Sunday, 5 April 2015

हाशिमपुरा नरसंहार- उत्तर प्रदेश पुलिस के इतिहास का एक काला अध्याय / वीएन राय


हाशिमपुरा काण्ड का फैसला कुछ दिनों पहले आया था। यह दंगा जब हुआ था तो मैं कानपुर में तैनात था। अख़बारों में जब इस घटना की खबर छपी तो , सारी बात जानने की उत्कंठा हुयी। पर सच आप जब तक मौके पर नहीं जाएँ और तहकीकात न करें , और वह जांच भी पूर्वाग्रह मुक्त हो कर करें तभी आप उसे जान पाएंगे। श्री बी एन राय उस समय घज़ियाबाद के ही एस एस पी थे। वह एक कुशल पुलिस अफसर ही नहीं बल्कि हिंदी के एक अच्छे लेखक भी हैं। उनके साथ कुछ अयोध्या में काम करने का अवसर मुझे मिला है , जब वह लखनऊ के आई जी थे , और मैं विजिलेंस में एस पी था। अयोध्या में वी एच पी का  एक तमाशा चल रह रहा था। वी एच पी का तमाशा, जब जब उत्तर प्रदेश में चुनाव नज़दीक आता है , शुरू हो जाता है। यक़ीन न हो तो 2016 के माघ मेला में जो प्रयाग में आयोजित होगा देख सुन लीजियेगा। हाशिम पूरा काण्ड में क्या घटा , और कैसे घटा , इस पर श्री राय ने प्रकाश डाला है। इसे पढ़िए। पुलिस किसी एक जाति , धर्म , सम्प्रदाय के हित या आहित साधने के लिए न तो खड़ी की गयी है और न ही प्रशिक्षित। यह क़ानून के अंतर्गत क़ानून को क़ानून के ही अनुसार लागू करने के लिए कानूनन प्रतिबद्ध और शपथबद्ध है। ऐसा होता नहीं है यह अलग बात है। इस घटना ने उत्तर प्रदेश पी ए सी की गौरव पूर्ण परम्परा और क्षवि को बहुत ही नुकसान पहुंचाया है।

हाशिमपुरा के फैसले ने , जिसे मैंने अपने ब्लॉग पर पहले साझा किया है , एक बात स्पष्ट कर दी है , कि सामूहिक ह्त्या के मामलों और व्यापक दंगों के मुक़दमों में सज़ा दिलाना कठिन होता है। 1984 के सिख विरोधी दंगे , 1987 का हाशिमपुरा काण्ड , 2000 का गोधरा काण्ड , या 1992 का बाबरी विध्वंस काण्ड , का अगर अध्ययन किया जय तो आप इसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे। सब यहीं हैं। 1984 में न तो सिख देश छोड़ कर खालिस्तान चले गए, , 1987 के मेरठ, 1980 के मुरादाबाद , 1989 से 1992 तक भड़कने वाले हिन्दू मुस्लिम दंगों या गुजरात के दंगों के बाद भी , मुस्लिम जहां थे वहीं रहे , और आज भी सभी वैसे  ही रह रहे हैं जैसे दंगों के पहले थे। , हाँ एक खटास ज़रूर अ गयी है। आग तो बुझ ही जाएगी। लोग नहीं बुझाएगी तो भी बुझेगी। पर यह आग  जो  राख और जला हुआ निशाँ छोड़ जाती है , वह व्यथित भी करता है और नज़रें भी कभी कभी चुराने को मज़बूर करता है। सज़ा क्यों नहीं हो पाती इस पर फिर कभी।

