Thursday, 9 September 2021

राजा महेंद्र प्रताप ने अफगानिस्तान में बनायी थी पहली निर्वासित सरकार / विजय शंकर सिंह

मथुरा से जब आप हाथरस की ओर चलेंगे तो हाथरस जिले में प्रवेश करते ही एक कस्बा पड़ेगा मुरसान । मुरसान एक छोटा सा कस्बा है। वहां के राजा थे राजा महेंद्र प्रताप सिंह। राजा महेंद्र प्रताप उन विलक्षण और प्रतिभाशाली स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों में से एक रहे हैं जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ भारत के बाहर आज़ादी की मशाल और स्वतंत्र चेतना को जगाये रखा। उनका जन्म 1 दिसंबर 1886 को और म्रत्यु 29 अप्रैल 1979 को हुयी थी। वे मथुरा से आज़ादी के बाद सांसद भी रहे हैं । वे स्वाधीनता संग्राम के सेनानी के साथ साथ पत्रकार, लेखक और समाज सुधारक भी थे। मुरसान एक छोटी सी रियासत रही है ।

जब भारत अपनी आजादी के स्वरूप को पूरी तरह से निर्धारित भी नहीं कर पाया था, तब उन्होंने साल, 1915 में ही, अफ़ग़ानिस्तान में स्वाधीन भारत की सरकार गठित कर दी थी। यह गवर्नमेंट इन एकजाइल थी, यानी वनवास में गठित सरकार। निश्चित ही राजा महेन्द्र प्रताप की इस सरकार ने स्वाधीनता संग्राम में, कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाई, पर इसने दुनियाभर को यह संदेश ज़रूर दे दिया कि, भारत ब्रिटिश साम्राज्य से आज़ादी चाहता है। भारत की यह पहली निर्वासन में गठित सरकार थी और दूसरी निर्वासन में सरकार का गठन नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने 1943 में आरजी ए हुकूमत ए आज़ाद हिंद के नाम से किया था। इन्ही राजा महेंद्र प्रताप के नाम पर अलीगढ़ में उत्तर प्रदेश सरकार एक यूनिवर्सिटी की स्थापना करने जा रही है। राजा की शिक्षा भी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी एएमयू से हुयी थी और उन्होंने अपने इस मातृ संस्था को कुछ भूमि भी दान दी थी। एएमयू के दानदाताओं में राजा महेंद्र प्रताप का भी नाम दर्ज है। 

राजा महेन्द्र प्रताप, मुरसान के राजा घनश्याम सिंह के तृतीय पुत्र थे और जब वे तीन वर्ष के थे तब हाथरस के राजा हरनारायण सिंह ने उन्हें पुत्र के रूप में गोद ले लिया। 1902 में उनका विवाह बलवीर कौर से हुआ था जो जींद रियासत के सिद्धू जाट परिवार से थीं। विवाह के समय राजा पढ़ाई कर रहे थे। हाथरस के जाट राजा दयाराम ने 1817 में अंग्रेजों से भीषण युद्ध किया था और उनका साथ, मुरसान के जाट राजा ने भी दिया था। अंग्रेजों ने दयाराम को बंदी बना लिया। 1841 में दयाराम का देहान्त हो गया। उनके पुत्र गोविन्दसिंह गद्दी पर बैठे।

1857 के विप्लव में गोविन्दसिंह अंग्रेजों के साथ थे,  फिर भी अंग्रेजों ने गोविन्द सिंह का राज्य उन्हें वापस नहीं लौटाया बल्कि,  कुछ गाँव, 50 हजार रुपये नकद और राजा की पदवी देकर हाथरस राज्य का पूरा अधिकार उनसे छीन लिया। राजा गोविन्दसिंह की 1861 में मृत्यु हो गयी। संतान न होने पर अपनी पत्नी को,  पुत्र गोद लेने का अधिकार वे मृत्य के समय दे गये थे। अत: रानी साहब कुँवरि ने जटोई के ठाकुर रूपसिंह के पुत्र हरनारायण सिंह को गोद ले लिया। अपने दत्तक पुत्र के साथ रानी अपने महल वृन्दावन में रहने लगी। राजा हरनारायन को कोई पुत्र नहीं था। अत: उन्होंने मुरसान के राजा घनश्यामसिंह के तीसरे पुत्र महेन्द्र प्रताप को गोद ले लिया। इस प्रकार महेन्द्र प्रताप मुरसान राज्य को छोड़कर हाथरस राज्य के राजा बन गए। 

