Saturday, 13 March 2021

श्रीमंत अतुल्य और अपराजेय पेशवा बाजीराव प्रथम - दूसरा अध्याय

बालाजीविश्वनाथ का श्रीवर्धन से दौलताबाद तक का सफर और औरंगज़ेब की मृत्यु....

यहां सिर्फ कटहल की खेती होती थी और हापुस आम के बाग़ थे...दूसरा कोई व्यापार नहीं था...और यहां राज करते थे, अफ्रीकी मूल के हब्शी सुल्तान जो पंद्रहवीं सदी के आख़िर में अरब सागर पार कर के यहां आए और अपना राज्य बनाया। आज के महाराष्ट्र के समुंद्री तट पर बसा था ये मुरुद जंजीरा राज्य और इसी राज्य का एक शहर कोंकड़, जहां एक छोटा सा गांव होता था "श्रीवर्धन"। 

तो श्रीवर्धन के स्थायी निवासियों को करना पड़ती थी मजूरी, क्योंकि और कोई काम था ही नहीं। या तो मजूरी करो या सुल्तान की सेना में भर्ती हो कर कभी बीजापुर से लड़ो तो कभी मुग़लों से और कभी मराठों से...और ये हब्शी सुल्तान भी बहुत चालाक थे। जब जिसका पलड़ा भारी होता था, उसकी तरफ हो जाते थे। पढ़े लिखे लोगों के लिए ना कोई ढंग का काम था, ना तरक्की का रास्ता, लेकिन....इसी श्रीवर्धन में सांस ले रहा था अठारवीं सदी के मराठा साम्राज्य का विस्तार....और नाम था....बालाजी विश्वनाथ भट...। जी हां वही बालाजी विश्वनाथ भट, जो आगे जाकर छत्रपती शिवाजी महाराज के बाद मराठा साम्राज्य के दूसरे संस्थापक कहलाएंगे।

ये दौर छत्रपती संभाजी महाराज का था और इसी दौर में बालाजीविश्वनाथ काम और तरक्की की तलाश में श्रीवर्धन छोड़ कर बाहर निकले। शुरू में कुछ साल वे रत्नागिरी के चिपलून में भी रहे, और रामचंद्र पंत के यहां मुनीम की नोकरी की और सारा हिसाब-किताब देखते थे। कभी-कभी कर वसूली के लिए भी जाना पड़ता था, क्योंकि वे "हर तरह" के हिसाब-किताब में माहिर थे। यानी क़लम के साथ तलवार भी उतनी ही धारदार थी। यहीं एक दिन उनकी मुलाक़ात जंजीरा के मराठा सरदार धनाजी जाधव से होती है। धनाजी की पारखी नज़र बालाजी की क्षमता पहचान लेती है और धनाजी उन्हें वो मौक़ा देते हैं, जिसकी तलाश में बालाजी ने श्रीवर्धन छोड़ा था। 

पूर्व में छत्रपती शिवाजी के पराक्रम के फल स्वरूप इस वक़्त जंजीरा राज्य में मराठों का सिक्का चल रहा था और वहां के हब्शी सुल्तान आदत अनुसार मराठों के साथ हो लिए थे, लेकिन छत्रपती संभाजी की मृत्यु के बाद अब छत्रपती हो गए थे राजाराम महाराज (शिवाजी के दूसरे पुत्र)। धनाजी इस वक़्त तक मराठा साम्राज्य के सरसेनापति नहीं हुए थे, बल्कि सरदार थे। सो उन्होंने बालाजीविश्वनाथ को जंजीरा में ही राजस्व अधिकारी के ओहदे पर नियुक्त किया। कुछ साल तक इसी ओहदे पर बालाजी ने काम भी किया और नाम भी। बाद में जब 1699 में धनाजी मराठा साम्राज्य के सरसेनापति हुए तो उन्होंने बालाजी को पुणे का उपसुबेदार बना दिया। पुणे इस वक़्त तक शहर नहीं बल्कि क़स्बा हुआ करता था। इसी क़स्बे में एक गांव होता था सासवड़....और इसे ही बालाजीविश्वनाथ ने अपना घर बनाया। उनका विवाह चितपावन ब्राह्मणों में से ही एक "बर्वे" परिवार की राधाबाई बर्वे से हुआ था, जो हर सफर में उनके साथ-साथ थीं। 

