सुल्तानों और बादशाहों ने जो राजमार्ग बनवाए उनके किनारे-किनारे उन्होंने आम के पेड़ लगवाए थे। जब लश्कर चलता तो आम के पेड़ों की छाँव लुभाती मगर आम के पेड़ के नीचे एक तो पानी भरता है दूसरे उस पानी में पनिहल सांप आ जाते। जिससे बेगमें डर जातीं। इसके अलावा पतझड़ में रात के वक़्त आम के पत्ते ज़मीन में गिरते तो शोर बहुत करते थे। जिससे लश्कर में बेगमों और बादशाहों नींद खुल जाती। तब उन्होंने इमली के पेड़ लगवाए, खासकर अवध के नवाबों और बादशाहों ने।
इमली के पेड़ बेगमों को तो लुभाते पर इमली और उनकी छाल के बहुत प्रयोग से पूरे अवध में लोग कुबड़े पैदा होने लगे तथा चर्म रोग से परेशान रहने लगे तब नीम के पेड़ों को लगाना शुरू किया गया। वैद्यों और हकीमों ने इमली के पेड़ हटवा कर नीम के पेड़ लगाने की सलाह दी थी। लेकिन बाद में कंपनी सरकार के अंग्रेजों ने नीम के पेड़ कटवा दिए और उनकी लकड़ी कंपनी बहादुर के बंगलों को सजाने में इस्तेमाल होने लगी। शीशम के पेड़ लगवाए पर शीशम के पेड़ चोरी-छिपे काटे जाने लगे और बाज़ार में शीशम के दाम खूब चढ़ गए। योरोप के फर्नीचर बाज़ार में शीशम की खूब मांग बढ़ गई तो अंग्रेजों ने शीशम के पेड़ कटवा कर बेच दिए।
बीसवीं सदी की शुरुआत से ही राजमार्गों पर जामुन के पेड़ लगवाए जाने शुरू किए गए। पूरी नई दिल्ली का अंग्रेजों के इलाके की सडकों के किनारे जामुन लगाए गए। जामुन के पेड़ स्वतः उग जाते हैं और इसकी लकड़ी किसी काम की नहीं इसलिए इसके चोरी-छिपे काटे जाने का भी खतरा नहीं। इसलिए अंग्रेजों ने जामुन के पेड़ खूब लगाए।
मगर जामुन बंदर बहुत खाता है इसलिए पूरे लुटियन्स जोन को बंदरों ने घेर लिया। पहले तो दिल्ली का लुटियन इलाका जंगल था इसलिए कोई दिक्कत नहीं हुई मगर आज़ादी के बाद लुटियन जोन में वीवीअईपी बसावट बढ़ी तब बंदरों को भगाने के लिए लंगूरों को लाया गया। पर आज़ादी के बाद की सरकारों की कोई वृक्ष-नीति नहीं रही इसलिए राजमार्ग नंगे कर दिए गए और नई दिल्ली के लुटियन जोन में लंगूर भर दिए गए।
(ज़ारी)
© शंभूनाथ शुक्ल
कोस कोस का पानी (27B)
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