भूमिका
भारतीय कृषि में पूँजीवादी विकास का प्रश्न लम्बे समय से मार्क्सवादी अकादमीशियनों और क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट शिविर में एक विवादित विषय बना हुआ है। आज़ादी के छह दशकों बाद भी कर्इ मार्क्सवादी अकादमीशियन (अमित भादुरी, टी. नागीरेडडी, के. बालगोपाल, डी. वेंकटेश्वर राव, प्रधान एच. प्रसाद इत्यादि) और अधिकांश मार्क्सवादी-लेनिनवादी क्रान्तिकारी पार्टियाँ/संगठन/ग्रुप भारतीय सामाजिक संरचना को मुख्य रूप से एक अर्द्धसामन्ती-अर्द्धऔपनिवेशिक सामाजिक संरचना मानते हैं। उनके अनुसार जो कारण हमें भारतीय सामाजिक संरचना को अर्द्धसामन्ती मानने की ओर ले जाते हैं, उनमें राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में कृषि की प्रधानता, काश्तकारी का प्रचलन, उत्पादक शकितयों का पिछड़ापन, सूदखोर पूँजी की प्रधानता मुख्य हैं और यहाँ तक कि कुछ तो सामाजिक जीवन में धार्मिक र्और जातिगत चेतना की प्रधानता को भी अर्द्धसामन्ती थीसिस के पक्ष में एक साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं। यद्यपि, ऐसे विश्लेषण अक्सर मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र की विशेष श्रेणियों की शुद्धता की उपेक्षा करते हैं या उन्हें मनमाने तरीके से इस्तेमाल करते हैं। रूस में पूँजीवाद के विकास के अपने शानदार अध्ययन में लेनिन ने दिखाया है कि किस प्रकार उन्हीं आँकड़ों का प्रयोग रूस में कृषि में पूँजीवाद के विकास को सत्यापित करने के लिए किया जा सकता है जिनका प्रयोग नरोदनिक यह साबित करने के लिए कर रहे थे कि रूसी कृषि में पूँजीवाद नहीं था, और यह भी कि रूसी गाँवों की किसानी अर्थव्यवस्था में काम करने वाले तथाकथित समानतामूलक नियमों व रूसी किसान आबादी के तथाकथित समरूप/अविभेदीक्रत चरित्र के कारण रूस के विशिष्ट मामले में पूँजीवादी विकास की मंजिल को लाँघ सकना सम्भव है! लेनिन ने यह भी बताया कि कृषि में पूँजीवाद के विकास की जटिलताएँ कर्इ प्रकार के विभ्रमों को जन्म दे सकती है। हमारी समझ में, भारत में अर्द्धसामन्ती सैद्धान्तिकीकरण मुख्य रूप से इन्हीं विभ्रमों का परिणाम है। यहाँ हम मार्क्सवादी सैद्धान्तिकीकरण ढाँचे के उन मूलभूत तत्वों की चर्चा करेंगे जिनसे यह तय किया जाता है कि कोर्इ विशेष सामाजिक संरचना अर्द्धसामन्ती है या पूँजीवादी। उसके बाद हम ग्रामीण भारत में उत्पादन के सम्बन्धों और अधिशेष विनियोजन की पद्धतियों से जुड़े आर्थिक प्रमाणों पर एक संक्षिप्त विवरण देंगे, जिसमें आदिम पूँजी संचय और भूमि सुधार, एक घरेलू बाज़ार और खेतिहर उजरती मज़दूरों के वर्ग का निर्माण, काश्तकारी का प्रश्न, सूदखोर पूँजी की भूमिका और ग्रामीण ऋण की संरचना, भूमि लगान का चरित्र, भूमि सम्पत्ति का उद्भव और चरित्र, दास/बंधुआ/अस्वतन्त्र श्रम का प्रश्न और बाजार/उपभोग के लिए उत्पादन का प्रश्न शामिल होंगे।
मार्क्सवादी सैद्धान्तिक फ्रेमवर्क तथा मौजूदा अर्द्धसामन्ती सैद्धान्तिकरणों के नव-नरोदनिक-सिस्मोन्दीय स्रोत
आदिम संचय और इसके नतीजों का प्रश्न
