Monday, 17 May 2021

सिनेमा : सौ वर्षों का अतीत और भविष्य


( सिनेमा पर कभी मैंने सचेत रूप से नहीं लिखना चाहा मगर जीवन में ऐसे संयोग बने कि ज्यादातर सिनेमा संबंधी लेखन ही सामने आया और लोगों ने सराहा। यह किसी साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशित मेरा पहला लेख था, जो करीब 24-25 वर्ष की उम्र में लिखा गया था और लिखे जाने के एक या दो साल बाद मुजफ्फरपुर से निकलने वाली 'पुरुष' नाम की लघु पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। तब तक मैंने पत्रकारिता नहीं शुरू की थी, बस पोस्ट ग्रेजुएशन खत्म करके कंप्यूटर सीख रहा था और नौकरी की तलाश में था। उस समय तक भाषा की वह ट्रेनिंग नहीं हुई थी जो बाद के वर्षों में पत्रकारिता के दौरान हुई। एक बिल्कुल नए लेखक की कमियां और खूबियां दोनों ही इसमें हैं। बहुत लंबा भी है, पत्रिका जर्जर हो रही थी सो इसे डिजिटल में सहेज लिया है। उस दौर में आई बहुत सी फिल्मों पर टिप्पणी है, इतने समय बाद अपनी लिखी बहुत सी बातों से मैं सहमत हूँ और बहुत सी से असहमत। हालांकि इस लेख की सैद्धांतिक स्थापनाओं से मैं आज भी इत्तेफॉक रखता हूँ और कई बार चकित भी होता हूँ। )
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सिनेमा : सौ वर्षों का अतीत और भविष्य 

सिनेमा के लिये अपनी मौत आप मरने का निष्कर्ष निकालना अजीब लग सकता है और शायद अतिरेक भी, पर यह सच है कि पिछले सौ वर्षों के विकास क्रम में सिनेमा अपनी ही संभावनाओं को नष्ट करता गया है। यदि हम अपने पिछले सौ वर्षा के इतिहास की तरफ पलटे तो सिनेमा को नजरअंदाज नहीं कर सकते। अतीत की इस लिखावट को हम सेल्युलायड पर उभरते टुकड़ा-टुकड़ा वक्त और उसके नाट्य-बिंबों में महसूस कर सकते हैं । मक्सिम गोर्की ने प्रथम बार 1896 के उत्तरार्द्ध में रूस में प्रदर्शित लुमिएर बंधुओं की फिल्में देख कर लिखा था, " इन बिंबों का असाधारण प्रभाव जटिल विलक्षण और बहुआयामी है, मुझे नहीं लगता कि मैं इस प्रभाव के सभी पहलुओं की स्पष्ट व्याख्या करने में समर्थ हो पाउंगा, तुम भूल जाते हो कि तुम कहाँ हो, अद्भुत कल्पनायें तुम्हारे दिमाग में प्रवेश करने लगती हैं।" आरंभ से ही सिनेमा की रचनात्मक ताकत का एहसास होने लगा था, पर सिनेमा के विकास की दिशायें ऐसी रही कि उसने स्वयं ही अपनी रचनात्मक संभावनाओं को नष्ट कर दिया। इसकी तुलना हम एक ऐसी इमारत से कर सकते हैं जिसका मंजिल दर मंजिल निर्माण होता गया हो और जो अंततः अपने ही बोझा से जीर्ण हो उठे और धाराशायी हो जाय।

गति, घटित समय और बिंब के एक साथ अंकन ने ही सिनेमा में हूबहू यथार्थ का भ्रम पैदा किया। साथ ही इनके अंतर्संबंधों में नये संयोग स्थापित कर सकने की अपार रचनात्मक संभावनायें पैदा हो गई। गति व समय का भी अंकन संभव हो सकने के कारण आरंभ से ही इसमें कथा कहने की संभावनाओं ने जन्म ले लिया और सिनेमा के साथ कथा कहने का तत्व हमेशा के लिये जुड़ गया। इस प्रकार सिनेमा दृश्यात्मक आख्यान बन गया और दिखाने का आतंक इसके सर्जकों के मन में हमेशा से हावी रहा। लिहाजा सिनेमा में लार्जर देन लाइफ की अवधारणा ने जन्म लिया। चमत्कार की अवधारणा भी दुर्भाग्यवश सिनेमा के साथ जुड़ी रही। पहले-पहल लोगों को सिनेमा किसी चमत्कार की तरह लगा होगा फिर आहिस्ता-आहिस्ता उसके साथ सहज संबंध बनाने की चेष्टा की गयी होगी। पर सिनेमा के साथ जुड़ा व्यवसाय इसे हमेशा एक जादू के खेल में बदलने की कोशिश में लगा रहा। कोई भी अतिरेक एक सीमा के बाद अपना विशिष्ट प्रभाव खोने लगता है और निष्क्रिय हो जाता है। सिनेमा के साथ जुड़ी चमत्कार की इस प्रवृत्ति का भी यही हुआ। यह पूरी प्रक्रिया कैसे जन्मी और किस प्रकार अपने अंत की ओर बढ़ी इसे हम आगे समझने की कोशिश करेगे इससे सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि लोकप्रिय सिनेमा का पूरा विकास ही इस अवधारणा पर आश्रित हो गया। ऐसा नहीं है कि इस एकांगी विकासधारा का प्रतिरोध करने वाली फिल्मों का निर्माण नहीं हुआ। और इस दिशा में सबसे समर्थ व महत्वपूर्ण नाम शाायद भारत के सत्यजीत रे का है जिन्होंने जीवन की लय के समानांतर गति वाली फिल्में बनाई।

