दिलीप कुमार पर हर आम भारतीय की तरह घंटों बात कर सकता हूँ, लेकिन उनके जीवनवृत पर फिलहाल कोई बात नहीं करूंगा..क्योंकि वो तो आपके सामने भरपूर मात्रा में है...मैं बात करूंगा 1932 की बोलती फिल्म आलमआरा के एक्टर रहे रोमन पौरुष के सांचे में ढले पृथ्वीराज कपूर से लेकर 2019 की कबीर सिंह के रोमानी जुनून वाले शाहिद कपूर तक के बीच के सत्तासी वर्षों में अशोक कुमार, नीली आंखों वाले चंद्रमोहन, स्लाव लगते राजकपूर, थिरकते शम्मी कपूर, सलज्ज मुस्कान वाले राजेन्द्र कुमार, सामने वाले की ऐसी की तैसी करने को हमेशा बेताब दिखते राजकुमार, सफलता के सारे प्रतिमान तोड़ने वाले राजेश खन्ना, गहरी आंखों और गहरी आवाज़ वाले अमिताभ बच्चन और रोमांस को जीने वाले शाहरुख खान की----सब को अपने अपने प्रशंसक मिले.. लाखों. करोड़ों. लेकिन जब बरसों से अपनी सुध बिसराय, तीस साल से सेल्युलाइड की दुनिया से लापता, दो कम सौ वर्षों के मौसमों से लबालब दिलीप कुमार आज भी मेरी 35 साल की दोस्त सबाहत अर्थात Summy Iqbal के दिल ओ दिमाग पर छाये हों तो एक पल में दिलीप कुमार का होना कायनात पर तारी हो जाता है..
मंटो लिखते हैं कि बंटवारे के दंगों के दौरान जब वो अशोक कुमार के साथ उनकी कार में कहीं जा रहे थे, तो शॉर्टकट के चक्कर में अशोक कुमार मुस्लिम इलाके में चले गए..भीड़ ने कार को घेर लिया..अधर्मी मंटो को क़ुरान की आयतें याद आने लगीं, उनकी जान सूख गयी कि अगर वहां अशोक कुमार को कुछ हो गया तो कहर मच जाएगा..जैसे ही दंगाइयों में से किसी ने अशोक कुमार को पहचान लिया, वो देखते देखते सबके दादा मुनि हो गए, और उन्हें सुरक्षित निकलने का रास्ता बतलाया जाने लगा..
एक वक्त ऐसा भी आया कि देवानंद को काला सूट न पहनने की ताक़ीद की जाने लगी थी क्योंकि युवा वर्ग खास कर युवतियों के पागलपन का ख़तरा जो बढ़ गया था..
राजेश खन्ना, भूतो न भविष्यति लोकप्रियता पाए अभिनेता..जिन्हें लड़कियां अपने रक्त से ख़त लिखतीं..
वहीं दिलीप कुमार की लोकप्रियता पागल नहीं बनाती थी..बल्कि बहुत शांति से पूनम की रात की वो भरी पूरी चांदनी बन छा जाती. जिसका मदहोश करने वाला वर्णन विभूति भूषण बंदोपाध्याय ने आरण्यक में किया है.. जिसमें घने वनों की बंदोबस्ती की नौकरी कर रहा युवक जब तब घोड़े पे सवार हो चाँदनी के सौंदर्य के अंतहीन विस्तार में निकल जाता है..अब समझे मैं क्या कहना चाहता हूँ.. मैं यहां दिलीप साहब के व्यक्तित्व के उसी अंतहीन विस्तार की बात कर रहा हूं..
1934 में जब अपनी फिल्म के हीरो नजमुल हसन के साथ देविका रानी भाग गयी तो बॉम्बे टाकीज़ में अफ़रातफ़री मच गयी थी..हिमांशु राय ने अपनी पत्नी को वापस लाने के लिए सारे घोड़े खोल दिये और जब वो अपने प्यार को ठुकरा कर लौट आयीं तो फिल्म को पूरा करने लिए कुमुद कुमार गांगुली को जबरन अशोक कुमार का नाम देकर देविका रानी का हीरो बना दिया गया..
इस घटना के दस साल बाद यानी 1944 को लोनावला में खानदानी कैंटीन चला रहे यूसुफ़ ख़ान (संयोग देखिए शाहरुख ख़ान के स्वतंत्रता सेनानी पिता दिल्ली में कैंटीन चलाते थे और दिलीप कुमार के जन्मस्थान यानी पेशावर के आसपास का इलाका ही उनका कर्मस्थल था)..पर देविका रानी की नज़र पड़ी तो उन्हें पता नहीं उस युवक में कौन सा भाव पाया कि उसे बॉम्बे टाकीज़ की ज्वारभाटा का हीरो बना दिया..दिलीप कुमार का नाम दे कर..
पेशावर में यूसुफ़ ख़ान के पड़ौस के घर में रहे उनके पुराने यार राजकपूर ने जब सुना कि ख़ान हीरो बन गया है तो उन्हें कम खुशी नहीं हुई लेकिन हल्का सा मन में यह ज़रूर आया होगा कि मैं क्यों नहीं, जिसका बाप बॉम्बे की फिल्मी दुनिया का एक मजबूत स्तंभ है..उन दिनों अरसे से हीरो बनने की तमन्ना पाले राजकपूर अपने पिता के मित्र केदार शर्मा के निर्देशन में बन रही फिल्म में उनकी असिस्टेंटी कर रहे थे और किसी गलती पर उनका थप्पड़ भी खा चुके थे..
तो ज्वारभाटा के नख से शिख तक शर्मीले नाजुक मिजाज नाजुक आवाज़ और नाजुक नैन नक्श वाले दिलीप कुमार कब अभिनय का विश्वविद्यालय बन गए, यह तो आप को विस्तार से पढ़ने को मिला होगा, और यह मेरे लिए केवल एक जुमला ही है, लेकिन जब संगम में असफल प्रेमी का किरदार निभा रहे राजेन्द्र कुमार जैसे वरिष्ठ अभिनेता को दिलीप साहब की नक़ाब ओढ़नी पड़ रही हो, जब अपने अभिनय की गूंज से ज़मीन आसमान का फर्क मिटा रहे अमिताभ बच्चन को टुकड़ों टुकड़ों में दिलीप साहब से अभिनय सीखना पड़े, जब लोकप्रियता की लकीर खींच चुके शाहरुख ख़ान कई बार दिलीप साहब की पनाह में जाने को मजबूर हए हों तो हम देविका रानी की पैनी निगाहों के कायल हो जाते हैं, जिन्होंने यूसुफ़ ख़ान में दिलीप कुमार को तलाश लिया था...
© राजीव मित्तल
#vss
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