महारानी मां साहेब यसुबाई सम्भाजी भोंसले की सतारा में वापसी, पेशवा श्रीमन्त बालाजीविश्वनाथ भट की कोल्हापुर पर विजय और सासवड़ में उनकी मृत्यु....
8 जुलाई 1719...ये वो दिन था, जब पूरे स्वराज में खुशी के दीप भी जले थे और भावनाओं का सैलाब भी आया था। मराठे ना तो अपनी खुशी रोक पा रहे थे और ना ही आंसू। मां साहेब महारानी यसुबाई, जो 30 साल की मुग़लिया क़ैद से आज़ाद हो कर सतारा पहुंची थीं, वे भी अपने आंसुओं का सैलाब नहीं रोक पाईं और ना ही छत्रपती शाहूजी महाराज। इतिहास ने मां बेटे का ऐसा मिलन शायद ही इससे पहले कभी देखा हो। लेकिन ये लम्हा सिर्फ इतना नहीं था, बल्कि और झकझोर देने वाला था। एक तरफ मां साहेब सकुशल लौटी थीं, तो दूसरी तरफ 1500 मराठा सैनिक इस मुहीम में वीरगति को प्राप्त हुए थे। जीत का सेहरा ज़रूर पेशवा बालाजीविश्वनाथ के सर बंधा था, लेकिन उन मराठा सैनिकों को कैसे भुलाया जा सकता है, जिन्होंने अपनी जान न्यौछावर कर दी थी, या उन्हें भी जिन्होंने मां साहेब को छुड़ाने में अपनी जान की बाज़ी लगाई थी। इस मुहीम में पेशवा बालाजी विश्वनाथ के साथ सेनापती खांडेराव दाभाड़े, पिलाजी जाधव, खांडोबा बल्लाल, उदाजी, केरोजी, तुकोजी पवार, रामोजी, संताजी भोंसले, शेख मीरा और नारो शंकर जैसे वीर मराठा सरदार शामिल थे। साथ ही पेशवा के पुत्र युवा बाजीराव बल्लाल भट का नाम इसलिए उस वक़्त सुर्खियों में था, कि उन्होंने युद्ध में ज़बरदस्त पराक्रम दिखाया था। ये मराठों की मुग़लों पर पहली ऐसी और बड़ी जीत थी, जो सिर्फ तलवार से हासिल नहीं हुई, बल्कि राजनीति और कूटनीति का एक बेहतरीन उदहारण साबित हुई।
शाहूजी महाराज ने शहीद हुए सैनिकों के परिवारों को न सिर्फ एक आयोजन कर सम्मान से नवाज़ा, बल्कि उचित पदवियां और स्वराज में नोकरियां भी दीं। पेशवा बालाजीविश्वनाथ के लिए भी ये किसी सपने के साकार होने जैसा था, क्योंकि बीस साल पहले जिस दिन वे औरंगज़ेब के ख़ेमे में शाहूजी और मां साहेब से मिले थे, उस दिन से बेचैन थे और अपने दिल पर एक ही बोझ लिए घूम रहे थे....स्वराज के वारिसों की रिहाई....। पहले 1707 में शाहूजी महाराज और फिर मां साहेब यसुबाई की रिहाई में इस महान पेशवा का जो योगदान था, उसने उस वक़्त इतना ऊंचा मील का पत्थर गाड़ दिया, जो मराठों को हर वक़्त, पूरी दुनिया से दिखाई देता रहेगा। उनके इसी कारनामे ने उन्हें मराठा इतिहास में अमर कर दिया और उनका नाम स्वर्ण अक्षरों में हमेशा के लिए दर्ज हो गया।
दिल्ली की इस कामियाब मुहीम के बाद पेशवा बालाजीविश्वाथ का परिवार शायद उस वक़्त ये सोच रहा होगा, कि अब कुछ दिन पेशवा अपने परिवार के साथ सासवड़ में गुज़ारेंगे....लेकिन....बालाजीविश्वनाथ की जान को सुकून कहां था.....जब वे दिल्ली मुहीम पर थे, तभी से कोल्हापुर के महाराज सम्भाजी द्वितीय ने मीर कमरूद्दीन(निज़ाम) की शह पर शाहूजी महाराज के ख़िलाफ उनके इलाक़ों में हस्तक्षेप शुरू कर दिया था। उस वक़्त सतारा में शाहूजी के साथ अम्बाजी पंत और श्रीपतराव प्रतिनिधि ही थे। हालांकि ये भी काफी थे, लेकिन सम्भाजी को निज़ाम का संरक्षण था और शाहूजी महाराज भी राजनीति बहुत अच्छी तरह जानते थे। वे खामोश रहे और इंतज़ार किया अपने जांबाजों का। अब दिल्ली से लौटते ही पेशवा निकल गए कोल्हापुर की मुहिम पर....साथ लिया अम्बाजीपन्त पुरंदरे और पंत प्रतिनिधि श्रीपतराव को....और कोल्हापुर पर हमला बोल दिया। सम्भाजी के पास इस हमले का कोई जवाब नहीं था। ना तो निज़ाम ही उनके काम आया और ना चंद्रसेन जाधव। स्वराज के रणधुरंदरों के आगे कोल्हापुर ने हथियार डाल दिये।
