Sunday, 15 March 2015

एक लम्बी कविता, नियति / विजय शंकर सिंह


यह एक लम्बी कविता है। हिब्रू की एक लोक कथा इस कविता का आधार है।



एक लम्बी कविता,
नियति !

राजा,  मद मस्त, राजा,  पद मस्त
ऐश्वर्य में  डूबा , इतराता  हुआ ,
लगवा  रहा  था  एक  उपवन  द्राक्षा  का ,
हाड़ तोड़  मेहनत,  कर  रहे  थे,  दास ,
अपनी  पीठ  पर  बरसते  कोड़े,  झेलते  हुए ,

इतरा  रहा  था  राजा ,
इस कल्पना  में  लीन ,
बंद  किये आँखें  बैठा  था  कि,
चषक  भर  भर  पिएगा,
इसी  उपवन  की  द्राक्षा - सुरा  को .

एक  बृद्ध दास ,
कृषकाय , मजबूर  और  मजलूम ,
चलने  में  अशक्त , बीमार ,
थक  कर  चूर ,
ले  रहा  था  एक  झपकी ,
सहेज  रहा  था अपनी , कुछ  संचित शक्ति, .

देखा  राजा  ने ,
नहीं  रहा  गया  उसे ,
क्रोधातुर, उठी भृकुटि,
गूंजा कर्कश स्वर ,
दुत्कारा , दास को ,
'' उठ  श्रम  कर .
इस  उपवन  को होना है शीघ्र पूर्ण , ,
पीऊँगा  चषक  भर -भर ,
मदिरा , इसी उपवन के द्राक्षा की। ''

दास  उठा ,
अन्यमनस्क  सा ,बुदबुदाया ,
''पी  नहीं  पाओगे  तुम,
इस  उपवन  के  किसी  द्राक्छा  का  आसव ,
पी  तो लहू , रहे  तुम , हमारा।
राजा  हो  तुम ,
प्रजा -पालक  या  हो तुम प्रजा -पीड़क ''

उठा  और  गिरा,
फिर  उठा  और  बढ़ चला  डगमग क़दमों से ,
कोसते हुए राजा के राजमद को ,
उपवन  की  ओर,

गूंजा अट्टहास ,
कहा राजा  ने ,
व्यंग्य क़ी मुस्कान लिए,
अधरों पर ,
''तू रोकेगा  !
मुझे  रोकेगा !
बाधा   देगा  तू ! “

बाहें उठा दोनों ,
समेट कर सारी आसुरी शक्ति ,,
चीखा वह ,
“ यह  उपवन  मेरा ,
यह  धरती  मेरी,
यह  प्रजा  मेरी ,
तू जिधर देख रहा है ,
ऊपर वह सारा आसमान मेरा।
यहाँ  चलता  है  आदेश  केवल  मेरा ,
अब  तो  पीनी ही है ,
सुरा , मुझे  इसी  उपवन  की
शीघ्र, अतिशीघ्र .
तेरे  ही  समक्ष , उठाऊंगा पात्र ,
तू  ही  भरेगा चषक,
और  देखेगा  मुझे  तृप्त  होते ''

समय  बीता ,
तैयार हुआ  उपवन ,
द्राक्षा  पके ,
आसुत हुयी सुरा ,
चषक  आया ,
सुरा   आयी ,
राजा  बैठा  चषक  भर सुरा ले  के ,
अचानक ,   कुछ  याद  आया उसे ,

'' उस  दास  को  बुलाओ ,
संशय था , जिसे ,
कहा था , जिस ने ,
नहीं  पी  पाओगे ,
सुरा , इस  उपवन  के द्राक्षा की ,  
कहाँ  है  वह .?''

उपस्थित  हुआ दास
नत  शिर ,
अधरों  पर  विश्वास  क़ी  स्मिति लिए ,
चेहरे पर उम्र की परतें संजोये।

'' पी  रहा  हूँ  यह  मदिरा  इसी  उपवन  के  द्राक्छा  क़ी ,
देख  तेरा  लहू  पी  रहा  हूँ .
देख तू ,
तू  केवल  जीवित  रहा  तो , इसीलिए,
देख  मुझे  पीते  हुए  चषक  भर -भर ,
होती  नहीं  आह,
किसी  दास  की  कुछ  भी .
तेरा  भ्रम  था .
देख  अपने  सामने  देख .''

''स्वामी , नहीं  पी  पाओगे  मदिरा
चषक  रह  जाएगा  भरा ,
उपवन  रहेगा  ऐसे  ही  हरा  भरा ,,
द्राक्षा ,  भी  फलेगी  लता  गुल्म  पर
मदिरा  भी  बनेगी ,
पर  तुम  रहोगे अतृप्त.
चषक  और  अधरों  में
अभी  दूरी बहुत है।  ''

नेपथ्य  से कोलाहल उठा अचानक,
सब  हक्के -बक्के  चित्रलिखित  से ,
अवाक , मूक , स्तब्ध।
भरा  चषक  राजा  ने  रख , पूछा ,
'' यह  कैसा  विप्लव ,''
घबराए  स्वर  में  आया  हरकारा,  बोला ,
''राजन , घुस  आया  है  उपवन  में,
अरण्य  वाराहों  का  दल ,
नष्ट कर  दिया  उपवन  सारा ,
ध्वस्त कर  दिया  हर  अंगूर  लता  को ,
तोड़ दिए  उसने  सारे  आसव  घट.''

क्रोधातुर  राजा  उठा , फुफकारता  हुआ ,
शस्त्र बद्ध, आरूढ़ हुआ अश्व  पर ,
चल  दिया  लेकर सैन्य  बल ,
वाराह  दलन हेतु .
चषक  रहा, भरा  का  भरा  ही,
चख  न  सका  था  राजा,

युद्ध  छिड़ा था , उपवन  में ,
राजा सन्नद्ध हुआ मृगया में,
घिर  गया  राजा  वाराह दल से ,
अश्व  हुआ आहत,
राजा गिरा  अश्व  से ,
आहत, भग्न , क्लांत ,भूलुंठित ,
वाराह  भागे  नष्ट  कर उपवन  सारा,
लौटा  सैन्य  दल हताश ,
देखा ,
राजा  जीवन  शून्य , पडा  धरती  पर ,

उधर  चषक  था  भरा  हुआ ,
नहीं छुआ किसी  ने  उसे,
राजा  पडा  भूमि  पर  निष्प्राण ,
चषक  भरा  रहा प्रतीक्षा में  ,
एक बूँद भी ,
चख न सका था राजा !

( विजय शंकर सिंह )

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