सिनेमा व समाज के संबंध प्रारंभ से ही असहज रहे और यही असहजता उसके विकास का आधार बनी रही। शायद यही एक ऐसी सूजनात्मक विधा है जिस पर हमेशा से अविश्वास किया जाता रहा, जिसे हमेशा शंका की निगाहों से देखा गया और इसकी सार्थकता पर हमेशा एक प्रश्नचिह्न बना लगा था। शायद इसी कारण सिनेमा को इतनी लोकप्रियता मिलती रही । इसे पुनः मैक्सिम गोर्की के निम्न शब्दों में समझा जा सकता है, "मुझको पूरा यकीन है कि हम जल्दी इन फिल्मों (लुमिएर द्वारा प्रदर्शित) के स्थान पर अलग तरह की फिल्में दिखाई जाएंगी। तब वे ऐसी फिल्म दिखायेगे जिनके शीर्षक होंगे। उदाहरण के लिए 'कपड़े उतारती हुई महिला या स्नान करती हुई महिला इत्यादि।" यहां सिनेमा में अंतर्निहित व्यवसायिकता की प्रति पर एक सशक्त भविष्यसूचक टिप्पणी थी।

सिनेमा के व्यावसाय के रूप में परिवर्तित हो जाने से इसने एकतरफा आक्रामक रुख अख्तियार कर लिया। यह कथन एकांगी न हो जाय इसलिये इस तथ्य को स्पष्ट करते चलना होगा कि लगभग सभी कलाएं अपने मूल, रूप में व्यवसाय से जुड़ी रही हैं, वे बुनियादी तौर पर आर्थिक क्रिया रही हैं, यह भी कि पर्याप्त मात्रा में व्यावसायिक शर्तों को नकारते हुये सृजनात्मक, संवेदनशील व मानवीय मूल्यों की फिल्में बनी है और साथ ही यह भी कि जिस अधिकांश सिनेमा का उद्देश्य निवेश किये गये धन से लाभ कमाना था- रचनात्मक मूल्यों से पूर्णतया वंचित नहीं था। यहाँ से हम उस महत्वपूर्ण तथ्य की ओर बढ़ सकते हैं कि दरअसल सिनेमा सामाजिक संरचना की एक जटिल इकाई है इसे किसी सुनिश्चित खांचे में नहीं डाला जा सकता। उसे सिर्फ व्यवसाय या सृजनात्मक विधा नहीं बताया जा सकता। उसका संबंध सामाजिक अंतःप्रक्रियाओं व सामूहिक अवचेतन से भी है। श्याम बेनेगल के अनुसार, "इच्छा और फंतासी का गहरा संबंध है। फंतासी इच्छाओं का वातावरण होती है। यह इच्छाओं पर आधारित काल्पनिक दुनिया होती है। हिन्दी फिल्मों की सामूहिक फांतासी और भारतीय संस्कृति के बीच का संबंध जटिल है। हलांकि वह स्वयं एक सांस्कृतिक उत्पाद है लेकिन उसने लोकप्रिय संस्कृति को अभूतपूर्व रूप में आकार दिया है।" 

श्याम बेनेगल के इस कथन से कुछ महत्वपूर्ण बातों पर प्रकाश पढ़ता है। 

(अ) सिनेमा द्वारा रची गई फंतासी का संबंध तत्कालीन समाज के सामूहिक अचेतन से होता है।
(ब) सिनेमा एक अपेक्षाकृत जटिल सामाजिक परिघटना है जिसका संबंध सिर्फ वैयक्तिक सूजनात्मकता अथवा तात्कालिक सामाजिकता तक ही सीमित नहीं है। वह एक व्यापक संरचना का तत्व है। 
(स) लोकप्रिय सिनेमा एक ऐसा सांस्कृतिक उपकरण है जिसके सामाजिक गतिशीलता से गहरे संबंध हैं जिस तरह से लोकगीतों व लोक कथाओं का कुछ सभ्यताओं के साथ होता है। 

अब यहाँ पर अचरज व्यक्त किया जा सकता है कि इतने सशक्त सामाजिक-सांस्कृतिक माध्यम के भविष्य को लेकर किस तरह से चिंतायें व्यक्त की जा सकती है। हम बारी-बारी से उन स्रोतों की तरफ जायेंगे जिनसे सिनेमा की संरचना निर्मित होती है और हम सिनेमा और उसके भविष्य को समझ सकें।

सिनेमा की अवधारणा में संचार, वितरण, व्यापार, सूजन, स्वप्न और मान्यताये जटिल रूप में समाहित हैं। सिनेमा व समाज के असहज संबंधों की शुरूआत वही से हो गई थी जब यथार्थ के पुनर्प्रस्तुतिकरण के इस माध्यम ने देखने के व्यवसाय का रूप ग्रहण किया। इसने दर्शक को एक उपभोक्ता के रूप में स्वीकार किया- और दुश्य एक उत्पादन एक प्रोडक्ट बन गये। लिहाजा विजुअल्स बिकने लगे और उनके प्रति हमारा संपर्क सहज-स्वामाविक नहीं रह गया। हमारा रूख गैर--सृजनात्क हो गया। इसने दृश्य को लेकर अपने समय में दो परस्पर विरोधी अवधारणाओं को जन्म दिया।

इन्ही अवधारणाओं के चलते सिनेमा की कुछ स्पष्ट प्रवृतियों का जन्म हुआ। सिने सिद्धातकार आइजेंस्टाइन व युरोचकिन । पुडोवकिन ने शाट को कथा कहने का माध्यम माना जबकि आइजेंस्टाइन शाट के आपसी संबंध में दर्शक की मानसिक प्रक्रिया समाहित करके नये अर्थ के उद्घाटन पर जोर देते थे। उन्होंने इस प्रक्रिया को रचनात्मक माना। उन्ही के शब्दों में, यह विवरणात्मकता की सर्वोतम सक्रिय विधि है कि मोंताज के मुताबिक किसी घटना का प्रदर्शन आवश्यक कथा-क्रम तक प्रेक्षकों का ध्यान बांधे रखने में हमें समर्थ बनाता है। संपूर्ण विश्व की सिनेमाई शाला के विकास में रूसी फिल्मकारों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है और मोंताज संबंधी अवधारणाओं का जन्म इसका एक महत्वपूर्ण पक्ष रहा है। इसने नैरेशन के क्षेत्र में अनगिनत संभावनाओं को जन्म दिया कुलेशेव के शिष्य पुडोवकिन ने मोंताज के सिद्धांतों व अवधारणाओं पर काम किया तथा उन्हें व्यावहारिक रूप देते हुये भी तथा डैसर्टर जैसी उच्च कोटी की कलात्मक फिल्में बनाई। मोंताज समूचे विश्व में सिनेमाई संरचना का एक महत्वपूर्ण अंग बन गया।

