Friday, 7 May 2021

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 22.

‘होलोकॉस्ट के बाद सबसे बड़ा नरसंहार।’ 
यह सत्तर के दशक की शुरुआत थी। हिप्पियों, नक्सलों और क्रांतिकारियों का युग। सरकारों के विरोध का युग। वियतनाम-युद्ध के कारण अमरीका के लोग पहले से सड़क पर थे और अपने राष्ट्रपति को जम कर गालियाँ दे रहे थे। आखिर रिचर्ड निक्सन ऐसे पहले और आखिरी राष्ट्रपति बने जिन्हें इस्तीफ़ा देकर गद्दी छोड़नी पड़ी। यही स्थिति इंदिरा गांधी की भी होने वाली थी। क्योंकि उस वक्त दो ताकतें तेज़ी से उभर रही थी- युवा जोश और प्रेस! 

अख़बार में असीम ताकत होती है। एक लेख ने इतिहास बदल कर रख दिया, और भारत के आक्रमण को नैतिक जमीन दे दी। हुआ यूँ कि पाकिस्तान के दस पत्रकारों को ढाका की सैर पर ले जाया गया कि वह देख लें, कहीं कोई नरसंहार नहीं हो रहा। इसे छाप दें। आठ पत्रकारों ने यह बात मान ली। एक पत्रकार लंदन चले गए, और वहाँ के संडे टाइम्स ऑफिस में जाकर कहा कि मेरे पास एक खबर है।

वह पत्रकार थे गोवा के पैदाइश और कराची के वासी- एन्थॉनी मास्केरन्हस। उन्होंने लिखा है कि ढाका के हिन्दू बहुल शंख बाज़ार में आने और जाने के लिए एक ही पतली गली है। उसके दोनों मुहानों पर पाकिस्तानी सेना आकर खड़ी हो गयी, और दनादन गोलियाँ चलानी शुरू कर दी। महिलाएँ, बच्चे, बूढ़े, जवान सभी किसी फल की तरह घरों से गिर रहे थे। उनका कोई कसूर नहीं था। वे तो शंख बनाने वाले कारीगर थे। (ढाका शंख का सबसे बड़ा केंद्र था, अब कलकत्ता है)

सेना के अफ़सर एक-दूसरे से पूछते, “आज तुमने कितने मारे?”
इस अख़बार ने पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया। इंग्लैंड से अमेरिका तक लोग सड़क पर आ गए। पंडित रविशंकर और बीटल्स के जॉर्ज हैरिसन ने एक कार्यक्रम आयोजित किया। जॉर्ज हैरिसन ने वह दर्द भरा गीत गाया,

“My friend came to me
With sadness in his eyes
He told me that he wanted help
Before his country dies
Now won't you give some bread to get the starving fed?
We've got to relieve Bangladesh”

यह पहला मौका था जब अंतरराष्ट्रीय मंच पर एक अमरिकी द्वारा ‘बांग्लादेश’ नाम का उच्चारण किया गया था। 

इन सब आँसूओं का एक पहलू यह था कि भारत द्वारा गुरिल्ला सेना के प्रशिक्षण को दुनिया वाकई मुक्ति-वाहक मान ले। लाखों शरणार्थियों का बोझ ढोकर तो यूँ भी भारत महानता की गद्दी पर था। अब अगर भारत आक्रमण करता तो किसी की उंगली नहीं उठती। भारत पर यह आरोप है कि वह नरसंहार देखता रहा, लेकिन आक्रमण नहीं किया। लेकिन, भारत किस नाज़ुक स्थिति में था, यह बात भी देखनी चाहिए। 

इंदिरा गांधी ने लेफ़्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा को यह प्रभार दिया कि सेना के कैम्प लगा कर मुक्ति-वाहकों को प्रशिक्षण और हथियार दें। अगस्त से अगले तीन महीने तक यही प्रयास करने थे कि भारत स्वयं आक्रमण न करे, लेकिन गुरिल्ला पाकिस्तान सेना को कमजोर बना दें। 

भारत अब अपने दम पर अप्रत्याशित ताकत दिखा रहा था। संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार संस्था को भारत से वापस भेज दिया गया। भारत का कहना था कि वे शरणार्थी समस्या को स्थायी समस्या बना रहे हैं। जबकि संयुक्त राष्ट्र का कहना था, “भारत डरता है कि हमारे वहाँ रहने से उनके द्वारा की जा रही सीमा पार घुसपैठ पकड़ी जाएगी।”

उसी समय स्वर्ण सिंह ने यूरोप में कहा था, 
“संयुक्त राष्ट्र क्या करती है, यह तो दिख ही रहा है। सिर्फ बातें, बातें, और बातें। काम कुछ नहीं।”
अभी एक और ताकत सीधे संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन में अमरीकी प्रतिनिधि जॉर्ज बुश के सामने दिखानी थी। 
(क्रमश:)

प्रवीण झा
( Praveen Jha )

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 22.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/05/21.html
#vss

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