प्रथम विश्वयुद्ध के कारण ब्रिटिश साम्राज्य, अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों में उलझा था, उसका लाभ उठाकर भारत को आजादी दिलवाने के ध्येय से राजा विदेश निकल जाना चाहते थे। पर उनके पास पासपोर्ट नहीं था। वे शुरू से ही देश की आज़ादी के समर्थक थे और अपने श्वसुर, महाराजा जींद के विरोध के बावजूद उन्होंने 1906 के कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया था। उन्होंने 'निर्बल सेवक' नामक एक समाचार-पत्र भी, देहरादून से निकाला था। जिंसमे उन्होंने जर्मनी के पक्ष में एक लेख लिखा था। इस लेख के कारण ब्रिटिश सरकार उनसे नाराज़ हो गयी और, उन पर 500 रुपये का अर्थदण्ड लगा दिया। उन्होंने जुर्माना तो भर दिया लेकिन देश को आजाद कराने की उनकी इच्छा प्रबल हो गई और वे भारत से निकल जाना चाहते थे।  

विदेश जाने के लिए, उन्हें जब पासपोर्ट नहीं मिला तो, मैसर्स थौमस कुक एण्ड संस के मालिक ने, उन्हें बिना पासपोर्ट के अपनी कम्पनी केपी. एण्ड ओ के स्टीमर द्वारा इंग्लैंड पहुंचा दिया। उसके बाद वे, इंग्लैंड से जर्मनी जाकर, जर्मनी के शासक कैसर से भेंट की। कैसर ने, उन्हें,  ब्रिटिश साम्राज्य से आजादी के आंदोलन में हर संभव मदद देने का वादा किया । वहाँ से वह बुडापेस्ट, बल्गारिया, टर्की होकर हैरत पहुँचे और फिर अफ़ग़ानिस्तान गए। अफ़ग़ानिस्तान के बादशाह से उन्होंने मुलाकात की और वहीं पर 1 दिसम्बर 1915 में काबुल से भारत के लिए अस्थाई सरकार के गठन की घोषणा की जिसके राष्ट्रपति वे स्वयं बने तथा प्रधानमंत्री मौलाना बरकतुल्ला खाँ को बनाया गया। यह निर्वासन में गठित पहली सरकार थी। 
तभी अफगानिस्तान ने अंग्रेजों से आज़ाद होने के लिये युद्ध छेड़ दिया औऱ तब राजा महेन्द्र प्रताप वहां से, रूस निकल गए। रूस में 1917 की क्रांति हो चुकी थी। जारशाही का पतन हो चुका था। लेनिन के नेतृत्व में वहां पहली बार कम्युनिस्ट सरकार बन चुकी थी। पर प्रथम विश्वयुद्ध चल रहा था। यूरोप में अफरातफरी थी। राजा ने रूस जाकर, वर्ष 1919 में लेनिन से मुलाकात की। पर लेनिन अपनी ही समस्याओं में उलझे थे। क्रांति तो हो चुकी थी, पर अभी रूस में कम्युनिस्ट स्थिर नहीं हो पाए थे। राजा लेनिन से भारत की आज़ादी के लिये सहायता चाहते थे। जो उन्हें नहीं मिल पायी। सन 1920 से लेकर, 1946 तक, राजा विदेशों में भ्रमण करते रहे। विश्व मैत्री संघ की स्थापना की। 1946 में भारत लौटे। लेकिन कांग्रेस के नेताओ से उनका सम्पर्क बना रहा। जब वे 1946 में कलकत्ता हवाई अड्डे पर स्वदेश वापस उतरे तो,  सरदार पटेल की बेटी मणिबेन उनको लेने कलकत्ता हवाई अड्डे पहुंची हुयी थी। 

वर्ष 1919 में लेनिन से हुई अपनी इस मुलाकात का जिक्र उन्होंने स्वयं किया है । उनकी मुलाकात का संस्मरण मैं यहां प्रस्तुत कर रहा हू।
कॉमरेड लैनिन के साथ मेरी मुलाकात

यह 1919 की कहानी है। मैं जर्मनी से, रूस वापस आ गया था। मैं पूर्व शुगर-राजा ( रूस के जार के अधीन एक सामन्त ) के महल की इमारत पर रहा। मौलाना बरकातुल्ला ( ये भी क्रांतिकारी आंदोलन में राजा महेंद्र प्रताप के साथ थे ) इस स्थान पर अपने मुख्यालय की स्थापना करना चाहते हैं। उनका रूसी विदेश कार्यालय के साथ बहुत अच्छा संबंध था । जब मैं वहां था तो शहर में भोजन की कमी थी। और हम सब सच मे तंगी में थे। मेरे भारतीय मित्रों ने इस यात्रा के लिये धन और साधन एकत्र किया था। जो बर्लिन से यहां आने पर मुझे मिलना था।

