम है। सरकार के आधीन रहते हुए भी पुलिस सरकार से अधिक उन नियमों और प्राविधानों से निर्देशित रहती है, जिन्हें  लागू करने का अधिकार, शक्तियां और दायित्व इसी संस्था को है। सरकार भी संवैधानिक कानून के अंतर्गत ही गठित है और वह भी अपना दायित्व कानून के अनुसार ही, निभाने के लिये शपथबद्ध और बाध्य है। सरकार और पुलिस के बीच का तालमेल क्या हो, इसे समझने के लिये 2016 में केरल हाईकोर्ट के एक फैसले का उल्लेख करना उचित होगा। केरल के डीजीपी के रूप में सेनकुमार की नियुक्ति एलडीएफ सरकार के पहले की यूडीएफ सरकार ने की थी। जब एलडीएफ की सरकार 2016 में बनी तब, एकडीएफ की विजयन सरकार ने डीजीपी और मुख्य सचिव दोनो को बदल दिया। यह एक सामान्य प्रक्रिया है कि जब सरकार बदलती है तो शीर्ष नौकरशाही के ये दो अधिकारी ज़रूर बदलते हैं। सेनकुमार ने अपने तबादले को अदालत में चुनौती दी और वे कैट ( न्यायाधिकरण ) और हाईकोर्ट दोनो से जीते। बाद में वे सुप्रीम कोर्ट से भी जीते। इस लम्बे कानूनी मसले के विस्तार में न जाकर बस यह उल्लेख करना है कि अदालत ने पुलिस की स्थिति सचिवालय से अलग मानी है। सचिवालय यानी सरकार के मुख्य सचिव या अन्य सचिव सरकार के आधीन भी हैं और सरकार की नीतियों को सरकार के मतानुसार लागू करने के लिये बाध्य भी हैं। पर पुलिस, अपराध नियंत्रण, अन्वेषण और कानून व्यवस्था बनाये रखने के दौरान जिन कानूनो से निर्देशित होती है, वह उन कानूनी प्राविधानों के बाहर जाकर किसी कानून को लागू नहीं कर सकती है। यहां एक बात और स्पष्ट है कि पुलिस के अधिकार और शक्तियां असीमित नहीं है, बल्कि वे कानूनो से बंधे है। यह कानून हर उस कानून तोड़ने वाले पर भी लागू होंगे, जो सरकार में हो, या सरकार के बाहर।  सरकार उन कानूनो के विपरीत काम करने के लिये, किसी पुलिस अफसर को, बाध्य भी नही कर सकती और वह ऐसा लिखित रूप में करती भी नहीं है। 

भारत मे पुलिस तंत्र औऱ आपराधिक न्याय व्यवस्था का सिस्टम औपनिवेशिक राज में बनाया गया था। तब पुलिस का प्रमुख उद्देश्य, न तो अपराध रोकना था और न ही कानून व्यवस्था पर बहुत ध्यान देना था। पुलिस का प्रथम उद्देश्य था ब्रिटिश राज की जड़ जमी रहे और राज को राजस्व जो अधिकतर भू राजस्व से आता था, प्राप्त होता रहे। इसलिए पुलिस को कलेक्टर के आधीन रखा गया था। बाद में जब जन जागरूकता बढ़ी और अंग्रेजी राज के खिलाफ लोग मुखर होने लगें तब जाकर आंदोलनों को दबाना और सरकार का इकबाल बनाये रखना प्रमुख कार्य हो गया। अपराध तब कम भी होते थे और जमींदारों का यह भी एक दायित्व था कि वे उसे नियंत्रित करने में पुलिस की मदद करते रहें। लेकिन ब्रिटिश राज में भी यह महसूस किया गया कि, पुलिस में सुधार की ज़रूरत है और लॉर्ड कर्जन के समय पहला पुलिस सुधार आयोग बना। कर्जन के समय, अनेक सुधार कार्यक्रम लागू भी हुए। पुलिस सुधार के अन्तर्गत कर्ज़न ने 1902 ई. में 'सर एण्ड्रयू फ़्रेजर' की अध्यक्षता में एक 'पुलिस आयोग' की स्थापना की। 1903 ई. में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में फ्रेजर आयोग ने पुलिस विभाग की आलोचना करते हुए कहा कि, 
" यह विभाग पूर्णतः अक्षम, प्रशिक्षण से रहित, भ्रष्ट एवं दमनकारी है। "
आयोग द्वारा दिये गये सुझावों के आधार पर सभी स्तरों में वेतन की वृद्धि , प्रशिक्षण की व्यवस्था, प्रान्तीय पुलिस की स्थापना व केन्द्रीय गुप्तचर विभाग की स्थाना की व्यवस्था की गई। 1903 में फ्रेजर की टिप्पणी आज भी प्रासंगिक लग रही है। एक सौ सत्रह साल बाद भी, जहां तक क्षवि का सवाल है, हम वही हैं जहां लॉर्ड कर्जन हमे छोड़ गया था ! 

1903 के फ्रेजर के निष्कर्ष के बाद, 1957 में यूपी पुलिस को एक और अदालती स्ट्रिक्चर से सामना करना पड़ा, जब इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस एएन मुल्ला ने कहा कि,' यूपी पुलिस अपराधियों का एक संगठित गिरोह है।' हालांकि यह टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपील किये जाने पर विलोपित कर दी गई। पर यह टिप्पणी भले ही कागज़ पर न हो, पर देश भर में पुलिस की आम छवि 1903 के फ्रेजर के निष्कर्ष और 1957 के जस्टिस मुल्ला की टिप्पणी से अलग, आज भी नहीं हो पायी है। आज जब मुंबई पुलिस पर गृहमंत्री द्वारा 100 करोड़ रुपये की उगाही की बात पर हंगामा मचा हुआ है तो लगता है कि सिस्टम में तमाम सुधार की कोशिशों के बाद भी स्थिति 1903 से बहुत बदली नही है। 100 करोड़ की उगाही के मामले में, महाराष्ट्र सरकार ने अब जांच हाईकोर्ट के एक रिटायर्ड जज से कराने का निर्णय किया है। अब यह देखना है कि जांच का निष्कर्ष क्या निकलता है। 

मुंबई की 100 करोड़ की घटना के संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि, जब गृहमंत्री इस तरह की उगाही की 'ड्यूटी' लगा रहे थे, और जब यह सब परमवीर सिंह को पता चल गया था, तो उन्होंने क्या इस उगाही को रोकने का कोई प्रशासनिक प्रयास किया ? या कमिश्नर के पद से हटाए जाने के बाद उनकी चिट्ठी, शांतिपर्व का प्रलाप है ? एक सवाल यह भी, पुलिस के ही वरिष्ठ अफसरों ने उठाया है कि उन्हें ऐसे समय पर क्या करना चाहिए था। एक डीजीपी रह चुके, आईपीएस अफसर का कहना है कि उन्हें गृहमंत्री के खिलाफ, भ्रष्टाचार के लिये उकसाने का मुकदमा दर्ज कर कार्यवाही करनी चाहिये थी। पर यह कदम वैधानिक रूप से युक्तियुक्त और आदर्श कदम भले ही हो, पर मेरे अनुसार, ऐसा करना व्यवहारिक रूप से संभव नहीं होता । होना यह चाहिए था कि वे सचिन वाज़े को एक चेतावनी देते कि, जो कुछ भी गृहमंत्री ने कहा है उससे वह बाज आएं और यदि कोई शिकायत मिलती तो, वाज़े के खिलाफ दंडात्मक कार्यवाही करते और इन सब की सूचना मुख्यमंत्री को व्यक्तिगत रूप से मिल कर दे देते। यदि गृहमंत्री के रहते उन्हें निष्ठापूर्वक कार्य करने में दिक्कत थी तो खुद ही अपने तबादले का विकल्प दे देते। पर परमवीर सिंह की अंतरात्मा जगी भी तो तब जगी जब उन्हें कमिश्नर के पद से हटा दिया गया। 

100 करोड़ की उगाही और एंटीलिया कांड में सबसे महत्वपूर्ण पात्र है पुलिस इंस्पेक्टर संचिन वाज़े। यह सब बात ही खुली, एनआईए द्वारा, सचिन वाज़े की गिरफ्तारी के बाद। वाज़े की गिरफ्तारी नेशनल इंवेस्टिगेशन एजेंसी (एनआईए) द्वारा की गयीं है। वह अभी तक जेल में है। वाज़े ही एक स्कॉर्पियो में 20 जिलेटिन की छड़ रखने वाला संदिग्ध है, जो बाद में स्कॉर्पियो के मालिक की हत्या में संदिग्ध पाया गया है। यह स्कॉर्पियो, मुकेश अम्बानी के घर से 100 मीटर दूर खड़ी थी। अब तक यह प्रमाणित नही हो पाया है कि इस घटना के निशाने पर मुकेश अम्बानी थे या कोई और दूसरी  साज़िश है। फिलहाल तो एनआईए की विवेचना वाज़े के ही इर्दगिर्द घूम रही है। सचिन वाज़े, मुंबई पुलिस के इनकाउंटर स्पेशलिस्ट की परंपरा में आने वाला एक शातिर पुलिस इंस्पेक्टर है। इनकाउंटर स्पेशलिस्ट पुलिसिंग, सिंघम की परंपरा की पुलिसिंग है, जो लोकलुभावन तो होती है, पर पुलिस की नियमपालक छवि की दृष्टि से, खतरनाक भी समझी जाती है। कहते हैं सचिन वाज़े के खाते में 60 से अधिक इनकाउंटर के मामले हैं। 

मुंबई के पुलिस कमिश्नर रह चुके और देश के सबसे सम्मानित पुलिस अफसरों में से एक जेएफ रिबेरो ने अभी हाल ही एक लेख लिख कर इनकाउंटर केंद्रित पुलिसिंग की निंदा की है। इनकाउंटर के औचित्य और अनौचित्य से दूर हट कर बात करें तो मुम्बई पुलिस में सचिन वाज़े के पहले, इंस्पेक्टर प्रदीप शर्मा, और दया नायक नामक दो और ऐसे ही इनकाउंटर स्पेशलिस्ट माने जाते रहे हैं। प्रदीप शर्मा अब शिवसेना में हैं, दया नायक के बारे में मुझे जानकारी नहीं है। वाज़े इसी प्रदीप शर्मा का ही शिष्य है। वाज़े, एक अभियुक्त की पुलिस अभिरक्षा में संदिग्ध मृत्यु के एक मामले में निलंबित हुआ था, और उसके बाद वाज़े ने भी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और शिवसेना में शामिल हो गया। जब तक वह नौकरी से बाहर रहा, वह बैंको और लोन देने वाली एजेंसियों के लोन वसूलने का का काम करने लगा। लेकिन उसके राजनीतिक संबंध बने रहे और इसी राजनीतिक निकटता के काऱण वह पुनः नौकरी में ले लिया गया। 

राजनीतिक हस्तक्षेप पुलिस में नयी बात नहीं है, बल्कि किसी महत्वपूर्ण मामले में राजनीतिक दखलंदाजी नही होती है तब ज़रूर एक असामान्यता नज़र आती है। वरिष्ठ आईपीएस अफसर और नेशनल पुलिस अकादमी के निदेशक रह चुके, शंकर सेन ने ट्रिब्यून में एक लंबा लेख  इस मामले पर लिखा है। वे लिखते हैं, 
" राजनीति प्रभाव के कारण, वाज़े को बहाल किया गया और अपनी राजनीतिक पहुंच और दबंग छवि के काऱण वह मुंबई पुलिस का एक चहेता पुलिस अफसर बन गया।' 
हालांकि, वह बहुत वरिष्ठ इंस्पेक्टर भी नहीं था, पर उसकी राजनीतिक पहुंच ने उसे, सरकार के नज़दीक पहुंचा दिया। इसी अवधि में परमवीर सिंह भी पुलिस कमिश्नर थे। क्या यह बात अविश्वसनीय लग सकती है कि वे वाज़े के अतीत और उसके राजनीतिक संपर्कों को जानते न रहे हों। या तो उन्होंने वाज़े की नजदीकियों और उसके राजनीतिक सम्पर्कों को अनदेखा किया या उन्होंने,  खुद भी वाज़े पर अपना हांथ रख दिया। बेहद राजनीतिक कृपापात्र वाले अफसर अपने बॉस के भी करीब हो जाते हैं पर यह निकटता, उनके कामकाज और प्रतिभा के कारण नहीं होती है, बल्कि यह कृपा उनके राजनीतिक सम्पर्को के कारण होती है। इसी निकटता के काऱण वाज़े को 100 करोड़ की उगाही का 'दायित्व' मिलता है और इसी निकटता के कारण परमवीर सिंह चुप रहते है, और अपना मुंह तभी खोलते हैं जब वे पद से हटा दिए जाते हैं। यह शांतिपर्व का ज्ञान है न कि अंतरात्मा की जागृति। 

भारतीय पुलिस व्यवस्था में मुंबई पुलिस एक प्रोफेशनल और दक्ष पुलिस बल मानी जाती रही है। लेकिन धीरे धीरे, पुलिस के दैनंदिन कार्यो में राजनीतिक दखलंदाजी और अन्य हस्तक्षेप ने इसके प्रोफेशनलिज़्म को भी पर्याप्त नुकसान पहुंचाया है। यहीं एक सवाल यह भी उठता है कि क्या लोकतंत्र में राजनीतिक हस्तक्षेप से बचा जा सकता है ? राजनीतिक हस्तक्षेप न रहे तो क्या पुलिस बेलगाम नहीं हो जाएगी ? राजनीतिक हस्तक्षेप हो भी तो कितना हो ? पुलिस में रिश्वत, पक्षपातपूर्ण कार्यवाही और अन्य तमाम शिकायतों पर यदि राजनेता दखल देते हैं तो क्या ऐसी दखलंदाजी को भी गलत समझा जाना चाहिए ? इन सवालों का उत्तर ढूंढने की कोशिश करते हैं। 

एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में पुलिस जो सीधे शासन प्रशासन से जुड़ी ही नहीं बल्कि कार्यपालिका का एक महत्वपूर्ण अंग है, को राजनीतिक दखलंदाजी से इम्यून नहीं रखा जा सकता है और न ही जनता और जनता की तरफ से, उसके प्रतिनिधियों द्वारा पुलिस की शिकायत मिलने पर, उसे सिर्फ इसलिए कूड़ेदान में डाल दिया जाय कि, वह शिकायत राजनीतिक दल से जुड़े किसी नेता ने की है, उचित नहीं है। यह बात भी सच मानिये कि यदि राजनीतिक हस्तक्षेप न रहे तो पुलिस सच में बेलगाम हो जाएगी। फिर इसका निदान क्या है ? राजनीतिक हस्तक्षेप यदि पुलिस के दैनंदिन कार्यो जैसे, इसे पकड़ो, इसे छोड़ो, इसे जेल भेजो, या इसे थाने से ही जमानत पर छोड़ दो, जैसे कार्यो में है तब तो यह न केवल पुलिस के कार्यो में सीधा हस्तक्षेप है, बल्कि कानून का भी मखौल बनाना हुआ। 

