यह कहानी शुरू साइबेरिया से की थी, लेकिन रूस की इतिहास-यात्रा करते हुए अब जाकर साइबेरिया लौट सका हूँ। गाहे-बगाहे यह ज़िक्र किया कि साइबेरिया कुछ राजनैतिक कैदी भेजे गए। रूस के इस सबसे बड़े हिस्से की यही अहमियत थी, तो मैं और क्या लिखता? यहाँ कोई भी कुलीन रूसी रहना नहीं चाहता, और यह कई मामलों में एक बोझ ही था। अलास्का को तो ज़ार अलेक्सांद्र द्वितीय ने अमेरिका को महज सात मिलियन डॉलर में बेच दिया। अगर वर्तमान समय के हिसाब से मूल्य सवा सौ मिलियन डॉलर भी मानें तो उतने में आइपीएल की एक टीम आती है।
साइबेरिया एक गरीब इलाका था, जहाँ धीरे-धीरे कुछ किसान आकर बस गए थे। कई लोगों ने न मॉस्को देखा था, न सेंट पीटर्सबर्ग। वे रूस में चल रही हलचल से बेखबर थे। कौन ज़ार आया, कौन गया, उन्हें कोई मतलब नहीं। ज़ार अलेक्सांद्र तृतीय ने जब साइबेरिया में रेलवे-लाइन बिछानी शुरू की, तो उन्हें अहसास हुआ कि उनके देश में इस तरह की भारी-भरकम मशीनें भी हैं। या शायद यह अहसास हुआ कि ये उनका देश भी है।
वे मध्ययुगीन या उससे भी पुरानी दुनिया में थे। वे अब भी भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र और चमत्कारी बाबाओं में विश्वास करते थे। यह बात शायद अब अजीब लगे, लेकिन यूरोप में उन्नीसवीं सदी तक ऐसे लोग थे जो किसी पहाड़ पर बने जादुई मठ तक मीलों चल कर जाते थे। उस मठ का कोई बनावटी इतिहास होता। जैसे साइबेरिया के अबालक स्थान पर एक पहाड़ी थी, जहाँ वर्जिन मैरी की कोई अवतार रहा करती थी। वहाँ दूर-दूर से मत्था टेकने लोग आते, और मन्नत माँगते। कोई बेटे की गुजारिश करता, कोई कर्ज से उबरने की, कोई रोग से मुक्ति की। इसी तरह साइबेरिया से तीर्थयात्रा पर कोई रूस तो कोई इस्तांबुल तक भी चल कर जाता, और लौट कर कहानियाँ सुनाता।
ग्रेगरी रासपूतिन अपनी आधे से अधिक ज़िंदगी क्या कर रहे थे, यह कोई पक्के तौर से नहीं जानता। उनके जीवनीकार डगलस स्मिथ पूरे साइबेरिया में झख मार कर कुछ ख़ास हासिल नहीं कर सके। कम्युनिस्ट रूस में रासपूतिन के बचपन के विषय में अजीबोग़रीब क़िस्से चले। वह किसी भी हद तक गए। जैसे एक क़िस्सा है कि जब रासपूतिन का जन्म हो रहा था, तो उनके अति-कामुक पिता उसी वक्त रति-क्रिया करना चाहते थे। हद तो यह कि इस बात की गवाही देने के लिए भी लोग आ गए कि हाँ! ऐसा होते हुए उन्होंने देखा था!
एक क़िस्सा है कि ग्रेगरी गाँव के एक शराबी और लड़कीबाज व्यक्ति थे, जिनके शरीर से इतनी दुर्गंध आती कि कोई पुरुष आस-पास भी नहीं फटकता। लेकिन, लड़कियाँ उनके फक्कड़पन से आकर्षित रहती। अबालक के मठ के आस-पास भटकते हुए एक दिन उन्हें प्रस्कोया नामक युवती मिली, जो उनकी जीवन-संगिनी बन गयी। यह हिस्सा कई स्रोतों से सत्यापित है कि वह एक ऐसी पत्नी बनी, जो उनके बच्चों को पालती रही, और ग्रेगरी उनसे संपर्क में रह कर खर्चा-पानी भेजते रहे।
सबसे लोकप्रिय क़िस्सा यह है कि उन्होंने गाँव में किसी का घोड़ा चुरा लिया। जब पकड़े गए, तो गाँव वाले उन्हें मारने आ गए। उन्होंने यह स्वीकारा कि परिवार के पोषण के लिए घोड़ा चुराना आवश्यक था। उन्होंने ग्राम के मुखिया से विनती की, “मुझे आप यह सजा दीजिए कि मैं गाँव छोड़ कर तीर्थयात्रा पर चला जाऊँ और ईश्वर से अपने पापों का प्रायश्चित माँगूँ।"
यह क़िस्सा सच हो या न हो, यह रासपूतिन के जीवन का थीम बना। इसके अनुसार मनुष्य के लिए मुक्ति का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है- प्रायश्चित, और प्रायश्चित के लिए नियमित पाप करना आवश्यक है।
रासपूतिन जंगलों और पर्वतों से गुजरते हुए, एक मठ से दूसरे मठ भटकते रहे। उन्होंने इन मठों में बाइबल कंठस्थ किया, लेकिन वहाँ के अनुशासन उन्हें रास नहीं आए। अंतत: उनका एक तरह के नव-ईसाई तांत्रिक कल्ट से परिचय हुआ, जहाँ मदिरा, मैथुन, माँस के माध्यम से ईश्वर प्राप्ति का मार्ग था। ऐसी परंपराएँ स्कैंडिनेविया से साइबेरिया तक लोकप्रिय रही हैं। आइसलैंड में मुझे प्रत्यक्ष दस्तावेज और वर्णन मिले, जो मैंने ‘भूतों के देश में’ पुस्तक में लिखे हैं। यह भारत की पंच ‘म’ कार (मद्य, मांस, मुद्रा, मत्स्य, मैथुन) वाममार्गी एवम् कौलिक तांत्रिक परंपराओं और बौद्ध हीनयान तांत्रिक परंपराओं से भी साम्य रखती है।
जब रासपूतिन तंत्र-मंत्र की दुनिया में चक्कर लगाने निकले, उस दौरान 1894 में ज़ार अलेक्सांद्र तृतीय की मृत्यु हो गयी। युवराज निकोलस इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया की सबसे प्रिय नातिन अलेक्ज़ाड्रा से सगाई कर रूस लौटे थे। ज़ारीना अलेक्जांड्रा और ज़ार निकोलस को विवाह के तोहफ़े में जिस रूस की गद्दी मिली, वह बारूद का ढेर थी। उनके बाद कभी कोई ज़ार उस गद्दी पर नहीं बैठ सका।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
रूस का इतिहास - दो (10)
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