एक शाम को हमें सोवियत विदेश कार्यालय से फ़ोन कॉल मिला। मुझे बताया गया कि विदेश मंत्रालय से कोई व्यक्ति आ रहा है और मुझे अपनी पुस्तकों को उस आदमी को सौंप देना है। मैंने ऐसा ही किया । अगली सुबह वह दिन आया जब मैं अपने दोस्तों के साथ क्रेमलिन में कॉमरेड लेनिन से मिलने गया। प्रोफेसर वोसेंसस्की जो लेनिन के सहयोगी थे , हमें मास्को के प्राचीन इम्पीरियल पैलेस में ले गये । हमें सुरक्षा गार्ड के माध्यम से यह बताया गया कि हम ऊपर चले जायें।  हमने एक बड़े कमरे में प्रवेश किया 'जिसमें एक बड़ी मेज थी। कमरे में प्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता कॉमरेड लेनिन बैठे हुये थे। मैं सरकार के मुखिया ( राजा महेन्द्र प्रताप ने 1 जनवरी 1915 में स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार की स्थापना प्रवास , Government in exile , में ही की थी , वे खुद को राष्ट्रपति और मौलाना बरकुतल्लाह खान को प्रधान मंत्री घोषित कर चुके थे। यह सरकार काबुल , अफगानिस्तान में घोषित की गयी थी ) होने के कारण पहले कमरे में प्रवेश किया। तब मेरे समक्ष बैठा व्यक्ति या नायक अचानक खड़ा हो गया, और एक कोने में जाकर मेरे बैठने के लिये एक छोटी सी कुर्सी लाया।  और उसे अपनी कुर्सी के पास रखा। जब मैं उसके पास आया तो उसने मुस्कुरा कर मुझ से बैठने के लिए कहा। एक पल के लिए मैंने सोचा था कि, कहाँ बैठना है, क्या मुझे खुद श्री लेनिन द्वारा लायी गयी इस छोटी कुर्सी पर बैठना चाहिए या कमरे में ही रखी मोरक्को के चमड़े से ढकने वाली विशाल कुर्सियों में से किसी भी एक पर बैठना चाहिए। वे कुर्सियां दूर रखी थीं। लेकिन लेनिन ने जो कुर्सी मेरे लिये लायी थी, वह एक साधारण सी कुर्सी थी। मुझे बैठने के लिये कमरे में और भी कुर्सियाँ थीं। पर मैं अचंभित था कि लेनिन ने खुद ही मेरे लिये उठ कर एक कुर्सी उठायी और उसे अपनी कुर्सी के पास रख। मैं उस छोटी सी कुर्सी पर जिसे लेनिन खुद ही उठा कर लाये थे, बैठ गया, जबकि मेरे दोस्त, मौलाना बरकातुल्लाह और मेरे साथ आये अन्य साथियों ने बड़े पैमाने पर रखी बड़ी कुर्सियों पर अपना स्थान ग्रहण किया। लेनिन खुद एक साधारण और छोटी कुर्सी पर बैठे थे।

कॉमरेड लेनिन ने मुझसे पूछा, मुझे किस भाषा में संबोधित करना था- अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन या रूसी । मैंने उन्हें बताया कि हम अंग्रेजी में बेहतर बोल और समझ सकते है । मैंने उन्हें भारतीय इतिहास से जुड़ी कुछ पुस्तके दीं। मुझे आश्चर्य हुआ जब उन्होंने कहा कि वह पहले से ही इसे पढ़ चुके हैं। मैं देखा कि एक दिन पहले विदेश मंत्रालय द्वारा मांगे जाने वाले पर्चे और पुस्तिकाएं लेनिन ने खुद के लिए मंगाये थे। उन पर उन्होंने कुछ निशान भी लगाए थे। निश्चित ही रूप से लेनिन ने उन्हें पढ़ा होगा। लेनिन का अध्ययन बहुत गम्भीर और व्यापक था। लेनिन ने मेरी किताब "टॉल्स्टॉयविम" की चर्चा की। उन्होंने टॉलस्टॉय, पुश्किन, गोर्की आदि पर बहुत मंजे हुये साहित्य के आलोचक के समान चर्चा की। फिर बातें मार्क्सवाद, सर्वहारा की क्रांति से लेते हुये नवजात रूसी सरकार और जनता के लिये गेहूं, चावल, मक्खन, तेल, कोयले आदि जैसे आवश्यक वस्तुओं के सम्बंध में बात हुयी । लेनिन का ज्ञान और मेधाशक्ति व्यापक थी। वे एक एक छोटी सी छोटी चीज पर भी अपनी पैनी नज़र रखते थे। हमने काफी समय तक बातचीत की। भारत मे ब्रिटेन के राज्य के अलावा किसान  और उद्योगों में मज़दूरों की स्थिति पर भी बात हुई।