धर्मवीर पुलिस कमीशन, जिसे राष्ट्रीय पुलिस आयोग भी कहा जाता है ने, 1980 में एक विस्तृत रिपोर्ट दी थी और पुलिस में पेशेवराना सुधार लाने के लिये बहुत सी सिफारिशें भी की हैं। कुछ महत्वपूर्ण सिफारिशें इस प्रकार हैं, जैसे, 
● हर राज्य में एक प्रदेश सुरक्षा आयोग का गठन किया जाए।
● जाँच कार्यों को शांति व्यवस्था संबंधी कामकाज से अलग किया जाए।
● पुलिस प्रमुख की नियुक्ति के लिये एक विशेष प्रक्रिया अपनाई जाए।
● पुलिस प्रमुख का कार्यकाल तय किया जाए।
● एक नया पुलिस अधिनियम बनाया जाए।

इसके बाद, पुलिस सुधारों के लिये गठित अन्य समितियाँ भी बनीं।
● 1997 में तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री इंद्रजीत गुप्त ने देश के सभी राज्यों के राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों और केंद्रशासित प्रदेशों के प्रशासकों को पत्र लिखकर पुलिस व्यवस्था में सुधार किये की कुछ सिफारिशें की थी।
● 1998 में महाराष्ट्र के पुलिस अधिकारी जे.एफ. रिबैरो की अध्यक्षता में एक अन्य समिति का गठन किया गया।
● 2000 में गठित पद्मनाभैया समिति ने भी केंद्र सरकार को सुधारों से संबंधित सिफारिशें सौंपी थीं।
● आपातकाल के दौरान हुई ज़्यादतियों की जाँच के लिये गठित शाह आयोग ने भी ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति से बचने के लिये पुलिस को राजनैतिक प्रभाव से मुक्त करने की बात कही थी।

दरअसल, देश में पुलिस-सुधार के प्रयासों की भी एक लंबी श्रृंखला है, जिसमें विधि आयोग, मलिमथ समिति, पद्मनाभैया समिति, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, सोली सोराबजी समिति तथा सबसे महत्त्वपूर्ण प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ-2006 मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गए निर्देश शामिल हैं। उत्तर प्रदेश, असम और बीएसएफ के डीजी रहे प्रकाश सिंह लम्बे समय से इन सुधारों को लागू करने के लिये सुप्रीम कोर्ट में कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं। अब भी वे अखबारों में इस महत्वपूर्ण विषय पर नियमित लेखन करते रहते हैं। पर,अफसोस कि, पुलिस सुधारो के प्रति हर सरकार का रवैया सुस्ती भरा रहा है । 2014 के बाद यह उम्मीद बनी थी, नरेन्द्र मोदी की सरकार पुलिस सुधारों को लागू करने की दिशा में कुछ ठोस काम करेगी, लेकिन, पिजड़े का तोता, तोता ही बना रहा है। जिसकी भी सरकार आयी उसी की विरुदावली गाने लगा। एनआईए, जिसे आतंकवाद और अन्य गम्भीर मामलो की तफ्तीश के लिये  2009 ने गठित किया गया है, की विवेचनाओं में सरकारी हस्तक्षेप पर भी सवाल उठने शुरू हो गए। राफेल मामले में जिस प्रकार से रातोरात सीबीआई प्रमुख को सरकार ने हटाया उससे न केवल सरकार के कदम पर सवाल खड़े हुए बल्कि सुप्रीम कोर्ट की भूमिका भी सन्देह के घेरे में आयी। 2020 में हुए दिल्ली दंगो की विवेचनाओं औऱ दिल्ली दंगों में पुलिस की भूमिका साफ साफ सत्तारूढ़ दल की ओर झुकी दिखी और बार बार, दिल्ली पुलिस को अदालत की फटकार सुननी पड़ी। जेएनयू हॉस्टेल और जामिया लाइब्रेरी के अंदर अराजक तत्वो द्वारा की गयी मारपीट और तोड़फोड़ पर दिल्ली पुलिस की शर्मनाक चुप्पी और पक्षपातपूर्ण रवैया बेहद दुःखद और निराशाजनक रहा है। दिल्ली पुलिस की इस  कार्यप्रणाली पर कई वरिष्ठ पुलिस और सिविल सेवा के रिटायर्ड अफसरों ने, दिल्ली के कमिश्नर पुलिस को पत्र भी लिखे और उनकी आलोचना की। यह क्रम आज भी जारी है। 

सरकार और सभी राजनीतिक दलों को एक बात समझ लेनी चाहिए कि पुलिस उनके राजनीतिक एजेंडे को पूरा करने के लिये नहीं बनी है, बल्कि पुलिस इस लिये बनी है, जिससे समाज मे अराजकता, विधिविहीनिता, अशन्ति न फैले, अपराध नियंत्रित हों और समाज मे शांति बनी रहे ताकि सरकार अपने कामकाज सुचारू रूप से कर सकें। वह अपनी योजनाओं को लागू कर सके। पुलिस किसी भी दल के राजनीतिक प्रतिशोध की पूर्ति के लिये नहीं बनी है और न ही यह सरकार का कोई भाड़े का वर्दीधारी गिरोह है। बल्कि यह कानून को, कानूनी तरह से लागू करने वाली एक विधिक संस्था है जिसका विधिविरुद्ध तऱीके से राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के  लिये दुरुपयोग करना एक अराजक और विधिविहीन समाज की ओर कदम बढ़ाना होगा। पुलिस एक गिरोह नहीं है और मैं जस्टिस मुल्ला की टिप्पणी को पुलिस का असल चेहरा नही मानता हूं। पुलिस का अधिकांश अंश अराजनीतिक रहना चाहता है और स्वभाव से है भी। पर एक सिस्टम के रूप में, इस तंत्र में अब भी बहुत सी कमियां हैं और इन कमियों को दूर करने के लिये समय समय पर, सरकार द्वारा गठित आयोगों और कमेटियों ने, उपाय भी, सुझाये हैं, पर उन उपायों को अमल में लाने की जिम्मेदारी भी सरकार पर ही है। क्या सरकार इन सब मुद्दों पर भी अपने राजनीतिक गुणा भाग और दांव पेंच से अलग हट कर विचार करेगी ? 

( विजय शंकर सिंह )

Sunday, 28 March 2021

मथुरा में पुलिस अफसर को पीटने की शर्मनाक घटना / विजय शंकर सिंह

मथुरा में एक पुलिस अफसर सहित कई अन्य पुलिसजन पर आरएसएस के गुंडों ने हमला किया और उन्हें बुरी तरह मारा पीटा। यह घटना शर्मनाक और निंदनीय तो है ही साथ ही मथुरा के वरिष्ठ पुलिस अफसरों की अपने मातहत अफसरों के प्रति इस घटना के बाद की गयी प्रतिक्रिया तो क्लीवतापूर्ण और हैरान करने वाली रही। 

पुलिस, सरकार और सत्ता का प्रतीक मानी जाती है और यह बात भी बिल्कुल सही है कि अक्सर पुलिस अफसर गलतिया करते भी हैं। पर उन गलतियों के लिये उन्हें दंडित करने के प्राविधान भी हैं। पुलिस विभाग में सबसे अधिक दंड और विभागीय कार्यवाही होती है। अगर निलंबन और बर्खास्तगी के आंकड़े देखे जांय तो सबसे अधिक निलंबन और बर्खास्तगी पुलिस में ही होती है। यह बात केवल यूपी पुलिस के बारे में ही नही है, बल्कि देश भर की पुलिस के लिये है। 

पुलिस मजहमत की, प्रदेश में, न तो यह पहली घटना है और न ही अंतिम। तीन साल पहले बुलंदशहर में पुलिस इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की वहां के बजरंग दल के गुंडों ने पीट पीट कर हत्या कर दी थी। पर बजरंग दल का जिला संयोजक योगेश लम्बे समय तक फरार रहा और बाद में वह जेल गया। भाजपा और उसके लोगो ने खुलकर अपने पदाधिकारी का साथ दिया। सरकार भी उतनी सक्रिय नहीं हुयी जितनी होनी चाहिए थी। 

ऐसी घटनाएं, पुलिस का जितना मनोबल गिराती हैं उससे अधिक, अधीनस्थ अधिकारियों के मन में अपने वरिष्ठ अधिकारियों के प्रति अविश्वास का भाव उपजाती, है जिसका असर पुलिस की आंतरिक कार्यप्रणाली, अनुशासन और रेजीमेंटेशन पर पड़ता है। मथुरा की घटना में भी हो सकता है मारपीट करने वाले आरएसएस के गुंडों को देर सबेर, अदालत में हाज़िर हो जाने दिया जाय और पुलिस के पिटे कर्मचारियों को भी समझाबुझाकर यह मामला शांत करा दिया जाय, पर इस तरह पुलिस मजहमत के मामले किसी पुलिस अफसर के निजी अधिकार और पद को चुनौती देते नहीं है, बल्कि वे सरकार, कानून और पुलिस की संस्था को चुनौती हैं। साथ ऐसे मामले बताते हैं कि, सत्तारूढ़ दल से जुड़े, आरएसएस और बजरंग दल के गुंडों को कुछ भी करने की अघोषित छूट है, और पुलिस को भी उनके आतंक के सामने बेबस और खामोश हो जाना है। 

मथुरा में ही पांच साल पहले एक एडिशनल एसपी को जवाहरबाग में घेर कर, दबिश के दौरान मार डाला गया और आज तक सीबीआई उस मुकदमे में, दोषी अभियुक्तों को सज़ा नहीं दिला पायी। तब सपा का जंगल राज था, औऱ अब जब ऐसी ही घटना जगह जगह हो रही है तो इसे क्या कहा जाय ? जवाहरबाग की घटना में सपा सरकार की सांठगांठ की बात प्रकाश में आयी थी। जवाहरबाग राज्य के अंतर्गत एक राज्य की तरह हो गया था। 

एक बात तय मानिये, गुंडे न तो भाजपा के होते हैं, न सपा के न बसपा के और न ही कांग्रेस के। जिस दल में उन्हें संरक्षण और भाव मिलता है वे वहां चले जाते हैं। अपराध को सदैव पनपने के लिये सत्ता के मौसम और कानून का खाद पानी चाहिए। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सत्ता तक येनकेन प्रकारेण पहुंचने और सत्ता में बने रहने का लोभ और मोह, ऐसा मौसम आसानी से उपलब्ध करा भी देता है। सत्ता बदलते ही, उनकी गाड़ियों पर लगे झंडे भी बदल जाते हैं। वे सिर्फ गुंडे हैं और अपराधी हैं चाहे वे जयश्रीराम बोलें, या जय समाजवाद या जय भीम। 

( विजय शंकर सिंह )

Saturday, 27 March 2021

व्यक्तित्व - काली एलिस की दास्तान

एलिस के माता-पिता को उनकी मातृभूमि बारबाडोस से गुलाम बनाकर अमेरिका लाया गया था. 1686 में उसके जन्म के वक्त वे पेन्सिल्वेनिया को बसाने वाले और गुलामों का व्यापार करने वाले विलियम पेन के नजदीकी दोस्त और फिलाडेल्फिया में रहने वाले सैम कारपेन्टर के गुलाम थे. जाहिर है एलिस ने भी उसी की गुलामी करनी थी. पांच साल की उम्र में उसे एक शराबखाने में छोटे-मोटे कामों पर लगा दिया गया. बूढ़ी हो चुकने पर वह याद करती थी कि आठ साल की उम्र में उसने एक दफा खुद विलियम पेन का पाइप सुलगाया था.

दस साल की होने पर सैम कारपेन्टर ने उसे फिलाडेल्फिया कुछ दूर स्थित बेन्सालेम भेज दिया जहाँ डेलावेयर नदी पर उसकी नावें चला करती थीं. डंक्स फैरी में चप्पुओं से चलाई जाने वाली इन विशाल नावों का इस्तेमाल लोगों के अलावा घोड़ों और अन्य पालतू पशुओं को बेन्सालेम से बेवर्ली लाने-ले जाने में किया जाता था. एलिस ने अगले अनेक दशकों तक इन नावों में आने वाली सवारियों से पैसा वसूलने का काम किया. इस वजह से एलिस को एलिस ऑफ़ द डंक्स फैरी के नाम से जाना जाने लगा. कोई उसे काली एलिस भी कहता. बूढ़ी हो जाने पर उसे कारपेन्टर परिवार की रसोई के काम में खपाया गया और बहुत बूढ़ी हो जाने पर वह ओल्ड एलिस कहलाई.

एक सामान्य दास और उसकी संततियों का यही जीवन हुआ करता था लेकिन एलिस ख़ास थी - बहुत-बहुत ख़ास.

सबसे पहली बात तो यह कि एलिस एक सौ सोलह साल तक ज़िंदा रही. उसकी मृत्यु के दो साल बाद यानी 1804 में टॉमस आइसेया ने अमेरिकी इतिहास के उल्लेखनीय लोगों पर दो खंडों का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा – ‘एक्सेन्ट्रिक बायोग्राफी’. इस किताब के दूसरे खंड में केवल ऐसी विख्यात महिलाओं का जीवन परिचय दिया गया है. इन महिलाओं का  में जोन ऑफ़ आर्क से लेकर कांस्टेंसिया ग्रियर्सन तक शामिल हैं. एलिस नाम की उस उस गुलाम काली औरत में जरूर कुछ ऐसा तिलिस्म था कि  ‘एक्सेन्ट्रिक बायोग्राफी’ के इस दूसरे खंड का पहला ही अध्याय उस के बारे में है.

काली एलिस को फिलाडेल्फिया का पहला वाचिक इतिहासकार माना जाता है क्योंकि उसने अपनी स्मृति में फिलाडेल्फिया के बसने का इतिहास किसी फोटोग्राफर की सी डीटेल्स के साथ दर्ज कर रखा था.

वह एक बेहतरीन किस्सागो थी और तीन शताब्दियों में पसरे अपने जीवन में उसने फिलाडेल्फिया को एक ग्रामीण जंगली इलाके से पहले कस्बे, फिर एक बड़े नगर और अंततः अमेरिका की राजधानी में तब्दील होते देखा था.