पूँजी, खण्ड-3 में मार्क्स कृषि में पूँजीवादी विकास और पूँजीवादी भूमि लगान के बारे में विस्तार से चर्चा करते हैं। हमें वही से शुरू करना चाहिए और इसके बाद इस विषय पर काऊत्स्की और लेनिन के मतों पर आना चाहिए। मार्क्स तर्क करते हैं कि सम्पत्ति सम्बन्धों और अधिशेष विनियोजन की पद्धतियाँ उत्पादन पद्धति को निर्धारित करती है। सामन्ती उत्पादन सम्बन्धों का सार सामन्ती लगान में अभिव्यक्त होता है। सामन्ती लगान श्रम, वस्तु तथा मुद्रा तीनों रूपों में विधमान हो सकता है। मुद्रा लगान सामन्ती उत्पादन पद्धति के ढलान के दौर में अस्तित्व में आया क्योंकि मुद्रा परिचलन के एक विचारणीय स्तर तक विकसित होने और बाज़ार तन्त्र के साथ ही यह अस्तित्व में आ सकता था। मुद्रा लगान ने किसानों को काफी स्वायत्तता प्रदान की क्योंकि अब वे उत्पादन और बिक्री योग्य अधिशेष बढ़ाकर पूँजी संचय कर सकते थे। फिर भी, मार्क्स स्पष्ट करते हैं कि किसी भी रूप में लगान (मुद्रा लगान भी) सामन्ती लगान ही रहता है जब तक कि भूस्वामी-भूदास सम्बन्ध विधमान रहते है; जबतक कृषि श्रम अमुक्त हो; सामन्ती ज़मीन्दार मुद्रा, वस्तु या श्रम के रूप में लगान वसूल करे; किसान उत्पादन-सम्बन्द्धित निर्णयों को लेने के लिए आज़ाद न हो; भूदास/काश्तकार/किसान उत्पादन के साधनों से अलग नहीं हुए हों; सामन्ती ज़मीन्दार विधायिका, कार्यकारिणी और न्यायपालिका की शक्तियों के साथ वस्तुत: एक खण्डित राज्य की तरह कार्य करता हो; किसान का आर्थिकेत्तर उत्पीड़न मौजूद हो; और उत्पादन मुख्यत: किसान के परिवार के उपभोग के लिए किया जाता हो और अधिशेष को बदले में कुछ लिए बिना ही ज़मीन्दार के हवाले कर दिया जाता हो। मार्क्स आगे बताते हैं कि पूँजीवादी कृषि के विकास का मुख्य पैमाना कृषि सर्वहारा का निर्माण है। देहाती उजरती मज़दूरों का यह वर्ग आदिम-संचय की प्रक्रिया द्वारा निर्मित होता है, जो कि साथ ही साथ पूँजी के लिए घरेलू बाज़ार का भी निर्माण करता है। घरेलू बाज़ार का निर्माण इसीलिए होता है क्योंकि श्रम स्वयं एक माल बन जाता है, सामन्तवाद के अन्तर्गत किसानों के उपभोग के संसाधन अब विक्रय के लिए उपलब्ध होते हैं, उत्पादन के साधनों का उत्पादक से अलगाव हो चुका होता है और इसलिए उन्हें अब खरीदा और बेचा जाना होता है, और अब उत्पादन मुनाफ़े और बाज़ार के लिए किया जाता है। मार्क्स आदिम संचय की प्रक्रिया को विस्तार से समझाते हैं और यह दिखाते हैं कि किस प्रकार 13वीं और 16वीं शताब्दी के मध्य में इंग्लैण्ड में माटायर्स (अर्द्धकिसान) और सामान्य माल उत्पादकों के मध्यवर्ती संस्तर से होकर सामन्ती ज़मीन्दार, भू-दास और सामन्ती काश्तकार के वर्ग संकुल (class complex) से पूँजीवादी लगानजीवी ज़मीन्दार, पूँजीवादी किसान ज़मीन्दार, पूँजीवादी काश्तकार किसान और खेतिहर उजरती मज़दूरों के वर्ग संकुल में संक्रमण हुआ। हम यहाँ पर स्थानाभाव के कारण इस प्रक्रिया की बारीकियों में नहीं जा सकते और पाठक इसके एक विस्तृत और चित्रात्मक वर्णन के लिए पूँजी, खण्ड-3 देख सकते हैं।
पूँजीवादी भूमि लगान का प्रश्न तथा इस प्रश्न पर कि नव-उदारवादी व मौजूदा अर्द्धसामन्ती सिद्धान्तकारों में क्या साझा है?
