सिलबट्टा और लोढ़ा का रंग ऐसा जमा कि उसने तमाम लोगों के चेहरे का रंग उड़ा दिया। आधुनिकता के नाम पर दिमाग़ में काई जमने लगी है। सिलबट्टा से लाखों लोगों की रोज़ी चलती थी, उसे टाँकने वाले अब कहाँ मिलते हैं? ऐसी ही सोच ने काज-बटन करने वालों, दर्ज़ियों, मोचियों, धोबियों, मालियों और तमाम परंपरागत व्यवसाय के लोगों को मुख्य धारा से बाहर कर दिया। कलई करने वाले अब ढूँढ़े नहीं मिलेंगे। पहले गुजरात और बंगाल के तटवर्ती इलाक़ों में बसे अल्बानिया के लोग घरों में जाकर पुराने कपड़ों के बदले स्टील के बर्तन देते थे। ये लोग सबसे पहले भारत आए थे और विशुद्ध भारतीय बन गए थे, अब वह पूरी बिरादरी ग़ायब हो गई है। चीनी, तिब्बती लोग भारत में अपना अलग मोहल्ला बना कर रहते हैं। चीनी लोग चमड़े का व्यवसाय करते हैं और अपने मोहल्लों में रेस्तराँ भी खोले हैं। उनके यहाँ रेस्तराँ में आप सपरिवार जाइए, भोजन करिए और वे आपको शराब भी परोस देंगे किंतु ज़रा भी बदतमीजी की तो उनके घर की स्त्रियाँ भी आपको गर्दन से उठा कर बाहर फ़ेक देंगी। कलकत्ता के चाइना टाउन में ये दृश्य आम हैं। इसी तरह दिल्ली में ऊनी वस्त्रों का व्यवसाय करने वाले तिब्बती भी। उनके रेस्तराँ में भी भोजन और शराब मिलेगी मगर कोई ढील लेने की कोशिश की तो उनकी महिलाएँ पीट डालेंगी। इन सबके यहाँ परंपरागत सिलबट्टा-लोहड़ा मिल जाता है। इनके भोजन की विशिष्टता यही है।
और इनके महिलाएँ आत्मनिर्भरता का ढोंग नहीं पालतीं। वे परिवार की एक ज़रूरी कड़ी हैं। उनके बग़ैर परिवार बिखर जाएगा। मेघालय, अरुणाचल और नगालैंड में जा कर यह देख सकते हैं। लेकिन उत्तर भारत की हिंदी पट्टी में मशीनीकरण ने ऐसा ग़ुलाम बना लिया है, कि ज़रा भी हट कर बात की जाए तो ऐसे बाबा और बाबी लोगों की अस्मिता, सोच और संस्कार पर जैसे डाका पड़ जाता है, इस तरह चीखने लगते हैं। मैंने कल एक पोस्ट लिखी थी- “अगर आप स्वस्थ रहना चाहते हैं तो योग और रस्सा-कूद के फ़रेब में न पड़िए। अच्छे पाकशास्त्री बनिए, घर में सिल-बट्टा और दरतिया ज़रूर रखिए। कैथा, मेथी दाना और नारियल की चटनी सिर्फ सिल-बट्टे से ही बन सकती है। मिक्सी की बजाय सिल-बट्टे पर पिसी चटनी का जायका ही अलग है। और अगर दाल बाटनी हो तो इसके लिए सिलबट्टा जरूरी है। इसी तरह मसाले पीसने के लिए दरतिया रखें। थोड़ा बहुत चना और जौ पीस सकते हैं। इन दोनों के इस्तेमाल से गठिया और वात की बीमारी नहीं होगी”।
इसके बाद जो बवाल मचा कि स्वतंत्रचेता और अपने को कथित प्रगतिवादी बताने वाले लोगों ने हंगामा कर दिया। फ़ेसबुक पर रोना रोया और भी कई मंचों पर। ऐसे लोगों के चाल और चेहरे पर क्या टिप्पणी की जाए! बेहतर रहे कि उनसे दूर रहें ताकि इस मंच पर वह स्वर भी पनपे जो कारपोरेट माफिया की लूट का विरोधी है। ध्यान रखिए, लूटतंत्र अक्सर उदारवादी चेहरे को लेकर आता है, लेकिन होता वह ठग है। अपने उस चेहरे से वह भोले लोगों को बेवक़ूफ़ बनाता है। वह सेकुलर की बात करता है परंतु अंदरखाने लोगों को कट्टर बनाता है।
© शंभूनाथ शुक्ल
कोस कोस का पानी (23)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/10/23.html
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