फिलाडेल्फिया में आने वाले नए लोगों के बच्चे और उनकी औलादें अपना और अपने पुरखों का इतिहास जानने की नीयत से एलिस के पास पहुंचा करते थे. एलिस वहां बनाए गए क्राइस्टचर्च गिरजाघर के भी सबसे पुराने सदस्यों में एक थी. ‘एक्सेन्ट्रिक बायोग्राफी’ में दर्ज है कि वह पिचानवे की आयु में भी अपना घोड़ा भगाते हुए हर इतवार को वहां आया करती थी. उसे लिखना-पढ़ना नहीं आता था लेकिन बाइबिल के उद्धरण उसे रटे रहते थे जिनका इस्तेमाल वह किस्से सुनाते समय किया करती थी. उसने बाइबिल के वे हिस्से भी कंठस्थ कर रखे थे जिनमें मानव-मात्र की स्वतंत्रता और दासता के अंत की बातें कही गयी थीं.

बहुमूल्य स्मृतियों से अटी अपनी याददाश्त की मदद से बुने गए अपने नायाब किस्सों में वह अमेरिका के बसने की कहानी सुनाती थी और उसके अपने जीवनकाल में उसकी साख इंग्लैण्ड, स्पेन और लैटिन अमेरिका तक पहुँच गयी थी. उसकी बुद्धिमत्ता और उद्यमिता की अनेक कथाएं अब अमेरिकी किंवदंतियां बन चुकी हैं. मिसाल के लिए यह कि उसने डंक्स फैरी का प्रबंधन करते हुए अपने मालिकों के लिए एक पूरा मत्स्य-व्यवसाय अकेले बूते पर खड़ा कर दिखाया था.

जब वह बयानवे साल की हुई उसकी दृष्टि चली गयी. अगले दस साल तक वह पूरी तरह अंधी रही. काम करना उसने तब भी नहीं छोड़ा और रसोई के लिए हर रोज ताजी मछली पकड़ कर लाने की जिम्मेदारी सम्हाल ली. किसी चमत्कार की तरह एक सौ दो साल की आयु में उसकी आँखों की ज्योति वापस लौट आई. उसकी हाजिरजवाबी, बुद्धिमत्ता और उदारता का असर था कि गोरों के बीच भी उसे खासी इज्जत और लोकप्रियता हासिल हुई. एलिस के जीते-जी उसकी कहानियाँ छपना शुरू हो गयी थी. अखबारों और पत्रिकाओं का सौभाग्य देखिये जो उन्नीसवीं शताब्दी के शुरुआती सालों में एक ऐसी औरत का इंटरव्यू कर सकते थे जो सत्रहवीं शताब्दी के आख़िरी सालों में जवान हुई थी.  

अमेरिका से दासता का उन्मूलन होने में एलिस की मौत के बाद तिरेसठ साल और लगे. तब तक अमेरिका अपने झूठे-सच्चे इतिहासकार पैदा कर चुका था. जिन किशोरों ने एलिस के मुंह से अमेरिकी इतिहास के निर्माण की आँखों देखी कहानियां सुन रखी थीं, उनमें से ज्यादातर तब तक मर चुके थे या एलिस उनकी स्मृतियों से अलोप हो चुकी थी. अमेरिकी समाज के इतिहास में एलिस की नहीं विलियम पेन, जॉर्ज वाशिंगटन और बेंजामिन फ्रेंकलिन की आवाजें सुनने को मिलती हैं लेकिन हालिया दशकों में आई स्त्री-चेतना के चलते न केवल काली एलिस की जीवनी लिखी जा चुकी है, उसका स्मारक बना दिया गया है और 1958 में जन्मी अमेरिकी कवयित्री गेल जैक्सन ने एलिस पर एक कविता भी लिखी है.

गुलाम होने के बावजूद अपने समय के क्रूर गोरे समाज में एक अनपढ़ काली बुढ़िया जितना आत्समम्मान पा सकने का सपना देख सकती थी, एलिस ने उससे हजार गुना हासिल कर दिखाया. इसका सबूत यह है कि ‘एक्सेन्ट्रिक बायोग्राफी’ में उसका पोर्ट्रेट तक छपा है. उस ज़माने में पोर्ट्रेट केवल राजकुमारियों और रईस मुटल्ली औरतों के बनाए जाते थे.

अशोक पांडेय
( Ashok Pandey )


कैफ़ी आज़मी की एक नज़्म - ये सांप आज जो फन उठाये खड़ा है

ये साँप आज जो फन उठाए 
मिरे रास्ते में खड़ा है 
पड़ा था क़दम चाँद पर मेरा जिस दिन 
उसी दिन इसे मार डाला था मैं ने 
उखाड़े थे सब दाँत कुचला था सर भी 
मरोड़ी थी दुम तोड़ दी थी कमर भी 

मगर चाँद से झुक के देखा जो मैं ने 
तो दुम इस की हिलने लगी थी 
ये कुछ रेंगने भी लगा था 

ये कुछ रेंगता कुछ घिसटता हुआ 
पुराने शिवाले की जानिब चला 
जहाँ दूध इस को पिलाया गया 
पढ़े पंडितों ने कई मंतर ऐसे 
ये कम-बख़्त फिर से जिलाया गया 
शिवाले से निकला वो फुंकारता 
रग-ए-अर्ज़ पर डंक सा मारता 
बढ़ा मैं कि इक बार फिर सर कुचल दूँ 
इसे भारी क़दमों से अपने मसल दूँ 

क़रीब एक वीरान मस्जिद थी, मस्जिद में 
ये जा छुपा 
जहाँ इस को पेट्रोल से ग़ुस्ल दे कर 
हसीन एक तावीज़ गर्दन में डाला गया 
हुआ जितना सदियों में इंसाँ बुलंद 
ये कुछ उस से ऊँचा उछाला गया 

उछल के ये गिरजा की दहलीज़ पर जा गिरा 
जहाँ इस को सोने की केचुल पहनाई गई 
सलीब एक चाँदी की सीने पे उस के सजाई गई 
दिया जिस ने दुनिया को पैग़ाम-ए-अम्न 
उसी के हयात-आफ़रीं नाम पर 
उसे जंग-बाज़ी सिखाई गई 
बमों का गुलू-बंद गर्दन में डाला 
और इस धज से मैदाँ में उस को निकाला 
पड़ा उस का धरती पे साया 
तो धरती की रफ़्तार रुकने लगी 
अँधेरा अँधेरा ज़मीं से 
फ़लक तक अँधेरा 
जबीं चाँद तारों की झुकने लगी 

हुई जब से साइंस ज़र की मुतीअ 
जो था अलम का ए'तिबार उठ गया 
और इस साँप को ज़िंदगी मिल गई 
इसे हम ने ज़ह्हाक के भारी काँधे पे देखा था इक दिन 
ये हिन्दू नहीं है मुसलमाँ नहीं 
ये दोनों का मग़्ज़ और ख़ूँ चाटता है 
बने जब ये हिन्दू मुसलमान इंसाँ 
उसी दिन ये कम-बख़्त मर जाएगा 

( कैफ़ी आज़मी )

इतिहास में दुष्प्रचार और झूठ का तड़का / विजय शंकर सिंह

इतिहास के साथ दुष्प्रचार और गलतबयानी एक आम बात रही है। सत्तारूढ़ शासक अक्सर अपने विकृत और विद्रूप अतीत को छुपाना चाहते है और अपने बेहतर चेहरे को जनता के सामने लाना चाहते है। इतिहास में वे बेहतर शासक और व्यक्ति के रूप मे याद किये जांय, यह उन सबकी दिली इच्छा होती है। संघ या आज़ादी के आंदोलन में भाग न लेने और अंग्रेजों के साथ बने रहने वाले तत्व जब देशभक्ति और राष्ट्रवाद की बड़ी बडी बातें करते हैं, और खुद को परम देशभक्त दिखाने की एक मिथ्या दौड़ में शामिल हो जाते हैं तो, उन्हें लगता है कि अतीत तो उनके वर्तमान की तुलना में बेहद विपरीत रहा है। तब वे अतीत की महत्वपूर्ण घटनाओं में कुछ को सुपरइम्पोज कर के देखते हैं और अपने समर्थकों को वैसा ही दिखाना भी चाहते हैं। वे अपनी देशभक्ति को, अतीत के स्वाधीनता संग्राम में प्रचार से दूर रहने वाले सामान्य और असली देशभक्त के रूप में प्रस्तुत करते हैं। वे बार बार यह प्रमाणित करने की ऊर्जा में लगे रहते हैं कि, वे देश की मुख्य धारा से अलग नहीं थे। लेकिन, इन सब के लिये, वह एक नया इतिहास नहीं रचते हैं, बल्कि लोकप्रिय ऐतिहासिक घटनाओं में कही न कहीं से शामिल होने की जुगत में लग जाते हैं। वे इतिहास की धारा में शामिल हो जाते हैं, पर इतिहास के उक्त कालखंड में, अपनी भूमिका के कारण अलग ही पहचाने जाते हैं। मैं इसे जुगाड़ का इतिहास लेखन या लेपन कहता हूं। 

आजकल ढाका में दिया गया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक बयान बेहद चर्चा में है कि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बांग्लादेश की आज़ादी के लिये जब वे 20 - 22 वर्ष के थे तो, उन्होंने सत्याग्रह किया था। यह रहस्योद्घाटन पीएमओ की एक ट्वीट से हुआ है। न्यूज 24 की खबर के अनुसार वे इस आंदोलन में जेल भी गए थे। चाय बेचने, मगरमच्छ पकड़ने, 35 साल तक भीख मांगने, एंटायर पोलिटिकल साइंस से पोस्ट ग्रेजुएशन करने, हिमालय में सन्यास लेने की निजी घटनाओं के बाद, आन्दोलनजीविता की राह पर उनका कदम उठना, एक नई जानकारी है। 

समकालीन इतिहास के अध्येताओं को प्रधानमंत्री के बांग्लादेश की आज़ादी में किए गए योगदान पर शोध करना चाहिए क्योंकि,  बांग्लादेश की आज़ादी से जुड़ी किताबो में इस तथ्य का उल्लेख नहीं मिलता है। नरेंद्र मोदी के ऊपर लिखे गए अनेक पुस्तकों में भी इस घटना का उल्लेख नहीं मिलता है। यह शोध इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि तब के जनसंघ के बड़े नेताओं, अटल जी और आडवाणी जी द्वारा बांग्ला मुक्ति अभियान के दौरान कोई सत्याग्रह आयोजित किया भी गया था या नही, इसकी जानकारी किसी को हो तो बताएं और यह भी जानकारी हो तो बता दें कि, यह महानुभाव किस सत्याग्रह में मुब्तिला थे ? हालांकि अगस्त 1971 में अटल जी के नेतृत्व में, बांग्लादेश को मान्यता देने की मांग के लिये एक प्रदर्शन आयोजित करने का उल्लेख ज़रूर मिलता है। पर उसमे नरेंद्र मोदी की क्या भूमिका थी, यह पता नहीं है। पर अब कहा जा रहा है कि, वे उस प्रदर्शन में शामिल थे। हो सकता है, यह सच भी हो।

इसी प्रकार, व्हाट्सएप्प पर एक किताब का पन्ना बहुत चक्कर खा रहा है, जिंसमे शहीद ए आज़म भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद की भेंट कराने में, वीडी सावरकर की भूमिका की बात कही गयी है। पहले उक्त पन्ने में जो लिखा है, पहले उसे पढिये, 

" दोनों की बातें चल रही थीं, तभी वहां सरदार भगत सिंह पधारे। उनका गोरा-लंबा चेहरा, मुंह पर तनी हुई छोटी मूंछे, सिर पर हैट और शर्ट का कॉलर खुला। अपने इस रंग रूप में वे बेहद सुन्दर लग रहे थे। उन्होंने सावरकर जी से नमस्कार किया।
"तुम सही समय पर आए हो भगत सिंह।" सावरकर ने उनकी ओर देखते हुए कहा ।
आज्ञा कीजिए गुरु जी।" भगत सिंह ने कहा।
"क्या आज्ञा दें? पहले तुम इनसे मिलो। इन्हें लोग चन्द्रशेखर आजाद के नाम से जानते हैं।"
सावरकर ने उन दोनों का एक दूसरे से परिचय कराया। दोनों भावविभोर होकर, एक दूसरे के गले लग गए । दोनों आज पहली बार मिले थे।
आज आजाद को बिस्मिल की फांसी से बड़ी निराशा हो रही है। इसलिए उनके साथ मिलकर तुम संगठन का कार्य आगे बढ़ाओ।"
सावरकर ने भगत सिंह से कहा।" 

दोनो की ही बातें का मतलब यह कि, वीडी सावरकर और चंद्रशेखर आजाद की आपस मे बात चल रही थी। दोनों की बातें, राम प्रसाद बिस्मिल की फांसी, जो काकोरी कांड के नायक थे, के संदर्भ में चल रही थीं। तभी भगत सिंह वहां आते है और वे सावरकर को गुरु जी कह कर के संबोधित करते हैं, और वहीं भगत सिंह की आज़ाद से मुलाक़ात होती है। 

अब भगत सिंह और आज़ाद की मुलाक़ात और काकोरी कांड की क्रोनोलॉजी और तथ्य देखें। 9 अगस्त 1925 को काकोरी कांड हुआ था और उसमे निम्न क्रांतिकारी शामिल थे। चंद्रशेखर आज़ाद, राम प्रसाद 'बिस्मिल', अशफाक उल्ला खाँ, योगेशचन्द्र चटर्जी, प्रेमकृष्ण खन्ना, मुकुन्दी लाल, विष्णुशरण दुब्लिश, सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य, रामकृष्ण खत्री, मन्मथनाथ गुप्त, राजकुमार सिन्हा, ठाकुर रोशान सिंह, राजेन्द्रनाथ लाहिडी, गोविन्दचरण कार, रामदुलारे त्रिवेदी, रामनाथ पाण्डेय, शचीन्द्रनाथ सान्याल, भूपेन्द्रनाथ सान्याल, प्रणवेश कुमार चटर्जी। 1927 में, 19 दिसंबर को राम प्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर जेल में फांसी दे दी गयी। 10 दिसंबर 1927 को  राजेन्द नाथ लाहिड़ी और अशफाक उल्ला खान को फांसी दी जा चुकी थी। 1925 से 1927 तक इस मुकदमे का ट्रायल चला और प्रिवी काउंसिल तक अपील हुयी, पर इस पूरे घटनाक्रम में वीडी सावरकर का नाम तक नहीं आया है। 

कानपुर ही वो शहर था जहां पर भगत सिंह की मुलाकात चंद्रशेखर आजाद, बटुकेश्वर दत्त, फणींद्रनाथ घोष, बिजॉय कुमार सिन्हा, शिव वर्मा और यशपाल जैसे क्रांतिकारियों से हुई थी। कानपुर तब अंग्रेजी शासन के खिलाफ आंदोलनों का एक केंद्र बन चुका था। भगत सिंह के जीवन में कानपुर का बड़ा योगदान रहा है। अगर कहा जाए कि इस शहर ने उनके विचारों को एक नई दिशा दी तो यह कहना गलत नहीं होगा। वे इस शहर में एक पत्रकार के रूप में रहे, और इसी भूमिका ने उनके चिंतन पक्ष को एक धार दी। भगत सिंह सन् 1924 में पहली बार, महज 17 साल की उम्र में, कानपुर आए थे। एक रोचक किस्सा यह भी है कि, भगत सिंह के परिवार वाले उनकी शादी कराना चाहते थे। भगत सिंह कहते थे कि 'जब तक उनका देश गुलाम है, वो शादी नहीं कर सकते हैं।' भगत सिंह के शब्‍द थे, ‘मेरी दुल्‍हन तो आजादी है और वह सिर्फ मरकर ही मिलेगी.’

