Friday, 3 December 2021

असग़र वजाहत - पाकिस्तान का मतलब क्या (5)

भारतीय उप-महाद्वीप के प्राचीनतम शहरों में सुल्तान का नाम ही रोमांचित कर देता है। महाभारत के अनुसार यह कटोच राजवंश के त्रिगार्न साम्राज्य की राजधानी था। शताब्दियों के लम्बे सफर ने शहर के नाम बदले हैं। कटोच राजवंश के कश्यप गोत्र के कारण कभी इसका नाम कश्यपुर भी हुआ करता था।

मध्य एशिया और दक्षिण एशिया के बीच बसे इस शहर का ‘अपराध’ इसकी भौगोलिक स्थिति रही है। दिल्ली की तरह ‘जो भी गुज़रा है, उसने लूटा है’ इसकी नियति रही है। सिकन्दर महान से लेकर मुहम्मद बिन कासिम, महमूद गजनवी, मोहम्मद गौरी तक की लूटमार के निशान इसके चेहरे पर देखे जा सकते हैं। कुछ समय के लिए यह शिआ मुसलमानों की एक शाखा इस्लाइली मुसलमानों के अधिकार में भी आ गया था। नादिरशाह और अहमद शाह अब्दाली ने भी इस शहर पर अपनी ताकत आजमायी है। 1817 में महाराजा रणजीत सिंह ने मुल्तान किले के फाटक तोड़ने के लिए ‘ज़मज़मा’ नाम की एक विशेष तोप भेजी थी और 1846 में यह शहर अंगे्रज़ों के क़ब्जे में आ गया था। उथल-पुथल की इन शताब्दियों में मुल्तान केवल मुगल शासन के दौरान शान्ति और समृद्धि की ओर बढ़ा था।

मुल्तान पीरों, सूफ़ियों और भिखारियों का शहर कहा जाता है। मुल्तान के बारे में फारसी का एक शेर है- 

‘चहार चीज़, अस्त तोहफ-ए-मुल्तान 
 गर्द, गर्मा, गदा व गोस्तिान।’ 

मतलब कि मुल्तान का उपहार चार चीजें़ हैं-धूल, गर्मी, फकीर और कब्रिस्तान। 

भारत से पाकिस्तान जाने वाले आमतौर पर लाहोर और कराची ही जाते हैं। मुल्तान कम ही लोग जाते हैं। मैंने अपने मित्र अमेरीका-वासी कहानीकार उमेश अग्निहोत्राी को जब यह बताया कि मुझे मुल्तान का वीज़ा भी मिल गया है तो उन्होंने ई-मेल भेजा था। ”जगह है आग़ापुरा। यहाँ कभी नन्दलाल आकर बसे थे। वे कवि थे और गुरु गोविन्द सिंह के प्रिय शिष्य भी थे। फारसी कविता पर भी उनका अधिकार था। ग़ज़नी से मुल्तान आकर बसे तो उनके नाम पर इस मोहल्ले का नाम पड़ गया था जिसमें हिन्दू परिवार रहा करते थे। इसका नाम बाद में आग़ापुरा मोहल्ला पड़ गया था। यह दिल्ली दरवाज़े के पास था। मकान दो मंज़िला था और उसमें बारह कमरे थे। पास ही एक गुरुद्वारा था। पुष्पा जी (उमेश अग्निहोत्री की पत्नी) के नाना का नमा लाला कुँवरभान था। एक नाम और बताया था उन्होंने भवानी मल...पाकिस्तान की यात्रा के लिए शुभकामनाएँ...उमेश।“

मुल्तान आने से पहले ही यह तय कर रखा था कि मुल्तान में उमेश अग्निहोत्राी की पत्नी पुष्पा जी के नाना का मकान तलाश करना है। मेरे ख़याल से पुरानी यादों से...अच्छी हों या बुरी हों...सामना करने से हिम्मत आती है। मैं चाहता था मित्र उमेश और पुष्पा जी को कुछ खोज कर दिखा दूँ। 