पुडोवकिन ने कथ्य के आंतरिक सत्य का उद्घाटन करने के लिये शाट संयोजन की अवधारणाओं को सामने रखा पर उसके बाद से लेकर आज तक इस सिद्धांत का अत्यधिक सरलीकरण कर दिया गया और शाट संयोजन फिल्मकार के लिये सिर्फ मनचाही कथा कहने का माध्यम बन कर रह गया। लोकप्रिय सिनेमा इसका एक रूप है जो पूरे परिदृश्य में व्यापक रूप से छाया हुआ है। इसने सिनेमा को अर्थात उसकी भाषा को एक माध्यम के रूप में ग्रहण किया। इस रवैये ने आहिस्ता-आहिस्ता सिनेमा की कलात्मक संभावनाओं को नष्ट कर दिया साथ ही इस पूरे माध्यम को संकट में डाल दिया। पुडोवकिन व आइजेंस्टाइन के सिद्धांत के बीच विरोधाभास यहीं से स्पष्ट होता है पुडोवकिन के सिद्धांत के सरलीकरण ने शाट को द्वैतीयक-गौण बना दिया और इस सरलीकरण के अतिवाद ने सिनेमा को देखने की बजाय दिखाने का माध्यम बना दिया। दिखाने और प्रस्तुत करने की इस लालता ने व्यवसाय से जुड़ कर शो का रूप धारण कर लिया और जो कुछ भी दिखाया जा सकता था उसकी अंतिम संभावनाओं को निचोड़ लेने का प्रयास किया। इसने सिनेमा की अनेक विकृतियों को आने वाले समय में जन्म दिया।

जब सिनेमा में सब कुछ दिखा सकने की संभावनायें भी खत्म होती नजर आई तो इसने विकृति का रूप धारण कर लिया। अतिशय यौन चित्रण तथा हिंसा का उदात्तीकरण इसकी दो प्रमुख प्रवृत्तियां हैं। पूरे विश्व में सिनेमा ने स्त्री देह का जितना अधिक इस्तेमाल किया है. शायद ही किसी अन्य माध्यम ने किया हो। आगे इसी प्रकृति के चलते नायिकाओं की छवि सेक्स-प्रतीक के आधार पर विकसित होने लगी। वर्तमान समय में लोकप्रिय सिनेमा का अस्सी प्रतिशत किसी न किसी रूप में स्त्री के नग्न रूप य यौन चित्रण को बेचने में लगा हुआ है। नग्नता या यौन-चित्रण शायद अपने-आप में इतने हानिकारक नहीं थे जितना कि उनका व्यवसायिक इस्तेमाल व हिंसा से जुड़ना। समय बीतने के साथ सिनेमा अभिकामिक हिंसक होता गया है। हर बार रची गई हिंसा को ज्यादा बिकाऊ बनाने के लिये यह पुराने मापदण्ड तोड़ कर आगे बढ़ता है और इस क्रम में और अधिक हिंसक होता जाता है। इसका संबंध जन-मानस में छिपी दमित भावनाओं की अभिव्यक्ति से भी है।

पिछले दिनों सिनेमा द्वारा प्रस्तुत दो छवियां अत्यंत लोकप्रिय रहीं- पहली कादलन फिल्म में बिना धड़, हाथ-पैर के नाचता प्रेत तथा दूसरा 'जुरासिक पार्क' के डायनासोर। गौर करने पर ये दोनों छवियां एक दिलचस्प रूपक गढ़ते नजर आते हैं, 'कादलन एक ऐसा चित्र प्रस्तुत करता है जहां सब कुछ है सूट, पेट, जूते- बस व्यक्ति गायब है, उसका स्वरूप आवश्यकताओं से गढ़ा गया है, यह नृत्य- दृश्य अपने आप में एक उत्तर औद्यौगिक मनुष्य का रूपक गढ़ता है।

जुरासिक पार्क' के डायनासोर अपने ढंग से एक दूसरी विडंबना की प्रस्तुति करते है। हालीवुड दुनिया का सबसे बड़ा मनोरंजक उद्योग केन्द्र है। इसने अपने मनोरंजन उद्योग का विशाल साम्राज्य और नेटवर्क स्थापित किया है। इसने सेल्युलायड पर भव्यतम छवियों का निर्माण किया है और अपने दर्शकों को जहाँ तक उनकी कल्पना पहुंच सकती है उससे आगे तक ले जाने का प्रयास किया है इसके अनेक रूप रहे हैं: जेम्स बांड की छवि को लेकर रची गई फंतासी है या फिर 'मैड मैक्स',  रैंबो' और 'डाई हार्ड' जैसे फिल्मों में क्रूर हिंसा को रोचक बना कर की गई प्रस्तुति है।