आप श्री विभूति नारायण राय का यह संस्मरण पढ़ें।
-vss

हाशिमपुरा नरसंहार- वीएन राय ने जो मौके पर देखा
वी एन राय
जीवन के कुछ अनुभव ऐसे होते हैं जो जिन्दगी भर आपका पीछा नहीं छोडते। एक दु:स्वप्न की तरह वे हमेशा आपके साथ चलतें हैं और कई बार तो कर्ज की तरह आपके सर पर सवार रहतें हैं। हाशिमपुरा भी मेरे लिये कुछ ऐसा ही अनुभव है। 22/23 मई सन 1987 की आधी रात दिल्ली गाजियाबाद सीमा पर मकनपुर गाँव से गुजरने वाली नहर की पटरी और किनारे उगे सरकण्डों के बीच टार्च की कमजोर रोशनी में खून से लथपथ धरती पर मृतकों के बीच किसी जीवित को तलाशना- सब कुछ मेरे स्मृति पटल पर किसी हॉरर फिल्म की तरह अंकित है।

उस रात द्स-साढे दस बजे हापुड से वापस लौटा था। साथ जिला मजिस्ट्रेट नसीम जैदी थे जिन्हें उनके बँगले पर उतारता हुआ मैं पुलिस अधीक्षक निवास पर पहुँचा। निवास के गेट पर जैसे ही कार की हेडलाइट्स पडी मुझे घबराया हुआ और उडी रंगत वाला चेहरा लिये सब इंसपेक्टर वी.बी.सिंह दिखायी दिया जो उस समय लिंक रोड थाने का इंचार्ज था। मेरा अनुभव बता रहा था कि उसके इलाके में कुछ गंभीर घटा है। मैंने ड्राइवर को कार रोकने का इशारा किया और नीचे उतर गया।