मुल्तान में मेरे सम्पर्क शाकिर अली शाकिर थे जो कवि हैं और मुल्तान में उनका प्रकाशन और किताबों की दुकान है। मैं उन्हें सीधे नहीं जानता था। कुछ मित्रों ने यह सम्पर्क सूत्र दिया था। बहरहाल लाहौर पहुँचने के बाद से ही मैं शाकिर साहब के सम्पर्क में था और उन्हें मालूम था कि मैं कब और कैसे मुल्तान आ रहा हूँ। उन्होंने कृपापूर्वक मुझे ‘रिसीव’ करने अपने बेटे को ‘देवू स्टेशन’ भेज दिया था। वह मुझे वहाँ मिल गया और उसके साथ मंगोल होटल आ गया।
छोटा पर साफ-सुथरा कमरा। पुराना होटल, शहर के अन्दर। मैं यही चाहता था। किराया भी वाजिब ही था।

कमरे में मुझे सामान-वामान लगाते कुछ ही देर लगी थी कि शाकिर साहब दो और दोस्तों के साथ आ गये। छोटे कमरे में हम सब किसी तरह बैठ गये। प्रोग्राम यह बना कि अभी शाम को मियाँ आसिफ रशीद मुझे शहर दिखाएँगे और कल मसूद काज़मी साहब आएँगे। अभी हम बातें कर ही रहे थे कि मेरा फोन बजा। उधर से जो आवाज़ आयी वह अपने लाहौर वाले मोहाफिज की आवाज़ लगी। मुझसे कहा गया कि मैंने मुल्तान के अपने सम्पर्क सूत्र शाकिर साहब का जो फोन नम्बर दिया है, वह लग नहीं रहा, क्या कोई दूसरा नम्बर मैं दे सकता हूँ।“ मैंने कहा, ”शाकिर साहब मेरे पास ही बैठे हैं। आप उनसे बात कर लें।“ मैंने शाकिर साहब को फोन दे दिया। वे बातें करने कमरे के बाहर चले गये। लौट कर आये तो बताया कि मुल्तान के ही ‘मोहाफिज’ का फोन आया था। पहले मैं समझा कि यह सामान्य-सी बात है लेकिन बाद में पता चला कि मुल्तान, लाहौर या कराची नहीं है। पहली बात तो यह कि मुल्तान प्रधानमंत्री का चुनाव क्षेत्र है, भूतपूर्व विदेश मंत्राी का भी ‘होम टाउन’ यही है। इस वजह से यह काफी संवेदनशील शहर माना जाता है। तीसरी बात यह है कि मेरे यहाँ आने का तर्क ‘मोहाफिजों’ की समझ में नहीं आ रहा था।

शाम को मियाँ आसिफ़ रशीद मुझे लेकर निकले। पहले मियाँ आसिफ रशीद का परिचय करा दूँ। उनकी किताब ‘दलीले सहर’ का उल्लेख इससे पहले किया जा चुका है। मियाँ आसिफ पाकिस्तान के माने हुए कला समीक्षक और बुद्धिजीवी हैं। बुनियादी तौर पर अर्थशास्त्री होने के कारण उनके अंदर वैज्ञानिक विश्लेषण की क्षमता है जिसके माध्यम से वे सामाजिक सांस्कृतिक परिदृश्य की समीक्षा करते हैं।

मियाँ आसिफ पुराने मुल्तान शहर यानी ‘वाल्ड सिटी’ के अंदर ले गये। पतली गलियों, सीढ़ियों, ककई ईंट की मोटी दीवारों, टेढ़े-मेढ़े सँकरे रास्तों, मज़हबी जलसों, मजलिसों के पोस्टरों से लिपी-पुती दीवारों को देखते हम एक पुरानी मज़ार में पहुँचे। यह कब्रिस्तान भी है, मस्जिद भी है और इमामबाड़ा भी है। यहाँ से हम और आगे बढ़े किसी और दरगाह जा रहे थे कि आसिफ की पत्नी का फोन आया और उन्होंने बताया कि शहर में एक ‘क्राफ्ट मेला’ हो रहा है, हम लोग चाहें तो वहाँ जा सकते हैं। आसिफ को आइडिया पसन्द आया और उन्होंने गाड़ी मोड़ दी।

