यह प्रतिमा नकली थी जिसे शोभायात्रा निकाल कर दिल्ली से बनारस तक काशी से चोरी गयी अन्नपूर्णा के रूप में लाया गया।
(चित्र देखें)
श्रद्धालुओं ने नकली प्रतिमा का दर्शन किया ।
रास्ते भर आस्थावान लोग दूर - दूर से दर्शनार्थ आए; पूजन और आरती भी की ।
धर्मपरायण लोगों के लिए यह बात किसी झटके से कम नहीं । लाख प्रमाण दिखाने पर भी सहसा कोई मानने को तैयार नहीं कि उन्होंने लंबी दूरी तय करके जिस उत्कंठा व श्रद्धा के साथ मां अन्नपूर्णा की अगवानी की वह असल मूर्ति नहीं बल्कि रिप्लिका (अनुकृति/नकली मूर्ति) थी ।
बस यही आह! निकलती रही - " कम से कम बता तो दिया होता "।
इस छलावे का कारण बिल्कुल साफ था,
संग्रहालय से वापस आई असल प्रतिमा तो मात्र १० अंगुल (17.3 cm ) की है।
इतनी बड़ी बात लगातार छुपाई गई।
मीडिया में भी नहीं आ पाई (खैर.. अब तो मीडिया में कुछ भी आना सच कम प्रचार ज्यादा लगता है) ।
सूचना क्रांति के इस नए दौर में भेड़चाल भी खूब है। खासकर जब मामला धर्म से जुड़ा हो तब किसी प्रकार का तर्क करना खुद को विधर्मी घोषित किए जाने के खतरे को सिर पर लेने से कम नहीं ...
संग्रहालय की असली तस्वीर
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कनाडा के संग्रहालय से लौट कर भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण, दिल्ली को सौंपी गई अन्नपूर्णा की प्रतिमा तो मात्र 17.3 सेंटीमीटर अर्थात लगभग 10 अंगुल की है।
(चित्र संख्या 2 को जूम करके देख सकते हैं।)
एक शो-केस में रेजिना विश्वविद्यालय, कनाडा के प्रशासकों की तरफ से भारत को सौंपने के प्रक्रिया की यह एक शुरुआती तस्वीर है।
विश्वनाथ कारीडोर में काशी के आधुनिक विद्वत परिषद द्वारा संग्रहालय की इस प्रतिमा को प्राण प्रतिष्ठित किए जाने के दौरान मुख्यमंत्री योगी जी की एक तस्वीर सामने आई जिसमें वो एक छोटी सी डलिया में फूल और माला लेकर पूजन की ओर बढ़ रहे थे।
उसी फूल और माला के बीच असली प्रतिमा का दर्शन लोगों को पहली बार हुआ।
थोड़ी फुसफुसाहट हुई.. जो समझ पाया वो समझ पाया, बाकी तो काम पूरा हो चुका था..
