Thursday, 2 April 2015

दीपिका पादुकोण का बयान और इस पर चर्चा / विजय शंकर सिंह



दीपिका पादुकोण का एक बयान जो  छोटी फिल्म के रूप में आया है , बेहद चर्चा में है। उस पर कुछ अखबारों में परिचर्चा भी हो रही है। कुछ लोग इसे अनैतिक ठहरा रहे हैं तो कुछ लोग , इसे साहसी बयान मान रहे हैं। संस्कृति के पुरोधा इसे संस्कृति के विरुद्ध मान रहे हैं। वह दीपिका की आलोचना कर रहे हैं। मैं दीपिका के इस साहस भरे बयान की सराहना करता हूँ। दीपिका ने कहा है , मेरा शरीर मेरा हैं। क्या ऐतराज़ है ? जितना हक़ किसी पुरुष को अपने शरीर अपने मन पर है , उतना ही अधिकार किसी स्त्री को भी उसके शरीर और मन पर है। दिक्कत पुरुष समाज के सामान दीपिका का यह बयान नहीं है , दिक्कत यह है कि ऐसा बयान कहा क्यों ? इतना साहस !

थोड़ा संस्कृति में भी झांके। भारतीय संस्कृति के उत्स  महान ग्रंथों में विवाहेतर संबंधों की एक लम्बी परंपरा रही है। ये सम्बन्ध मान्यता प्राप्त भी रहे हैं। लेकिन समाज का एक वर्ग इसे अनैतिक भी घोषित करता रहा है। यौन सम्बन्ध , केवल संतति उत्पन्न करने , वैवाहिक दायित्व निभाने के ही माध्यम नहीं रहे हैं , बल्कि यह आनंद प्राप्ति का भी एक कारण है माना गया है कालांतर में जब समाज मानसिक कठघरों में बँटने और सिकुड़ने लगा तो इसे कोंच कोंच कर विवाह की संस्था के अंदर ही घुसेड़ दिया गया। यौन संबंधों के स्वाभाविक आनन्दों पर कोई चर्चा नहीं की गयी और सारी नैतिकता विवाह और विवाह जन्य परिवार के इर्द गिर्द ही सिमट के रह गयी। यह स्थिति , प्राचीन काल  में नहीं थी। यह स्थिति परवर्ती काल में आई।

महाभारत भारतीय संस्कृति को अद्भुद तरीके से प्रस्तुत करता है। महाभारत के सभी पांडव , और कर्ण अपने पिता की संतान नहीं हैं। आज के दृष्टिकोण से इसे हम वैध संतान नहीं मानेंगे। कुछ यह भी तर्क देंगे कि यह संतान कुंती ने दिए गए वर से देवताओं के सानिध्य से प्राप्त किये थे। कर्ण को सूत पुत्र तो अपमान करने के उद्देश्य से कई बार कहा गया है , पर उन्हें किसी कुमारी का पुत्र या अवैध संतान कहीं नहीं कहा गया है। अगर महाभारत के प्रति अपना स्वाभाविक दैवी मोह छोड़ दें और वैज्ञानिक सोच से देखें तो यह संताने एक प्रकार के विवाहेतर संबंधों से ही उत्पन्न हुयी हैं। कर्ण , कुंती के कौमार्य काल में सूर्य से उत्पन्न पुत्र हैं. और शेष पांडव विभिन्न देवताओं  के संसर्ग से उत्पन्न हुए बताये गए हैं। पाण्डु के संतान उत्पन्न करने योग्य रहने के कारण कुंती को यह मार्ग ग्रहण करना पड़ा। लेकिन समाज में किसी ने इन पांडवों की उत्पत्ति पर अनैतिक और नैतिक जैसे सवाल नहीं उठाये।

शास्त्रों में , संतानोत्पत्ति को भी एक कर्तव्य माना है। तब आबादी कोई समस्या नहीं थी। आर्यों सहित अन्य जातियों का प्रसार हो रहा था। युद्ध होते रहते थे। ऐसी परिस्थितियों में संतान अनिवार्य थे। पुत्रवती होओ ! यह सबसे पसंदीदा आशीर्वाद था। यह आशीर्वाद आज भी अपनी प्रासांगिकता नहीं खोया है। लेकिन जब पति क्लीव हो , या संतान उत्पन्न करने लायक हो तो , शास्त्रों  ने नियोग प्रथा को मान्यता दी थी। आज नियोग की बात सोची भी नहीं जा सकती हैं। नियोग में पत्नी , पति के अतिरिक्त किसी अन्य से , जो अमूमन पति का ही  कोई भाई बंधू होता था , से संतान प्राप्त करने का उपक्रम करती थी। यह उस समय के समाज की मानसिक विशालता और तार्किकता को स्वतः स्पष्ट करता है। आज हम इस पर भी नैतिकता और अनैतिकता की बहस कर सकते हैं।

हमारे देश का नाम भारत , प्रतापी भरत के नाम पर पड़ा है। भरत स्वयं एक समाज के अमान्यता प्राप्त सम्बन्ध से उत्पन हुए थे। दुष्यंत की भेंट , जंगल में आखेट करते समय शकुंतला से हुयी। शकुंतला के रूप सौंदर्य पर दुष्यंत मोहित हो गए , या दुष्यँत पर शकुंतला , इस पर भी कुछ कुछ बहस हो हे सकती है , पर उस सम्बन्ध से जो संतान उत्पन हुयी वह भरत थे। वहीं दोनों का विवाह  भी हुआ। यह विवाह गांधर्व विवाह था। बाद में दुष्यंत राजधानी चले गए और , जब भरत बड़े हुए तो शकुंतला उनके पास गयीं और भरत का परिचय कराया। दुष्यंत को कुछ भी स्मरण नहीं था।  शकुंतला ने दुष्यंत की दी हुयी अंगूठी दुष्यंत को दिखाई तो सब कुछ दुष्यंत को स्मरण गया। फिर दुष्यंत ने  शकुंतला और भरत को अपना लिया।  वैदिक कथा पर कालिदास ने संस्कृत में एक बहुत लोकप्रिय नाटक लिखा है , '' अभिज्ञान शाकुंतलम " .

