Sunday, 23 May 2021

येरुशलम अल - अक़्सा भाग - 2

जब मुहम्मद साहब ने मक्का में स्वयं को पैग़म्बर घोषित करने के बाद अपने नए धर्म "इस्लाम" का प्रचार प्रसार शुरू किया तो उन्हें मक्का के मूर्तिपूजकों का बहुत विरोध झेलना पड़ा.. चूंकि मुहम्मद अपने पूर्वजों से अलग जा कर एकदम नए धर्म की बात कर रहे थे जिसमें वो मूर्तिपूजा को निषेध बता रहे रहे, इसलिए इसका विरोध तो होना ही था.. मुहम्मद के इस्लाम का झुकाव यहूदी और ईसाईयत की तरफ़ ज़्यादा था इसलिए ये मक्का के मूर्तिपूजकों के लिए ज़्यादा ख़तरनाक बात थी क्यूंकि अगर ये एकेश्वरवाद मक्का के लोग स्वीकार कर लेते तो मक्का वालों के मंदिर "काबा" और उस से जुड़े धार्मिक व्यापार पर गाज गिर सकती थी.. इसीलिए मुहम्मद और मक्का वालों के बीच की ये लड़ाई आस्था की कम, आर्थिक अधिक थी

ये बात आप ऐसे ही अच्छी तरह समझ सकते हैं कि अगर मुहम्मद साहब शुरू से काबा को किबला मान कर उसके आगे झुक कर प्रार्थना कर रहे होते तो लड़ाई की कोई बड़ी वजह नहीं बचती और मामला उसी दौर में सुलह तक पहुंच गया होता.. मगर चूंकि मुहम्मद इस बात को लेकर अड़े हुवे थे कि मूर्तिपूजा जहां होती है उसका वो विरोध करते रहेंगे, इसलिए मक्का वालों का वो लगातार विरोध झेलते रहे.. और वो अपने अनुयायियों के साथ जेरुसलम की तरफ़ मुहं करके प्रार्थना करते रहे

मक्का में अपने प्रवास के आख़िरी दिनों में मक्का वासियों के विरोध से परेशान होकर, मुहम्मद सिर्फ़ एक बार काबा के सामने झुके थे.. और ये घटना इस्लाम के इतिहास की सबसे विवादित घटनाओं में से एक के रूप में दर्ज है.. अंत मे उन्होंने इस घटना की सफ़ाई ये कहकर दी कि "शैतान" उन पर हावी हो गया था.. इस घटना के बारे में क़ुरआन में भी आया है और इसी घटना से प्रेरित होकर मशहूर लेखक सलमान रुश्दी ने "द सैटेनिक वर्सेज" यानि "शैतानी आयतें" नाम से किताब लिखी थी.. इस घटना की डिटेल में मैं नहीं जाना चाहता क्योंकि टॉपिक बदल जायेगा.. मगर इस घटना का उल्लेख यहां मैं सिर्फ़ इसलिए कर रहा हूँ ताकि लोग समझ सकें कि उस दौरान मुहम्मद का काबा के सामने झुकना और मक्का  के देवताओं और देवियों को अपना स्वीकार करना उस समय के इस्लाम की विचारधारा के बिल्कुल विपरीत था और मान्य नहीं था

फिर जब विरोध और बढ़ा तब मुहम्मद अपने कुछ अनुयायियों के साथ मक्का से मदीना चले गए.. जहां इनको मानने वाले पहले से मौजूद थे मगर उनकी संख्या बहुत अधिक नहीं थी

मुहम्मद जब मक्का से मदीना आये तब उन्हें यहां का परिवेश मक्का से भिन्न मिला.. मदीना में यहूदियों की अच्छी खासी आबादी थी.. और मदीना के बड़े बाग़ और बड़े खेतों के मालिक यहूदी थे.. यहूदी मुहम्मद के अनुयायियों से कहीं ज़्यादा अमीर और पैसे वाले थे.. ये लोग महलों में रहते थे और ऐश की ज़िंदगी जीते थे.. जबकि मुहम्मद और उनके साथी बड़ी तंगहाली और ग़रीबी में जीते थे

मुहम्मद के ज़्यादातर अनुयायी ग़ुलाम और निचले तबके के थे इसलिए यहूदियों के लिए उनका कोई विशेष महत्व नहीं था.. यहूदी इस बात को भी नज़रंदाज़ करते रहे कि ये ग़ुलाम किसे अपना पैग़म्बर मानते हैं और किसकी पूजा करते हैं.. मगर जब धीरे धीरे मुहम्मद के अनुयायियों की संख्या बढ़ने लगी, यहूदियों ने इस बात का संज्ञान लेना शुरू किया.. मुहम्मद की बढ़ती ताक़त धीरे धीरे यहूदियों के लिए परेशानी का सबब बनती जा रही थी

शुरुवात में मुहम्मद ने यहूदियों से गठजोड़ में अपनी जान लगा दी.. वो हर तरह से यहूदियों को इस बात के लिए राज़ी करना चाहते थे कि मेरा लाया हुवा इस्लाम तुम्हारे ही धर्म की एक शाखा है और जैसे तुमने ईसाईयों को अपना स्वीकारा है वैसे ही हमें भी स्वीकारो.. मुहम्मद ने यहूदियों के रोज़े (आशूरा का रोज़ा) रखने शुरू किए, उनकी तरह दाढ़ी और उनकी तरह की ही इबादत की रस्में शुरू की..  मगर यहूदी, जो कि पद और प्रतिष्ठा में मुहम्मद और उनके अनुयायियों से कहीं आगे थे, मुहम्मद को अपना मानने के लिए राज़ी नहीं हो रहे थे.. यहूदी लगातार मुहम्मद और उनके अनुयायियों की हंसी उड़ाते.. उनको बात बात पर बेइज़्ज़त करते थे

मगर सब से ज़्यादा वो जिस बात की हंसी उड़ाते थे वो ये थी कि, मुहम्मद, जो स्वयं को इस्लाम का पैग़म्बर कहते हैं, उनके पास अपना कोई किबला तक नहीं है और वो हमारे प्राचीन मंदिर "बैत हा-मिक़दश" को "बैत उल मक़्क़द्दस" बोलकर उसे अपना बता कर उसके आगे झुकते हैं
(क्रमशः)

© सिद्धार्थ ताबिश
#vss

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