काशी से प्रतिमा चोरी की असल कहानी
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कथित रूप से चोरी की प्रतिमा के साथ 108 वर्ष का पवित्र भावनात्मक संबंध निकालना भी कम मजेदार नहीं।
असल में अन्नपूर्णा की यह 17.3 इंच की वापस आई प्रतिमा रेजिना विश्वविद्यालय, कनाडा के मैकेंजी संग्रहालय में रखी हुई थी।
नॉर्मन मैकेंजी नाम के व्यक्ति कलात्मक वस्तुओं के संग्रहकर्ता थे।
उन्होंने देश-विदेश से तमाम प्रकार की चीजें अपने निजी संग्रहालय में संग्रहित की।
बाद के दिनों में अपने कला संग्रह को उन्होंने रेजिना विश्वविद्यालय में दान दे दिया, जिन्हें 1936 में पंजीकृत किया गया तथा उन्हीं के नाम पर विश्वविद्यालय में मैकेंजी आर्ट गैलरी स्थापित की गई।
मैकेंजी कला दीर्घा को बाद में और विस्तार मिला तथा यह कला दीर्घा क्रमशः कनाडा के इतिहास व संस्कृति पर केंद्रित होती गई।
नॉर्मन मैकेंजी घूमते- फिरते सन 1913 में वाराणसी भी आए थे।
प्रतिमा चोरी के 108 वर्ष की गणना को मैकेंजी के बनारस आने की तिथि से जोड़ा जा रहा है।
इस फार्मूले के अनुसार इसका सीधा मतलब यह निकलेगा कि या तो मैकेंजी ने प्रतिमा को चुराई या उनके कहने से प्रतिमा चुराई गई; जिसे लेकर वह वापस कनाडा गए।
काशी में एक विदेशी व्यक्ति आकर किसी मंदिर की महत्वपूर्ण प्रतिमा को चुरा ले जाए अथवा उसके कहने से मंदिर की प्रतिमा गायब कर दी जाए, यह न तो तब संभव था न आज और न ही ऐसा कुछ इतिहास में दर्ज है।
एक बात ध्यान देने योग्य है कि
प्रचंड शोधार्थियों की इस पावन गिनती - '108 वर्ष' के ठीक 22 वर्ष पहले सन 1891 में काशी के नागरिकों द्वारा भदैनी स्थित राम मंदिर की प्रतिमा को पंप स्टेशन के नवनिर्माण के कारण क्षतिग्रस्त होने के अंदेशे मात्र से बहुत बड़ा बवाल काटा गया था,
पूरे शहर की व्यवस्था ध्वस्त हो गई थी और अंग्रेजी शासन के हाथ-पैर फूल गए थे।
काशी के इतिहास में इस घटना को 'रामहल्ला' के नाम से जाना जाता है।
थोड़ा और पीछे टहलना चाहें तो आप देखेंगे कि अंग्रेजों के शासन काल में काशी तब से ही संवेदनशील हो गई थी जब 1781 में वारेन हेस्टिंग्स किसी तरह जान बचाकर यहां से भागा था।
वारेन हेस्टिंग्स की घटना के बाद से 'बनारस अफेयर्स' को लेकर अंग्रेजों ने तमाम फाइलें खोल दीं तथा यहां की दैनंदिन हलचलों को दस्तावेजों में दर्ज किया जाने लगा। इन्हें आप गजेटियर, ग्रंथों और अभिलेखागारों में देख और पढ़ सकते हैं।
ऐसे में बनारस के किसी मंदिर से प्राण प्रतिष्ठित महत्वपूर्ण प्रतिमा गायब हो जाए और हल्ला न उठे, वह इतिहास में दर्ज न हो; यह असंभव और मात्र कोरी कल्पना है।
मैकेंजी के बनारस आगमन की तिथि को प्रतिमा की चोरी से जोड़ना सीधे-सीधे मैकेंजी को चोर बताना है। इसकी सफाई कनाडा वाले देते रहें, तथाकथित 'शोधार्थियों ' ने तो अपना काम पूरा किया।...
