शाम को पंडित विश्वनाथ शर्मा ने भव्य पार्टी दी और वह भी अपने कई एकड़ में फैले फ़ॉर्म हाउस में। इस फ़ॉर्म हाउस में जंगल, झील और पहाड़ भी थे। शहर के सभी प्रशासनिक अधिकारी (कमिश्नर से लेकर एसडीएम सदर तक), सभी पुलिस अधिकारी और झाँसी छावनी के कई सैन्य अधिकारी उपस्थित थे। झाँसी छावनी में कमांडिंग ऑफ़िसर मेजर जनरल रैंक का होता है। ये सभी लोग उपस्थित थे। अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग मनोरंजन। बोटिंग भी थी। पंडित जी ने यहाँ घूमने के लिए कुछ स्थान चिन्हित किए। हम लोग सुबह निकल कर झाँसी का क़िला देखें, फिर रानी महल। यहाँ एक देसी राजाओं के समय का भी बांध है, उसे भी देखने की सलाह दी। इसके अतिरिक्त शाम को ओरछा जाने की सलाह दी। अगले रोज़ ललितपुर, चन्देरी और लौटते हुए माताटीला में विश्राम। इसके बाद गढ़-कुंडार। कुल मिला कर बहुत हड़बड़ी वाला पर्यटन।
हम सुबह झाँसी का क़िला देखने गए। यह एक पहाड़ी पर स्थित है। कई एकड़ में फैला और ऊँची-ऊँची प्राचीर भी। बाहर सूचना पट्ट में लिखा है कि यह क़िला 1613 में ओरछा के बुंदेला राजपूत वीरसिंह जू देव ने बनवाया था। इतिहास बताता है कि वर्ष 1728 में मुहम्मद ख़ान बंगश की अगुआई में मुग़ल सेना ने ओरछा नरेश छत्रसाल पर हमला किया। छत्रसाल ने पेशवा बाजीराव से सहायता माँगी। बाजीराव की सहायता से छत्रसाल युद्ध जीते तो उन्होंने कृतज्ञता स्वरूप झाँसी का राज्य बाजीराव पेशवा को दिया। महाराजा छत्रसाल ने इसके अतिरिक्त एक पुत्र को ओरछा (टीकमगढ़), एक को पन्ना और एक को दतिया का राज्य दिया। पेशवा बाजीराव ने झाँसी राज्य के दो टुकड़े किए। एक अपनी मुस्लिम रानी से उत्पन्न पुत्र को बाँदा राज्य दिया। और 1742 नारोशंकर को झाँसी का सूबेदार बनाया। अपने 15 साल के शासन में नारोशंकर ने क़िले और झाँसी शहर में काफ़ी निर्माण किए। उस समय इस क़िले को शंकरगढ़ कहा गया। बाद में नारोशंकर को पूना बुला लिया गया। नेवलकर वंश के लोगों को सूबेदार बनाया गया। इसी वंश के राजा गंगाधर राव झाँसी की सुविख्यात रानी लक्ष्मी बाई के पति थे। इस क़िले में कड़क-बिजली नाम की तोप दर्शनीय थी। इसे तोपची गौस ख़ाँ ही चलाते थे। वे रानी लक्ष्मी बाई के भरोसेमंद सिपहसालार थे। राजा गंगाधर राव इसके अंतिम शासक थे। निस्संतान मरने के कुछ पूर्व उन्होंने एक सगोत्रीय बालक गोद लिया किंतु गवर्नर जनरल डलहौज़ी नहीं माना तथा झाँसी राज्य को अनाथ बताकर कम्पनी सरकार में मिला लिया किंतु राजा गंगाधर राव की विधवा रानी लक्ष्मी बाई ने इसे अन्यायपूर्ण बताते हुए अंग्रेजों से घोर युद्ध किया। लेकिन उस समय भारत में सार्वभौमिक राष्ट्र की अवधारणा पुख़्ता नहीं हुई थी। रानी बहुत बहादुरी से लड़ीं मगर अपने सीमित साधनों और अन्य राजाओं के घात से उनकी पराजय हुई। रानी वीरगति को