इसके बाद, मार्क्स पूँजीवादी भूमि लगान के रूपों पर चर्चा की ओर बढ़ते हैं। मार्क्स भूमि लगान की एडम स्मिथ द्वारा दी गयी परिभाषा को स्वीकार करते हैं और यह स्पष्ट करते हैं कि भूमि लगान की रिकार्डो की संकल्पना असल में अतिरिक्त-मुनाफा है जो विभिन्न फार्मों में उत्पादन की अलग-अलग स्थितियों की मौजूदगी के कारण अस्तित्व में आता है और ठीक इसी वजह से ‘‘लगान’’ का यह रूप उद्योगों में भी हो सकता है। मार्क्स स्मिथ की संकल्पना को निरपेक्ष भूमि लगान कहते हैं और रिकार्डो की संकल्पना को विभेदक भूमि लगान कहते हैं। विभेदक भूमि लगान वास्तव में उन किसानों का अतिरिक्त मुनाफा है जिनकी उत्पादन की लागत औसत लागत से कम और जिनकी मुनाफे की दर उस सेक्टर में प्रचलित औसत मुनाफे की दर से अधिक है। उद्योगों से अलग (जहाँ उत्पादन की औसत किस्म की परिस्थितियाँ मुनाफे की औसत दर को निर्धारित करती है), कृषि में निम्नतम कोटि की जमीन उत्पादन की औसत दर को निर्धारित करती है। अतः, इस निम्नतम कोटि की भूमि से बेहतर भूमि वाले सभी फार्मों पर अतिरिक्त मुनाफा प्राप्त होगा क्योंकि सामान्य बाजार मूल्य निम्नतम कोटि की जमीन से तय होंगे। रिकार्डो यह तर्क पेश करते हैं कि लगान का एकमात्र रूप यह अतिरिक्त मुनाफा ही है, जिसे वह लगान कहते हैं। अतः रिकार्डो के अनुसार, निम्नतम कोटि की जमीन से कोई अतिरिक्त मुनाफा/विभेदक लगान नहीं उत्पादित होगा और इसलिए यह जमीन कभी भी जुताई के अन्तर्गत नहीं आयेगी क्योंकि कोई भी पूँजीवादी भूस्वामी मुफ्त में अपनी जमीन नहीं देगा। वह ऐसा केवल लगान के बदले में ही करेगा। स्मिथ, रिचर्ड जोन्स और बाद में मार्क्स यह प्रदर्शित करते हैं कि निम्नतम कोटि की जमीन भी खेती के काम लायी जाती है और वह लगान भी उत्पादित करती है। यह लगान वास्तव में निरपेक्ष भूमि लगान है और पूँजीवाद के तहत जमीन के निजी मालिकाने में विद्यमान एकाधिकार के कारण अस्तित्व में आता है। यह भूमि लगान तब भी मौजूद रहता है जब भूस्वामी द्वारा भूमि की गुणवत्ता में सुधार के लिए कोई पूँजी निवेश नहीं किया जाता, जब कोई अतिरिक्त मुनाफा नहीं होता और जब कोई उत्पादन/खेती नहीं होता (और भूमि का उपयोग लकड़ी, टिम्बर, जल प्रपात आदि प्राकृतिक सम्पदाओं के दोहन के लिए किया जाता है)। मार्क्स यह प्रदर्शित करते हैं कि रिकार्डो इस संकल्पना को समझने में असफल रहते हैं क्योंकि वे मूल्य और दाम के बीच के अन्तर और अतिरिक्त मूल्य और मुनाफे के बीच के अन्तर को नहीं समझ पाते। उन्होंने सोचा कि अगर किसी माल के बाजार मूल्य में उसकी उत्पादन लागत से अधिक कुछ भी और शामिल है स्थिर पूँजी + परिवर्तनशील पूँजी + औसत मुनाफा (इक्वलाइज्ड बेशी मूल्य), तो मूल्य का श्रम सिद्धान्त का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा। लेकिन मार्क्स