समय के साथ नई चीजें सामने आई। आर्थर हेली के उपन्यास एअरपोर्ट और फ्लाईट इन-टू डैंजर को आधार बन कर डिजास्टर फिल्मों का दौर शुरू हुआ था और 'टावरिंग इन्फर्नो', 'फ्लड', 'अर्थ-क्वेक' आदि फिल्मों में तबाही के भव्य चित्रण होने लगे। स्पिलबर्ग की 'क्लोज एनकाउंटर्स' तथा जार्ज लुकाच की 'स्टार वार्स' सिरीज की फिल्मों से स्पेस पर आधारित फिल्मों का दौर आया उन्ही दिनों दिया गया जार्ज लुकाच का वक्तव्य इस दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण था उन्होंने कहा कि दर्शक जब फिल्म देखने आता है तो वह एक नये किस्म के भावनात्मक अनुभव की तलाश में आता है। यह अनुभूति जितनी गहरी होगी फिल्म उतनी ही सफल होगी।

किंतु इसकी भी एक सीमा थी, लिहाजा स्पेस फिल्मों ने 'स्पेस हारर' का रूप ले लिया और 'एलियेंस', 'प्रीडेटर' जैसी फिल्में सामने आई । यहीं से हालियुड के फिल्म उद्योग में एक महत्वपूर्ण मोड़ जन्म लेता है और मनोरंजन का विशाल साम्राज्य अपने द्वारा पैदा किये संकट से घिर जाता है। अथाह पैसा खर्च करके पर्दे पर प्रस्तुत की गई भव्यता भी अपना प्रभाव अब खोने लगी है। हाल की सबसे महंगी फिल्म 'ट्रू लाइज' के तमाम रोमांचक दृश्य मन पर कोई प्रभाव नहीं छोड़ते हैं। पिछले वर्ष अमेरिका में सिनेमा के सौ वर्ष पूरे होने पर इस अंतिम पड़ाव में स्थिलबर्ग की जुरासिक पार्क' को एक महत्वपूर्ण फिल्म माना गया। हालीवुड का फिल्म उद्योग स्वयं एक डायनासोर की शक्ल ले चुका है जो अपने बढ़ते हुये विशाल आतंककारी स्वरूप के बावजूद अपने-आप को सरवाइव' नहीं कर पा रहा है। जुरासिक पार्क से ही हालीवुड के सिनेमा ने नये बाजार तलाशने प्रारंभ किये और सिनेमा के संकट का एहसास होने लगा।

दिलचस्प बात है कि सिनेमा का यह संकट कहीं बाहर नहीं नजर आ रहा है. इसकी जड़ें दर्शकों के मन के भीतर है। सिनेमा 'मास कल्चर' है और इस मास के भीतर सिनेमा की अवधारणा का अंत हो चुका है। लोकप्रिय सिनेमा एक उत्पादन है और यह उत्पादन अपना बाजार और अपने उपभोक्ता की निरंतर तलाश करता रहता है क्योंकि इस उत्पादन का संबध। अपने उपभोक्ता की निरंतर तलाश करता है। क्योंकि इस उत्पादन का संबंध अपने उपभाक्ता से सीधे न हो कर जटिल सामाजिक, मानसिक व सांस्कृतिक अंतर्संबंधों से हो कर गुजरता है.और निर्धारित होता है। लिहाजा बदलती सामाजिक प्रवृतियों के साथ उत्पादन य उपभोक्ता भी बदलते गये और आज के समय में पहुंचते-पहुचतै वे संबंध ही संकट के कगार पर आ खड़े हुए हैं, क्योंकि इन्हें निर्धारित करने वाली पूरी संरचना ही बदल रही है। बाजार का स्वरूप व शर्ते बदल रही है। जिसका असर सिनेमा पर पड़ रहा है। इस संदर्भ में श्याम बेनेगल का कहना है महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि सिनेमा भी थियेटर की तरह स्थिर हो गया है। आपको मालूम है कि सिनेमा में आप किस हृद तक जा सकते हैं। उस की क्या सीमायें है। मगर टीवी आने के बाद सिनेमा का विकास अलग तरीके से हो रहा है। फिल्म बनाना अब महंगा काम हो गया है। फिल्म बनाने से पहले उसके बजट का अनुमान लगाना पड़ता है। आगे ये कहते है फिल्म निर्माण का व्यक्तिगत निर्णय अब महत्वपूर्ण नहीं है, बाजार की शक्तियों तय करेगी कि कोई फिल्म बने या न बने। बाजार की इस बदलती हुई प्रवृत्ति को भारत में हम आपके है कौन' की सफलता तथा अमिताभ बच्चन कारपोरेशन लि. की स्थापना में देखा जा सकता है।

किन्तु यह परिर्वतन सिर्फ यहीं तक नहीं सीमित है, यह तो उसका सरलतम रूप है। क्योंकि फिल्म व दर्शक का संबंध सीधा न हो कर संरचनागत है लिहाजा कुछ अन्य परिवर्तनों ने इसकी संरचना को बुरी तरह प्रभावित किया है सिनेमा सिर्फ उत्पादन ही नहीं स्वप्न भी है। 'ड्रीम मर्चेट' शब्द आरंभ से ही सिनेमा के साथ जुड़ा रहा है। यह सपना सीधे -सीधे नहीं बिकता, आज वह स्वप्न देखने वाला व्यक्ति और सारे अंतसंबंध बदल रहे हैं।