मेला किसी भी मेले की तरह था लेकिन फर्क यह था कि आसिफ़ जब भी किसी स्टाॅल के मालिकों को यह बताते थे कि मैं भारत से आया हूँ तो क्राफ्टमैन या स्टाॅलों के मालिक अपना प्यार और लगाव दिखाने के लिए अपने स्टाल का कोई सामान भेंट करना चाहते थे। मुल्तानी मिट्टी से बने सामान की दुकान पर गया तो बहुत ज़ोर देकर दुकानदार ने गुलदस्ता भेंट कर दिया। किताब की स्टाॅल पर गया तो कातिब ने कहा कि वह मेरा नाम अपने स्टाइल से ऊँट की खाल पर लिखकर मुझे भेंट करना चाहता है। और उसने किया भी। गिलगिट से आयी दस्तकार महिला ने छोटा-सा कलात्मक पर्स भेंट किया। मैं हैरान था कि पाकिस्तान के लोग मुझ अदना-से आदमी के प्रति इतने आकर्षित क्यों हैं? दरअसल यह आकर्षण भारत के प्रति था।

मेले में एक स्टेज पर गाने और नृत्य का कार्यक्रम भी चल रहा था। मैं देखने लगा। एक छोटी बच्ची...उम्र यही कोई पांच साल रही होगी, मंच पर लायी गयी और बताया गया कि वह गाना सुनाएगी। लड़की ने माइक पर गाना शुरू किया, ‘मुन्नी बदनाम हुई...’ हिन्दी की एक सुपरहिट फिल्म का गाना, मुल्तान के क्राफ़्ट मेले में एक बच्ची के मुँह से सुनकर लगा कि यह एक देश के दो रूप हैं और अगर इतिहास के किसी मोड़ पर ये दो देश हो भी गये हैं तो इनका रिश्ता प्यार-मोहब्बत भाईचारे-इनसानियत मेलजोल और सहयोग वाला होना चाहिए न कि दुश्मनी वाला।

रात मियाँ आसिफ रशीद ने होटल छोड़ दिया। मैं लाहौर से अपने साथ कुछ पत्रिकाएँ लाया था, उन्हें पढ़ने लगा। एक पत्रिका में पाकिस्तान के ब्लैस्फेमी कानून (धारा 298-ए, 298-बी, 298-सी) मतलब पैगम्बर मुहम्मद साहब का अपमान और अवमानना करने सम्बन्धी कानून पर लेख छपा था। मैं मुल्तान के मंगोल होटल के कमरे में लेख पढ़ने लगा और रातभर सो नहीं सका। 

पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो और फिर लेफ्टीनेंट जरनल ज़ियाउल हक़ ने अपनी सत्ता बनाये रखने और लोकतांत्रिक आन्दोलन को दबाये रखने के लिए इस्लाम धर्म का सहारा लिया था और पाकिस्तान का ‘इस्लामाइजे़शन’ कर दिया था। पाकिस्तान को इस्लामी रिपब्लिक बना दिया गया था। इस्लामी क़ानून बनाए गये थे। इन्हीं क़ानूनों में ब्लैस्फैमी लाॅ भी बनाया गया था। इसके अन्तर्गत अगर किसी (आमतौर पर गै़र मुस्लिम) के बारे में दो मुसलमान ये गवाही दे दें कि आदमी/औरत ने ऐसा कुछ किया, लिखा या बोला है जिससे पैगम्बर मुहम्मद साहब का अपमान होता है, तो धार्मिक अदालत आरोपी को फाँसी की सज़ा देगी।

इस क़ानून का एक पक्ष यह है कि मुस्लिम जनता के दिमाग़ में यह बात बैठा दी गयी है कि तौहीने रिसालत करने वाले की हत्या से पवित्र काम कोई और काम नहीं होता। खुले आम धार्मिक नेता घोषणाएँ करते हैं कि यदि अमुक-अमुक ‘ब्लैस्फैमी’ के अपराधी की कोई हत्या कर देगा तो उसे इतने लाख इनाम मिलेगा। 