बालाजी के काम करने का तरीका ऐसा था कि हर कोई उनसे प्रभावित हो जाता था। कूटनीति और पराक्रम दोनों का ही सही-सही मिश्रण और लाजवाब कर देने वाली वाक शैली...जो उनकी शख़्सियत में चार चांद लगाती थी। यही सब कारण थे जिन्होंने बालाजीविश्वनाथ को धनाजी जाधव का सबसे भरोसेमंद अधिकारी और सलाहकार बना दिया था। और यही वजह थी कि जुलाई 1700 ई. की उस बरसती रात में नासिक के पास डुबेरे गांव में धनाजी जाधव ने बालाजी को वो भरोसे का काम सौंपा था जो उनके अलावा शायद ही कोई कर सकता था(पहला अध्याय देखें)। 

तो बालाजीविश्वनाथ अहमदनगर की उस ख़तरनाक मुहीम से अपने मक़सद में कामियाब हो कर लौटे थे, जिसमें उनकी जान भी जा सकती थी। उन्ही ने मुग़ल ख़ेमे से शाहूजी के जीवित और असल होने की ख़बर निकाली और इसी काम का एक बड़ा तोहफा उन्हें धनाजी जाधव ने ये दिया कि उन्हें सिंहगढ़ में मराठा दरबार तक ले गए तो दूसरी तरफ ईश्वर से उन्हें पुत्र के रूप में बाजीराव जैसा तोहफा मिला। अपनी हाज़िर जवाबी और दिमाग़ के बल पर अब (1702) तक वे तारारानी की भी नज़रों में आ गए थे और दरबार में मौजूद दूसरे सरदारों और प्रधानों की आंखों में भी, लेकिन कंकर की तरह। तारारानी भी बहुत पारखी और पराक्रमी महिला थीं, सो उन्होंने बालाजी की क्षमता का खूब अंदाज़ा लगा लिया था। यही वजह थी कि उन्होंने बालाजी को वो किला जीतने की मुहिम सौंपी जो सह्याद्रि की पहाड़ियों में किसी पहेली की तरह बनाया गया था। ये किला था भैरवगढ़, जो उस वक़्त मुग़लों के क़ब्ज़े में था। बालाजी ने जब इस क़िले को जीत लिया, तो इस पराक्रम के इनाम के तौर पर तारारानी की तरफ से 1704 में उन्हें "और मुश्किल" काम सौंपा गया। हालांकि मराठा दरबार में उनका ओहदा भी बढ़ा और रुतबा भी। अब उन्हें ठेठ मुग़लों की नाक के नीचे औरंगाबाद के पास दौलताबाद का सरसूबेदार बना कर भेज दिया गया। 

उस वक़्त मराठा साम्राज्य में दौलताबाद सूबे से कर वसूल करना सबसे मुश्किल और खतरनाक काम था, क्योंकि इस इलाके में मुग़लों का ख़ासा प्रभाव था और वे यहां से भी कर वसूली करते थे, जब कि पुरंदर की संधि में ये इलाक़ा मराठाओं के हिस्से में आया था। दरअसल ये वो दौर था, जब इस इलाके में मराठा बेहद कमज़ोर हो गए थे, क्योंकि पिछले 18 सालों से शहंशाह औरंगज़ेब आलमगीर खुद दक्खन में बैठा हुआ था, वो भी कुछ मील की दूरी पर अहमदनगर में। मराठों और मुग़लों में आए दिन छोटी-बड़ी झड़पें होना आम बात थी। ऐसे में बालाजी ने दौलताबाद में भी वो काम कर के दिखाया, जिसके वे माहिर थे। उन्होंने न सिर्फ मराठों के लिए कर वसूला बल्कि उस इलाके में पूरी एक व्यवस्था खड़ी की।