इस साक्षात्कार के बाद विदेशी कार्यालय ने फैसला किया कि मुझे अफगानिस्तान में पहले रूसी राजदूत श्री सुरिट्स के साथ जाना चाहिए। क्यों कि मेरी सरकार का मुख्यालय काबुल था। मैं रूस के समर्थन हेतु कॉमरेड लेनिन से मिलने गया था। लेकिन मुझे इस मिशन में बहुत सफलता नही  मिली। मेरा काम अमानुल्लाह खान को रूसी राजदूत सुरिट्स से परिचय कराना था। लेकिन प्रथम विश्व युद्ध मे इंग्लैंड के विजयी होने और रूस की स्थिति भी बहुत मजबूत न होने के कारण हम अपने लक्ष्य में बहुत आगे नहीं बढ़ सके । उस समय रूस में नयी नयी क्रांति हुई थी और रूस अपनी ही समस्याओं से जूझ रहा था। लेनिन ऐसी स्थिति में थे ही नही  कि ब्रिटेन के ताक़त के सामने मेरी कोई मदद कर सकें। पर मैं लेनिन की प्रतिभा, जुझारूपन, अध्ययन स्पष्टता और सादगी से बहुत ही प्रभावित हुआ।
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यह एक रोचक और सुखद जानकारी है कि,  राजा महेंद्र प्रताप को एक बार, नोबेल पुरस्कार के लिए भी नामित किया जा चुका था। उनका नामांकन, 1932 में शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए किया गया था। नोबेल पुरस्कार समिति द्वारा सार्वजनिक किये गये, एक  पुराना डेटाबेस, में उनके बारे में जो लिखा गया है, उसे पढिये, 
"प्रताप ने शैक्षिक उद्देश्यों के लिए अपनी संपत्ति छोड़ दी, और उन्होंने बृंदाबन में एक तकनीकी कॉलेज की स्थापना की। 1913 में उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी से जाकर मिले।  अफगानिस्तान और भारत की स्थिति के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए दुनिया भर का भ्रमण किया। वर्ष 1925 में वह तिब्बत की यात्रा पर एक मिशन के साथ गए और दलाई लामा से मिले। यह मिशन, मुख्य रूप से अफगानिस्तान की ओर से एक अनौपचारिक आर्थिक मिशन था। इसी के माध्यम से वे ब्रिटिश साम्राज्य की क्रूरताओं को भी उजागर करना चाहते थे। उन्होंने खुद को, भारत का एक विनम्र सेवक कहा।"
उस वर्ष का पुरस्कार किसी को नही दिया गया। पुरस्कार राशि इस पुरस्कार खंड के एक विशेष कोष के लिए आवंटित की गई थी।

राजा महेन्द्र प्रताप और महात्मा गांधी के बीच बीच मे निरन्तर संपर्क बना भी रहा एक और कड़ी है। गांधी जी ने 1929 में,  अपने अखबार यंग इंडिया में, लिखा था, 
"देश के लिए इस रईस ने निर्वासन को अपने भाग्य के रूप में चुना है। उन्होंने अपनी शानदार संपत्ति ... शैक्षिक उद्देश्यों के लिए छोड़ दी है। प्रेम महाविद्यालय ... उनकी रचना है।" 
यह उद्धरण, नोबेल पुरस्कार समिति के अभिलेखों में दर्ज है।

राजा महेन्द्र प्रताप को केवल जाट राजा के रूप में देख कर उनका मूल्यांकन करना उनका अपमान करना होगा। आज जब आज़ादी के प्रतीकों की अलग तरह से व्याख्या की जा रही है, जलियांवाला बाग का स्वरूप बदला जा चुका है और साबरमती आश्रम का कारपोरेटीकरण किये जाने की योजना है, तब अलीगढ़ में बन रहे यूनिवर्सिटी को यदि जातिगत दृष्टिकोण से देखा जाएगा तो यह उंस महान स्वाधीनता संग्राम सेनानी का अपमान होगा। उनके नाम पर यूनिवर्सिटी बने और साथ ही उनके बारे में लोगों को बताया भी जाय कि आजादी के समर में कैसे कैसे लोग, अपना राजपाट, सुख सुविधा और सब कुछ छोड़ कर कूद पड़े थे। 1957 के लोकसभा चुनाव में राजा महेंद्र प्रताप ने, पूर्व प्रधानमंत्री अटल  बिहारी वाजपेयी, जो जनसंघ प्रत्याशी थे, को हराया था। राजा महेंद्र प्रताप, निर्दलीय चुनाव लड़ रहे थे। हालांकि अटल बिहारी वाजपेयी, बलरामपुर सीट से भी प्रत्याशी थे, और वे वहां से जीत गए थे। 

© विजय शंकर सिंह 

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