ग़ालिब - 118.
करते हो मुझ को मानअए क़दम बोस किस लिए,
क्या आसमान के भी बराबर नहीं हूं मैं !!
Karte ho mujh ko maan'a'e qadam bos kis liye,
Kyaa aasmaan ke bhi baraabar nahin hun main !!
- Ghalib
हे ईश्वर, तुम मुझे अपने चरणों के चुम्बन से क्यों रोकते हो। क्या मुझे आकाश के बराबर भी नहीं समझते, जिसे कि तुमने चरण चुम्बन की छूट दे रखी है।
ग़ालिब का यह शेर, उनकी एक ग़ज़ल का अंश है। यह ग़ालिब की आध्यात्मिक रुझान को प्रदर्शित करते हुए लिखा गया है। इस शेर में भी ग़ालिब का स्वाभिमान साफ साफ दिख रहा है। वे खुद को भी आसमान से कमतर नहीं देखना चाहते हैं। धरती की धूल और ईश्वर के समक्ष नगण्य भाव के प्रदर्शन की बजाय वे यही कहते हैं कि तुम आसमान को तो अपने कदम चूमने की इजाज़त देते हो, पर मुझे नहीं। फिर आगे कहते हैं, क्या मैं आसमान से भी कमतर हूँ। अनेक अभावों, कठिनाइयों और मुसीबत भरी जिंदगी के बावजूद, ग़ालिब ने अपने आत्मसम्मान को सदैव बनाये रखने की कोशिश की है। ईश्वर के समक्ष भी वे दीन हीन और तुच्छ भाव से रूबरू नहीं होना चाहते हैं !
( विजय शंकर सिंह )
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