दूरदर्शन के विस्तार ने सिनेमा को नुकसान नहीं पहुंचाया बल्कि भारत में लोकप्रिय सिनेमा से जुड़े सुभाष घई जैसे लोगों ने उस दौर में इसे सकारात्मक माना उनका कहना था कि इससे दूर-दराज के क्षेत्रों में लोगों की कहानी के प्रति रूचि बढ़ेगी किन्तु सेटेलाईट द्वारा उपलब्ध देर सारे चैनलों ने देखते-देखते समूचा परिदृश्य बदल दिया इनकी पहुंच अभी भले व्यापक न हो पर यह विश्व-स्तर पर एक साथ पटित हो रहा है और मध्य वर्ग में यह गहरी पैठ बना चुका है। इसके जरिये दर्शकों की मानसिकता में एक बुनिगादी परिवर्तन आया है। यह परिवर्तन बेहद सूक्ष्म लेकिन अत्यधिक महत्वपूर्ण है। अब दृश्य या विजुअल्स किसी यथार्थ की कथा नहीं कहते अथवा किसी यथार्थ की पुनर्परस्तुतिः नहीं करते। ये महज छिटके हुये सतही बिंब मात्र हैं। पुडोवकिन का यह सिद्धांत भंग हो गया है कि मोंताज की पद्धति से कथात्मक तत्व समृद्ध होते हैं। दृश्य व दर्शक के बीच चयन' का तत्व जुड़ जाने से यह परिवर्तन संभव हो सका है क्योंकि टेलीविजन चैनल ने दृश्य का असीमित विस्तार कर दिया है जबकि चैनल ने ही हमें इस विस्तार को नियंत्रित कर सकने की सुविधा दे रखी है। इससे संबंधों में एक बुनियादी परिवर्तन संभव हो सका है। अब जो पूरी कथात्मक संरचना निर्मित होती थी, खंडित हो गई। यथार्थ, विजुअल्स व हमारे मानस जगत के अंतर्संबंध छिन्न-भिन्न हो गये। दृश्य हमारे मानस जगत में किसी घटे हुये यथार्थ को पुनर्सृजित अथवा पुनर्व्याख्यायित करने का माध्यम नहीं रह गये बल्कि वे स्वयं हमारे आस-पास के यथार्थ का एक हिस्सा बन गये हैं। अन्य शब्दों में, विजुअल्स की आंतरिक गरिमा नष्ट हो गई है।

इसके अनेक कारक है। पहला बदलती हुई टेक्नोलॉजी और नये संपर्क माध्यमो का विस्तार-सेल्युलर फोन, पेजर, फैक्स, इंटरनेट, वीडियो कान्फ्रसिंग- इन सभी ने यथार्थ के साथ हमारे बॉयलाजिकल संबंध को लगभग तोड़ सा दिया है। लिहाजा सिनेमा का दृश्य जो इस बात का दावा करता है कि जो कुछ दिख रहा है वह वास्तव में घटित हुआ यथार्थ है और सिनेमा महज उस यथारथ और दर्शक के बीच एक माध्यम है, इसे चोट पहुंचती है। इस दावे पर दूसरी चोट सवयं सिनेगा के भीतर डिजिटल टेक्नालाजी का प्रवेश है। टर्मिनेटर दू, जुरासिक पा', 'मास्क', 'कैस्पर' जैसी अनेक फिल्में पिछले वर्ष आई जिनमें कम्प्यूटर एनिमेशन का प्रयोग करके अयथार्थ को यथार्थ रूप दिया गया। यह सिनेमा के प्रति चिर-परिचित विश्वास को तोड़ता है।

टेलीवीजन पर उपलब्ध तथा प्रतिदिन बढ़ते चैनल एक दूसरा कारण है। ढेर सारे चैनल हमें जो चयन की सुविधा प्रदान करते हैं वह विजुअल द्वारा संप्रेषित यथार्थ हमारे बीध संप्रेषणीयता का अदृश्य माध्यम नहीं बना रह पाता है। यह महज एक दृश्य बन कर रह जाता है कोई अनुभव नहीं बन पाता. क्योंकि वह अपने से परे किसी अनुभव की उष्मा को दर्शकों तक पहुंचाने में नाकाम हो जाता है। जिस प्रक्रिया द्वारा चीजें केन्द्रीभूत या घनीभूत होकर सिनेमा का फिक्शन रचती थी, वह प्रक्रिया ही नष्ट हो रही है। लिहाजा सब कुछ विकेंद्रित व छिन्न-भिन्न हो गया है। यही पर 'कादलन' का रूपक अपना मनोवाज्ञानिक अर्थ ग्रहण करता है।

बदलती हुई प्रौद्योगिकी के कारण हमारे आस-पास जो बेहद सूक्ष्म परिर्वतन घटित हो रहे हैं यह उनमें से एक है। यह इस ओर संकेत करता है कि तेजी से विकसित होती टेक्नालाजी के लिये सिनेमा एक पुरानी पड़ चुकी चीज बन कर रह गया है। संचार क्रांति ने कथा का अंत कर दिया है, क्योंकि अब यथार्थ जो हमारे संपर्क में नहीं है उसे अपने अनुभव का अंश बनाने के लिये हमें उसकी पुनर्रचना नहीं करनी पड़ती तथा उसे माध्यम के जरिये क्रमबद्ध श्रृंखला में गुजरते हुए अपने को प्रस्तुत नहीं करना पड़ता। इस क्रमबद्ध श्रृंखला में गुजरते हुए अपने को प्रस्तुत नहीं करना पड़ता । इस क्रमबद्ध श्रृंखला' में ही दरअसल कथा के तत्व निहित थे।

हमारे अचेतन में घट रहे परिर्वतन व उससे आशंकित सिनेमा में वर्तमान समय में दो महत्वपूर्ण परिवर्तन नजर आ रहे हैं। जिस यथार्थ के प्रति सिनेमा ने अपनी विश्वसनीयता खो दी यह उसी को पुनः अर्जित करने का एक प्रयास है। जुरासिक पार्क में स्पिलबर्ग सिनेमा की तकनीकी संभावनाओं को जिस ऊँचाई तक ले गये थे उससे आगे जा सकना फिलहाल उनके लिये संभव नहीं था। इसके बाद वे कुछ भी करते तो सिर्फ अपने आप को दुहराते। लिहाजा जुरासिक पार्क के डेड एंड के पश्चात दो अलग तरह की फिल्में सामने आई 'सिंडलर्स लिस्ट' और 'फारेस्ट गैप'। इनमें से फारेस्ट गैप', 'जुरासिक पार्क' द्वारा प्रस्तुत डिजिटल टेक्नालाजी का एक भिन्न आयाम में कुशलतापूर्वक किया गया इस्तेमाल है। फिल्म का नायक एक दृश्य में हूबहू जॉन एफ केनेडी से हाथ मिलाता है। इसमें कम्प्यूटर के जरिये केनेडी के वास्तविक बिंबों का फिल्म में प्रयोग किया गया है. ओर इस प्रकार फिल्म का अभिनेता बिंबों की दुनिया में एक बीते जमाने की वास्तविक शख्सियत को अतीत का अंतराल लांघता 'छू सका।

