आज से सौ साल पहले वह कलकत्ता से पानी के जहाज में बैठ कर एक अनजान सफर पर निकली थी। उस सफर में उसके साथ कोई अपना न था। वह अकेली थी। वह गर्भवती थी। ‘द क्लाइड’ नाम के उस जहाज पर जो उसके हमसफर थे, उन्हें भी मंजिल का पता न था। साथ में कुछ बहुत जरूरी चीजों के गट्ठर थे और एक उम्मीद थी कि जहां जा रहे हैं, वहां भला-सा कोई रोजगार होगा और कुछ समय बाद कुछ कमा कर वापस लौट आएंगे। ऐसे जहाजों की रवानगी का सिलसिला 1834 से शुरू हुआ था और 1920 तक चलता रहा था। जो गये वे लौटे नहीं। जहां-जहां गये, वहीं के होकर रह गये। जिन गांवों और रिश्तों को पीछे छोड़ गये थे, वे भी उनको भूलते गये। लेकिन उनकी और उनकी संतानों की यादों में, व्यवहार में, संस्कार में अपना ‘देस’, अपनी ‘माटी’, अपनी ‘नदियां’, अपने ‘तीरथ’ और अपने ‘देवता-पितर’ बने रहे, बचे रहे। सरकारों और कंपनियों की दस्तावेजों में इन्हें ‘कूली’ की संज्ञा दी गयी, बोलचाल में वे ‘गिरमिट’ या ‘गिरमिटिया’ कहे गये। पुराने रिश्ते सात समंदरों में धुलते-घुलते गये। एक जहाज में आये गिरमिटों ने नया रिश्ता गढ़ा और एक-दूसरे को जहाजी का संबोधन दिया। गोरी सभ्यता गुलामी को नये-नये नाम देती रही, जिंदगी आजादी के सपने गढ़ती रही, जीती रही। खैर… उस अकेली गर्भवती स्त्री को जहाज तीन महीने की यात्रा के बाद ब्रिटिश गुयाना लेकर पहुंचा। उसकी गोद में अब उसका बच्चा था, जो यात्रा की तकलीफों के कारण समय से पहले ही इस दुनिया में आ गया था। शक्कर बनाने के लिए उपजाये जा रहे गन्ने के खेत में उसने मजदूरी शुरू कर दी। समय बदला, सदी बदली। सुजरिया की संतानें एक दूसरी यात्रा करते हुए एक अन्य महादेश जा पहुंचीं। उन्हीं संतानों में से एक गायत्रा बहादुर अब अमरीका में जानी-मानी पत्रकार और लेखिका हैं। सौ साल बाद बहादुर एक यात्रा पर निकलती हैं, अपनी परनानी सुजरिया का पता करने। उनके पास उसकी एक तस्वीर थी। यह यात्रा गायत्रा को कई देशों-द्वीपों से गुजारते हुए बिहार के छपरा जिले के एक कस्बे एकमा के नजदीक बसे गांव भूरहुपुर लाती है, जहां से 27 साल की सुजरिया और उसके गर्भ में पल रहे चार माह के बच्चे की यात्रा 1903 में शुरू हुई थी। अपनी परनानी सुजरिया का पता खोजती गायत्रा इस यात्रा में हजारों सुजरियों से मिलती है, जिनमें तेजतर्रार विधवा जानकी है जो जहाज पर कार्यरत ब्रिटिश चिकित्सक से शादी कर लेती है और आठ साल की वह बच्ची भी है, जिसका पिता बिस्कुट के बदले उससे वेश्यावृत्ति कराने पर मजबूर करता है। शास्त्रीय इतिहास गुलामों को जगह नहीं देता। गुलाम शास्त्र नहीं लिखते। उनकी स्मृतियां गीतों-रिवाजों में पनाह लेती हैं, कथाओं में तब्दील हो जाती हैं। गुलाम औरतें इस ‘लोक’ में भी हाशिये पर रहती हैं। धीरे-धीरे उनका इतिहास जानना कठिन ही नहीं, असंभव होता जाता है। ऐसी ही कुछ असंभावनाओं को गायत्रा अपनी किताब ‘कूली वूमन – द ओडिसी ऑफ इंडेंचर’ में तलाशने की कोशिश करती हैं। इस किताब में परिवार है, पत्रकारिता है, अभिलेखों और स्मृतियों में दबा इतिहास है, गोरी सभ्यता के औपनिवेशिक दंभ और दमन के विरुद्ध अभियोग-पत्र है। सबसे बढ़ कर यह उन पुरखों के प्रति श्रद्धा है, जिन्होंने भयानक परिस्थितियों में जीवन की आस नहीं छोड़ी। यह किताब अशोक वाजपेयी की एक कविता का साकार है : बच्चे एक दिन यमलोक पर धावा बोलेंगे और छुड़ा ले आएंगे सब पुरखों को वापस पृथ्वी पर, और फिर आंखें फाड़े विस्मय से सुनते रहेंगे एक अनंत कहानी सदियों तक। गायत्रा बहादुर इस किताब में अपनी सांस्कृतिक पहचान की तलाश भी करती हैं। वे किसी तटस्थ इतिहासकार या पत्रकार की तरह सवालों के जवाब-भर पाने की कवायद नहीं करतीं बल्कि ऐसे सवाल भी पूछती हैं जिनके जवाब नहीं मिल सकते और जो नितांत निजी सवाल हैं। वे कहती हैं कि वे इस इतिहास को उलटते-पलटते हुए निरपेक्ष नहीं हैं और न हो सकती हैं। आखिर वे इस इतिहास की पैदाइश हैं, जिसकी नायिका सुजरिया है, जो अपनी बेटियों को ‘फिल्म-स्टार’ की तरह लगती थी। इसी इतिहास के धुंधलके में बहादुर अपनी उत्तर-औपनिवेशिक सांस्कृतिक पहचान को रेखांकित करने की कोशिश करती है, जो नव-उपनिवेशवाद और आजाद गिरमिटिया समुदायों की सुजरियों और गायत्राओं के वर्त्तमान से भी बनती है। शनिवार दिल्ली के मे डे कैफे में गायत्रा बहादुर इस किताब पर बातचीत करेंगीं। मेरा अनुरोध है कि यह किताब पढ़ी जाए और गायत्रा को सुना जाए। यह भी सोचा जाए हिंदी और भोजपुरी के नाम पर गिरमिटियों के यहां साल-दर-साल जाकर भोज उड़ाने जाने वाले हमारे लिखने-पढ़ने वाले कभी उस सूनेपन को क्यों नहीं टटोलते, जो अरकाटियों के फरेब से बिदेसिया हुए जहाजियों की अनुपस्थिति से बना है! यह भी सोचा जाए कि क्या हम ऐसे निष्ठुर समाज हैं कि अपनों को सदा के लिए खो देना भी हमें नहीं कचोटता!
(प्रकाश कुमार रे। सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता के साथ ही पत्रकारिता और फिल्म निर्माण में सक्रिय। दूरदर्शन, यूएनआई और इंडिया टीवी में काम किया। फिल्म शोधार्थी भी। फिलहाल वे वी शांताराम पर शोध में लगे हैं और बीआर चोपड़ा पर केंद्रित उनकी पुस्तक जल्दी ही प्रकाशित होने वाली है। उनसे pkray11@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।
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