अरविन्द केजरीवाल का एक स्टिंग सामने आया है। उन्होंने आनंद कुमार को जिन शब्दों से सम्बोधित किया है उसे मैं यहाँ लिख नहीं सकता हूँ , यह मेरा स्वाभाविक संकोच है। आनंद कुमार काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में मेरे सीनियर रहे हैं. वह जिस परिवार और परिवेश से आते हैं वह स्वतन्त्रता संग्राम से जुड़ा हुआ परिवार रहा है। डॉ लोहिया न केवल इस परिवार के निटक रहे हैं बल्कि लोहिया के विचारों पर बहुत ही सारगर्भित लेखन प्रो कृष्णनाथ ने किया है जो इनके चाचा रहे हैं। आनंद समाजवादी आंदोलन से जुड़े रहे हैं और एक चिंतक हैं। उमेश से की गयी बात चीत में जो शब्द प्रयोग किये गए हैं वह निंदनीय है , और उन शब्दों पर यह बहस करना कि यह संसदीय है या असंसदीय अरविन्द केजरीवाक का बचकाना बचाव करना होगा। किन परिस्थितियों में यह बात कही गयी और किन कारणों से कही गयी , यह जो टी वी बता रहा है उतना ही मुझे मालूम है , पर चाहे जिन परिस्थितियों और जिस पृष्ठभूमि में यह कही गयी , यह सर्वथा उचित नहीं है। भले ही यह बात निजी तौर पर दो व्यक्तियों के बीच ही क्यों न हुयी हो।
आआपा एक आंदोलन की उपज है। आंदोलन कांग्रेस के कुशासन के खिलाफ 2012 में अन्ना हज़ारे के नेतृत्व में शुरू किया गया था। उस आंदोलन में सभी राजनीतिक दल इन एक्टिविस्टों के निशाने पर थे। अन्ना किसी राजनीतिक दल से जुड़े नहीं रहे हैं , और न ही वह आज किसी राजनीतिक दल के हैं। तब जनता की कुछ मूलभूत समस्याओं को ले कर , जिसमें विशेष कर भ्र्ष्टाचार एक बड़ा मुद्दा था , के समाधान के लिए अरविन्द केजरीवाल ने नयी राजनीतिक पार्टी बनायी , और इस प्रकार आम आदमी पार्टी का जन्म हुआ। लेकिन कोई भी राजनीतिक विचारधारा इस नवजात दल की नहीं उभर थी। योगेन्द्र यादव , एक समाज वैज्ञानिक , प्रशांत भूषण प्रख्यात वकील और एक्टिविस्ट , और आनंद कुमार एक समाजवादी विचारक थे , जो इस दल से जुड़े। दल का न तो कोई मुखपत्र निकला , न ही विचारधारा को ले कर कोई चिंतन मंथन हुआ , और यह दल दिल्ली के दो चुनाओं में कूदा और इसे अभूतपूर्व सफलता भी मिली। अब इस दल की विचारधारा क्या हो जब इस पर बात उठी तो इस तरह तरह का घमासान मचना स्वाभाविक था।
संवाद और विवाद के बिना लोकतंत्र और लोकतांत्रिक पार्टी की कल्पना नहीं की जा सकती है। साथ ही संवाद में अपशब्दों भरी शब्दावली का कोई स्थान नहीं है। क्यों कि सभ्य समाज में प्रचलित यह अब तक की सबसे कम बुराइयों वाली शासन व्यवस्था है। लोकतंत्र में अगर मतभेद नहीं है तो वह लोकतंत्र हो ही नहों सकता है। आ आ पा की सबसे बड़ी दिक्कत , स्पष्ट विचात्र्धारा के अभाव का होना है। विचारधारा के शून्य को भरने के लिए विभिन्न वाद और विचारधाराओं का स्वाभाविक प्रवाह जब होगा तो और जब विपरीत ध्रुवीय विचार एक दूसरे से टकराएंगे तब बहसें और झगडे बढ़ेंगे। यह लोकतंत्र की एक ताक़त है , जो जाहिरा तौर पर उसकी एक कमज़ोरी भी दिखती है। अतिशय लोकप्रियता और नेतृत्व पर अत्यधिक भरोसा अक्सर लोकतंत्र को तानाशाही की रपटीली राह पर उतार देता है , जिस से लोकतंत्र सिर्फ बराए नाम का रह जाता है। लोकतंत्र में विपक्ष चाहे विचार के रूप में हो या दल के रूप में , या व्यक्ति के रूप में उसका होना अनिवार्य है। बहस कितनी भी उग्र हो पर अगर वह शालीनता से बाहर चली गयी और अपशब्दों पर उतर आयी तो वह बहस एक प्रकार की कौआ रोर में बदल जाती है।
ऐसा नहीं है कि कोई राजनीतिक पार्टी पहली बार टूटी है। लोकतंत्र में हर राजनीतिक पार्टी कभी न कभी टूटती ही है। उनमें वैचारिक मतभेद उभरते ही हैं। मैं पिछले 100 साल का ज़िक्र करूंगा। कांग्रेस 1885 में बनी और 1905 में मतभेद हुए लोकमान्य तिलक और गोपाल कृष्ण गोखले में। यह मतभेद आज़ादी के लिए हो रहे संघर्ष के तरीकों पर था। नरम दल के गोखले थे , और तिलक प्रतिनिधत्व कर रहे थे गरम दल का।