इसी क्रम में स्पिलबर्ग की 'सिंडलर्स लिस्ट' तथा भारतीय फिल्मों में मणि रत्नम की 'रोजा' व 'बांबे' आती है। ये सभी फिल्में स्वयं के द्वारा प्रस्तुत यथार्थ को विश्वसनीयता प्रदान करने के लिये हमारी वास्तविक दुनिया में प्रवेश करती है। इसके लिये वह उन घटनाओं के कथ्य को चुनती है जो हमारे अनुभव जगत. या यथार्थ का एक हिस्सा है। यह हमारे वास्तविक अनुभव का फिक्शन रचता है। 'रोजा व बांबे' जैसी फिल्मों में हम यह जानते हैं कि हम जो देख रहे है वह कहानी है किन्तु यह कहानी वास्तविकता की कहानी है, जबकि अन्य फिल्में 'कहानी की वास्तविकता को प्रस्तुत करती है ऐसा करने के लिये फिक्शन के परंपरागत ढांचे को तोड़ा जाता हैऔर नैरेशन को पत्रकारिता की भाषा, सृजनात्मक शैली व वृत्तवित्राल्मक प्रभावों से जोड़ा जाता है। इस प्रकार हमारा वास्तविक जीवन यथाथ खिसक कर थोड़ा सेल्युलाइड की दुनिया के भीतर चला जाता है और सिनेमा । दर्शक के मध्य पुनः विश्वसनीयता का संबंध विकसित होने लगता है।

'सिंडलर्स लिस्ट' फिल्म अतीत की एक ऐसी घटना का फिक्शन रचाती है, जो हमारे ऐतिहासिक सच का एक हिस्सा है। फिल्म का श्याम-श्वेत छायाकन क्य की एक विशिष्ट जरूरत की पूर्ति करता है। यह वस्तु या कथ्य के प्रति एक वस्तुपरकता निर्मित करता है और यह वस्तुपरकता विश्वसनीयता स्थापित करती है।

जहाँ एक और सिनेमा अपनी खोई हुई विश्वसनीयता को प्राप्त करने के लिये हमारे संसार में हस्तक्षेप करता है। वहीं दूसरी और वह इस संसार के बरक्स एक दूसरे प्रति-संवाद की संरचना करता है। जैसा कि हाल की सबसे सफल फिल्म 'हम आपके है कौन' में किया गया। इस फिल्म की संरचनागत खूबी यह है कि प्रारंभ से अन्त तक फिल्म के किसी एक दृश्य पर उंगली रख कर उसे महत्वपूर्ण नहीं बताया जा सकता है। फिल्म 'कथा' नहीं बल्कि संसार रचने का प्रयास करती है। फिल्म में अनेक मोड़ व निर्णय के क्षण हैं किन्तु वे अप्रकट रहते हैं। फिल्म की यह शैली हमारे जीवन जीने की प्रक्रिया के बेहद करीब हैं। ऐसा चरित्रों व स्थितियों के ग्राफिक्स डेवलपमेंट के कारण संभव हुआ है। प्रत्येक पटना का निर्माण छोटी-छोटी घटनाओं- उन घटनाओं का निर्माण- छोटे-छोटी दृश्यों तथा दृश्यों का निर्माण पात्रों की गतिविधियों से हुआ है। प्रत्येक चरित्र अपने आस-पास एक छोटी सी दुनिया लेकर चलता है। फिल्म की संरचना में बस्तुओं य सेट्स का भी महत्वपूर्ण योगदान है।

आइजेंस्टाइन का मानना था कि फिल्म की पट्टी को काटते ही अवचेतन रूप से दर्शक भटक जाता है। अतः स्थान व समय की अन्विति बनाये रख कर ही दर्शक को घटना के यथार्थ व समय की सच्चाई के प्रति आश्वस्त किया जा सकता है। इन फिल्मों में की आंतरिक संरचना व गति को नियंत्रित रखने का प्रयास किया गया। फिल्म 'रंगीला' में प्रारंभ के दृश्य से अगले बीस मिनटों तक सिनेमा देखने जाने तक के प्रसंग के निरतरता है। कैमरा जैसे लगातार अपने पात्रों की गतिविधियों का पीछा करता रहता है. इस क्रम में एक प्रसंग से दूसरा प्रसंग निश्चित होता है और दूसरे से तीसरा। यह निरंतरता पूरी फिल्म में विद्यमान है। यह शैली उस अवधारणा के विरूद्ध विकल्प प्रस्तुत करती है जहां पूर्व निर्धारित कथा के अनुसार दृश्य निर्मित किये जाते हैं। 'दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे' भी इसी शैली का अनुसरण करती है। पूरी फिल्म दो प्रसंगों का सिनेमाई भाषा में विस्तार है- यूरोप की सैर और शादी की तैयारियां।

