विज्ञान हौले-हौले भारत में भारतीय तरीके से ही लौट रहा था। जॉर्ज एवरेस्ट उन दिनों पहाड़ों से घूमते हुए मैदान तक आए थे। उन्हें किसी सहायक की ज़रूरत थी। वह कलकत्ता आए तो गणित विभाग के अध्यक्ष जॉन टाइटलर से मिले।
उन्होंने कहा, “एक लड़का है मेरी कक्षा में। राधानाथ सिकदर। वह पहला भारतीय है जिसने न्यूटन की प्रिंसिपिया पढ़ ली, और कुछ शुरुआती सिद्धांत भी बना दिए। मगर है थोड़ा सनकी।”
यह वही डेरोजियन्स ‘यंग बंगाल’ समूह के राधानाथ थे, जो अफ़ीम और गोमांस का सेवन कर रहे थे। उन्नीस वर्ष की उम्र में उन्होंने ऐसे सिद्धांत दिए, जिससे एक काग़ज पर पहाड़ की ऊँचाई नापी जा सकती थी। उस समय कंचनजंगा दुनिया की सबसे ऊँची चोटी थी। जॉर्ज एवरेस्ट के साथ काम करते हुए राधानाथ ने यह काग़ज़ पर गणना कर दावा किया कि सबसे ऊँची चोटी एवरेस्ट है। बाद में यह बात सिद्ध हुई। गणित की यह विधा अब ‘जियोडेसी’ कहलाती है, जिसकी शुरुआत राधानाथ जैसे गणितज्ञ ने की।
जहाँ एक तरफ़ आधुनिक विज्ञान अंगड़ाई ले रहा था, वहीं ईश्वरचंद्र जैसे विद्यार्थी संस्कृत कॉलेज में हिन्दू ग्रंथों का अध्ययन कर रहे थे। जब वह हिन्दू कानून की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए, तो उनके प्रमाण-पत्र पर नीचे टिप्पणी लिखी थी ‘विद्यासागर’। बाद में वह इसी नाम से जाने गए।
ईश्वरचंद्र, डेरोजियन्स से पूरी तरह अलग थे। वह शराब-अफ़ीम की दुनिया से दूर, भारतीय पहनावे में रहते। जब कलकत्ता में हैजा फैला, और डेरोजियो की मृत्यु हुई, तो विद्यार्थी घबरा गए थे। मगर ईश्वरचंद्र कलकत्ता के हैजा-पीड़ितों की सेवा कर रहे थे।
यह अक्सर कहा जाता है कि भारत में आधुनिक मानवतावाद ईसाई मिशनरी लाए, उन्होंने ही कुष्ठरोगियों का उद्धार करना सिखाया। यह बात पूरी तरह सही नहीं हैं। मानवतावाद भारत की थाती रही है, और भारतीय ग्रंथों में बहुधा वर्णित है। ईश्वरचंद्र जैसे विद्यार्थी ने यह गुण किसी मिशनरी से नहीं सीखा कि रोगियों की सेवा करनी चाहिए।
यही विद्यार्थी महज पैंतीस वर्ष की अवस्था में संस्कृत कॉलेज के प्राचार्य बन गए। उन्होंने उस वक्त लॉर्ड मकाले की ग़लती को सुधारने का प्रस्ताव भी रखा। उन्होंने दलील दी-
‘अंग्रेज़ी में एक ग्रामीण व्यक्ति आखिर कैसे पढ़ पाएगा? आज बिहार-बंगाल के मात्र आठ प्रतिशत व्यक्ति शिक्षित हैं, और वे शहरों में हैं। शहरों में तो यूँ भी शिक्षा आ जाएगी, लेकिन गाँवों का क्या? वहाँ उनकी बोल-चाल भाषा में शिक्षा शुरू करनी होगी। बंगाल में बंगाली में।’
आखिर 1854 में उनके प्रयास सफल हुए और ब्रिटिश शिक्षा अधिनियम में बदलाव हुआ। भारतीय भाषाओं में पढ़ाई की शुरुआत हुई और गाँवों में बंगाली माध्यम विद्यालय खुलने लगे। स्वयं उन्होंने ही पहला बंगाली व्याकरण ‘वर्ण-परिचय’ भी लिखा। यह एक शुरुआत थी जिससे अन्य भारतीय भाषा भी अपना व्याकरण तैयार करने लगे, और अंग्रेज़ी के समकक्ष आने के प्रयास करने लगे। सिर्फ़ अंग्रेज़ी नहीं, बल्कि बंगाली में लिखने-पढ़ने लगे।
पंडित विद्यासागर पोंगा पंडित नहीं थे। उन्होंने बंगाली मे गैलिलियो, न्यूटन, कोपरनिकस आदि की जीवनियाँ लिख कर बच्चों में बाँटी। उनका मानना था कि बंगाली भाषा में विज्ञान शिक्षा संभव है।
गाँवों के विद्यालयों में घूमते हुए उन्होंने जब विधवाओं की स्थिति देखी, तो उनके लिए पुनर्विवाह की बात कही। उन्हें, पंडितों ने कहा कि यह हमारी संस्कृति नहीं कि विधवा विवाह करे।
ईश्वरचन्द्र ने पराशर संहिता से श्लोक कहा,
“नष्टे मृते प्रव्रजिते क्लीबे च पतिते पतौ।
पंचस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते।।”
अर्थात् पति के नष्ट (लापता), मृत, प्रव्रज्रित (संन्यासी), नपुंसक या पतित होने पर पुन: विवाह किया जा सकता है।
यही बात पहले डेरोजियन्स ने धर्म का मज़ाक उड़ाते हुए कही थी, और यहाँ ईश्वरचंद्र ने शास्त्र के संदर्भ के साथ कही। हिन्दू धर्म सभा ने उनके ख़िलाफ़ मुकदमा लड़ा, लेकिन ईश्वरचंद्र ने घर-घर घूम कर हस्ताक्षर लिए, और उनकी बदौलत 1856 में विधवा पुनर्विवाह अधिनियम आ गया!
लेकिन, कानून से क्या होता है? विधवाओं से विवाह करता कौन? बंगाल की युवा विधवाएँ अब भी उसी हाल में थी। यह शुरुआत भी शायद उन्हें ही करनी थी। उनके पुत्र नारायण ने एक विधवा से विवाह करने का फ़ैसला लिया। इसकी सजा मिली। पंडित विद्यासागर का परिवार ब्राह्मण समाज से बहिष्कृत हुआ।
खैर, ज्योति तो जल चुकी थी। जब ईश्वरचंद्र विज्ञान की बंगाली पुस्तिकाएँ बाँट रहे थे, एक पुस्तिका बालक जगदीश को मिली। वह बालक बाद में वैज्ञानिक जेसी बोस बने।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (11)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/08/11.html
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