वी.बी.सिंह इतना घबराया हुआ था कि उसके लिये सुसंगत तरीके से कुछ भी बता पाना संभव नहीं लग रहा था। हकलाते हुये और असंबद्ध टुकडों में उसने जो कुछ मुझे बताया वह स्तब्ध कर देने के लिये काफी था। मेरी समझ में गया कि उसके थाना क्षेत्र में कहीं नहर के किनारे पीएसी ने कुछ मुसलमानों को मार दिया है। क्यों मारा? कितने लोगों को मारा ? कहाँ से लाकर मारा ? स्पष्ट नहीं था। कई बार उसे अपने तथ्यों को दुहराने के लिये कह कर मैंने पूरे घटनाक्रम को टुकड़े-टुकड़े जोड़ते हुये एक नैरेटिव तैयार करने की कोशिश की। जो चित्र बना उसके अनुसार वी.बी.सिंह थाने में अपने कार्यालय में बैठा हुआ था कि लगभग 9 बजे उसे मकनपुर की तरफ से फायरिंग की आवाज सुनायी दी। उसे और थाने में मौजूद दूसरे पुलिस कर्मियों को लगा कि गाँव में डकैती पड़ रही है। आज तो मकनपुर गाँव का नाम सिर्फ रेवेन्यू रिकॉर्ड्स में है। आज गगनचुम्बी आवासीय इमारतों, मॉल और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों वाले मकनपुर में 1987 में दूर-दूर तक बंजर जमीन पसरी हुयी थी। इसी बंजर जमीन के बीच की एक चक रोड पर वी.बी.सिंह की मोटर सायकिल दौड़ी। उसके पीछे थाने का एक दारोगा और एक अन्य सिपाही बैठे थे। वे चक रोड पर सौ गज भी नहीं पहुँचे थे कि सामने से तेज रफ्तार से एक ट्रक आता हुआ दिखायी दिया। अगर उन्होंने समय रहते हुये अपनी मोटर सायकिल चक रोड से नीचे उतार दी होती तो ट्रक उन्हें कुचल देता। अपना संतुलन संभालते-संभालते जितना कुछ उन्होंने देखा उसके अनुसार ट्रक पीले रंग का था और उस पर पीछे 41 लिखा हुआ था, पिछली सीटों पर खाकी कपड़े पहने कुछ लोग बैठे हुये दिखे। किसी पुलिस कर्मी के लिये यह समझना मुश्किल नहीं था कि पीएसी की 41 वीं बटालियन का ट्रक कुछ पीएसी कर्मियों को लेकर गुजरा था। पर इससे गुत्थी और उलझ गयी। इस समय मकनपुर गाँव में पीएसी का ट्रक क्यों रहा था ? गोलियों की आवाज के पीछे क्या रहस्य था ? वी.बी.सिंह ने मोटर सायकिल वापस चक रोड पर डाली और गाँव की तरफ बढ़ा। मुश्किल से एक किलोमीटर दूर जो नजारा उसने और उसके साथियों ने देखा वह रोंगटे खडा कर देने वाला था मकनपुर गाँव की आबादी से पहले चक रोड एक नहर को काटती थी। नहर आगे जाकर दिल्ली की सीमा में प्रवेश कर जाती थी। जहाँ चक रोड और नहर एक दूसरे को काटते थे वहाँ पुलिया थी। पुलिया पर पहुँचते- पहुँचते वी.बी.सिंह के मोटर सायकिल की हेडलाइट जब नहर के किनारे उस सरकंडे की झाड़ियों पर पड़ी तो उन्हें गोलियों की आवाज का रहस्य समझ में आया। चारों तरफ खून के धब्बे बिखरे पड़ थे। नहर की पटरी, झाड़ियों और पानी के अन्दर ताजा जख्मों वाले शव पडे थे। वी.बी.सिंह और उसके साथियों ने घटनास्थल का मुलाहिजा कर अन्दाज लगाने की कोशिश की कि वहाँ क्या हुआ होगा ? उनकी समझ में सिर्फ इतना आया कि वहाँ पडे शवों और रास्ते में दिखे पीएसी की ट्रक में कोई संबन्ध जरूर है। साथ के सिपाही को घटनास्थल पर निगरानी के लिये छोड़ते हुये वी.बी.सिंह अपने साथी दारोगा के साथ वापस मुख्य सड़क की तरफ लौटा। थाने से थोड़ी दूर गाजियाबाद-दिल्ली मार्ग पर पीएसी की 41वीं बटालियन का मुख्यालय था। दोनो सीधे वहीं पहुँचे। बटालियन का मुख्य द्वार बंद था। काफी देर बहस करने के बावजूद भी संतरी ने उन्हें अंदर जाने की इजाजत नहीं दी। तब वी.बी.सिंह ने जिला मुख्यालय आकर मुझे बताने का फैसला किया।जितना कुछ आगे टुकडों टुकडों में बयान किये गये। वृतांत से मैं समझ सका उससे स्पष्ट हो ही गया था कि जो घटा है वह बहुत ही भयानक है और दूसरे दिन गाजियाबाद जल सकता था। पिछले कई हफ्तों से बगल के जिले मेरठ में सांप्रादायिक दंगे चल रहे थे और उसकी लपटें गाजियाबाद पहुँच रहीं थीं। मैंने सबसे पहले जिला मजिस्ट्रेट नसीम जैदी को फोन किया। वे सोने ही जा रहे थे। उन्हें जगने के लिये कह कर मैंने जिला मुख्यालय पर मौजूद अपने एडिशनल एसपी, कुछ डिप्टी एसपी और मजिस्ट्रेटों को जगाया और तैयार होने के लिये कहा। अगले चालीस-पैंतालीस मिनटों में सात-आठ वाहनों में लदे-फंदे हम मकनपुर गाँव की तरफ लपके। नहर की पुलिया से थोड़ा पहले हमारी गाडियाँ खड़ी हो गयीं। नहर के दूसरी तरफ थोड़ी दूर पर ही मकनपुर गाँव की आबादी थी लेकिन तब तक कोई गाँव वाला वहाँ नहीं पहुँचा था। लगता था कि दहशत ने उन्हें घरों में दुबकने को मजबूर कर दिया था। थाना लिंक रोड के कुछ पुलिस कर्मी जरूर वहाँ पहुँच गये थे। उनकी टार्चों की रोशनी के कमजोर वृत्त नहर के किनारे उगी घनी झाड़ियों पर पड रहे थे पर उअनसे साफ देख पाना मुश्किल था। मैंने गाड़ियों के ड्राइवरों से नहर की तरफ रुख करके अपने हेडलाइट्स ऑन करने के लिये कहा। लगभग सौ गज चौड़ा इलाका प्रकाश से नहा उठा। उस रोशनी में मैंने जो कुछ देखा वह वही दु;स्वप्न था जिसका जिक्र मैंने शुरु में किया है।