यही वजह है कि सलमान तासीर के हत्यारे के पक्ष में लाखों लोग सड़कों पर निकल आये थे। सलमान तासीर, पंजाब के गवर्नर के पद पर आसीन थे। उनकी ग़लती केवल इतनी थी कि तौहीने रिसालत की अपराधी ईसाई महिला आसिया बीवी से मिलने जेल गये थे। उनका कहना था तौहीने रिसालत 'दैवी क़ानून' नहीं है। यह मनुष्यों द्वारा बनाया गया है जिस पर विचार किया जा सकता है।

तौहीने रिसालत कानून देश की इतनी संवेदनशील समस्या बन गयी है कि केन्द्रीय गृहमंत्राी रहमान मलिक ने यह घोषणा की है कि वे स्वयं तौहीने रिसालत करने वाले की हत्या कर सकते हैं। सबसे ख़तरनाक बात यह है कि पाकिस्तान की उदारपंथी सिविल सोसाइटी इस प्रकार की आक्रमक धर्मान्धता के कारण ‘सिमटती’ चली जा रही है। यह नहीं लगता कि निकट भविष्य में धर्मान्धता को चुनौती दी जा सकेगी।

‘डेली टाइम्स’ (11 मार्च, 2011) ने एक रिपोर्ट छापी है जिसके अनुसार 32 लोगों को जिनमें अधिकतर ईसाई और अहमदिया थे, धार्मिक अदालतों ने तौहीने रिसालत के आरोपों में फाँसी की सजा दी थी। इन 32 लोगों के केस जब सरकारी अदालतों में आये तो, सबूत और गवाहों के अभाव में इन 32 लोगों को कोर्ट ने बरी कर दिया। लेकिन बरी होने के बाद इन सभी को इस्लामी कट्टरवादियों ने मार डाला। यही नहीं उन दो जजों की भी हत्या कर दी गयी जिन्होंने इन्हें बरी किया था। 

पाकिस्तान की पत्रिका ‘द हेराल्ड’ ने पाकिस्तान के मानव अधिकार कमीशन द्वारा दिए गये आँकड़ों के आधार पर छापा है कि 1986 से जनवरी 2011 तक कम-से-कम 39 लोगों को तौहीने रिसालत के आरोप में उनके मुकदमों की कार्यवाही शुरू होने से पहले मार डाला गया था। इनमें 35 हत्याएँ पंजाब में हुई थीं। तीन सिंध में और एक खै़बर-पख्तून खाँ में की गयी थी। अधिकतर हत्याएँ कट्टरपंथी लोगों द्वारा आरोपी को पत्थर से मार-मार कर की गयी थीं। कुछ को जेल में मार डाला गया था। कुछ को गोली मारी गयी थी।

आधी रात के वक्त, मुल्तान के मंगोल होटल के कमरा नं. 113 में मैं यह सोचने लगा कि यहाँ जीवन कितना सस्ता है। धर्मान्धता चाहे वह किसी भी धर्म की हो कहाँ ले जाती है? मुझे बाबरी मस्जिद ध्वंस और गुजरात का नरसंहार याद आने लगा। मैं दोनों स्थितियों की तुलना करने लगा।

सोचने लगा पूरे देश में दो लोगों का मिलना कितना आसान होगा जो यह कह सकें कि मैंने तौहीने रिसालत की है। बस इतना काफी है फिर हत्या कर दी जाएगी। भारत में अगर मैं हशिमपुरा, अहमदाबाद में होता तो हत्या की जा सकती थी क्योंकि मैं मुसलमान हूँ। 

दीवार लगी घड़ी लगातार टक-टक करती रही और मेरे बदन में सिहरन होती रही। आरोपियों को पत्थर मार-मार कर मार डालने के दृश्य मेरी आँखों के सामने कौंधते रहे। सोचने लगा कोई ईसा नहीं जो यह कह सके कि पत्थर वही मारे जिसने स्वयं कोई गुनाह न किया हो।
(जारी)

© असग़र वजाहत 

पाकिस्तान का मतलब क्या (4)
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