कानपुर में जहां एक तरफ गांधीवादी विचारधारा के लोग मौजूद थे तो दूसरी तरफ क्रांतिकारी सोच रखने वाले भी मौजूद थे। कम्युनिस्ट आंदोलन की भी यहां मौजूदगी थी। इन्ही में से एक थे पत्रकारिता के पुरोधा, गणेश शंकर विद्यार्थी। गणेश शंकर विद्यार्थी तब कानपुर से 'प्रताप' अखबार निकालते थे। भगत सिंह उनके संपर्क में आये। भगत सिंह ने करीब लगभग ढाई वर्ष तक गणेश शंकर विद्यार्थी के अखबार, 'प्रताप' में काम किया। वे बलवंत सिंह के नाम से अखबार में अपना नियमित कॉलम  लिखते थे। उनके लेेेख अक्‍सर युवाओं को आजादी की लड़ाई के लिए प्रेरणा देने वाले होते थे। कहते हैं कि, कानपुर के फीलखाना स्थित प्रताप के प्रिटिंग प्रेस के अलावा मुहल्ला रामनारायण बाजार में भी वह रहे थे। कानपुर में ही उनकी मुलाकात चंद्रशेखर आजाद, बटुकेश्वर दत्त, फणींद्रनाथ घोष, बिजॉय कुमार सिन्हा, शिव वर्मा और यशपाल जैसे क्रांतिकारियों से हुई। गणेश शंकर विद्यार्थी ने ही भगत सिंह की मुलाकात चंद्रशेखर आजाद से कराई थी। इस संदर्भ में भी सावरकर का उल्लेख नहीं मिलता है। 

भगत सिंह के सहयोगियों में से, शिव वर्मा जो 1996 तक जीवित रहे और उनसे मुझे भी मिलने का सौभाग्य हुआ है, ने भी सावरकर से भगत सिंह की मुलाक़ात का कोई जिक्र नहीं किया है। मन्मथनाथ गुप्त ने तो, क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास लिखा है पर उसमें भी ऐसा कोई उल्लेख नहीं है। यशपाल ने अपने सिंहावलोकन में आज़ाद और सावरकर की एक मुलाक़ात का ज़रूर उल्लेख किया है, जिंसमे सावरकर, आज़ाद को एक पिस्तौल देने का वादा इस शर्त पर करते हैं कि, वे एमए जिन्ना की हत्या कर दें। आज़ाद, सावरकर को झिड़क देते हैं और यह कहते हैं कि, वे क्रांतिकारी हैं, कोई भाड़े के हत्यारे नही है। यदि भगत सिंह और आज़ाद की मुलाकात में, सावरकर की कोई भूमिका होती तो निश्चय ही क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास लिखने वाले इतिहासकारों ने उल्लेख किया होता।

अगर इतिहास को एक तथ्यान्वेषी की भूमिका से न पढ़ा जाय तो ऐसी बहुत सी क्षेपक के रूप में लिखी गयी घटनाएं अक्सर न केवल गुमराह कर देती हैं, बल्कि पाठक की ऐतिहासिक सोच और दिशा ही बदल देती हैं। यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि,  हिंदू महासभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और मुस्लिम लीग
जैसे संगठन, न केवल, इन क्रांतिकारियों के आदर्शों से दूर रहते थे बल्कि इनकी फांसी पर भी वे चुप रहे। पर एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि इन तीनों सांप्रदायिक संगठनों में से आरएसएस, जो अंग्रेजों के खिलाफ हुए उस पूरे संघर्ष के दौरान, खामोश बना रहा, पिछले कुछ समय से ऐसा साहित्य सामने ला रहा है, जो दावा करता है कि, आजादी की लड़ाई के दौर में उनका इन क्रांतिकारियों से जुड़ाव था। एनडीए के शासन काल में जब संघ के स्वयंसेवक, अटल बिहारी वाजपेयी, प्रधानमंत्री थे, तो एक आश्चर्यजनक दावा किया गया कि, संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार 1925 में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु से मिले थे और इन क्रांतिकारियों की बैठकों में भी भाग लिया करते थे और राजगुरु जब सांडर्स की हत्या के बाद भूमिगत हुए थे तब उन्हें आश्रय भी दिया था। 
(देखें- डॉ केशव बलिराम हेडगेवार : राकेश सिन्हा, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, पेज- 160)

सच तो यह है कि, संघ ने भगत सिंह की आकर्षित हो रहे युवा स्वयंसेवकों को स्वाधीनता संग्राम से जुड़ने के लिये रोका था। आजकल आरएसएस और उससे जुड़े संगठन भगत सिंह और तमाम दूसरे क्रांतिकारियों का नाम बड़े ज़ोर-शोर से लेता है। लेकिन हक़ीक़त ये है कि आज़ादी की यह क्रांतिकारी धारा जिस भारत का सपना देखती थी, आरएसएस उससे बिलकुल उलट सपना देखता है। भगत सिंह मज़दूरों का समाजवादी राज स्थापित करना चाहते थे और पक्के नास्तिक थे। आरएसएस के संस्थापक डॉ.हेडगवार ने उस समय स्वयंसवेकों को भगत सिंह के प्रभाव से बचाने के लिए काफ़ी प्रयास किया। यही नहीं, आगे चल कर दूसरे सरसंघचालक गुरु गोलवलकर ने भी भगत सिंह के आंदोलन की निंदा की। 

मीडियाविजिल से लिया गया, यह महत्वपूर्ण अंश पढिये, 
“जब भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दी गई थी, तब हम कुछ दोस्त इतने उत्साहित थे कि हमने साथ में कसम ली थी कि हम भी कुछ खतरनाक करेंगे और ऐसा करने के लिए घर से भागने का फैसला भी ले लिया था. पर ऐसे डॉक्टर जी (हेडगेवार) को बताए बिना घर से भागना हमें ठीक नहीं लग रहा था तो हमने डॉक्टर जी को अपने निर्णय से अवगत कराने की सोची और उन्हें यह बताने की जिम्मेदारी दोस्तों ने मुझे सौंपी. हम साथ में डॉक्टर जी के पास पहुंचे और बहुत साहस के साथ मैंने अपने विचार उनके सामने रखने शुरू किए. ये जानने के बाद इस योजना को रद्द करने और हमें संघ के काम की श्रेष्ठता बताने के लिए डॉक्टर जी ने हमारे साथ एक मीटिंग की. ये मीटिंग सात दिनों तक हुई और ये रात में भी दस बजे से तीन बजे तक हुआ करती थी. डॉक्टर जी के शानदार विचारों और बहुमूल्य नेतृत्व ने हमारे विचारों और जीवन के आदर्शों में आधारभूत परिवर्तन किया. उस दिन से हमने ऐसे बिना सोचे-समझे योजनाएं बनाना बंद कर दीं. हमारे जीवन को नई दिशा मिली थी और हमने अपना दिमाग संघ के कामों में लगा दिया.”
( मधुकर दत्तात्रेय देवरस, संघ के तीसरे प्रमुख। 
स्मृतिकण- परम पूज्य डॉ. हेडगेवार के जीवन की विभिन्न घटनाओं का संकलन, आरएसएस प्रकाशन विभाग, नागपुर, 1962, पेज- 47-48)

यही क्रम सुभाष बाबू से भी खुद को जोड़ने की लालसा में दिखता है। 2014 के बाद नेताजी से जुड़ी फाइलें खोलने की कवायद शुरू हुयी और उन क्लासिफाइड दस्तावेज में यह सब ढूंढ़ने की कोशिश की गयी कि, नेहरू और सुभाष के रिश्ते बेहद खराब थे। यहां तक कहा गया कि नेता जी की मृत्यु में नेहरू का हांथ है। नेहरू ने प्रधानमंत्री बनने के लिये सुभाष को गायब करा दिया। पर इन सब दुष्प्रचारों का उत्तर तो सुभाष बाबू ने आज़ाद हिंद फौज की तीन ब्रिगेड के नाम गांधी, नेहरू और आज़ाद के नाम पर रख कर दे दिया। सुभाष बाबू की आत्मकथा जो अधूरी रह गयी है, और जिसका उल्लेख बार बार सौगत रॉय द्वारा लिखी किताब, हिज मैजेस्टी ओप्पोनेंट, में किया गया है, में पढ़ कर यह जाना जा सकता है कि नेहरू और सुभाष के बीच कैसे सम्बंध थे। नेताजी सुभाष की फाइल्स में जब कुछ ऐसा नही मिला, जिससे आरएसएस के नेहरू के प्रति सोच की पुष्टि होती हो तो, उसे फिर बस्ता ए खामोशी में डाल दिया गया। 

अब एक हाल का ही प्रकरण पढ़ लें। 23 जनवरी 2021 को कोलकाता में नेताजी सुभाष की जयंती मनाई जा रही थी। मेरे एक मित्र भी उस आयोजन में बतौर विशिष्ट मेहमान शिरकत कर रहे थे। उस आयोजन में उद्घोषक ने नेता जी के देश से जियाउद्दीन खान का वेश धारण कर के भाग जाने का उल्लेख किया और एक पुछल्ला भी जोड़ दिया कि,
" ऐसा कहा जाता है कि सावरकर ने नेता जी को देश के बाहर जाने और आईएनए के गठन का सुझाव दिया था। "
इस आयोजन में प्रधानमंत्री भी मुख्य अतिथि के रूप में विराजमान थे और इसी आयोजन में ममता बनर्जी को, जय श्रीराम के नारे के साथ हूट किया गया था तो वे, सभा छोड़ कर चली गयी थीं।

इतिहास में ऐसे झूठ जानबूझकर  इंजेक्ट किये जाते हैं। यह एक प्रकार से इतिहास-ज्ञान की संवेदनशीलता के टेस्ट के रूप में, दुष्प्रचारवादी अक्सर करते रहते हैं। ऐसे झूठ गोएबल्स के सिद्धान पर प्लांट किये जाते हैं। ऐसी गलताबयानियाँ, प्राचीन इतिहास और कुछ हद तक मध्ययुगीन इतिहास के क्षेत्र में तो अमूमन चल जाती हैं, क्योंकि वहां इतिहास लेखन की सामग्री का अभाव, और उनकी प्रमाणिकता पर थोड़ा बहुत संशय रहता है। अतः जैन दर्शन के स्याद्वाद की तरह यह इंजेक्टेड झूठ थोड़ा बहुत निभ भी जाता है।

पर आधुनिक इतिहास और विशेषकर स्वाधीनता संग्राम के इतिहास मे यह सब झूठ बिल्कुल नहीं निभ पाता है, क्योंकि इस कालखंड के बारे में मुद्रित और लिखित सामग्री इतनी मात्रा में उपलब्ध है कि झूठ कितनी भी खूबसूरती से गढ़ा गया हो, वह अयां हो ही जाता है। लगभग सभी बड़े नेताओं ने अपने अपने संस्मरण लिखे हैं। अखबारों की फाइलों में सारी घटनाओं का उल्लेख है। सरकार के अपने क्लासिफाइड औऱ खुले दस्तावेज हैं। कोई भी अनुसन्धितसु, इन सबका अध्ययन कर के अपने निष्कर्ष को निकाल सकता है।

नेताजी सुभाष और सावरकर दोनो ही राजनीति, राजनीतिक विचारधारा, स्वाधीनता संग्राम और राजनीति में धर्म के घालमेल के मुद्दों पर, विपरीत ध्रुवों पर स्थित है। 1939 में जब नेताजी कांग्रेस अध्यक्ष बनते हैं तो उन्होंने ने ही पहली बार यह नियम बनाया था कि, साम्प्रदायिक दलों, मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा के सदस्य कांग्रेस में नहीं शामिल होंगे। यह दोहरी सदस्यता जैसा नियम था। जो 1979 में जनता पार्टी के समय मधु लिमये ने लागू करने की मांग की थी, जिसके कारण जनसंघ का घड़ा जो 1977 में जनता पार्टी में शामिल हुआ था, वह आरएसएस से अपना सम्बंध तोड़ने को राजी नहीं था और अलग होकर भाजपा बना।

1940 में नेताजी फॉरवर्ड ब्लॉक का गठन करते हैं, जो वामपंथी विचारधारा पर आधारित होती है। फॉरवर्ड ब्लॉक एक राजनीतिक दल के रुप में अब भी है और वह वाम मोर्चा के एक घटक दल के रूप में, आज भी है। जब तक नेताजी, देश से बाहर नहीं निकल जाते हैं, तब तक वे हिन्दू महासभा के डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जमकर बंगाल में विरोध करते हैं। वीडी सावरकर, 1937 से 43 तक हिन्दू महासभा के अध्यक्ष रहते हैं। वे अंग्रेजों के पेंशनयाफ्ता थे। भारत छोड़ो आंदोलन के विरोधी और जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत के हमख़याल बने रहते हैं। कैसे इस बात पर यक़ीन कर लिया जाय कि, सावरकर ने नेता जी को बाहर जानें की सलाह दी थी ?