गाड़ियों की हेडलाइट्स की रोशनियाँ झाड़ियों से टकरा कर टूट टूट जा रहीं थीं इसलिये टार्चों का भी इस्तेमाल करना पड रहा था। झाड़ियों और नहरों के किनारे खून के थक्के अभी पूरी तरह से जमे नहीं थे , उनमें से खून रिस रहा था। पटरी पर बेतरतीबी से शव पडे थे- कुछ पूरे झाड़ियों में फंसे तो कुछ आधे तिहाई पानी में डूबे। शवों की गिनती करने या निकालने से ज्यादा जरूरी मुझे इस बात की पड़ताल करना लगा कि उनमें से कोई जीवित तो नहीं है। सबने अलग-अलग दिशाओं में टार्चों की रोशनियाँ फेंक फेंक कर अन्दाज लगाने की कोशिश की कि कोई जीवित है या नहीं। बीच बीच में हम हांक भी लगाते रहे कि यदि कोई जीवित हो तो उत्तर दे। हम दुश्मन नहीं दोस्त हैं। उसे अस्पताल ले जाएंगे। पर कोई जवाब नहीं मिला। निराश होकर हममें से कुछ पुलिया पर बैठ गये। मैंने और जिलाधिकारी ने तय किया कि समय खोने से कोई लाभ नहीं है। हमें दूसरे दिन की रणनीति बनानी थी, इसलिये जूनियर अधिकारियों को शवों को निकालने और जरूरी लिखा-पढ़ी करने के लिये कह कर हम लिंक रोड थाने के लिये मुड़े ही थे कि नहर की तरफ से खाँसने की आवाज सुनायी दी। सभी ठिठक कर रुक गये। मैं वापस नहर की तरफ लपका। फिर मौन छा गया। स्पष्ट था कि कोई जीवित था लेकिन उसे यकीन नहीं था कि जो लोग उसे तलाश रहे हैं वे मित्र हैं। हमने फिर आवाजें लगानी शुरू कीं, टार्च की रोशनी अलग-अलग शरीरों पर डालीं और अंत में हरकत करते हुये एक शरेर पर हमारी नजरें टिक गयीं। कोई दोनो हाथों से झाड़ियाँ पकडे आधा शरीर नहर में डुबोये इस तरह पड़ा था कि बिना ध्यान से देखे यह अन्दाज लगाना मुश्किल था कि वह जीवित है या मृत ! दहशत से बुरी तरह वह काँप रहा और काफी देर तक आश्वस्त करने के बाद यह विश्वास करने वाला कि हम उसे मारने नहीं बचाने वाले हैं, जो व्यक्ति अगले कुछ घंटे हमे इस लोमहर्षक घटना की जानकारी देने वाला था, उसका नाम बाबूदीन था। गोली उसे छूते हुये निकल गयी थी। भय से वह नि;श्चेष्ट होकर वह झाड़ियों में गिरा तो भाग दौड़ में उसके हत्यारों को यह जाँचने का मौका नहीं मिला कि वह जीवित है या मर गया। दम साधे वह आधा झाड़ियों और आधा पानी में पड़ा रहा और इस तरह मौत के मुँह से वापस लौट आया। उसे कोई खास चोट नहीं आयी थी और नहर से चलकर वह गाड़ियों तक आया। बीच में पुलिया पर बैठकर थोड़ी देर सुस्ताया भी। लगभग 21 वर्षों बाद जब हाशिमपुरा पर एक किताब लिखने के लिये सामग्री इकट्ठी करते समय मेरी उससे मुलाकात हुयी जहाँ पीएसी उसे उठा कर ले गयी थी तो उसे याद था कि पुलिया पर