Thursday, 14 October 2021

प्रवीण झा - रूस का इतिहास (19)

       ( चित्र: कार्ल मार्क्स, 1839 का स्केच )

इतिहास में जन-क्रांतियाँ एक यूटोपियन ख़्वाब बन कर उभरती रही है। एक तिलिस्म जो कई बार टूटा है। मसलन फ्रांसीसी क्रांति के ठीक बाद वहाँ की सभा में दो पंथ उभरे। जो दाहिने बैठे, वे दक्षिणपंथी कहलाए; जो बायें बैठे, वे वामपंथी। वहाँ की जनता राजा के रक्त की प्यासी हो गयी। फ़्रांस में ‘आतंक का राज्य’ (reign of terror) स्थापित हो गया। उस समय के घटनाक्रम पर चार्ल्स डिकेंस अपनी पुस्तक ‘अ टेल ऑफ टू सिटीज़’ की शुरुआत इन पंक्तियों से करते हैं- 

“यह सबसे अच्छा वक्त था, और सबसे बुरा वक्त था। यह बुद्धिमानी का समय था, और मूर्खता का। यह विश्वास का वक्त था, और अविश्वास का। प्रकाश का समय था, और अंधकार का। आशाओं का वसंत था, और निराशाओं की पूस। हमारे पास सब कुछ था, और कुछ नहीं था।”

इसका अंत कैसे हुआ? तानाशाही के अंत के बाद अस्थिर फ्रांस को पुन: नेपोलियन की तानाशाही रास्ते पर लेकर आयी। वहाँ के दक्षिणपंथ और वामपंथ ने मिल कर स्थायित्व की चेष्टा की। उस काल के प्रभावी दार्शनिक हेगेल ने लिखा कि हर वाद (thesis) का एक प्रतिवाद (antithesis) होता है, और उनके मध्य संवाद ही सर्वोपरि है। हालाँकि हेगेल की राज्य की सोच में राजा का स्थान सबसे ऊपर था। उनका मानना था कि मजबूत राजा के बिना राज्य बिखर जाएगा।

जब रूस के राजा अलेक्सांद्र चल बसे, तो उनके दो छोटे भाइयों में एक राजा चुना जाना था, लेकिन उनमें किसी को राजा बनने की इच्छा नहीं थी। वहाँ के कुछ खानदानी लोगों और सेना के अफसरों ने मौका भाँप लिया। उन्होंने 1825 में ज़ारशाही के विरुद्ध विद्रोह कर दिया जो ‘दिसंबर विद्रोह’ (Decembrist revolt) कहलाया। राजभवन के बाहर गोलियाँ चलने लगी। उस समय अलेक्सांद्र के सबसे छोटे भाई निकोलस प्रथम ने कमान संभाली, और सभी क्रांतिकारियों को बंदी बना लिया।

ज़ार निकोलस स्वयं एक फौजी और इंजीनियर रहे थे। उनका मानना था कि ज़ारशाही को एक निरंकुश राजतंत्र बनाना ही होगा, अन्यथा विद्रोह होते रहेंगे। उन्होंने दोषी कुलीनों को फांसी नहीं दी, बल्कि उन्हें साइबेरिया भेज दिया। वे वहाँ मुक्त थे किंतु उन्हें मुख्य रूस आने की इजाज़त नहीं थी। इसमें अच्छी बात यह हुई कि सर्वहारा किसान-बहुल साइबेरिया में अब पढ़े-लिखे अभिजात्य वर्ग के लोग भी पहुँचे। उन्होंने वहाँ शिक्षा-संस्थान, पुस्तकालय, रंगमंच और गिरजाघर स्थापित किए। अब एक एलीट क्लब साइबेरिया में भी था।

निकोलस ने रूस को अपने हाथ में लेकर अपनी इंजीनियरिंग बुद्धि लगायी और उद्योग स्थापित किए। औद्योगिक क्रांति रूस में देर से सही, मगर आयी। अब पीटर्सबर्ग से मॉस्को भाप-इंजन चल रहे थे। रूस के किसान शहरों में आकर फैक्ट्री में काम कर रहे थे। लेकिन, निकोलस को यह बदलता हुआ रूस आशंकित भी कर रहा था। उन्हें लग रहा था कि उद्योग जहाँ रूस को आर्थिक समृद्धि देंगे, वह मजदूरों का ऐसा वर्ग खड़ा करेंगे जो उनकी सत्ता ले डूबेगा। रूस बिखर जाएगा। 

उन्होंने राजा की सत्ता को अधिक ऊँचाई देनी शुरू की। क्रेमलिन को एक विशाल राजभवन में तब्दील किया गया, और उसके साथ ही एक भव्य गिरजाघर स्थापित किया। वह धर्म और राजा की सत्ता को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करना चाहते थे। उन्होंने कहा कि रूस को बाकी यूरोप की हलचलों से दूर रहना चाहिए। इतना बड़ा देश बिना राजतंत्र के नहीं चल सकता।

ज़ार की आशंका की एक माकूल वजह भी थी। रूस में एक जर्मन अखबार प्रचलित हो रहा था, जिसमें युवा पत्रकार कार्ल मार्क्स ने ज़ार निकोलस के निरंकुश शासन पर लेख लिखा था। ज़ार ने इस अखबार को बैन कर दिया। 

1848 में क्रेमलिन में अपनी शाही कुर्सी पर बैठे निकोलस एक पुस्तिका को पलट रहे थे। लिखा था- 

“राजनीतिक सत्ता केवल एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के उत्पीड़न की संगठित शक्ति का नाम है। बुर्जुआ के ख़िलाफ़ संघर्ष में सर्वहारा वर्ग को संगठित होना होगा। अगर वे क्रांति के माध्यम से स्वयं को शासक वर्ग बना लें, और उत्पादन-संस्थाओं को अपना अंग बना लें, तो वर्ग-व्यवस्था का अस्तित्व खत्म हो जाएगा। बाद में एक वर्ग के रूप में वह अपने प्रभुत्व का भी अंत कर देंगे।”

निकोलस को इस तेइस पृष्ठ की पुस्तिका में उनके आलीशान राजभवन को गिराने की क्षमता दिखने लगी। सदियों से चली आ रही ज़ारशाही का अंत दिखने लगा। यह पुस्तिका भी उसी तीस वर्ष के पत्रकार कार्ल मार्क्स ने लिखी थी, शीर्षक था- ‘कम्युनिस्ट मैनिफ़ेस्टो’।
(पहली शृंखला समाप्त)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

रूस का इतिहास (18)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/10/18_13.html
#vss 

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