ऐसे झूठ जानबूझकर कर कई सालों से  इंजेक्ट किये जा रहे है। एक झूठ तो लम्बे समय से जवाहरलाल नेहरू की वंशावली पर फैलाया जा रहा है कि, वे किसी गयासुद्दीन के खानदान के हैं। गांधी नेहरू का चरित्र प्रमाण पत्र सबसे अधिक यही आरएसएस जारी करता है। यह एक प्रकार की हीनभावना है, न कि महान स्वाधीनता संग्राम के समर में भाग न लेने का प्रायश्चित। इतिहास का अध्ययन एकांगी नहीं हो सकता है। हर घटना ही बहुआयामी होती है, उसे जिधर से भी देखियेगा वह अलग रूप से दिखेगी। हम एक प्रकार से गोएबेलिज़्म के युग मे हैं। फर्जी स्क्रीनशॉट, अप्रमाणित लिंक के ढेर में से सच ढूंढ़ना थोड़ा श्रमसाध्य तो है, पर बहुत मुश्किल भी नहीं है। 

( विजय शंकर सिंह )


Friday, 26 March 2021

सोमलता - सोम की पहचान (7) समापन अंश

हमने  सोम लता पर अपनी चर्चा  यह सोच कर नहीं आरंभ की थी   इसका इतना विस्तार हो जाएगा।  इसका समाहार करते हुए,  हम कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं का मात्र उल्लेख करते हुए इस प्रकरण को समाप्त करेंगे, जिससे मूल विषय पर लौट सकें।

( 1) कुछ लोगों का यह दावा कि इसमें पत्ती नहीं होती थी,  गलत है।[1]  इसमें पत्ती की बहुुतायत होती थी और इसीलिए इसे सुपर्ण कहा गया  और  इसकी एक पत्ती के कट कर गिरने से पर्ण (पलाश) की उत्पत्ति बताई गई। दिव्य सोम के संदर्भ में सुपर्ण पार्थिव सोम का आरोपण है और वहाँ चन्द्रमा के आकाश में चलने के आधार पर उसे उसी तरह सुपर्ण कहा गया है जैसे सूर्य को पतंग कहाा: जाता है:
(सुपर्णं विप्रा कवयो वचोभिरेकं सन्तं बहुधा कल्पयन्ति ।
छन्दांसि च दधितो अध्वरेषु ग्रहान्त्सोमस्य मिमते द्वादश ।। 10.114.5)
[1] Roxburgh, the first official superintendent of the East India Company's botanical garden in Calcutta during 1793-1814  (Flora India,Flora India),  identified the plant, locally known as Soma-lata with Sarcostemma brevistigma (=Asclepios acida), 'a leafless bush of green succulent branches, growing upwards with flowers like those of an onion'. He also pointed out that a different plant, a rue called Ruta graveolens, was also called Soma-lata. देखों, रोजेश कोछड़, पूर्वोद्धृत)]

(2) वन्य रूप में यह पहाड़ी (गिरिषु हि सोम, शत.ब्रा. 3.3.4.7 ) और नदियों के कगारों के ढलान पर उगा करता था (सिन्धोरिव प्रवणे निम्न आशवो वृषच्युता मदासो गातुमाशत)।

(3)  इसके  गूदेदार छिलके को पीसकर बूँद दो बूँद नशीला रस नहीं निकाला जाता था। रस इसके भीतर के फुप्फुस में होता था, और इसके नीरस-कठोर छिलके के कारण, इसकी गेड़ियाँ बनाई जाती थीं और इनको कूट,  कुचल या पेर कर, रस निकाला जाता था।  पहली बार (प्रातःसवन) में निकला रस अधिक मीठा होता था और  (अग्नि और ब्राह्मण का भाग होता था)। इसे पका कर इच्छित विपाक (गुड़ या भेली)  बनाया जाता था।  पहली बार में पूरा रस नहीं निकल पाता था, इसलिए, इस पर पानी का छिड़काव (आप्यायन)  किया जाता था (आप्यायमानो अमृताय सोम)।  इससे दुबारा रस निकाला जाता था,  इसे दूसरा सवन  या पुरोहिती भाषा में माध्यन्दिन सवन कहा जाता था और इसका पान स्वामिवर्ग (इन्द्र, वायु, क्षत्रिय)  करते थे (माध्यंदिनस्य सवनस्य धानाः पुरोळाशमिन्द्र कृष्वेह चारुम् )।  खोइये में मिठास  फिर भी बची रह जाती थी।   पानी का छिड़काव तिबारा करके,  इसका रस निकाला जाता था,   इसे तृतीय सवन कहा जाता था।  अनुगतों, दक्षकर्मियों और सोम के अधिकारी माने जाने वाले समादृत जनों (ऋभुओं, वैश्यों और विश्वदेवों)  का भाग यही माना जाता था। इसके बाद ही इसे खोइया (ऋजीष) माना जाता था। परन्तु यह शास्त्रीय विभाजन था  जो दैनंदिन के व्यवहार से कोई संबंध नहीं रखता था।   इसमें  ग्राह्य  केवल यह है कि  सोम का रस निकालने के लिए एक ही प्रक्रिया को कई बार दोहराया जाता था,  शेष कर्मकांडीय लफ्फाजी है।

(4)  वैदिक काल से पहले से ही सोम की खेती होने लगी थी और इसके विपाक का व्यापारिक विनिमय में प्रयोग हो रहा था :              
ईमान इमा भुवनानि वीयसे युजान इन्दो हरिः सुपर्ण्यः ।
तास्ते क्षरन्तु मधुमद् घृतं पयस्तव व्रते सोम तिष्ठन्तु कृष्टयः ।। 9.86.37 

इसके बीज नहीं होते थे। इसके डंठल को ही काट कर बीज की तरह बोया (रोपा) जाता था और इसके टुकड़े करते समय इस बात की सावधानी बरती जाती थी कि इसका आँखा टूटने या कटने न पाए [वपन्तो बीजमिव धान्याकृतः पृञ्चन्ति सोमं न मिनन्ति बप्सतः ।। 10.94.13
गन्ने (और आलू, मूली, गोभी आदि) की बोआई के लिए खेत को जोत-गोड़ कर मेढ़ियाँ और नालियाँ बनाई जाती है। गन्ने की पोरियाँ मेढ़ी में दबाई जाली हैं। सोम की बोआई की  यही विधि थी: 
 भद्रे क्षेत्रे निमिता तिल्विले सनेम मध्वः अधिगर्तस्य ।। 5.62.7
संदर्भ से अवगत न होने के कारण सायण, ग्रिफिथ आदि ने इस ऋचा के बहुत अटपटे अर्थ किए हैं। उनके नमूने नीचे हैं: 
भद्रे क्षेत्रे निमिता (अवस्थितः) तिल्विले (घृतसोमादिना स्निग्धे वा) सनेम (संभजेम) मध्वः अधिगर्तस्य (रथस्योपरि) ।। 5.62.7
stablished on a field deep-spoiled and fruitful. So may we share the meath that loads your car-seat.

(5) सोम का रस निकालने की तीन विधियाँ थी।  एक में सिल-बट्टे (दृषद-उपल); दूसरा खरल और ग्रावा और तीसरा ओखली (उलूखल) और मन्था  जिसकी बनावट तेल पेरने के कोल्हू जैसी होती थी। इसके ओखली वाला भाग तृदिल होता था अर्थात इसमें तिरछा छेद बना रहता था जिससे पेरे हुए रस की धार निकलती और नीचे कठौत (द्रोण कलश) में गिरती थी और इससे एक आवाज पैदा होती थी। मंथे का ऊपरी सिरा पतला होता था जिससे रस्सियाँ बँधी होती थी और नीचे का सिरा मोटा (पृथुबुध्न) होता था और इसके घूमने से भी संगीत - चें चें की ध्वनि पैदा होती थी। एक तीसरी ध्वनि ओखली के मध्य भाग पटरे के रगड़ने से निकलती थी। इसके कारण उसे तीन भाषाओं के ज्ञाता, और इसलिए असाधारण कवि ( प्र काव्यमुशनेव ब्रुवाणो)  और (ऋषिमना य ऋषिकृत्स्वर्षाः सहस्रणीथः पदवीः कवीनाम् । 9.96.18) जैसी मुग्ध करने वाली और इनके काव्यशिल्प को न समझने वालों को वाहियात लगने वाली रचनाएँ संभव थीं। श्लेष या द्वि-अर्थिता इस पूरी काव्य यात्रा में चलती रहती है।  वानस्पतिक सोम का रस निकालने का चित्रण नाना प्रसंगों में हुआ है, पर पहले मंडल के 28 वें सूक्त में एक साथ कई ऋचाओं में हुआ है।  सबसे महत्वपूर्ण है सोम का व्यावसायिक स्तर पर उत्पादन।  कताई बुनाई की तरह यह काम घर घर में किया जाता था:  
यच्चिद्धि त्वं गृहेगृहे उलूखक युज्यसे ।
इह द्युमत्तमं वद जयतामिव दुन्दुभिः ।। 1.28.5

(6)  सोमलता में मिठास अगहन (मार्गशीर्ष) से पहले नहीं आ पाता था (सोमो राजा मृगशीर्षेण आगन्, श.3.1.2.2 )।  इससे पहले यदि लोभवश इसको चखने का प्रयत्न किया तो इसके सेवन को पाप समझा जाता था।हम यहां इसके  प्रमाणों से बचना चाहेंगे क्योंकि वे बिखरे हुए हैं  और उनको समेटना चाहा तो अनर्थ  हो जाएगा।  अगहन से  फाल्गुन तक  इसका भरपूर उपयोग होता था, फाल्गुन  के बाद गन्नेके भीतर का रस कम होने लगता है।  ऐसा ही संकट सोम के साथ भी था।  होलिका को वैदिक समाज में  वार्त्र्य्घनी  पूर्णिमा के  रूप में मनाया जाता था।   इसके बाद  के मास का एक नाम आज तक मधुमास है।  वार्त्र्य्घनी  पूर्णिमा के बाद समिष्ट  यजुस का सत्र चलता था, जिसका जोर, जैसा कि समिष्ट से लगता है, जितना गन्ना (या सोम) पेरा नहीं गया है उसे जल्द से जल्द, समय बद्ध रूप में निकाल लिया जाए, और इसका दूसरा नाम था अग्निस्तोम, जो सोमरस को पका कर इसका गुड़ या अविकारी रूप में पहुँचाने का प्रतीक था जिससे वह स्वयं अमर और अमरता का दाता बना कर पेश किया जाता है 

(7) सोम को राजा कहा है तो इसका राजसी ठाट भी होना चाहिए, इसे समझने में गन्ने और सरकंडे से  मदद मिल सकती है।  गन्ने के निचले हिस्से की पोरें छोटी होती हैं और उनसे जड़ें निकल कर जमीन पकड़ने के लिए बढ़ी होती हैं। यदि पौधे को जड़ से उखाड़ें तो नीचे का हिस्सा टेढ़ा होता है। इसे सोम राजा का उपानह कहा गया है। 

इसकी पत्तियों के दो भाग होते हैं।  मूज प्रजाति में पत्ती का दंड भाग एक खोल जैसा होता है जो अगली गाँठ के तने (पोर) को घेरे रहता है। यह. भीतर से चिकना होता है, इससे आगे बाहर की ओर फैलने वाली लंबी पत्ती निकलती है जिसके कोर खुरदरे, किंचित धारदार, होते हैं। इसके खोल वाले भाग को राजा का पहनावा - पर्यानह - कहा गया है। मूज, कास और गन्ने के सिरे पर पत्तियों का गुच्छा होता है जिसे वल्श (सहस्रवल्शं हरितं भ्राजमानं हिरण्ययम्, 9.5.10) कहा गया है। राजवेश के संदर्भ में इसे पगड़ी (उष्णीष ) बताया गया है।  यदि गन्ने को काटने में विलंब हो जाय तो कास  और मूज की तरह इससे एक लंबी कलंगी नुमा भुई या फूलों का स्तवक निकलता है, इसे मयूर के वर्ह जैसा (आ त्वा रथे हिरण्यये हरी मयूरशेप्या, 8.1.25) बताया गया है। प्रसंगवश याद दिला दें कि हिन्दू  राजाओं का आदर्श रहा है चंद्रमा।  राजाओं की पगड़ी के ऊपर लगी हुई कलँगी सोमवृक्ष की इसी कलँगी का प्रतिरूप है।  रोचक है यह तथ्य कि  जैसे ज्ञान का प्रतीक शिखा (चुरकी)  दीपशिखा को मूर्त करती है, पार्थिव सोम की पगड़ी  और कलँगी का  आरोपण  दिव्य सोम पर करने के बाद,  राजा के मुकुट के ऊपर लगी  कलँगी सोम के स्वभाव का प्रतीक बन जाती है। जो भी हो ब्रह्मणों आदि में जहां सोम की खरीद का नाटकीय चित्रण है, सोम के इस राजोपम  वेश का  वैसा ही नाटकीय चित्रण किया गया है :
अथ संप्रेष्यति सोमोपनहनं आहर, सोम पर्याणहनं आहर, उष्णीषं आहर, इति। यत उष्णीषं विन्देत उष्णीष: स्यात्, यदि उष्णीषं न विन्देत् सोमपर्याणहनस्यैव  द्वयंगुलं वा त्रयंगुलं वा अवकृन्तेत उष्णीष भाजनम् । अध्वर्युः वा यजमानो वा सोमोपनहनं आदत्ते।
(श्रौतकोश, वैसंम, पूना, शाके 1892, खंड 2, 57)।

परन्तु राजा का तख्त भी तो होना चाहिए। सोम की गेड़ियों (उपांशुओं) कूटने/पेरने के लिए जिस ओखली/कोल्हू के खल में डाला जाता था वह गूलर की लकड़ी का बनता था, इसलिए सोमराजा की आसंदी गूलर की  (औदुंबरी आसन्दी) हुई। उनको नदी तट से रथ कर रख कर लाया जाता था, इसलिए राजा का वाहन भी प्रस्तुत है।

(8) सोम न वृक्ष की कोटि में आता है न लता के। मोटाई की तुलना में लंबाई को देखते हुए कई बार लता या वल्ली कह दिया जाता है। पर लता का अनिवार्य गुण यह है कि इसे यदि किसी तने, या तनी हुई चीज का सहारा न मिले, तो यह ऊपर नहीं उठ सकती, जमीन पर चाहे जितनी दूर तक क्यों न फैल जाए। वृक्ष यह है नहीं, क्योंकि उस दशा में उसे छायादार या आच्छादक होना चाहिए। हिन्दी वक्ष और अं. बॉक्स इसी के सजन्य (कॉग्नेट) हैं। फिर भी विकल्प रूप में लोग सोमतरु, कल्पतरु जैसे प्रयोग करते हैं। गन्ने के विषय में भी इक्षुलता, इक्षुयष्टि का प्रयोग चलता है। ऋग्वेद में लता या वल्ली या तरु का प्रयोग नहीं मिलता, ये बाद में जोड़े गए उपपद हैं, वृक्ष का मिलता है, पर पीपल के सुपलाश वृक्ष का। सुपर्ण सोम का रस यदि यम को देवों के साथ बैठ कर पीना है तो पेड़ भी सुपर्ण या सुपलाश होना चाहिए।