वेदव्यास , जिन्होंने संसार का सबसे विशाल ग्रन्थ लिखा है , भी स्वयं ऐसे हे संबंधों से पैदा हुए थे। यही नहीं धृतराष्ट्र , पाण्डु और विदुर भी ऐसी ही संतानें थे। आप सारे उदाहरणों को  अपवाद कह कर, इन से किनारा कर लेंगे। सच भी है। अपवादों से नियम तो बनते हैं और ही नियम टूटते हैं। इन उदाहरणों को यहां देने का उद्देश्य इन महान और प्रतापी लोगों के प्रति अनादर दिखाना नहीं है , बल्कि यह दिखाना है कि समाज के नैतिकता के मानदंडों में यौन संबंधों की शिथिलता थी।  समाज आज से अधिक उदार और विशाल ह्रदय था। सेक्स के इर्द गिर्द ही नैतिकता के प्रतिमान नहीं घुमते थे। वेदों में ऋषि जाबालि की कथा भी है। इसे भी आप इसी सन्दर्भ में देख सकते हैं।  

दीपिका ने अपने मर्ज़ी से जीने ,सोचने और रहने की बात की है। उसने यह नहीं कहा है कि , आप कैसे रहें या आप उसकी मर्ज़ी से रहें। अक्सर पुरुष भी नारी सशक्तिकरण की बातें करते हैं। कुछ प्रयास भी पुरुषों द्वारा  किये गए हैं। पर जब नारी खुद ही सशक्तिकरण और नारी मुक्ति की बात करती है तो तुरंत ही कठघरे में खड़ी कर दी जाती है। जैसे दलितोत्थान की बात, जब तक सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त लोग और दल , उठाते रहे , तब तक तो ठीक रहा , पर जब दलित थोड़ा प्रबुद्ध हो गए और अपने अधिकार की बात और अपने दमन का प्रतिरोध खुद ही करते लगे तो वह सबसे पहले सवर्ण मानसिकता के निशाने पर ही आये। आप आंबेडकर , और कांसीराम के सन्दर्भ में इसे देख सकते हैं। नैतिकता के सारे नियम क़ानून , उस के इर्द गिर्द जाल की तरह फैला दिए जाते हैं। पुरुष  की स्वतंत्रता , स्वतंत्रता और नारी की स्वतंत्रता , स्वच्छंदता का नाम ले लेती है। मैंने अक्सर पुरुषों को ही यह उपदेश देते और इसी चिंता में घुलते  देखा है कि महिलायें क्या पहनें क्या पहनें , कहाँ जाएँ ,कहाँ जाएँ , किस से मिलें और किस से मिलें. पर पुरुषों  की चिंता महिलाओं को करते नहीं देखा। निश्चित रूप से , एक पिता , भाई , या मित्र के रूप में पुत्री , बहन या मित्र का हित  देखना उचित है , पर उस हित की आड़ में , अपना विचार अनावश्यक रूप से लादना उचित नहीं है। 

दीपिका ने अपने मन से जीने की बात कही है। समाज में अपने मन से रहने की बात की है। यौन आनंद और सेक्स पर खुल कर अपनी बात कही है। दीपका ने केवल अपने मनोभाव ही नहीं व्यक्त किये हैं, बल्कि उन सब महिलाओं को स्वर दिया है जो वर्जना के कारण यह कहना चाहती  हैः और कह  नहीं पाती हैं। दीपिका एक सेलेब्रिटी हैं और जिस प्रोफेशन में है , उसमें उनके मुंह से निकली यह बात उन्हें प्रसिद्धि और चर्चा ही दिलाएगी। इसी लिए वह मुखर हैं। शेष महिलायें ऐसा सोचते हुए भी कह नहीं पाएंगी। यह समाज का वर्जित क्षेत्र है , जहां हम सब झांकना चाहते हैं पर खुद को झांकते देखना नहीं चाहते। सबसे बड़ी समस्या नैतिकता और अनैतिकता को सेक्स से हे जोड़ कर देखने और मानने की मनोवृत्ति है। झूठ , धोखा , छल , आदि जो बड़े और समाज को अधिक प्रभावित करने वाले चारित्रिक दोष हैं , अब गुण अधिक हो गए हैं और सेक्स से जुड़े सम्बन्ध ही मूल चारित्रिक दोष के रूप में रूढ़ हो चुके हैं समाज का यह नजरिया प्राचीन भारतीय समाज में नहीं था। जो खुलापन दीपिका अभिव्यक्त कर रहीं हैं , वह अभी और खुलेगा। सुभाषितों में ही बराबरी की बात मत कीजिए , सच में जो बराबरी दिख रही है , उसे स्वीकारिये। स्त्री पुरुष संबंधों पर डॉ लोहिया ने कहा था , " बलात्कार और वादाखिलाफी छोड़ कर सारे स्त्री पुरुष सम्बन्ध जायज़ हैं।
( विजय शंकर सिंह )

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