अपनी बुद्धि, बहादुरी और कूटनीति के साथ वे धीरे-धीरे आगे बढ़ते चले गए, इतना आगे की मुग़ल शाहज़ादा आज़म शाह भी उनके प्रभाव में आ गया था, जो उन दिनों इसी इलाके में था। बालाजी ने आज़म की आंखों में वो ख़्वाब पढ़ लिया था, जो उसे औरंगज़ेब की मौत के बाद दिल्ली के तख़्त तक ले कर जा रहा था। इसी दौर में एक और अजीब लेकिन चालाक और बहादुर शख़्स भी दक्खन में मुग़लों की सूबेदारी कर रहा था..."कमरुद्दीन खान" जो आगे चल कर गोलकुंडा की क़ुतुबशाही को ख़त्म करेगा और मुग़लों के लिए एक नया सूबा हैदराबाद बनाएगा और फिर और आगे जा कर 1724 में मुग़लों से आज़ाद हो कर खुद आसफ जाह नवाबी क़ायम करेगा और पहला निज़ामुल मुल्क बन जाएगा।

एक तरफ शाहज़ादा आज़म की ख़्वाहिश बालाजी ने उसकी आंखों में और बातों में पढ़ी थी, तो दूसरी तरफ वे कमरुद्दीन की आंखें भी पढ़ चुके थे, कि वे दक्खन की सुल्तानी का ख़्वाब देख रही हैं, क्योंकि ये व्यक्ति बालाजी के लिए नया नहीं था। वो इसलिए कि कमरुद्दीन खान से उनका पाला पिछले चार-पांच सालों में कई बार पड़ चुका था। कमरुद्दीन उस वक़्त औरंगज़ेब का सबसे भरोसेमंद सरदार था और मराठों से निपटने का ज़िम्मा उसी के पास था। वो कभी बेहद नरमी से बात-चीत में अपना काम निकालता तो कभी बल और छल का भी प्रयोग करता था। बालाजीविश्वनाथ से उसकी कई मुलाकातें और झड़पें पहले ही हो चुकी थीं। कमरुद्दीन ने औरंगज़ेब की ज़िंदगी मे ही हैदराबाद जैसे बड़े सूबे की सूबेदारी हासिल कर ली थी और तारारानी से भी उसने अच्छे संबंध बना लिए थे। उसकी पैठ मराठा दरबार तक थी और उसके मुख़बिर भी। वो अगर झिझकता था तो सिर्फ बालाजी से। साथ ही वो ये भी नहीं चाहता था कि कभी शाहूजी मुग़ल क़ैद से आज़ाद हों और मराठा गद्दी संभालें, क्योंकि शाहू जी उससे और उसकी चालाकी से अच्छी तरह वाक़िफ़ थे। 

बालाजीविश्वनाथ भट, अब मराठा साम्राज्य का एक जाना-माना नाम थे, जिनके कई दोस्त भी बन गए थे और कई दुश्मन भी...खुद मराठा दरबार में ऐसे कई लोग मौजूद थे, जो बालाजी की इतने कम वक़्त में इतनी तरक्की देख कर उनसे जलने लगे थे। वक़्त बीतता गया और बालाजी तरक्की करते गए। साथ ही मराठा साम्राज्य भी अब फिर से अंगड़ाई लेने लगा था.....लेकिन अभी आगे बहुत कुछ बदलने वाला था....। तारीख़ थी 3 मार्च 1707 और जगह थी अहमदनगर, जहां इतिहास के अब तक के सबसे कामियाब मुग़ल बादशाह औरंगजेब आलमगीर की सांसें क़ुदरत ने रोक दीं। ये ख़बर आग की तरह पूरे हिन्दुतान में फैल गई कि औरंगज़ेब नहीं रहे....और यहां से शुरू हुई मराठा इतिहास के स्वर्ण युग और विस्तार की कहानी।

( नूह आलम )
पहला अध्याय 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/03/blog-post_30.html


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