(9) सुरा रखने के पात्र को सुराही (सुराधानी) कहते हैं, जिसमें लघुतासूचक प्रत्यय है, सोम के संदर्भ में सोमधान (पवस्व सोम देववीतये वृषेन्द्रस्य हार्दि सोमधानमा विश,  9.70.9),  कठौत (द्रोण कलश),  कलश, कोश, कुंड आदि बड़े पात्रों का उल्लेख है  जिसका अर्थ है इसका बड़े पैमाने पर उत्पादन और सेवन होता था। इसे पेट भर कर पीने (कुक्षिपातमः) के हवाले हैं। इसके अधिक पी लेने पर वायुदोष (गैस) पैदा होने से पेट में गुड़गुड़ाहट का एक चित्रण है - लगता है नशे में धुत दो शराबी आपस में लड़ रहे हों (हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम्, 8.2.12)।  
सोमरस को केवल मिट्टी, काठ, या चमड़े की मशक (दृति) में रखा जा सकता था। धातु के संपर्क में आने पर यह विषाक्त हो जाता था और इससे विषूची (डिसेंट्री) का ऐसा प्रकोप हो सकता था कि जान पर बन आए।  त्वष्टा ने पुत्रवध का बदला लेने के लिए, अनुमानतः, ऐसा ही सोम पिला दिया था।  
(10) सोमपान प्याले (ग्रह) से किया जाता था। पर इसको पानी से पखार कर चूसा भी जाता था (अथ अप्सु सोमान् परि उपविश्य अवघ्रेण भक्षयन्ति, बौधायन श्रौतसूत्र,16.21.24)। ऋग्वेद में जंभसुत (दाँत से चूसने) का एक बार हवाला है। परन्तु दीर्घ काल तक खाये जाने वाले (दीर्घभक्ष) सोम [श्रौतकोश,2, प.. 568, 569, 580, 589) का क्या आशय है? घर्मसोम का क्या आशय है जिसके सहारे अश्विनीकुमार अपनी यात्रा करते हैं (अर्वाञ्चा नूनं रथ्येह यातं पीपिवांसमश्विना घर्ममच्छ ।। 5.76.1)। आशय  यह है  कि सोमरस को पकाया जाता था। उसके गुड़ (घर्मसोम), भेली या पिंडी (शर्करा, श्रौ. 2, प. 13, 449, 514, 515) और खांड़ या रवा (सिकता, श्रौ. 2, प. 76, 113, 143, 514, 522 आदि ) रूप कुछ बाद की कृतियों में मिलते हैं। इनमें से केवल घर्म सोम का ऋग्वेद में उल्लेख है। वैदिक काल में सोमविद्या इसी स्तर तक पहुँच पाई थी।  निर्यात के लिए संभवतः घर्मसोम जिसे पूरबी में गुड़, और हिंदी में राब/शीरा कहते है, का ही व्यवसाय होता था।  उनके परिवहन में संभवतः उन भंडारण पात्रों का प्रयोग किया जाता था जिनका पहले घरेलू उपयोग  जल के भंडारण के लिए, कूँड़ा (कुंड)  के रूप में, में किया जाता धा। वर्षान्त में इसके रंध्रों के भर जाने के बाद इसे बदल दिया जाता था।  इसी का भंडारण पात्रों के रूप में, मेरे बचपन तक काम में लाया जाता था और संभवतः ऐसे ही कोशों का उपयोग तप्त या घर्म सोम के निर्यात में किया जाता था: ( त्रयः कोशासः श्चोतन्ति तिस्रश्चम्वः सुपूर्णाः, समाने अधि भार्मन्, ऋ. 8.2.8) जिसका ऋग्वेद मे संकेत है, पर संदर्भ का ध्यान न रखने के कारण उनका प्रायः अनर्थ हो जाता है। 

(11)   हम देख आए हैं कि ऋग्वेद में इक्षु का प्रयोग न हो कर इषं/उक्षं का प्रयोग सोम के लिए मिलता है।  सोमपायियों के लिए सोम्यास (ब्राह्मणासः पितरः सोम्यासः, 6.75.10;  उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु,10.15.5) का प्रयोग मिलता है।  जब इस बात को लेकर संदेह पैदा हो गया कि सोम वास्तव में क्या था, तब मनु विवस्वान के वंश में इक्ष्वाकु (गन्ने का रस पीने वाले) नाम के एक पूर्वज कल्पित कर लिए जाते हैं। इक्ष्वाकु सोम्यास का पर्याय है। 

(12)  जब सोम के अभाव में वैकल्पिक पौधों में से किसी का रस याजिकीय प्रयोजन से निकाला जाता था तब रात भर के लिए वर्हि और प्रस्तर के बीच में गन्ने की दो पोरियाँ  रखी जाती थी कि दोनों परस्पर चिपक न जाएँ (ऐक्षवी विधृती। न इत वर्हिश्च प्रस्तरश्च संलुभ्यात्, शत.ब्रा. 3.4.1.18)।  

(13)  यहाँ आकर हमारे सामने एक बहुत विचित्र समस्या उत्पन्न होती है।   यदि सोमयाग हो रहा है,  सोम का रस निकाला जाना है और इक्षु के टुकड़ों का उसमें आनुष्ठानिक  उपयोग किया जा रहा है तो निश्चय ही सोम और गन्ना दो अलग प्रजातियां  हुईं।  इसी से जुड़ी एक दूसरी गुत्थी है।  यदि भारत में सोम उपलब्ध था, तो उसकी जगह दूसरे विकल्प क्यों सुझाए गए हैं।  इन दोनों का समाधान परस्पर जुड़ा हुआ है। पहले हम सोम की विधृति का लें। गन्ना बोया मधुमास में ही जाता था पर इसके बढ़ने और इसमें मिठास आने में आधा साल लग जाता था। यज्ञ इस बीच भी होते थे, पर उनमें सोम पेरा नहीं जा सकता था। यज्ञ जिन लोगों की जीविका से जुड़ गया था उनका काम इसके अभाव में चल नहीं सकता था।  इस बीच के यज्ञों के लिए  कोई उपाय  जरूरी था। उसे उन्होंने वैकल्पिक विधानों के भरोसे जारी रखा था, पर तैयार गन्ना ही सही सोम था, यह चेतना में कहीं बना हुआ था।  इसलिए रीतिनिर्वाह के लिए गन्ने की पोरियों का इस्तेमाल होता था।

(14) वैकल्पिक विधान वर्जित अवधि के कारण या सूखा पड़ने की स्थिति  में या ऐसे क्षेत्र के लिए था जिसमे गन्ना न उग सकता था (सर्वसोमविनाशे   ओषधीभिः अभिसुत्य प्रचरेत,   श्रौतकोश,2, अग्निष्टोम प्रायश्चित्तानि,683,बौधायन 29.1)। पर विकल्प चुनते समय इस बात का ध्यान रखा जाता था कि रूप, रंग या संपर्क के कारण उसका सोम से कोई संबंध बनता हो। इसके विस्तार में जाना जरूरी नहीं।

 (15) ऐसे पक्षों पर विचार करते समय हमें इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि अपनी प्रभुता कायम करने के लिए पुरोहितों ने यज्ञ को एक विज्ञान बना दिया था।  इसका अधिकारी ही बता सकता था कि इसकी पूर्ति होने तक किन अभावों में क्या विकल्प सुलभ है।  और यह केवल सोम के अभाव के विषय में न था, हर मामले में था।  सोम के पाक को शुद्ध करने के लिए दूध, कुछ बनस्पतियों का पुट आज तक दिया जाता है, पर यदि एक हव्य न मिले तो क्या यज्ञ रुक जाएगा। नहीं, इसके न होने पर किससे और उसके न होने पर किससे काम चलाया जा सकता है इसका एक आधिकारिक विधान है । इन विधानों को जानने वाला ही यज्ञ-विज्ञान में निष्णात माना जाता था:   
अथ यदि घर्मदुघं न विन्देतान्यां दोहयेत्। अथ यदि अन्यां न विन्देत अजां दोहयेत्। अथ यदि अजां न विन्देत अर्कक्षीरैः प्रचरेत्। अथ यत् अर्कक्षीरं न विन्देत यवपिष्टानि व्रीहिपिपिष्टानि शयामाकपिष्टानि वा अद्भिः संसृज्य तैः प्रचरेत्।..न त्वेव न प्रचरेत्। बौधा. 9.17, श्रौतकोश)
अन्ततः हम सोम और इक्षु के अभेद के बाद भी कुछ दुविधा और शब्दभेद पैदा होने में उस लंबे सूखे के दौर को नहीं भूल सकते जिसमें खेती ही नहीं पशुपालन और आत्मरक्षा का संकट आ खड़ा हुआ था और जिसमें अधिक पानी चाहने वाले इस पौधे की खेती प्रभावित होना ही था। इस बीच ही सोम के अभाव में किसी भी दृष्टि से उससे किसी भी रूप में संबंध रखने वाले पौधो का वैकल्पिक प्रयोग आरंभ हुआ हो सकता है जिसमें वे सोम माने जाने लगे और राहत का दौर आने पर गन्ने की खेती फिर आरंभ हुई तो पहचान का संकट पैदा हो गया।

हम समझते हैं इस लंबी व्याख्या के बाद शंकालु लोगों को भी सोम को पहचानने में मदद मिलेगी, फिर भी यदि कोई आशंका बनी रह गई हो तो उसे उठाया जा सकता है और उसका समाधान करने का प्रयत्न करूँगा।
( समाप्त )

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

सोम की पहचान (6)
https://www.facebook.com/2247251588634197/posts/5902326229793363/
#vss

Thursday, 25 March 2021

सोमलता - सोम की पहचान (6)

हमने  सोम लता पर अपनी चर्चा  यह सोच कर नहीं आरंभ की थी, कि इसका इतना विस्तार हो जाएगा।  इसका समाहार करते हुए,  हम कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं का मात्र उल्लेख करते हुए इस प्रकरण को समाप्त करेंगे, जिससे मूल विषय पर लौट सकें।

● ( 1) कुछ लोगों का यह दावा कि इसमें पत्ती नहीं होती थी,  गलत है।[1]  इसमें पत्ती की बहुुतायत होती थी और इसीलिए इसे सुपर्ण कहा गया  और  इसकी एक पत्ती के कट कर गिरने से पर्ण (पलाश) की उत्पत्ति बताई गई। दिव्य सोम के संदर्भ में सुपर्ण पार्थिव सोम का आरोपण है और वहाँ चन्द्रमा के आकाश में चलने के आधार पर उसे उसी तरह सुपर्ण कहा गया है जैसे सूर्य को पतंग कहाा: जाता है:
(सुपर्णं विप्रा कवयो वचोभिरेकं सन्तं बहुधा कल्पयन्ति ।
छन्दांसि च दधितो अध्वरेषु ग्रहान्त्सोमस्य मिमते द्वादश ।। 10.114.5)
[1] Roxburgh, the first official superintendent of the East India Company's botanical garden in Calcutta during 1793-1814  (Flora India,Flora India),  identified the plant, locally known as Soma-lata with Sarcostemma brevistigma (=Asclepios acida), 'a leafless bush of green succulent branches, growing upwards with flowers like those of an onion'. He also pointed out that a different plant, a rue called Ruta graveolens, was also called Soma-lata. देखों, रोजेश कोछड़, पूर्वोद्धृत)]

● (2) वन्य रूप में यह पहाड़ी (गिरिषु हि सोम, शत.ब्रा. 3.3.4.7 ) और नदियों के कगारों के ढलान पर उगा करता था (सिन्धोरिव प्रवणे निम्न आशवो वृषच्युता मदासो गातुमाशत)।

● (3)  इसके  गूदेदार छिलके को पीसकर बूँद दो बूँद नशीला रस नहीं निकाला जाता था। रस इसके भीतर के फुप्फुस में होता था, और इसके नीरस-कठोर छिलके के कारण, इसकी गेड़ियाँ बनाई जाती थीं और इनको कूट,  कुचल या पेर कर, रस निकाला जाता था।  पहली बार (प्रातःसवन) में निकला रस अधिक मीठा होता था और  (अग्नि और ब्राह्मण का भाग होता था)। इसे पका कर इच्छित विपाक (गुड़ या भेली)  बनाया जाता था।  पहली बार में पूरा रस नहीं निकल पाता था, इसलिए, इस पर पानी का छिड़काव (आप्यायन)  किया जाता था (आप्यायमानो अमृताय सोम)।  इससे दुबारा रस निकाला जाता था,  इसे दूसरा सवन  या पुरोहिती भाषा में माध्यन्दिन सवन कहा जाता था और इसका पान स्वामिवर्ग (इन्द्र, वायु, क्षत्रिय)  करते थे (माध्यंदिनस्य सवनस्य धानाः पुरोळाशमिन्द्र कृष्वेह चारुम् )।  खोइये में मिठास  फिर भी बची रह जाती थी।   पानी का छिड़काव तिबारा करके,  इसका रस निकाला जाता था,   इसे तृतीय सवन कहा जाता था।  अनुगतों, दक्षकर्मियों और सोम के अधिकारी माने जाने वाले समादृत जनों (ऋभुओं, वैश्यों और विश्वदेवों)  का भाग यही माना जाता था। इसके बाद ही इसे खोइया (ऋजीष) माना जाता था। परन्तु यह शास्त्रीय विभाजन था  जो दैनंदिन के व्यवहार से कोई संबंध नहीं रखता था।   इसमें  ग्राह्य  केवल यह है कि  सोम का रस निकालने के लिए एक ही प्रक्रिया को कई बार दोहराया जाता था,  शेष कर्मकांडीय लफ्फाजी है।

● (4)  वैदिक काल से पहले से ही सोम की खेती होने लगी थी और इसके विपाक का व्यापारिक विनिमय में प्रयोग हो रहा था :                                                                                                                                                                                                                 
ईमान इमा भुवनानि वीयसे युजान इन्दो हरिः सुपर्ण्यः ।
तास्ते क्षरन्तु मधुमद् घृतं पयस्तव व्रते सोम तिष्ठन्तु कृष्टयः ।। 9.86.37 

इसके बीज नहीं होते थे। इसके डंठल को ही काट कर बीज की तरह बोया (रोपा) जाता था और इसके टुकड़े करते समय इस बात की सावधानी बरती जाती थी कि इसका आँखा टूटने या कटने न पाए [वपन्तो बीजमिव धान्याकृतः पृञ्चन्ति सोमं न मिनन्ति बप्सतः ।। 10.94.13
गन्ने (और आलू, मूली, गोभी आदि) की बोआई के लिए खेत को जोत-गोड़ कर मेढ़ियाँ और नालियाँ बनाई जाती है। गन्ने की पोरियाँ मेढ़ी में दबाई जाली हैं। सोम की बोआई की  यही विधि थी: 
भद्रे क्षेत्रे निमिता तिल्विले सनेम मध्वः अधिगर्तस्य ।। 5.62.7
संदर्भ से अवगत न होने के कारण सायण, ग्रिफिथ आदि ने इस ऋचा के बहुत अटपटे अर्थ किए हैं। उनके नमूने नीचे हैं: 
भद्रे क्षेत्रे निमिता (अवस्थितः) तिल्विले (घृतसोमादिना स्निग्धे वा) सनेम (संभजेम) मध्वः अधिगर्तस्य (रथस्योपरि) ।। 5.62.7
stablished on a field deep-spoiled and fruitful. So may we share the meath that loads your car-seat.