बैठे उसे किसी सिपाही से माँग कर बीड़ी दी थी। बाबूदीन ने जो बताया उसके अनुसार उस दिन अपरान्ह तलाशियों के दौरान पीएसी के एक ट्रक पर बैठाकर चालीस पचास लोगों को ले जाएा गया तो उन्होंने समझा कि उन्हें गिरफ्तार कर किसी थाने या जेल ले जाकर जा रहा है। मकनपुर पहुँचने के लगभग पौन घण्टा पहले एक नहर पर ट्रक को मुख्य सड़क से उतारकर नहर की पटरी पर कुछ दूर ले जाकर रोक दिया गया। पीएसी के जवान कूद कर नीचे उतर गये और उन्होंने ट्रक पर सवार लोगों को नीचे उतरने का आदेश दिया। अभी आधे लोग ही उतरे थे कि पीएसी वालों ने उनपर फायर करना शुरु कर दिया। गोलियाँ चलते ही ऊपर वाले गाड़ी में ही दुबक गये। बाबू दीन भी उनमें से एक था। बाहर उतरे लोगों का क्या हुआ वह सिर्फ अनुमान ही लगा सकता था। शायद फायरिंग की आवाज आस पास के गाँवों में पहुँची जिसके कारण आस पास से शोर सुनायी देने लगा और पीएसी वाले वापस ट्रक में चढ़ गये। ट्रक तेजी से बैक हुआ और वापस गाजियाबाद की तरफ भागा। यहाँ वह मकनपुर वाली नहर पर आया और एक बार फिर सबसे उतरने के लिये कहा गया। इस बार डर कर ऊपर दुबके लोगों ने उतरने से इंकार कर दिया तो उन्हें खींच खींच कर नीचे घसीटा गया। जो नीचे गये उन्हें पहले की तरह गोली मारकर नहर में फेंक दिया गया और जो डर कर ऊपर दुबके रहे उन्हें ऊपर ही गोली मारकर नीचे ढकेला गया। बाबूदीन जब यह विवरण बता रहा था तो हमने पहले घटनास्थल का अन्दाज लगाने की कोशिश की। किसी ने सुझाव दिया कि पहला घटनास्थल मेरठ से गाजियाबाद आते समय रास्ते में मुरादनगर थाने में पड़ने वाली नहर हो सकती है। मैंने लिंक रोड थाने के वायरलेस सेट से मुरादनगर थाने को कॉल किया तो स्पष्ट हुआ कि हमारा सोचना सही था। कुछ देर पहले ही मुरादनगर थाने को भी ऐसी ही स्थिति से गुजरना पड़ा था। वहाँ भी कई मृत शव नहर में पड़े मिले थे और कुछ लोग जीवित थाने लाये गये थे।
इसके बाद की कथा एक लंबा और यातनादायक प्रतीक्षा का वृतांत है जिसमें भारतीय राज्य और अल्पसंख्यकों के रिश्ते, पुलिस का गैर पेशेवराना रवैया और घिसट घिसट कर चलने वाली उबाऊ न्यायिक प्रणाली जैसे मुद्दे जुडे हुयें हैं। मैंने 22 मई 1987 को जो मुकदमे गाजियाबाद के थाना लिंक रोड और मुरादनगर पर दर्ज कराये थे वे पिछले 21 वर्षों से विभिन्न बाधाओं से टकराते हुये अभी भी अदालत में चल रहें हैं और अपनी तार्किक परिणति की प्रतीक्षा कर रहें हैं।

विभूति नारायणराय
हाशिमपुरा नरसंहार- वीएन राय ने जो मौके पर देखा

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