1907 के सूरत कांग्रेस के अधिवेशन में यह दाल दो फाड़ हो गया। 1924 में यह दल फिर बंटा , और स्वराज्य पार्टी एक नयी पार्टी बनी। 1937 में कांग्रेस से समाजवादियों का गट अलग हुआ , और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनी। इसका नेतृत्व आचार्य नरेंद्र देव , जय प्रकाश नारायण और डॉ लोहिया ने किया। हरिपुरा कांग्रेस के बाद सुभाष बाबू ने जब गांधी जी की इस टिप्पणी पर , कि सीतारामैया जिनको सुभाष बाबू ने हराया था , की हार है तो त्यागपत्र दे दिया और एक नया दल बना फॉरवर्ड ब्लॉक। आज़ादी के बाद सबसे बड़ी और उल्लेखनीय टूट हुयी
1969 में जब इंदिरा गांधी को कांग्रेस से निकाल दिया गया , और इंदिरा ने उसी गुट को असली कांग्रेस घोषित कर दिया जो उन्होंने निकलने के बाद गठित किया था।
1971 के चुनाव की अपार सफलता ने उसी गुट को मान्यता भी दे दी। आगे भी कभी तिवारी कांग्रेस के रूप में , तो कभी तृणमूल कांग्रेस के रूप में देश की सबसे पुरानी पार्टी बंटती ही रही। दल के विभाजन के अनुसार इनके चुनाव चिह्न भी बदलते रहे।
अब भाजपा की भी सुन लीजिये। आज़ादी के बाद अपने एजेंडे को लागू करने के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भारतीय जन संघ की स्थापना की। श्यामा प्रसाद मुख़र्जी , दीन दयाल उपाध्याय आदि इसके संस्थापक नेता थे। बाद में अटल बिहार वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी इस के प्रमुख नेता बने। एक बड़े नेता थे , बलराज मधोक , जिनको बाद में वैचारिक मतभेदों के कारण पार्टी से बाहर जाना पड़ा।
1975 आपात काल लागू हुआ और जे पी आंदोलन के सारे नेता जेल चले गए और
1977 में चुनाव की घोषणा के बाद , सभी गैर कोंग्रेसी दल जनता पार्टी के रूप में एक हुए और सीधे संघर्ष में कांग्रेस बुरी तरह हारी। पर ढाई साल में ही यह एकता बिखर गयी। वैचारिक भिन्नता के कारण जनसंघ का नया रूपांतरण हुआ भारतीए जनता पार्टी के रूप में। अटल जी इसके पहले अध्यक्ष बने और विचारधारा घोषित हुयी गांधीवादी समाजवाद। पर न गांधीवाद ही रहा और समाजवाद तो दूर दूर तक नहीं दिखा।
सबसे अधिक टूट समाजवादी दलों में हुयी। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से सोशलिस्ट पार्टी , फिर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी , फिर संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी। डॉ लोहिया के देहांत होने तक संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ही बनी रही। आगे चल कर सारे समाजवादी धड़े फिर
1977 में जनता पार्टी में शामिल हो गए। ढाई साल की टूट के बाद , लोक दल , राष्ट्रीय लोकदल, समाजवादी पार्टी , आदि आदि में यह बंटती चली गयी। अब जो डॉ लोहिया के चेले हैं वह मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना को शब्दशः चरितार्थ करने पर लगे हैं।
कम्युनिस्ट पार्टी में भी
1964 में विभाजन हुआ। एक धड़ा टूट कर सी पी आई एम बना दूसरा सी पी आई बना रहा।1967 में
जब पश्चिम बंगाल के नक्सल बाड़ी नामक गाँव में एक भूस्वामी की 12 व्यक्तियों की हत्या
कर दी गयी तो पहली बार सशस्त्र क्रान्ति का लक्ष्य लिए कम्युनिस्ट पार्टी का एक नया
रूप सामने आया जिसका लोकप्रिय नाम नक्सलवादी पड़ा और वह पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़
इंडिया मार्क्सिस्ट लेनिनिस्ट के नाम से जानी गयी। आगे इस पार्टी में भी विभिन्न नेताओं के नाम पर अनेक
गट बन गए। आज भी यह आंदोलन जो भूमिगत हो कर आदिवासी क्षेत्रों में चल रहा है का वैचारिक
आधार बहुत व्यापक नहीं रह गया है। हिंसा पर आधारित आंदोलन लम्बे समय तक जीवित नहीं
रह पाते।
अपशब्दों की निंदा करने वाले संस्कारी मित्र , निंदा के लिए कोई सभ्य और श्लील शब्द नहीं ढूंढ पा रहे हैः , वे भी उन्ही अपशब्दों का प्रयोग कर रहे है, जिनकी निंदा वह कर रहे हैं। मनुष्य मूलतः पशु ही है। आदिम मनोवृत्ति जो अवचेतन में है वह यदा कदा जाग ही जाती है। विवेक उसे रबड़ की तरह खींचे रखता है। जैसे ही विवेक का खिंचाव ढीला पड़ता है , पशुत्व जाग उठता है। अगर आप अपशब्दों भरी शब्दावली से परहेज़ करते हैं और सच में आप राजनीति के इस रूपांतरण से स्तब्ध हैं तो , सार्वजनिक वार्तालाप तो को बक्शिये ही , निजी बातचीत में भी अपशब्दों का प्रयोग कम कीजिये। निन्दित वस्तु का प्रयोग और अधिक निंदनीय है।
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