उपरोक्त सभी फिल्मों की सफलता का एक महत्वपूर्ण कारण उनका अपने द्वारा प्रस्तुत यथार्थ की विश्वसनीयता का यकीन दिला सकना भी रहा है, न सिर्फ कथ्य के बल्कि नई शैलीगत संभावनाओं की खोज के जरिये भी इन्होंने टेक्स्चर में नहीं बल्कि स्ट्रक्चर में अपनी शैलीगत समावनाओं को खोजा, और यदि स्ट्रक्चर को अर्थ विस्तार दिया जाय तो इन फिल्मों में परिवारिक मूल्यों की परंपरा को जगह देना भी इसी का एक अंग है। सिनेमा की इस बदलती हुई प्रवृत्ति से एक बात स्पष्ट होती कि सिनेमा व दर्शक के लम्बे संबंध में अब बदलाव के लक्षण नजर आ रहे है। सिनेमा अब दर्शक पर स्वयं को आरोपित नहीं करेगा बल्कि यह स्वयं द्वारा रचे गये यथार्थ में हमें शामिल करने का प्रयास करेगा बिंबों का महत्व अब घट गया है किंतु बिंबों द्वारा जो कुछ प्रस्तुत किया जा सकता है यह महत्वपूर्ण हो गया है। इस अवधारणा के तहत सिनेमा अपने सृजनात्मक मूल्य में वृद्धि करता है। शायद बदलती हुई प्रौद्योगिकी सिनेमा के लिये उतनी नुकसानदेह नहीं है जितना कि इसका गलत इस्तेमाल । यह गलत इस्तेमाल सार्थक सृजन को लगभग नष्ट ही कर देता है। यह कला का मानवीय चेहरा गायब कर देता है और परिदृश्य में कला की स्थिति स्क्रीन पर नृत्य करते कपड़े हैट जूतों जैसी हो जाती है जो मानवीय स्थिति या भ्रम रचते है किन्तु उसको मानवीय सरोकार नहीं के बराबर होते है। सिनेमा यदि अपने अस्तित्व के लिये संघर्षरत है तो उसे जीवित रहने के लिये प्रतिरोध के सिनेमा के रूप में विकसित होना पड़ेगा। उसकी ऊर्जा का वास्तविक श्रोत हमारी अपनी सांस्कृतिक जड़े हैं। 

सन् 1929 में लुइ बुनएल और प्रसिद्ध चित्रकार सल्वाडोर डाली ने मिल कर एक फिल्म बनाई 'अन शिया आंदालू'। सर्रियलिस्टिक बिंबों वाली नैरेटिव क्रमबद्धता से रहित इस फिल्म का उद्देश्य यथार्थ के प्रति रूढ़ नजरिये को तोड़ना था। पर उसके बाद लंबे समय तक सिनेमा के परंपरागत ढांचे पर इस अवधारणा का कोई असर नहीं पड़ा और ये महज प्रयोग बन कर रह गया। इसका कारण था कि हम दृश्य को महज दृश्य के रूप में स्वीकार करने के आदी नहीं थे। किन्तु आज जब दृश्य अपनी सहज गरिमा व इमानदारी से वंचित होते हैं तब हमें सिनेमा द्वारा प्रस्तुत किये जा रहे यथार्थ पर अविश्वास होने लगता है। इसका सर्वाधिक असर भारत के कला सिनेमा अथवा समानांतर सिनेमा आंदोलन पर पड़ा।

इस धारा ने अपना पूरा विकास ही मुख्यधारा की प्रचलित शैली और कथ्य के विरुद्ध एक प्रति-सिनेमा के रूप में किया था। लोकप्रिय सिनेमा ने इनकी तकनीकी खुबियों व यथार्थपरक नैरेशन का प्रयोग खराब फिल्में बनाने में किया जिससे इस सिनेमा आंदोलन की विश्वसनीयता को ठेस पहुंची। इसके अतिरिक्त बदलते वक्त के साथ मुख्यधारा सिनेमा के शैलिगत गुण-अवगुण अपनी जगह पर बने रहे और समय गुजरने के साथ ज्यादा प्रासंगिक होते गये जबकि कला सिनेमा द्वारा अपना अलग मुहावरा गढ़ने की कोशिश में उसके स्वाभाविक ऊर्जा स्रोत सूख गये और यह सिनेमा आवश्यकता से अधिक शैलीबद्ध कृत्रिम हो गया। यथार्थवाद की जिस जमीन पर उसने अपनी बुनियाद डाली थी उसकी विश्वसनीयता समाप्त हो गई। और यह सिनेमा लंबे समय तक अपने दर्शकों से जीवंत संवाद बनाये रख सकने में नाकाम रहा ।

यहीं पर सिनेमा के इतिहास की 'अन शियां आंदालू' तथा 'कैबिनेट आफ डॉक्टर कैलीगरी' जैसी फिल्में पुनः प्रासंगिक हो जाती है। यदि सिनेमा द्वारा अपने को विश्वसनीय बना सकने की सारी संभावनायें समाप्त हो चुकी हो तो इसका एक बेहतर उपाय है कि उसकी अविश्वसनीयता को स्वीकार कर लिया जाय । उसे 'माध्यम' की बजाय 'विधा' में परिवर्तित कर दिया जाय। यहां पर आकर आइजेंस्टाइन व पुडोवकिन के मध्य का विरोधाभास और अधिक स्पष्ट होता है। पुडोवकिन का सिद्धांत यथार्थ के अनुरूप या निकटतक दृश्य की संरचना करता है अर्थात यथार्थ दृश्य निर्माण की शर्त निर्धारित करता है जबकि आइजेस्टाइन के सिद्धांत दृश्यों के जरिये यथार्थ को रखते है। इसे ऋत्विक घटक के शब्दों में और ज्यादा स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। किसी भी शाट का अपना अलग से कोई अर्थ नहीं, बाद के शाट का भी कोई अपना अलग अर्थ नहीं बल्कि दोनों शाट मिल कर एक तीसरा अर्थ बनाते है, तैयार करते हैं। सीधे शब्दों में थीसिस, एंटी थीसिस, सिंथेसिस। यहीं पर डाइलेटिक्स की बात शुरू होती है और कार्ल मार्क्स की 'एप्रोच टु रियलिटी' की बात उठती है।