ने यह दिखलाया है कि रिकार्डो की यह भयाकुलता इस गलत आधार धारणा पर आधारित है कि – दाम मूल्य है! उन्होंने यह दिखलाया कि माल की बाजार कीमत उसकी उत्पादन कीमत से उस स्तर तक जरूर ऊपर उठनी चाहिए कि वह भूस्वामी को लगान (निरपेक्ष) उपलब्ध करा सके। अतः मूल्य के श्रम सिद्धान्त का प्रकार्य बाजार तन्त्र की मध्यस्थता के जरिये क्रियान्वित होता है। इसका यह अर्थ नहीं होता कि मूल्य के श्रम सिद्धान्त ने काम करना बन्द कर दिया है। यह सिर्फ प्रदर्शित करता है कि अलग-अलग सेक्टरों में, मुनाफा अधिक, कम या (दुर्लभ स्थितियों में) अतिरिक्त मूल्य के बराबर हो सकता है, लेकिन कुल मुनाफा हमेशा कुल अतिरिक्त मूल्य के बराबर ही रहेगा। काऊत्स्की कृषि में पूँजीवाद के अपने शानदार अध्ययन में इसे स्पष्ट रूप से समझाते हैं। वह बताते हैं, ‘‘मालों का मूल्य केवल एक प्रवृति के रूप में प्रकट होता है, एक नियमबद्ध गति के रूप में जो विनिमय या बिक्री की प्रक्रिया को विनियमित करने की ओर उन्मुख हो। इस प्रक्रिया का उत्पाद वास्तविक विनिमय-अनुपात या बाजार में प्राप्त होने वाला दाम होता है। स्वाभाविक रूप से, कोई नियम और उसके परिणाम दो अलग-अलग चीजें है।’’ (‘द कैपिटलिस्ट कैरेक्टर ऑफ माडर्न एग्रीकल्चर’, द एग्रेरियन क्वेश्चन, काऊत्स्की, उत्सा पटनायक (सम्पादित) ‘द एग्रेरियन क्वेश्चन इन मार्क्स एण्ड हिस सक्सेसर्स’, खण्ड 1, पृष्ठ 188, अनुवाद हमारा)। एक अन्य जगह, ‘‘परिणामतः, ‘‘उत्पादन की लागतों’’ द्वारा निर्धारित उत्पादन की कीमतें उत्पादों के मूल्यों से भिन्न हो जाती हैं हैः हालाँकि यह केवल मूल्य के नियम का एक संशोधन है, उसका निष्प्रभावन नहीं। उत्पादन की कीमत के पीछे यह अपना विनियमनकारी प्रकार्य जारी रखता है और मालों की सम्पूर्णता व अधिशेष-मूल्य के कुल योग लिये यह अपनी सम्पूर्ण वैधता कायम रखता है, और इस प्रकार वह कीमतों और मुनाफे की दर के लिए आधार उपलब्ध कराता रहता है – जो इसकी अनुपस्थिति में हवा में तैरते रह जायेंगे।’’ (पृष्ठ 202-03, वही)। अतः यह स्पष्ट है कि निरपेक्ष लगान के कारण उत्पादन कीमतों में वृद्धि मूल्य के श्रम सिद्धान्त की सेहत और तन्दुरुस्ती को रत्ती भर हानि नहीं पहुँचाती है और रिकार्डो बिना किसी ठोस कारण के विचलित हो गये और निरपेक्ष लगान के अस्तित्व को खारिज कर दिया। रिकार्डो का विभेदक लगान केवल उसी सूरत में अस्तित्वमान हो सकता है जब मालिक और उत्पादक दो अलग-अलग व्यक्ति हों क्योंकि केवल तभी निरपेक्ष लगान के साथ अतिरिक्त मुनाफा भूस्वामी को हस्तान्तरित किया जायेगा। जैसा कि काऊत्स्की प्रदर्शित करते हैं, भूस्वामी को लगान हस्तान्तरित किये जाने के बाद निरपेक्ष और विभेदक लगान में भेद करना बेहद मुश्किल है। ‘रूस में पूँजीवादी विकास’ में लेनिन भी निरपेक्ष लगान और विभेदक लगान