दिल्ली, हरियाणा और राजस्थान से सटे क्षेत्रों का एक राजा पृथ्वीराज चौहान जब फ़ौज-फाटे के साथ कान्यकुब्जाधीश्वर महाराजा जयचंद की पुत्री संयोगिता के अपहरण हेतु आया, तो राठौड़-वंशी जयचंद के सैनिकों ने पृथ्वीराज के फौजियों को बुरी तरह पीटा। चौहान वंश के ये राजपूत कन्नौज के आसपास खेतों में छिप गए। फिर जब जयचंद साम्राज्य का पतन हुआ, तो इन चौहान वंशियों ने कानपुर, इटावा, मैनपुरी आदि स्थानों पर अपने रजवाड़े कायम किए। यह किंवदन्ती है, या सत्य यह मुझे नहीं मालूम। लेकिन कानपुर में चौहानों के बारे में यही बोला जाता है। खैर, यह कोई 900 साल पहले की बात है. तब हो सकता है, कि चौहान वंशी ठाकुर पिटे हों। लेकिन अब इन चौहानों का इस इलाके में जलवा है। ख़ूब तूती बोलती है। राठौड़ राजाओं पर देश में मुहम्मद गोरी को बुलाने का आरोप लगा और महाराजा जयचंद को विभीषण कहा गया। बाद में मीर ज़ाफ़र भी इसी मार्ग पर चला। शर्म से डूब कर राठौड़ लोग राजस्थान कूच कर गए। जोधपुर का राजवंश इसी राठौड़ कुल का था। ऐसा भी कहा गया कि कन्नौज के आस-पास जब चौहानों का जलवा क़ायम हुआ, तब ये राठौड़ तेल के काम में लगे और कालांतर में तेली कहलाए। हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी इसी तेली बिरादरी से हैं। हमारे एक और प्रधानमंत्री स्वर्गीय विश्वनाथ प्रताप सिंह का कुल राठौड़ों का ही था। जब उन्होंने प्रधानमंत्री राजीव गांधी से विश्वासघात किया था, तब कांग्रेसियों ने उनका नाम विभीषण प्रताप सिंह रखा था। दिल्ली के इन चौहानों ने मध्य उत्तर प्रदेश के इस इलाके में रह कर गंगा-जमनी तहजीब भी सीखी।
चौहान वंशी शिवचरण (Shiv Charan Chauhan) मेरे साथ काम कर चुके हैं। सज्जन और आज्ञाकारी हैं, तथा पढ़ाकू भी। साहित्य में उनकी खासी रूचि है। जब मैं 2006 में कानपुर अमर उजाला से विदा होकर नोएडा आ गया, तो एक महीने तक मुझे निजी कार्य से कानपुर रहना पड़ा। दरअसल मुझे वहां एक माइनर आपरेशन से गुजरना था। कानपुर के जिला अस्पताल- उर्सला हार्समैन अस्पताल, जिसे लोग परेड अस्पताल भी कहते हैं, में मेरा आपरेशन होना था। पर सुगर थोड़ी बढ़ी होने के कारण आपरेशन दस-बारह रोज़ आगे खिसक गया। जनवरी की ठण्ड में मेरा भी कानपुर छोड़ने का मन नहीं किया, क्योंकि कानपुर के मेरे मकान में जाड़े की धूप बड़ी सुहानी लगती। इसलिए, वहीँ रुका। एक रोज़ शिवचरण चौहान मेरे घर आए, और बोले, कि ‘सर मेरे गाँव चलिए। धूप तो मिलेगी ही, सुबह रिंद नदी में स्नान, मटर की फलियाँ और रसियाउर खाइएगा।’ मैंने कहा कि ठीक है, चलो। वहाँ से कुछ ही आगे मेरा भी गाँव है।
मगर मेरा ड्राइवर तिवारी, मेरा तबादला होते ही मुझे छोड़ कर भाग गया था, इसलिए गाड़ी मुझे ही चलानी थी। एक दिन सुबह दस बजे हम घर से निकले। तब मेरे पास वीवीआईपी नंबर वाली जेन कार थी। नंबर ऐसा, कि कानपुर के आयुक्त, आईजी, डीआईजी, डीएम से लेकर तमाम लोग कार के नंबर से ही जान जाते, कि किसकी कार है।
घर से 18 किमी एनएच-टू पर पछाँह को हम चले और रायपुर से मूसानगर जाने वाली जिला पंचायत की रोड पर आ गए। रोड तब थोड़ी ज़्यादा ही सकरी थी। मुड़ते ही पहला गाँव मेरे मामाओं का है। गाँव में तिवारी लोग खाते-पीते किसान हैं, चौहान भी खूब हैं और सब किसान। अलबत्ता ज़मींदारी निगम कायस्थों की थी। जिनकी हवेली अब सूनी पड़ी है, सब लोग शहर चले गए। इसके बाद एक गाँव है, तिरवेदिन पुरवा। नाम से ही ज़ाहिर है, कि त्रिवेदी सरनेम वाले किसी ने उसे बसाया होगा। इस गाँव में सड़क पर एक बरगद का पेड़ है, जिसकी जटाएं देख कर ही लोग इसकी उम्र हज़ारों वर्ष बताने लगाते हैं। उस पेड़ के नीचे भूत और जिन्नों की बातें खूब प्रचलित है। जैसे ही मेरी गाड़ी उस पेड़ के नीचे से गुजरी, अनजाने ही मेरा पैर एक्सीलेटर पर जोर से दब गया। गाड़ी अनियंत्रित हो गई। सामने आ रही बैलगाड़ी को बचाने के लिए मैंने कार को बाएं घुमाया, तो दस फीट गहरी खाई। मेरे तो होश उड़ गए, और मौत को देख कर मैं भूल गया, कि गाड़ी में ब्रेक और हैंडब्रेक भी होता है। अब मुझे याद नहीं पड़ रहा, कि कैसे मेरी गाड़ी माइल-स्टोन के पहले आकर अचानक रुक गई, तब साँस में सांस आई। किंतु मौत को सामने देख कर भी शिवचरण चौहान के चेहरे पर तनिक भी शिकन नहीं आई। मैं वहां से किसी तरह कार सरवन खेड़ा तक लाया, और चौहान से कहा, तुम्हारे गाँव पैदल चलते हैं। गाड़ी यहीं किसी के यहाँ खड़ी कर देते हैं। लेकिन शिवचरण का कोई चेला, ड्राइवर था, जो उसी गाँव में रहता था। और जिला पंचायत अध्यक्ष राजेन्द्र बहादुर सिंह चौहान की गाड़ी चलाता था। शिव चरण ने उसे बुलाया। ब्रजेन्द्र सिंह सेंगर नाम का वह युवक सुदर्शन था, और कंधे पर दुनाली बन्दूक डाले रहता। वह खाकी पेंट-शर्ट पहनता तथा खूब फुर्तीला। फिर बाकी जब तक मैं कानपुर रहा, मेरी गाड़ी उसी ने चलाई। वह कुशल ड्राइवर तो था ही निर्भीक और निडर भी। सेंगर ठाकुरों की वह प्रजाति है, जो सर्वथा बीहड़ नदी सेंगुर के किनारे बसे हैं, और सेंगुर पर सेतु उन्होंने बांधे।
तीन दिन मैं शिवचरण के गाँव रुका।
(जारी)
© शंभूनाथ शुक्ल
कोस कोस का पानी (17)
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