'यथार्थ के प्रति रूख' जिसकी ओर घटक इशारा करते है सर्वाधिक महत्वपूर्ण है यदि सिनेमाई यथार्थवाद का अंत हो चुका है तो यह एक संभावना है कि सिनेमा की भाषा का इस्तेमाल यथार्थ की सृजनात्मक पुनर्रचना के रूप में किया जाय तथा यथार्थ के आंतरिक सत्य को उद्घाटित किया जाय जैसा कि अतीत में 'कैबिनेट आफ डॉक्टर कैलीगरी' जैसी अभिव्यंजनावादी फिल्म अथवा लुई भूनुएल की अंतश्चेतनावादी फिल्मों ने करने का प्रयास किया था। यदि ये प्रयास सफल न हो सके तो इसका कारण था कि अपने समय व यथार्थ के प्रति रूक सकारात्मक व संपर्क वास्तविक नहीं थे।

किंतु अब ऐसी फिल्मों की जरूरत है सिर्फ देखे जा रहे यथार्थ को ही न प्रस्तुत कर सके. बल्कि 'समझने' व 'महसूस' किये जा रहे यथार्थ को भी प्रस्तुत कर सके एक ऐसा सिनेमा जो संभावनाओं, चरित्रों व स्थितियों के प्रमेय रच सके। कुछ-कुछ दोस्तोयेवस्की व काफ्का की रचनाओं की तरह ऐसा सिनेमा जो अपनी सृजनात्मक भाषा के भीतर यथार्थ की सृष्टि कर सके जैसा कि साहित्य में जादुई यर्थाथ वाली रचनाओं के जरिये संभव हो सका है पर सिनेमा की अपनी रचनात्मक भाषा व उसकी अपनी सृजनात्मक शर्तों पर जो कि रूप व अंतर्वस्तु के सहज संबंध के रूप में विकसित हो सके न कि किसी आरोपित प्रयोग के रूप में।

कैमरे द्वारा उतारी गई तस्वीर यथार्थ के साथ एक दिलचस्य खेल है वह दो विपरीत स्थितियों का दृश्य रचती है कैमरे द्वारा उतारी गई तस्वीर एक वस्तुपरक दृष्टांत है किंतु भौतिक जगत में जो यथार्थ बिखरा है वह उसका एक आत्मपरक टुकड़ा है। दर्शक से जुड़ फर यह तिहरा संघर्ष रचता है। दर्शक व सिनेमा के मध्य इस स्वस्थ द्वंदात्मक संबंध विकसित करने की इस अवधारणा को हम अतीत में आइजेस्टाइन के सिद्धांत निरूपण में भी देख सकते हैं। उनके ही शब्दों में "1924 में स्ट्राइक में जब मैंने दृश्यों की एक पूरी श्रृंखला की फोटो एक विशेष कोण से लेना शुरू किया, न कि किसी किरदार के दृष्टिकोण के प्रभावगत तो ऐसा समझा गया यह कैमरे के इस्तेमाल में एक क्रांतिकारी कदम है और इसने एक गर्मागर्म बहस का सूत्रपात कर दिया। यह एक महत्वपूर्ण कदम था क्योंकि यहां पर कैमरे के विशेष ऐगल जिस अदृश्य किरदार के दृष्टिकोण से तय किये जा रहे थे वह वास्तव में दर्शक था जिसे सिनेमा में घटित होते यथार्थ का एक अंग बनना था न कि एक मूक गवाह या एक द्रष्टा।"

आइजेंस्टाइन द्वारा विभिन्न शाट्स के मध्य द्वंद्वात्मक संबंध की तलाश दरअसल सिनेमा में घटित होते यथार्थ में दर्शक की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया को शामिल करना था उनके अनुसार प्रत्यक्षण की जड़ता के व्यतिक्रम से संवेदना का अवबोधन निर्धारित होता है यह एक ऐसा महत्वपूर्ण निष्कर्ष था जिसके चलते सिनेमा अपने सृजनात्मक स्वरूप को प्राप्त कर सका और नई ऊंचाइयां छू सका। यह एक अन्य महत्वपूर्ण सत्य की ओर भी इशारा करता है कि किसी भी सृजनात्मक कला के शिल्पगत पक्ष को काव्य की आंतरिक जरूरत की उपेक्षा कर के नही विकसित किया जा सकता।

यह अपने आप काफी रोचक है कि भारतीय फिल्मों की शैली में भविष्य के सिनेमा के लिये दिलचस्प संभावनायें नजर आती है। हिंदी फिल्मों में प्रयुक्त गीतों के संदर्भ में सत्यजीत रे ने एक अमेरिकन मैगजीन द्वारा की गई हिंदी फिल्म की समालोचना का जिक्र करते हुए कहा था कि यहां गीतों के इस्तेमाल की प्रशंसा ब्रेख्यितन एलियनेशल के संदर्भ में की गई थी- कुछ ऐसा जो सोदेश्य दर्शकों को समूची स्थिति की अविश्वसनीयता के प्रति सजग करता है। 'एक बेहद दिलचस्प शैलीबद्ध टुकड़ा' समीक्षक कहता है, पूर्णतया भारतीय कला की अयथार्थवादी परंपरा में इस प्रकार सृजन की प्रक्रिया जो व्यक्त होना है उसकी तलाश बन जाती है। यह यथार्थ के प्रति भी एक सर्वथा भिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है जो कथ्य के आंतरिक सत्य का उद्घाटन करता है। यह सिनेमा पूर्ण यथार्थवादी कहे जाने वाले यथातथ्य प्रस्तुति वाले सिनेमा की अपेक्षा कहीं अधिक वास्तविक व यथार्थ के करीब होंगे। ऐसा सिनेमा जो जीवन के प्रति हमारी समझ व दृष्टि को और अधिक विकसित व स्पष्ट करेगा। तारकोवस्की के शब्दों में ऐसा ही रचनाकार सुसंगत तर्क की सीमाओं को पार कर जीवन के पीछे छिपे अर्थों और स्पर्शातीत संबंधों के गहन, जटिल सत्य को पा सकता है।

दिनेश श्रीनेत
(Dinesh Srinet)
#vss

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