के सवाल को काफी महत्व देते हैं। वह पूँजीवादी लगान (निरपेक्ष और विभेदक लगान) और सामन्ती लगान के बीच अन्तर को समझाते हैं। काऊत्स्की भी इस अन्तर को काफी स्पष्ट रूप से दिखाते हैं, ‘‘पूँजीवादी भूमि लगान को सामन्ती कुलीन-तन्त्र द्वारा किसानों पर लादे गये बोझों के साथ घालमेल नहीं करना चाहिए। शुरूआती दौर में, और कमोबेश पूरे मध्यकाल में, ये वे महत्वपूर्ण प्रकार्य थे जो मालिक को पूरे करने पड़ते थे – वे प्रकार्य जो कि बाद में राज्य द्वारा अपने हाथों में ले लिये गये और जिनके लिए किसानों को कर अदा करने होते थे। सामन्ती भूस्वामियों के वर्ग को न्याय व्यवस्था की निगरानी करनी होती थी, पुलिस उपलब्ध करानी होती थी और बाह्यजगत के समक्ष अपने मातहती जागीरदारों के हितों का प्रतिनिधित्व करना पड़ता था, हथियारों की ताबेदारी के द्वारा उनकी रक्षा करनी पड़ती थी और उनकी ओर से सैनिक सेवा पूरी करनी पड़ती थी।
‘‘इनमें से कोई भी चिन्ता या सरोकार पूँजीवादी समाज के भूस्वामी के लिए प्रासंगिक नहीं है। विभेदक लगान के रूप में, भूमि लगान प्रतिस्पर्धा का उत्पाद है; निरपेक्ष लगान के रूप में यह एकाधिकार का उत्पाद है। यह तथ्य कि ये लगान भूस्वामी को प्राप्त होते हैं, उसके किन्हीं सामाजिक प्रकार्यों के कारण नहीं बल्कि केवल और केवल भूमि और जमीन में निजी सम्पत्ति का परिणाम होते हैं।’’ (पृष्ठ 216, वही)
उत्सा पटनायक ने उचित ही इंगित किया है कि अर्द्धसामन्ती थीसिस के पुरोधाओं के गलत विचार इस कारण से हैं कि वे निरपेक्ष भूमि लगान की अवधारणा को नहीं समझते हैं और आश्चर्य की बात यह है कि अपनी इस मिथ्याधारणा को वे नव-उदारवादी अर्थशास्त्रियों के साथ साझा करते हैं! नव-उदारवादी सैद्धान्तिकीकरणों में, काश्तकार किसान मुद्रा में उजरत पाने वाले मजदूर के समतुल्य समझा जाता है, बस इतने फर्क के साथ कि काश्तकार किसान की उजरत मुद्रा में नहीं बल्कि वस्तु (जिंस) के रूप में होती है। वे इस तथ्य की पूरी तरह उपेक्षा कर देते हैं कि एक काश्तकार अपने उत्पादन के साधनों का मालिक होता है, वह पूँजी निवेश करता है, श्रम प्रक्रिया को नियन्त्रित करता है और उत्पादन सम्बन्धी निर्णय लेता है। इसका कारण यह है कि नव-उदारवादी अर्थशास्त्री निरपेक्ष भूमि लगान से अपरिचित, बल्कि कहना चाहिए कि अनभिज्ञ होते हैं। पूँजीवादी लगानजीवी भूस्वामी (capitalist rentier landlord. सी.आर.एल.एल.) को पूँजीवादी किसान को कह दिया जाता है; काश्तकार को मजदूर (उजरती मजदूर) कह दिया जाता है; और लगान को मुनाफे के साथ गड्डमड्ड कर दिया जाता है; बटाईदार काश्तकार के हिस्से को मनमाने तरीके से उजरत (चाहे नकद में या वस्तु के रूप में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता!) कह दिया जाता है; और यह सारा गड़बड़झाला इसलिए होता है कि नव-उदारवादी अर्थशास्त्री केवल पूँजीवादी किसान भूस्वामी और उजरती मजदूर के सम्बन्धों को ही जानते हैं, वे केवल मुनाफे की अवधारणा को ही समझते हैं, लगान को नहीं। अब हम इसकी तुलना भारत में प्रचलित अर्द्धसामन्ती सैद्धान्तिकीकरणों की भ्रान्ति से कर सकते हैं।
