कार्ल मार्क्स चाहे कुछ भी लिख लें, रूस जैसे देश में सर्वहारा क्रांति अकल्पनीय थी। वहाँ कैसे सुदूर साइबेरिया के, यूराल पहाड़ों के, फिनलैंड सीमा के और एक काला सागर के तट के किसान साथ आते? मसलन भारत में ही 1857 की क्रांति पूरे देश में नहीं पसर सकी। भले ही मार्क्स ने भारत के संग्राम को एक मॉडल की तरह दुनिया को दिखाया, ज़मीन पर ऐसी जन-क्रांति यूरोप के छोटे देशों में ही संभव थी। लेकिन, सत्य तो यह भी है कि रूस में क्रांति हुई। मार्क्स का स्वप्न पूरा हुआ। आखिर कैसे?
यह हौले-हौले ‘स्टेप बाय स्टेप’ हुआ। शुरुआत हुई प्रेम से। कविताओं से। कथाओं से। संगीत से।
ज़ार निकोलस के समय जब दिसंबर क्रांति हुई, तो नवयुवक अलेक्सांद्र पुश्किन ने कविता रची- ‘आज़ादी का गीत’। ऐसा लगा कि यह उन विद्रोहियों को समर्पित था, जिन्हें साइबेरिया भेजा जा रहा है। इस कविता के बाद उन्हें पकड़ कर काला सागर के निकट भेज दिया गया।
चूँकि पुश्किन प्रसिद्ध कवि और राजकुमारों के निजी शिक्षक जुकोवस्की के चेले थे, उन्हें वापस रूस बुला लिया गया। जुकोवस्की, पुश्किन और गोगोल की कविताओं ने रूस में रोमांस का संचार किया। पहले भी रूस में प्रेम मौजूद था। महारानी कैथरीन के अनेक प्रेमी हुए, एक प्रेमी तो साठोत्तर भी हुए; लेकिन जनता की रोमांस क्रांति इन कविताओं से ही शुरू हुई।
पुश्किन कुलीन परिवार से थे, लेकिन वह सर्वहारा वर्ग की वेशभूषा में उनकी ही तरह बेंत की टोपी, सूती कपड़ा और कंधे पर झोला लटकाए घूमते रहते। ज़ार निकोलस ने पुश्किन के पीछे गुप्तचर लगा दिए कि यह कहीं इन किसानों को भड़का तो नहीं रहे! कवियों के साथ यह खतरा था कि ये क्रांति के बीज बो जाते हैं, शासकों की शामत आ जाती है। खैर, पुश्किन ऐसा कुछ नहीं कर रहे थे। वह तो लिक्खाड़ थे, लिखे ही चले जा रहे थे।
एक कविता है ‘तू और आप’। अंग्रेज़ी में इसका अनुवाद बनता है- ‘You and you’। अब कोई Thou घुसेड़ दे, अलग बात है, लेकिन आज की अंग्रेज़ी में इन दोनों के लिए एक ही शब्द है। रूस में एक किसान ‘तू’ था, और एक कुलीन ‘आप’। पुश्किन की सर्वहारा वेश-भूषा देख कर एक सुंदर स्त्री ऐना धोखा खा गयी और ‘तू’ बुला दिया। कुमार कौस्तुभ ने अपनी पुस्तक (अलेक्सांद्र पुश्किन की प्रेम कविताएँ) में सीधे रूसी भाषा से सुंदर अनुवाद किए हैं-
“कहा उसने 'तू', भूल से,
जब खाली 'आप' की जगह
सामने खड़ा
सोचता हुआ कुछ
दुर्बल हीन भाव से।
कैसे मिलाऊं आंख?
कहता हूँ- ‘आप’ हैं कितनी प्यारी!
सोचता रहा - कैसे ‘तु’झको प्यार करूं'!”
क्या कोई ‘तू’ किसी ‘आप’ से प्रेम नहीं कर सकता। अगर करेगा तो क्या होगा? ऐसे प्रेम करना, प्रेम में भागना, जान देना, बग़ावत करना क्रांति के छोटे-छोटे बीज थे। ऐसे बग़ावत बाद में खुल कर लियो तोलोस्तॉय के ‘अन्ना कैरनिना’ में नज़र आए।
पुश्किन ने एक निहायत ही खूबसूरत स्त्री नतालिया से विवाह किया। उन्हें कुछ समय बाद मालूम पड़ा कि नतालिया एक सेना अफ़सर से प्रेम करती है। पुश्किन ने फ़िल्मी अंदाज़ में नतालिया के प्रेमी को एक बंदूक-दंगल के लिए आमंत्रित किया। 1837 में एक दिन नियत समय पर दोनों बंदूक लेकर आमने-सामने आ गए। पुश्किन कवि थे, जबकि दूसरे फौजी। पुश्किन को मरना ही था।
रूस में ऐसे दंगल ग़ैरक़ानूनी थे। पुश्किन ने मृत्यु-शय्या पर ज़ार निकोलस को माफ़ीनामा भेजा। ज़ार ने उनके मरने के बाद उनके तमाम कर्ज भी चुकाए।
पुश्किन की आखिरी कविताओं में एक की पंक्तियाँ है-
“मेरा प्यार
तुम्हें अब और दुख नहीं देगा...
जिस गहरे मन से मैंने तुम्हें प्यार किया
काश!
कोई और भी तुम्हें वैसा ही प्यार करे”
ये प्रेम-गीत रूस में गाए जाने लगे। पुश्किन की मृत्यु को रूस की संस्कृति में एक शहादत की तरह देखा गया, कि एक कुलीन फौजी अफ़सर ने एक जन-कवि को गोली मार दी। यह इस हद तक संस्कृति में घुल गया कि मिखाइल लरमोन्तोव नामक कवि ने पुश्किन की परंपरा को आगे बढ़ाया। बेहतरीन रचनाएँ लिखी। एक दिन उन्होंने भी एक फौजी अफसर को दंगल के लिए आमंत्रित किया, और पुश्किन की तरह गोली खाकर मर गए!
कोई पूछ सकते हैं कि इन घटनाओं से क्रांति का क्या?
किसी भी क्रांति के लिए आवश्यक है अपनी चाहत के लिए मृत्यु के भय का खत्म होना!
(क्रमश:)
प्रवीण झा
Praveen Jha
रूस का इतिहास (19)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/10/19.html
#vss
No comments:
Post a Comment