Wednesday, 17 November 2021

प्रवीण झा - रूस का इतिहास - तीन (14)


जैसे युद्ध और प्रेम में सब वाजिब है, क्रांति में भी सब वाजिब है। जयप्रकाश नारायण पर पिछली पुस्तक में मैंने ज़िक्र किया कि कैसे जनसंघ से सहयोग लेने पर उनसे तमाम कम्युनिस्ट और समाजवादी भड़क गए। भड़कना राजनैतिक रूप से उचित भी था। दक्षिण-वाम की भला कैसी जोड़ी? लेकिन, मार्क्सवाद के पुरोधा लेनिन का विश्व-पटल पर विमोचन ही घोर दक्षिणपंथियों ने किया था। क्रांति के निर्माण में ऐसी परिस्थितियाँ बन जाती है।

जर्मन सेना के कमांडर हॉफमैन की चिंता थी कि अमरीका युद्ध में आ रहा था, और अगर वह रूस के साथ मिल कर लड़ता तो न जाने क्या होता। उन्हें नहीं मालूम था, मगर हमने इन दो महाशक्तियों के मिलने पर हिटलर का हश्र पढ़ा है।

डेनमार्क में जर्मनी के राजदूत ने एक योजना बनायी। उन्होंने विदेश मंत्रालय को लिखा, “रूस की क्रांति एक सही अवसर है कि हम वहाँ गड़बड़ी फैला दें, और किसी को कानों-कान खबर न हो। हमें चरमपंथियों को रूस भेजना होगा, जो उदारवादियों को उखाड़ फेंके।”

सवाल यह था कि किसे भेजा जाए। एक मंत्री ने जब लेनिन का नाम सुझाया तो जनरल ने पूछा कि यह कौन है। उनकी शंका थी कि जिस आदमी पर इतना खर्च किया जाएगा, रिस्क लिया जाएगा, वह खोटा सिक्का निकला तो? सबसे बड़ी बात कि वह मार्क्सवादी इसके लिए तैयार कैसे होगा? 

लेनिन को संदेश भिजवाया गया कि एक जर्मन व्यवसायी उन्हें सुरक्षित रूस पहुँचा देंगे। लेनिन ने पहली दफ़े सुनते ही मना कर दिया कि वह जर्मनों के नुमाइंदे बन कर जाएँगे तो रूस में बहुत किरकिरी होगी।

एक हफ्ते बाद एक समाजवादी नेता प्लैटन उनसे मिलने आए और कहा, “तुम्हारे पास और कोई रास्ता है? अगर तुम समंदर के रास्ते भी रूस जाने की कोशिश करोगे तो जर्मन यू-बोट तुम्हें उड़ा देंगे। उनकी बात मान लो”

लेनिन ने कुछ सोचा और कहा, “मेरी एक शर्त है। हमें एक बंद ट्रेन से भेजा जाए। कहीं कोई पासपोर्ट वगैरा जाँच न हो। किसी को खबर न हो कि हमें जर्मनी की मदद मिल रही है।”

अगले ही दिन प्लैटन ने कहा, “वे तैयार हैं। एक बंद ट्रेन होगी। तुम अपने साठ लोगों के साथ चुप-चाप रूस पहुँच जाओगे। इसका सारा इंतज़ाम जर्मन सेना करेगी।”

मगर दीवारों के भी कान तो होते ही हैं। अभी ट्रेन निकली भी नहीं थी कि खबर फैल गयी- ‘लेनिन जर्मनों के हाथों बिक गया’। 

बुद्धिजीवी वर्ग तो खबर सुनते ही भड़क गया। नोबेल पुरस्कृत साहित्यकार रोमां रोलां अपने मित्र स्टीफन स्वाइग से मिलने गए और एक पर्चा निकाल कर दिखाया, “लेनिन की चिट्ठी है। कहता है स्टेशन पर आकर मिलूँ। मैंने तो साफ मना कर दिया।”

जब लेनिन ज़्यूरिख़ के स्टेशन पर पहुँचे, वहाँ तमाम मार्क्सवादी और समाजवादी पहले से जमा थे। वे चिल्लाने लगे- ‘जर्मनों का पिट्ठू! सूअर! कैसर ने सोने के सिक्के दिखाए ओर बिक गया?’

लेनिन मुस्कुराते हुए अपनी घड़ी देख रहे थे। वह खुश थे कि ज़रिया कोई भी हो, उनका स्वप्न सच हो रहा है। चुपचाप अपने साथियों के साथ ट्रेन में चढ़े और अंदर जाकर कहा, “कामरेड! छह महीने के अंदर हम या तो सत्ता में होंगे, या फाँसी पर चढ़ाए जा रहे होंगे”

जर्मन आर्मी जनरल हॉफमैन ने बाद में अपने बचाव में कहा, “जैसे हम दुश्मनों पर बम फेंकते हैं, जहरीले गैस फेंकते हैं, उसी तरह यह भी हमारा एक हथियार था।”

इतिहास गवाह है कि एक साल के बाद रूस में लाल झंडा लहरा रहा था। जो भी उस ट्रेन में बैठे थे वे सत्तासीन थे। लेनिन को उस ट्रेन में बिठाने वाले कैसर विलियम रूस को उखाड़ने के फेर में खुद ही उखड़ गए। 

लेनिन से जब यह सवाल पूछा गया कि वह इस जर्मन ट्रेन में क्यों बैठे, तो उन्होंने मुस्कुरा कर कहा, “कोई बेवकूफ़ ही यह मौका हाथ से जाने देता”
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

रूस का इतिहास - तीन (13)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/11/13.html
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