ज़ारशाही की बुराई से इतिहास के पन्ने भरे हैं, लेकिन आज के रूस में कुछ महान ज़ार शासकों की चर्चा हो रही है। अगर उस दौर पर आधारित फ़िल्म या वृत्तचित्र देखें, तो उसमें ज़ारशाही के लिए सहानुभूति के पुट दिख सकते हैं। उदाहरण के लिए नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध ‘द लास्ट ज़ार्स’ या ‘द एम्पायर ऑफ़ ज़ार’ में उनके गुण-गान मिल सकते हैं।
कम्युनिस्ट रूस में यह इतिहास काले अक्षरों में लिखा गया, क्योंकि उनका मूल ही निरंकुश राजशाही का अंत था। यह बात पेरिस में भी दिख सकती है, जहाँ मैंने घोड़े पर सवार लुई चौदहवाँ की प्रतिमा तो देखी, लेकिन राजशाही का बहुत गुण-गान नहीं देखा। इतिहास की किताबों में शासक के नाम पर नेपोलियन की अधिक महिमा है, जो क्रांति के बाद आए थे। भारत में भी निरंकुश राजशाही रही है, लेकिन इतिहास में यह क्रमबद्ध तरीके से पढ़ाया गया। ऐसे स्कूली बच्चे मिल जाएँगे जो खिलजी, मुगल शासकों या ब्रिटिश गवर्नर जनरलों के नाम बता देंगे जबकि ये शासक भारत के बाहर से आए थे। यह यूरोप और भारत का अंतर ग़ौर करने लायक है।
ज़ार अलेक्सांद्र (द्वितीय) रूस के ऐतिहासिक सुधारक कहे जा सकते हैं। उन्होंने कृषि-दासता खत्म करने के साथ ही एक स्वतंत्र न्यायपालिका घोषित की। यह ऐसी न्यायपालिका थी, जो ज़ार के हस्तक्षेप से मुक्त थी। काग़ज पर इसे यूरोप की सर्वोत्तम न्यायपालिका कहा जा सकता था। शारीरिक दंड को कम कर दिया गया, यानी अब कैदी को चाबुक से यूँ ही नहीं मारा जा सकता था। उन्होंने प्रेस और साहित्य को अधिक आज़ादी दी। रूस में ग्राम स्वराज (ज़ेमस्त्वो) की स्थापना हुई, जिसके कारण गाँव-गाँव में स्कूल, सड़कें आदि बननी शुरू हुई। उच्च और तकनीकी शिक्षा को खूब बढ़ावा मिला।
इन तमाम सुधारों और गुलामी के अंत के बावजूद ज़ार अलेक्सांद्र को अब्राहम लिंकन के समकक्ष नहीं माना जाता। बल्कि, वह ऐसे राजा रहे, जिन पर सबसे अधिक हत्या के प्रयास हुए और अंतत: हत्या कर दी गयी। क्यों?
दरअसल, इस स्वतंत्रता से रूस में एक बुद्धिजीवी वर्ग का उदय हुआ, जो तर्क-विमर्श करने लगे। किताबें और पत्रिकाएँ छपने लगी। लड़के बाल बढ़ाने लगे, लड़कियाँ बाल छोटे करने लगी। विद्यार्थियों और प्रोफेसरों के समूह बनते चले गए। कुछ नरम मिज़ाज के लोकतांत्रिक हल ढूंढने वाले, तो कुछ सीधे ज़ार को गोली मार कर सर्वहारा को सत्ता दिलाने वाले। वे पढ़े-लिखे ग्रैजुएट गाँवों में पहुँच कर भी अपने तर्क रखने लगे, अन्याय के विरुद्ध लड़ने के लिए कहने लगे। हालाँकि किसानों ने ख़ास रुचि नहीं दिखायी।
उसी समय एक उपन्यास छपा- ‘क्या करना चाहिए?’ (वाट इज टू बी डन)। निकोलाइ चेर्नीस्वेस्की के इस उपन्यास को एक बाइबल की तरह रूस में पढ़ा जाने लगा। इसका यूँ प्रभाव पड़ा कि लियो तॉलस्तॉय और दोस्तोवेस्की जैसे लेखकों ने इसी शीर्षक से इस किताब का जवाब लिखा। बाद में लेनिन नामक एक क्रांतिकारी ने इसी नाम से एक पुस्तिका छपवायी। यह एक उदाहरण है कि किस तरह कुछ काग़ज़ के पन्ने दुनिया के छठे हिस्से जितने बड़े देश को बदल सकते हैं।
यह उपन्यास आज के मानकों से एक बेतरतीब लिखी किताब है। इसमें एक शादी-शुदा महिला अपने व्यवस्था-विवाह से अलग होकर एक सहकारी मॉडल बनाती है। वह कुछ महिलाओं के साथ मिल कर कुटीर उद्योग स्थापित करती है, और एक स्वतंत्र अर्थव्यवस्था तैयार करती है। आज यह एक साधारण मॉडल लग सकता है, लेकिन उस समय के रूस में यह एक नया कंसेप्ट था। ऐसा कंसेप्ट कि किसानों को सामंतों पर आश्रित नहीं रहना, वे मिल कर सहकारी औद्योगिक खेती कर सकते हैं। स्त्रियों को पारंपरिक ढाँचे से निकलना होगा, उन्हें पुरुषों पर आश्रित रहने की आवश्यकता नहीं। यह बातें उन्नीसवीं सदी में बड़ी बात थी। एक दूसरा पहलू यह भी था कि उपन्यास जेल में लिखी गयी थी, जिस कारण क्रांतिकारी पक्ष अधिक उभर आया। इसके प्रभाव भी दिखने शुरु हो गए।
4 अप्रेल, 1866 को ज़ार अलेक्सांद्र अपने समर पैलेस से निकल कर अपनी बग्घी की तरफ़ बढ़े। तभी उन पर एक युवक ने गोली चला दी। एक राहगीर ने उसकी केहुनी पर झपट्टा मारा, और निशाना चूक गया। ज़ार अपने पूर्वजों के विपरीत, हमलावर से बात करने चल दिए।
उन्होंने पूछा, “क्या बात हो गयी? आप मुझसे नाराज़ क्यों हैं? आप पोलिश (पोलैंड के) हैं? आपको क्या चाहिए?”
उसने कहा, “नहीं। मैं रूसी हूँ। मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिए।”
यह रूस में अप्रत्याशित था कि एक आम युवक यूँ सड़क पर सीधे ज़ार पर गोली चला दे। जहाँ एक तरफ़ परंपरावादियों ने इसे एक घृणित अपराध कहा, हमलावर काराकोजोव क्रांतिकारियों के नायक बन गए। उन्हें फाँसी दे दी गयी और उनकी तस्वीरें यूनिवर्सिटी के छात्रों की दीवालों पर लग गयी। वे भी अब काराकोजोव बनना चाहते थे।
अगले ही वर्ष रूस में एक और किताब छप कर आयी- ‘दास कैपिटल’।
(क्रमश:)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
रूस का इतिहास - दो (5)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/10/5.html
#vss
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