● (5) सोम का रस निकालने की तीन विधियाँ थी।  एक में सिल-बट्टे (दृषद-उपल); दूसरा खरल और ग्रावा और तीसरा ओखली (उलूखल) और मन्था  जिसकी बनावट तेल पेरने के कोल्हू जैसी होती थी। इसके ओखली वाला भाग तृदिल होता था अर्थात इसमें तिरछा छेद बना रहता था जिससे पेरे हुए रस की धार निकलती और नीचे कठौत (द्रोण कलश) में गिरती थी और इससे एक आवाज पैदा होती थी। मंथे का ऊपरी सिरा पतला होता था जिससे रस्सियाँ बँधी होती थी और नीचे का सिरा मोटा (पृथुबुध्न) होता था और इसके घूमने से भी संगीत - चें चें की ध्वनि पैदा होती थी। एक तीसरी ध्वनि ओखली के मध्य भाग पटरे के रगड़ने से निकलती थी। इसके कारण उसे तीन भाषाओं के ज्ञाता, और इसलिए असाधारण कवि ( प्र काव्यमुशनेव ब्रुवाणो)  और (ऋषिमना य ऋषिकृत्स्वर्षाः सहस्रणीथः पदवीः कवीनाम् । 9.96.18) जैसी मुग्ध करने वाली और इनके काव्यशिल्प को न समझने वालों को वाहियात लगने वाली रचनाएँ संभव थीं। श्लेष या द्वि-अर्थिता इस पूरी काव्य यात्रा में चलती रहती है।  वानस्पतिक सोम का रस निकालने का चित्रण नाना प्रसंगों में हुआ है, पर पहले मंडल के 28 वें सूक्त में एक साथ कई ऋचाओं में हुआ है।  सबसे महत्वपूर्ण है सोम का व्यावसायिक स्तर पर उत्पादन।  कताई बुनाई की तरह यह काम घर घर में किया जाता था:  
यच्चिद्धि त्वं गृहेगृहे उलूखक युज्यसे ।
इह द्युमत्तमं वद जयतामिव दुन्दुभिः ।। 1.28.5

● (6)  सोमलता में मिठास अगहन (मार्गशीर्ष) से पहले नहीं आ पाता था (सोमो राजा मृगशीर्षेण आगन्, श.3.1.2.2 )।  इससे पहले यदि लोभवश इसको चखने का प्रयत्न किया तो इसके सेवन को पाप समझा जाता था।हम यहां इसके  प्रमाणों से बचना चाहेंगे क्योंकि वे बिखरे हुए हैं  और उनको समेटना चाहा तो अनर्थ  हो जाएगा।  अगहन से  फाल्गुन तक  इसका भरपूर उपयोग होता था, फाल्गुन  के बाद गन्नेके भीतर का रस कम होने लगता है।  ऐसा ही संकट सोम के साथ भी था।  होलिका को वैदिक समाज में  वार्त्र्य्घनी  पूर्णिमा के  रूप में मनाया जाता था।   इसके बाद  के मास का एक नाम आज तक मधुमास है।  वार्त्र्य्घनी  पूर्णिमा के बाद समिष्ट  यजुस का सत्र चलता था, जिसका जोर, जैसा कि समिष्ट से लगता है, जितना गन्ना (या सोम) पेरा नहीं गया है उसे जल्द से जल्द, समय बद्ध रूप में निकाल लिया जाए, और इसका दूसरा नाम था अग्निस्तोम, जो सोमरस को पका कर इसका गुड़ या अविकारी रूप में पहुँचाने का प्रतीक था जिससे वह स्वयं अमर और अमरता का दाता बना कर पेश किया जाता है।

बिंदु 7  और आगे की बात अगली पोस्ट में।

भगवान सिंह 
( Bhagwan Singh )

सोम की पहचान (5)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/03/5.html
#vss 

Wednesday, 24 March 2021

क्या विजेता के कैसे भी कर्म हर स्थिति में उचित ही होते हैं?

क्या विजेता के कैसे भी कर्म हर स्थिति में उचित ही होते हैं?
क्या भीड़ और बहुमत हमेशा ही सही होता है?
आइए बात करते हैं!

कौरवों के लिए द्रौपदी का चीर हरण न्याय सम्मत था? 
क्योंकि 
वे संख्या में अधिक थे और सत्ता में भी थे। 

और तो और जुए में जीत भी उनकी ही हुई थी। कैसे हुई थी इस पर बात करने का उनके पास अवकाश न था और पांडव परेशान थे। कम थे। पराजित भी।
सभी पांडव चुप थे, एक भीम को छोड़ कर।

उस चीर हरण पर राज्य प्रजा और रनिवास तक सब मौन थे। क्योंकि उनके महाराज धर्मराज ने द्रौपदी को वस्तु की तरह दांव पर लगाया था और दूसरे महाराज ने जीता था।

यानी भीड़ एक साथ थी। एकमत थी। इकट्ठी थी। इसलिए ठीक हो रहा था सब कुछ!

उस चीर हरण पर भीष्म द्रोण कृप सब चुप थे। अन्य बुजुर्ग कौरव सभासद मौन थे। हालाकि धृतराष्ट्र के दो पुत्र बिंदु और अनुविंदु या (विकर्ण) ने इसे गलत ठहराया। लेकिन उनकी सुनी न गई। क्योंकि वे दो ही बोल रहे थे। अट्ठानबे दुर्योधन के साथ थे। या कहें की द्रौपदी के खिलाफ थे।

विदुर भी विकल थे। लेकिन वे दासी पुत्र थे और निष्ठा संदिग्ध थी। लेकिन उनकी चिंता कैसे बेमानी हो गई। क्या सिर्फ इसलिए की वे अल्पमत की आवाज थे। एक पराजित और अकेली स्त्री की आवाज थे। 

तो सैकड़ों के सामने भीम विदुर विंदु अनुविंदु और खुद द्रौपदी गलत थे क्योंकि ये पांच ही थे। जो प्रश्न कर रहे थे। 

महान वीर कर्ण ने द्रौपदी को वैश्या पातुर और पुंशचली (छिनाल) कहा। क्योंकि उसके पांच पति थे। कर्ण ने उसमें एक दो और पति कर लेने की संभावना देखी। क्योंकि वह संख्या में अकेली और पराजित थी। 

दुर्योधन ने उसी राज सभा में द्रौपदी को अपनी जंघा पर बैठने के लिए कहा। दुर्योधन जहां तक अपनी जांघ नंगी कर सकता था किया। वह ऐसा कर सकता था क्योंकि वह जीत गया था। और द्रौपदी हारी हुई थी। 

क्योंकि दुर्योधन आदि के लिए पराजितों का कोई अधिकार नहीं होता। कम संख्या वालों का जीवन सम्मान अभिमान गौरव उनके लिए मायने नहीं रखता। 

फिर कर्ण के उकसावे पर दुर्योधन ने चीर हरण के लिए दुशासन को आदेश दिया। क्योंकि द्रौपदी जुए में हारी गई थी। पराजितों को अपमानित किया जा सकता है। यह ही कौरव नीति है। कौरव नीति विवेक नष्ट करती है। कौरव की जीत भी विवेक को पराजित करती है।

दुर्योधन का विवेक उसकी उस जीत ने नष्ट कर दिया था। जीत कर व्यक्ति विवेकहीन हो जाए यह बहुत प्रबल संभावना होती है। महाभारत इसकी गवाही बार बार देता है। महाभारत में जीत कर कंस हो जाता है व्यक्ति। वह अपने बुजुर्ग पिता को किनारे कर के गद्दी पर चढ़ बैठता है। लगातार जीत कर व्यक्ति जरासंध बन जाता है। कम शक्ति शाली राजाओं की बलि योजना पर काम करने लगता है वह। जीता हुआ अहंकारी व्यक्ति इंसान नहीं बनता हैवान हो जाता है। यह मैं नहीं महाभारत कह रहा है। 

वैसे घमंडी बड़बोले और क्रूर के साथ
विवेकहीन कौरव पहले से थे यह विवेकहीनता तब और प्रबल हुई जब वे विजई हुए। और मनमानी करने लगे। और उनकी मनमानी पर युग और समाज मौन रहा। तो क्या समाज के मौन या सहमति से अन्याय न्याय हो जाता है। क्या अपनी जीत से दुर्योधन यह का सकता है कि मैं द्रौपदी का दोषी नहीं। 

एक बहुत छोटा सा प्रश्न है की 
क्या हर हाल में विजेता की जीत सही होती है। क्या कौरवों का धर्म और उनके मान मूल्य भारत के मान मूल्य हैं आज। क्या विजेता हमेशा सही ही होता है। 

आप कल्पना करें कि कौरव कुरुक्षेत्र का युद्ध जीत जाते तो भी क्या वे द्रौपदी के अपराधी नहीं रह जाते। क्या प्रजा का मौन उसे दोष मुक्त कर देता। क्या नियम से जुए में हारी द्रौपदी का चीर हरण उचित था। क्योंकि वह विजेताओं द्वारा किया जा रहा कर्म था?

भारत में अभी भी सूर्य पृथ्वी के चक्कर लगाता है तो क्या विज्ञान असत्य है। पहलूखान हो या कल्बर्गी अनेक लोग उनकी हत्या को अपना समर्थन देते पाए जाएंगे तो क्या ये हत्यारे अपराधी नहीं हैं। क्योंकि उनको जन समर्थन है। 

अभिमन्यु को घेर कर मार दिया गया तो क्या उसको घेर कर मारने वाली भीड़ सही थी क्योंकि वह संख्या में अधिक थी। अठारह अक्षौहिणी में ११ कौरव और ७ पांडवों के पक्ष में थे। 

सीता को रावण लंका ले गया। लंका में उसका बहुमत था। लेकिन लोग प्रश्न करते रहे की यह कर्म तुमने गलत किया। अनेक लोगों ने उसे अनेक बार टोका की सीता का हरण एक गलत कर्म है। वह महा प्रतापी था। नहीं माना। उससे भी बड़ी बात यह है कि सिया के हरण पर लंका का बहुमत उसके साथ था। और भरी सभा में उसके सभासदों ने कहा कि मस्त रहो हम राम को देख लेंगे।

रावण के अभिमान में उसके अपने बल के साथ ही बहुमत और जनबल का अभिमान भी शामिल था। तो क्या रावण उचित था। उसके सभी कर्म उचित है। क्योंकि रावण उचित होगा तो ही शूर्पणखा भी उचित होगी। मारीच भी। लंका से संचालित राक्षसी अभियान भी।

एक सरल उदाहरण देता हूं। एक क्लास में चालीस विद्यार्थी हैं। ३५ एक साथ क्लास छोड़ कर सिनेमा चले जाते हैं। उस दिन की क्लास नहीं होती। तो क्या बाकी ५ विद्यार्थी सही नहीं रह जाते।

एक विश्व विख्यात उदारहरण ग्रीक इतिहास से भी मिलता है जो भीड़ तंत्र और लोक तंत्र के मर्म को समझने के लिए बहुत काम का है। 

एथेंस में सुकरात पर एक मुकदमा चला। उन पर आरोप था कि वे अपने विचारों से जनता को संविधान के रास्ते से भटका रहे हैं।  वहां भी लोकतंत्र था। सुकरात को २२० के मुकाबले २८१ मतों से अपराधी करार दिया गया और मौत की सज़ा सुनाई गई। 

यानी ६१ मतों से सुकरात और उनके विचारों को मौत के योग्य पाया गया और मारा भी गया। 

ज़हर का प्याला पीने के पहले सुकरात ने ६१ मतों से मिली पराजय को भीड़ से मिली पराजय की संज्ञा दी और कहा कि
"भीड़ न तो इंसान का भला कर सकती है, न अनभल | वह किसी आदमी को न तो विचारवान बना सकती है और न ही विचार रहित | भीड़ तो भीड़ की तरह मनमाने ढंग से काम करती है।

यानी एक भीड़ ने सुकरात की मोब लिंचिंग की। एक भीड़ ने संसार को नया विचार देने वाने सुकरात को निपटा दिया। 

बहुमत ने ब्रूनो को निपटाया। बहुमत ने गैलेलीयो को मौन रहने पर मजबूर किया। 

भीड़ तंत्र की विवेक हीनता पर एक छोटा किस्सा भी सुनाता हूं। १० सवार दिल्ली जा रहे थे। अकाल का समय था। कहीं कुछ खाने को नहीं दिख रहा था। एक मृत जानवर को खत्म करने में कुछ कौए दिखे। एक ने सुझाव दिया कौए खाए जाएं। ९ लोग सहमत हो गए। एक नहीं माना। उस एक ने ९ का साथ यह कह कर छोड़ दिया कि तुम सब भक्ष्य अभक्ष्य भूल कर जीवन जी रहे हो यह भविष्य के लिए खतरनाक संकेत है। 

कौआ खा कर सब आगे बढ़े। एक अकेले ने काफिले का साथ छोड़ दिया। वह अलग चलने लगा। आते जाते लोगों ने उसके अलग चलने का कारण पूछा। वह अकेला इसका कोई उत्तर दे की सब बोलते " हमने इसे अलग किया है क्योंकि इसने कौआ खाने का कुकर्म किया है"।

तो आप सब से निवेदन है भीड़ को ही सब कुछ न मान लें। एक वही बात सत्य नहीं जिसे बहुसंख्या बोल रही हो। आप कम हो रही आवाजों को भी सुनें। भीड़ में तब्दील होने से खुद को बचाएं साथ ही इस महान देश को एक 
भीड़ तंत्र का आहार हो जाने से भी बचाएं। यह आपका नागरिक कर्तव्य है। 

अपने यहां बुद्ध हमेशा भीड़ तंत्र के खिलाफ रहे। शाक्यों और कोलियों के बीच जल विवाद पर उन्होंने खुद को भीड़ के खिलाफ खड़ा किया और उसी मार्ग पर आगे गए। 