यहां ग़ौर करने वाली बात ये है कि कोल्हापुर पूरी तरह जीतने के बाद भी पेशवा बालाजीविश्वनाथ ने सम्भाजी को ख़त्म नहीं किया, बल्कि उनसे वादा लेकर छोड़ दिया की दुबारा ऐसी हरकत नहीं करेंगे। ज़ाहिर है कि पेशवा के मन में छत्रपती शिवाजी महाराज के लिए जो आदर और सम्मान था, उसी की वजह से वे उनके रक्क्त का रक्क्त बहाना नहीं चाहते थे। वे वापस सतारा लौटे और शाहूजी से मिल कर सम्भाजी के साथ संधि का मसौदा तैयार किया, लेकिन नियति को शायद कुछ और मंज़ूर था। छत्रपती शाहूजी महाराज और सम्भाजी द्वितीय के बीच संधि के जो दस्तावेज़ 1720 में तैयार हुए थे, उन्हें अभी और थोड़ा इंतज़ार करना था।
ये महीना था अप्रैल और साल था 1720...जब स्वराज ने छत्रपती शिवाजी महाराज के बाद फिर से पैर जमाए ही थे, कि एक और तूफान का सामना उसे करना था। स्वराज के दूसरे संस्थापक श्रीमन्त पेशवा बालाजीविश्वनाथ भट के अचानक बीमार पड़ जाने की ख़बर से सतारा हिल गया। हालांकि ये सब अचानक नहीं हुआ था, लेकिन सतारा के लिए ये इसलिए अचानक था कि इसकी ख़बर किसी को भी नहीं थी। हुआ ये था कि जब दिल्ली में मुग़लों से युद्ध हो रहा था, तो पेशवा बालाजीविश्वनाथ तीर लगने से घायल हुए थे। उस वक़्त उपचार तो हो गया था, लेकिन अंदर ही अंदर ये ज़ख्म नासूर बन गया। पेशवा बहुत तकलीफ में थे, लेकिन उन्होंने किसी को इसका एहसास तक नहीं होने दिया....और फिर जब वहां से लौट कर उन्हें आराम और उपचार की ज़रूरत थी, तो सम्भाजी सामने खड़े थे। सो पेशवा ने अपने आराम और उपचार से ज़्यादा महत्व स्वराज को दिया। उन्होंने दिल्ली से लौटे बाकी सरदारों को तो आराम करने भेज दिया, मगर खुद कोल्हापुर पहुंच गए। इससे उनका ज़ख्म और गहरा हो गया और फिर सतारा में छत्रपती से मिल कर सासवड़ लौटने के बाद वे बीमार पड़ गए।
उस दिन आसमान में एक अजीब सी खामोशी थी...सासवड़ में पेशवा के वाड़े में उस दिन पेशवा का पूरा परिवार और बाहर पूरा गांव मौजूद था। शिवालय में पेशवा के लिए पूजा हो रही थी। तीन दिन से पेशवा ने ना तो कुछ खाया था और ना ही कुछ बोले थे। सभी ईश्वर से उनके ठीक होने की कामना कर रहे थे, लेकिन उनकी तबियत में कोई सुधार नहीं था। पत्नी राधाबाई उनके पैरों के पास बैठी थीं। बाजीराव और चिमनाजी सरहाने....बेटियां बीहुबाई और अनुबाई पलंग पर पेशवा के हाथों के पास। सामने खड़े थे अम्बाजीपन्त पुरंदरे। सभी के मन में सिर्फ एक ही बात थी, कि पेशवा कुछ बोलें....और फिर पेशवा बोले... उन्होंने बाजीराव से कहा कि स्वराज की सेवा आख़री सांस तक करते रहना...चिमनाजी से बोले, अपने भाई का साथ कभी मत छोड़ना...फिर राधा बाई की तरफ देखा और कहा....सरकार....अब चलते हैं....12 अप्रैल 1720 की दोपहरी का वो पल, स्वराज के इस महान सैनिक और पेशवा की ज़िंदगी का आख़री पल था। कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि ये स्वराज के पुनर्निर्माण के एक युग का अंत था.......।
नूह आलम
( Nooh Alam )
छठा अध्याय -
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