प्राप्त हुईं। सुभद्रा कुमारी चौहान ने अत्यंत मार्मिक कविता रानी की वीरता पर लिखी है। बाबू वृंदावन लाल वर्मा ने ‘झाँसी की रानी’ नाम से हिंदी में एक वृहद् उपन्यास लिखा है। महाश्वेता देवी ने भी उन पर एक अद्भुत ऐतिहासिक आख्यान लिखा है। रानी की पड़पोती ने मराठी में एक पुस्तक लिखी है और युद्ध का आँखों देखा वर्णन कई अंग्रेज पत्रकारों ने किया है। रानी के दत्तक पुत्र दामोदर राव के जनेऊ के अवसर पर पूना से एक भिक्षुक ब्राह्मण विष्णुभट्ट गोडसे आया था और युद्ध के बीच फँस गया। उसने भी आँखों देखा हाल लिखा है। इसका हिंदी रूपांतरण ‘माझा प्रवास’ के नाम से छपा है। झाँसी में सागर रेजीडेंसी के पोलेटिकल एजेंट कैप्टन लेविस ने लिखा है, कि ऐसी बहादुर स्त्री और कोई नहीं हुई। हिंदी में झाँसी की इस बहादुर रानी पर दो फ़िल्में बनी हैं। 1953 में सोहराब मोदी की ‘झाँसी की रानी’ और 2019 में कँगना रनौत की मणिकर्णिका।
रानी महल शहर के भीतर एक चार-साढ़े चार हज़ार वर्ग फ़ीट का घर है, जहाँ राजा की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने उन्हें नज़रबंद कर दिया था। उस दौरान उनके खर्चे के लिए उन्हें मात्र 5000 रुपए प्रतिमास मिलते थे। इसी से उन्हें अपने हज़ारों आश्रितों का पेट पालन होता था। इस महल की पच्चीकारी से रानी की सुरुचि की पता चलता है। रानी ने कुल 23 वर्ष की उम्र पायी लेकिन इतिहास में वे अमर हो गईं। झाँसी के लोगों में डेढ़ सौ वर्ष पहले की इस रानी के प्रति आज भी अगाध श्रद्धा है। रानी के विरुद्ध वे एक भी शब्द सुनने को तैयार नहीं होते। ऐसा सम्मान और प्यार अयोध्या के राजा राम और द्वारिकाधीश कृष्ण के अलावा किसी को नहीं मिला।
शाम को चार बजे हम ओरछा के लिए निकले। यह स्थान झाँसी से कुल 15 किमी बेतवा किनारे है। बेतवा का पानी बहुत साफ़ है और ओरछा का महल भव्य बना है। मगर यहाँ के राजाओं का कोई वैभवपूर्ण और वीरोचित इतिहास नहीं है। इलाक़ा गरीब है और झाँसी के अलावा समृद्धि कहीं नहीं है। बेतवा किनारे राजा वीर सिंह ने बादशाह जहांगीर के विश्राम के लिए एक महल बनवाया था, वह अब मध्य प्रदेश पर्यटन विभाग ने ले लिया है। उस समय तक यहाँ रुकने के लिए कुछ धर्मशालाएँ थीं। अब तो कई रिज़ोर्ट बन गए हैं। राजा का महल भी अब हेरिटेज होटल बन चुका है। बेतवा के किनारे जंगल हैं, कुछ चट्टानें भी। यहाँ झाँसी के पैसे वाले ऐयाशी के लिए आते हैं।
ओरछा में राम राजा का एक मंदिर है, जो बहुत प्रतिष्ठित है। इसके अलावा वहाँ जंगलों के बीच थोड़ा हट कर एक गुफा है, जहाँ पर चंद्रशेखर आज़ाद अंग्रेजों से छिपने के लिए रहे थे। हम लोग पहाड़ी पर चढ़ कर उस स्थल को देखने गए। देर रात तक झाँसी वापस आ गए।
(जारी)
© शंभूनाथ शुक्ल
कोस कोस का पानी (10)
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