मेरा निवेदन है कि आने वाले दिनों में गत पांच सालों की भांति यह भीड़ एक तंत्र बन कर आपके रास्ते में अनेक तरह से आने वाली है। आगे बोलना लिखना कहना प्रश्न उठाना अंगुली दिखाना सब बहुत भारी होने जा रहा है। क्योंकि जयी लोगों को प्रश्न नहीं मन की बात करनी है। मन की करनी है। 

आप लोगों का मंगल हो
मिलते रहेंगे। कुछ न कुछ कहेंगे। बाकी जो है सो है। 

विजेता पक्ष को बधाई।

बोधिसत्व, मुंबई
( Bodhi Satwa )

सोमलता - सोम की पहचान (5)

सोम अपनी जाति के दूसरे पौधों की तरह नैसर्गिक रूप में इतना अधिक उगता था  कि, आरंभ में  इसकी खेती करने का विचार ही नहीं हो पैदा हो सकता था।  इसे बिना खेती बारी के पैदा होने वाले  पौधों का राजा (अकृष्टपच्यस्य राजा, तैत्ति. 1.6.1.11) कहा गया है। अनुमानतः यह आज के गन्ने की तुलना में पतला, कीटरोधी, मधुर, सुगंधित (सहस्रधारः सुरभिरदब्धः), अधिक ऊर्ज और रसीला होता था। पुराणों में इसे ही कल्पलता या कल्पवृक्ष कहा गया है। आर्यों से इसका सीधा संबंध नहीं,  क्योंकि आर्य शब्द कृषि कर्म की देन है और यह वन्य उत्पाद था और देव समाज के अस्तित्व में आने से पहले से, उनकी आसुरी अवस्था से ही चूसा (जंभसुत), और कूट कर रस निकाल कर पिया जाता था।  ऋग्वेद में पितरों के सोमभक्षी होने का विशेष रूप में उल्लेख मिलता है (ब्राह्मणासः पितरः सोम्यासः, 6.75.10; उदीरतामवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः ।10.15.1; उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु । 10.15.5) सोम के बल से ही दुष्कर कार्य करने वाले (त्वया हि नः पितरः सोम पूर्वे कमाणि चक्रुः पवमान धीराः । 9.96.11)। सोम कितने प्राचीन चरण से इनके आहार का हिस्सा था, इसका कुछ संकेत रीति विधान से मिलता है। संतुलित आहार की दृष्टि से गन्ने का रस पर्याप्त नहीं है।  इसके लिए इसमे दूध (गवाशिर), दही (दध्याशिर),, घी (घृतासुत) और शालिचूर्ण, या धान का लावा मिलाया जाता था (जिनका स्थान जव के सत्तू (यवाशिर)और भुने हुए जव या धाना ने ले लिया था), मिलाया जाता था जिसे अरंकरण (आपूर्ति) कहा जाता था और इस तरह तैयार सोम को अरंकृत, मिश्र (सुत इत्त्वं निमिश्ल इन्द्र सोमे),  आमिक्षायुक्त (स सोम आमिश्लतमः सुतो) दूधिया  या, गवाशिर (पिब शुचिं सोमं गवाशिरम् ) रूपों में ग्रहण किया जाता था।  जलपान के रूप में चबेने  के साथ गुड़ खाने या रस पीने का चलन आज भी गाँवों में देखा जा सकता है। धानावन्त सोम की इसी रूप में कल्पना की जा सकती है।  करंभ (सत्तू मिले दही) और  पुए के संदर्भ में सोम इनके तैयार करने में  प्रयुक्त सोम का ही द्योतक हो सकता है (धानावन्तं करम्भिणमपूपवन्तमुक्थिनम्  । इन्द्र प्रातर्जुषस्व नः,  3.52.1)।  परंतु जिस चरण पर ये पूरक आहार उपलब्ध नहीं थे उन दिनों  पीपल, बरगद, और गूलर के फल  कोसुखा कर उसका सत्तू बनाकर सोम के साथ सेवन करने का संकेत मिलता है। 

मुज प्रजाति के सभी पौधों में केवल गन्ना  ही  ऐसा है जिसके छिल्के पर  कार्बन की  एक पतली झिल्ली जम जाती है।   इसके कारण पेरने या कूटने से पहले इसकी धुलाई करनी होती है।  यह काम गन्ने का रस निकाल कर बेचने वाले फेरी वाले भी करते हैं। सोम के संदर्भ में  इसके मार्जन का हवाला आता है [अभि क्षिपः समग्मत मर्जयन्तीरिषस्पतिम् । पृष्ठा गृभ्णत वाजिनः ।। 9.14.7]। 

प्रक्षालन  का  काम दो बार होता था, पहला सोमांशु या डंठल का और दूसरा पेरने के बाद निकले हुए रस का जिसके लिए मेषी के  वार का दशापवित्र (छननी) के रूप में प्रयोग किया जाता था। इसमें पर्याप्त सावधानी बरती जाती थी [त्वां मृजन्ति दश योषणः सुतं सोम ऋषिभिर्मतिभिर्धीतिभिर्हितम् । अव्यो वारेभिरुत देवहूतिभि- नृभिर्यतो वाजमा दर्षि सातये ।। 9.68.7] 

ऐसा लगता है  सोम की  आपूर्ति करने वाले,  या उसकी खरीद करने वाले,  नदी के  जल में ही  इसे धो लेते थे [तमी मृजन्त्यायवो हरिं नदीषु वाजिना । इन्दुमिन्द्राय मत्सरम् ।। 9.63.17]।

इसके लिए  नैसर्गिक रूप में उगने वाले सोम की प्राप्ति के पूरे तंत्र को समझना जरूरी है।  जब तक  देवों के पूर्वज  पूर्व में रहते थे तब तक सोम की  उपलब्धता  की कोई समस्या नहीं थी।  यह, पितरः सोम्यासः से भी प्रकट है, और इस बात से भी कि  खेती आरंभ करने के बाद भी  वे वन्य संपदा का यथाशक्य  उपयोग करते रहे।  परन्तु ,  इसकी आसन्न सुलभता के  क्षेत्र से  हट जाने के  बाद, इसका आयात करना जरूरी था। इसका परिवहन नदी मार्ग से होता था  और यह मथुरा,  पहले मधुरा (कुछ बाद में मधुपुर कहा जाता था), वहां तक  नौका से लाया जाता था।  कुरुक्षेत्र के व्यवसायी मथुरा से सोम खरीदते थे (अथ यत् अपां अंते क्रीणाति), और आगे गाड़ी से ढोकर ले जाते थे (अनसा परिवहन्ति) । 
हमने पीछे चाँद संबंधी जिस लोरी का हवाला दिया था, उसे यथावत दुहराना उपादेय है:
चान मामा चान मामा
आरे आव पारे आव
चानी के कटोरिया में दूध-भात ले ले आव...
लोक चेतना में यह कैसे बना रह गया कि सोम लोक में पहुँचने से पहले नदी तट पर पहुँचता था, इसे पढ़ कर भी दुविधा पैदा होती है कि कहीं अनधिकार खींच-तान न हो रही हो।

आश्चर्य नहीं कि  व्यापारिक गतिविधियों का आरंभ सोम के क्रय विक्रय से ही हुआ हो । इसके कारण सोमपान धनी लोग ही कर सकते थे (सोमो वै राजपेयः,  तै.ब्रा. 1.3.23), गरीब आदमी को यह बदा नहीं था (न सोमो अप्रता पपे ।। 8.32.16)।

स्थानीय उपयोग के लिए जो ओषधि पर्याप्त थी उसका बड़े पैमाने पर अतिदोहन आरंभ होने पर आपूर्ति बंद हो जाने के बाद सोम की खेती करने की विवशता पैदा हुई। इसे पुराणों में आबादी बढ़ जाने के कारण कल्पलता या कल्पवृक्ष के अतिदोहन से धरती से उसके लोप और इस विवशता में खेती के आरंभ से जोड़ा गया है जब कि हम अपनी खोज में इसे सोम की खेती के रूप में ध्वनित पाते हैं।

इससे पहले इसकी खेती करने का विचार पैदा हो ही नहीं सकता था।  इसे बिना खेती बारी के पैदा होने वाले  पौधों का राजा (अकृष्टपच्यस्य राजा, तैत्ति. 1.6.1.11) कहा गया है। अनुमानतः यह आज के गन्ने की तुलना में पतला, कीटरोधी, मधुर, सुगंधित, अधिक ऊर्ज, रस वाला होता था। पुराणों में इसे ही कल्पलता या कल्पवृक्ष कहा गया है। आर्यों से इसका सीधा संबंध नहीं,  क्योंकि आर्य शब्द कृषि कर्म की देन है और यह वन्य उत्पाद था और देव समाज के अस्तित्व में आने से पहले से, उनके आसुरी अवस्था से चूसा (जंभसुत), और कूट कर रस निकाला जाता था।  ऋग्वेद में पितरों के सोमभक्षी होने का विशेष रूप में उल्लेख मिलता है (ब्राह्मणासः पितरः सोम्यासः, 6.75.10; उदीरतामवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः ।10.15.1; उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु । 10.15.5) सोम के बल से ही दुष्कर कार्य करने  (त्वया हि नः पितरः सोम पूर्वे कमाणि चक्रुः पवमान धीराः । 9.96.11; येना नः पूर्वे पितरः पदज्ञाः स्वर्विदो अभि गा अद्रिमुष्णन्  ।। 9.97.39) मे पितर समर्थ हुए। 

सोम कितने प्राचीन चरण से इनके आहार का हिस्सा था इसका कुछ संकेत रीति विधान से मिलता है। संतुलित आहार की दृष्टि से गन्ने का रस पर्याप्त नहीं है।  इसके लिए इसमे दूध(गवाशिर), दही((दध्याशिर),, घी(घृतासुत) और शालिचूर्ण, या धान का लावा मिलाया जाता था (जिनका स्थान जव के सत्तू (यवाशिर)और भुने हुए जव या धाना ने ले लिया था), मिलाया जाता था जिसे अरंकरण (आपूर्ति) कहा जाता था और इस तरह तैयार सोम को अरंकृत, मिश्र (सुत इत्त्वं निमिश्ल इन्द्र सोमे),  आमिक्षायुक्त(स सोम आमिश्लतमः सुतो) दूधिया  या, गवाशिर (पिब शुचिं सोमं गवाशिरम् ) ।  जलपान के रूप में चबेने के साथ गुड़ खाने या रस पीने का चलन आज भी गाँवों में देशा दा सकता है। धानावन्तं सोम की इसी रूप में कल्पना की जा सकती है।  करंभ (सत्तू मिले दही) और  पुए के संदर्भ में सोम इनके तैयार करने में  प्रयुक्त सोम का ही द्योतक हो सकता है (धानावन्तं करम्भिणमपूपवन्तमुक्थिनम्  । इन्द्र प्रातर्जुषस्व नः,  3.52.1)।  परंतु जैसे चैनल पर यह पूरक आहार उपलब्ध नहीं थे उन दिनों  पीपल बरगद, और गूलर के फल  को पूछ कर उसका सत्तू बनाकर सोम के साथ सेवन करने का संकेत मिलता है। 

मुझे प्रजाति के सभी पौधों में केवल गन्ना  ही ही ऐसा है जिसके इसके छिलके पर  कार्बन की  एक पतली झिल्ली जम जाती है।   इसके कारण पेरने या कूटने से पहले इसकी धुलाई करनी होती है।  यह काम गन्ने का रस निकाल कर बेचने वाले तेरी वाले भी करते हैं। शुभम के संदर्भ में  इसके मार्जन का हवाला आता है [अभि क्षिपः समग्मत मर्जयन्तीरिषस्पतिम् । पृष्ठा गृभ्णत वाजिनः ।। 9.14.7]। 

प्रक्षालन  का  काम दो बार होता था, पहला सोमांशु या डंठल का और दूसरा पेरने के बाद निकले हुए रस का जिसके लिए मेषी के  वार का दशापवित्र (छननी) के रूप में प्रयोग किया जाता था। इसमें पर्याप्त सावधानी बरती जाती थी [त्वां मृजन्ति दश योषणः सुतं सोम ऋषिभिर्मतिभिर्धीतिभिर्हितम् । अव्यो वारेभिरुत देवहूतिभिर्नृभिर्यतो वाजमा दर्षि सातये ।। 9.68.7] ऐसा लगता है  सोम की  आपूर्ति करने वाले,  या उसकी खरीद करने वाले,  नदी के  जल में ही  इसे धो लेते थे [तमी मृजन्त्यायवो हरिं नदीषु वाजिना । इन्दुमिन्द्राय मत्सरम् ।। 9.63.17]।
 
इसके लिए  नैसर्गिक रूप में उगने वाले सोम की प्राप्ति के पूरे तंत्र को समझना जरूरी है।  जब तक  देवों के पूर्वज  पूर्व में रहते थे तब तक सोम की  उपलब्धता  की कोई समस्या नहीं थी।  यह, पितरः सोम्यासः से भी प्रकट है, और इस बात से भी कि  खेती आरंभ करने के बाद भी  वह वन्य संपदा का यथाशक्य  उपयोग करते रहे।  परन्त बाद में,  इसकी आसन्न सुलभता के  क्षेत्र से  हट जाने के  बाद, इसका आयात करना जरूरी था। इसका परिवहन नदी मार्ग से होता था  और यह मथुरा,  पहले मधुरा (कुछ बाद में मधुपुर कहा जाता था), वहां तक  नौका से लाया जाता था।  कुरुक्षेत्र के व्यवसायी मथुरा से सोम खरीदते थे (अथ यत् अपां अंते क्रीणाति, सधस्थे सो कर आगे गाड़ी से ढोकर ले जाते थे (अनसा परिवहन्ति) । आश्चर्य नहीं कि  व्यापारिक गतिविधियों का आरंभ सोम के क्रय विक्रय से ही हुआ हो । इसके कारण सोमपान धनी लोग ही कर सकते थे (सोमो वै राजपेयः,  तै.ब्रा. 1.3.23), गरीब आदमी को यह बदा नहीं था (न सोमो अप्रता पपे ।। 8.32.16)।  
स्थानीय उपयोग के लिए जो ओषधि पर्याप्त थी उसका बड़े पैमाने पर अतिदोहन आरंभ होने पर आपूर्ति बंद हो जाने के बाद सोम की खेती करने की विवशता पैदा हुई। इसे पुराणों में आबादी बढ़ जाने के कारण कल्पलता या कल्पवृक्ष के अतिदोहन से धरती से उसके लोप और इस विवशता में खेती के आरंभ से जोड़ा गया है जब कि हम अपनी खोज में इसे सोम की खेती के रूप में ध्वनित पाते हैं।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

सोम की पहचान (4)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/03/4.html
#vss