असल बात यह कि पुरामहत्व की वस्तुओं के प्राप्ति का स्रोत स्थानीय स्तर पर पूर्णतया स्पष्ट होता है, लेकिन बाहर से येन- केन- प्रकारेण संकलित की गई चीजें अज्ञात की श्रेणी में ही आती हैं।
लेकिन किसी वस्तु की प्राप्ति का स्रोत अज्ञात होना हमेशा चोरी होना नहीं कहा जा सकता।
अव्वल यह कि काशी के प्राचीन मंदिरों ,देवविग्रहों तथा तीर्थ स्थलों को बताने वाली किसी भी पौराणिक, धार्मिक अथवा ऐतिहासिक ग्रंथों में अन्नपूर्णा देवी के निर्धारित मंदिर के अतिरिक्त घाट किनारे अन्य स्थल पर अन्नपूर्णा के विग्रह अथवा मंदिर का होना उल्लिखित नहीं है और न ही भौतिक रूप से ऐसी कोई उपस्थिति रही है।
मैकेंजी जब बनारस आए होंगे तो बनारस घूमते वक्त पत्थर से मूर्ति बनाने के कलाकारों अथवा ' महादेव की दुकानों ' से इन्हें जरूर ऐसी प्रतिमा प्राप्त होने की गुंजाइश बनी होगी।
इन्हें हस्तगत करने की उत्कंठा में निर्धारित मूल्य से कुछ ज्यादा कीमत पर उसे पा लेना मैकेंजी के लिए जहां सुखद रहा होगा वही मूर्तिकार को ज्यादा दाम में एक फिरंगी को 10 अंगुल की प्रतिमा बेच देने में बनारसी ठगी विद्या की सिद्धि का संतोष भी मिला होगा।
कहानी जो भी बना लीजिए लेकिन
सच यही है कि इतनी छोटी प्रतिमा काशी के किसी मंदिर में पूजित नहीं थी और न हीं अन्नपूर्णा की किसी प्रतिमा के चोरी होने का प्रमाण उपस्थित है।
बहरहाल!
यह बात सच है की प्रतिमा चुनार के बलुआ पत्थर की बनी है, इसकी लंबाई मात्र 17.3 सेंटीमीटर है तथा यह लगभग 19वीं शताब्दी की बनी हो सकती है।
यह हर तरफ से एक सामान्य प्रतिमा दिखती है, जो कि थोड़ी क्षतिग्रस्त भी हो चुकी है।
ऐसी छोटी-छोटी मूर्तियां अक्सर मंदिरों के बाहर की दीवारों पर लगे 'स्टोन पैनल' में फिक्स किए जाते रहे हैं ।काशी के पंचकोशी मंदिर व सुमेरु मंदिर इत्यादि इसके कई उदाहरण हैं ।
संग्रहालय से देवालय पहुंचने के खतरे
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काशी के बहुत से धर्मनिष्ठ लोग खंडित प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा को अवैध मान कर शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दे चुके हैं।
संयोगवश आज का दौर चुनौती स्वीकार करने वालों का नहीं रहा।... हां ! वर्तमान सत्ता सनातन धर्म की स्वयंभू ठेकेदार है, ऊपर से ब्रह्मांड के सबसे बड़े विद्वानों की टोली - ' काशी विद्वत परिषद ' सत्ता के पादारविंदों में विराजमान है, नवोदित संत समिति कदमताल कर रही है ।
जहां इतने तंत्रों की शक्तियां एकजुट हों वहां बिना मंत्रों के भी प्राण प्रतिष्ठा की जा सकती है। इसलिए मुझे इस प्राण प्रतिष्ठा में शास्त्रार्थ की भी कोई गुंजाइश नहीं दिखती।
सर्वाधिक आपत्तिजनक कोई बात है तो वह है - 'राजहठ'' ।
ऊपर का आदेश है कि - बाबा को सांस लेने में तकलीफ हो रही है , मैदान बना दो!
अतः पूरा विश्वनाथ दरबार उजाड़ कर मैदान तैयार हो गया। सैकड़ों देवालयों के विग्रह उद्ध्वस्त करके ' कारीडोर के अज्ञात अंध संग्रहालय ' में बंद कर दिए गए हैं और कनाडा के संग्रहालय की अज्ञात अन्नपूर्णा कारीडोर के देवालय में विराजमान हो चुकी हैं।
यूनेस्को कन्वेंशन 1970
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सच यह है कि कनाडा ने अन्नपूर्णा की अज्ञात मूर्ति को विश्वनाथ कॉरिडोर में स्थापित करने के लिए नहीं लौटाया था और न हीं भारत को वापस हुई पुरासंपदा की यह पहली घटना है ।
असल सच्चाई यह है की
यूनेस्को के सन 1970 के कन्वेंशन में एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित हुआ ;
जिसके अंतर्गत सांस्कृतिक संपत्तियों व पुरा महत्व की वस्तुओं के अवैध आयात,निर्यात को रोकने व हस्तांतरण पर जोर दिया गया तथा जिनके पास इनकी प्राप्ति के समुचित दस्तावेज नहीं हैं, उनकी ओर से उस मूल देश को वापस करने की शिष्टाचारपूर्ण नैतिक नियम पालित करने का आग्रह रखा गया ;
ताकि सभी राष्ट्र अपने इतिहास व धरोहर को यथारूप संरक्षित रख सकें।
यह 'यूनेस्को कन्वेंशन 1970' के नाम से प्रसिद्ध है।
इसी क्रम में कनाडा के प्रधानमंत्री स्टीफन हार्पर ने सन 2015 में नरेंद्र मोदी को 'पैरेट लेडी' नाम की एक प्रतिमा गिफ्ट की थी, जो एक नृत्यांगना के उपर बैठे तोते से सम्बन्धित खजुराहो की प्रतिमा थी तथा तब उन्होंने 1970 के यूनेस्को कन्वेंशन के अनुपालन में और भी सामग्री होने तथा इसे हस्तांतरित करने की बात रखी थी। कनाडा द्वारा वापस की गई पैरेट लेडी नाम की इस प्रतिमा को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के संग्रहालय में रखा गया है ।
हां! यह बात सच है कि, कनाडाई प्रधानमंत्री ने सदाशयता के साथ इस नियम के आलोक में पर्याप्त शिष्टाचार दिखाया तथा नरेंद्र मोदी जी की अगुवाई में ऐसी धरोहरों को वापस लाने की अच्छी पहल की गई।
लेकिन इतिहास भावनाओं के अतिरेक का नाम नहीं है। धर्म और संस्कृति के विकास व इतिहास को संकलित और संरक्षित करने के लिए तर्क और अन्वेषण की तटस्थता आवश्यक है।
यह पहला अवसर है जब भारतीय पुरातत्व विभाग को मिली वस्तु देवालय में भेज दी गई। जिस साधारण प्रतिमा की प्राप्ति अज्ञात थी उसे असाधारण रूप से विश्वनाथ दरबार में प्राण प्रतिष्ठित कर दिया गया, जबकि अभी तक निर्माणाधीन कारीडोर के अंदर विध्वस्त दर्जनों काशी खंडोक्त देव विग्रह यथास्थान नहीं स्थापित किए जा सके हैं, प्रशासन झूठे आश्वासन पर इन्हें लटकाए हुए है ।
अंतिम बात यह कि संग्रहालय की वस्तुओं को देवालय में प्रातिष्ठित करना वोट बैंक के लिए कदाचित फायदेमंद साबित हो सकता है लेकिन यह घटना नजीर बन गई तो भारतवर्ष में भारतीय इतिहास, पुरातत्व और सर्वेक्षण की 'ऐसी की तैसी' जरूर हो जाएगी।
सत्ता के लोभ का यह रास्ता अगर खुल गया तो संग्रहालयों की पुरातात्विक वस्तुओं को अपने फायदे के लिए आने वाली सरकारें व अलग अलग जाति - संप्रदाय के लोग उपासना स्थलों पर लाने की मांग करेंगे और भारतवर्ष का भावी भविष्य इतिहास व संस्कृति के झरोखे से देख सकने में दृष्टिबाधित हो जाएगा।
दुर्भाग्यवश इस लोकतंत्र में पक्ष और विपक्ष की सभी पार्टियां निर्लज्जतापूर्वक धर्म के अंदर राजनीति की संभावना खोज रही हैं, लेकिन राजनीति के अंदर धर्म की प्राण प्रतिष्ठा कर पाने में सभी की निष्ठा बेदम हो चुकी है।
© डॉ. अवधेश दीक्षित
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