अर्द्ध-सामन्ती सिद्धान्तकार इस काश्तकार को एक ऐसा ‘लगभग मजदूर’ कहते हैं जो दरिद्र है, कंगाल है, जिसका उत्पादन निर्णयों और श्रम प्रक्रिया पर कोई नियन्त्रण नहीं है; इसलिए वह ‘‘सामन्ती’’ जमींदारों और सूदखोरों के जुए तले दबा हुआ है और इसलिए ‘‘अस्वतन्त्र’’ है। जैसा कि हम देख सकते हैं, वे भी निरपेक्ष लगान की अवधारणा को नहीं समझते और पूँजीवादी काश्तकार को अस्वतन्त्र, गैर-पूँजीवादी मजदूर या लगभग मजदूर, करीब-करीब एक भूदास/बँधुआ मजदूर समझने की गलती करते हैं। वे पूँजीवाद के अन्तर्गत कृषि उत्पादन में सूदखोर पूँजी की भूमिका को भी नहीं समझते हैं। इस पर हम बाद में आयेंगे। उनके लिए यह काश्तकार एक अस्वतन्त्र, कंगाल श्रमिक है, न कि एक पूँजीवादी काश्तकार किसान जो कि उत्पादन के साधनों का स्वामी है। भूस्वामी केवल पूँजी लगाता है और साझेदार काश्तकार केवल श्रम! यह कंगाल बटाईदार केवल वस्तु के रूप में मजदूरी प्राप्त करता है और जमींदार लगान (रिकार्डो वाला!)। लेकिन अगर हम नजदीकी से देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जिसे ये सिद्धान्तकार ‘‘मजदूरी’’ कहते हैं वह असल में पूँजीवादी काश्तकार किसान का मुनाफा है; जिसे वे ‘‘लगान’’ कहते हैं वह वास्तव में भूस्वामी द्वारा दी गयी पूँजी पर ब्याज के रूप में मिलने वाला मुनाफा है। उदाहरण के लिए, अमित भादुरी की भारतीय बटाईदार काश्तकार (sharecropper) के विषय में अवधारणा यह है कि यह बटाईदार काश्तकार वह है जिसके पास बहुत थोड़े उत्पादन के साधन हों या फिर बिल्कुल न हों, कोई बचत न हो, उत्तरजीविता के कोई साधन न हों, अतः वह जमींदार से ‘‘उपभोक्ता ऋण’’ लेता हो। लेकिन वास्तविकता में यह ‘‘उपभोक्ता कर्ज’’ और कुछ नहीं बल्कि पहले से दी गयी अग्रिम मजदूरी है जो उपज में से ब्याज सहित वसूल ली जाती है। प्रत्यक्षतः जिसे भादुरी ‘‘लगान’’ कहते हैं वह असल में पूँजीवादी लगानजीवी भूस्वामी द्वारा उजरती मजदूर को दी गयी अग्रिम पूँजी पर होने वाला मुनाफा है। जिसे भादुरी ‘‘काश्तकार’’ कहते हैं वह असल में मजदूर है, जिसे वह ‘‘लगान’’ कहते हैं वह प्राप्त होने वाला मुनाफा है; जिसे वह ‘‘उपभोक्ता ऋण’’ कहते हैं वह असल में अग्रिम मजदूरी है जो बाद में उपज के हिस्से के रूप में मजदूरी (harvest share wage) में से ब्याज सहित समायोजित कर ली जाती है।
भारत की ठोस सच्चाई इस प्रकार है (जिसे हम बाद में तथ्यों द्वारा भी सत्यापित करेंगे) : निरपेक्ष भूमि लगान पूँजीवादी लगानजीवी भूस्वामी द्वारा ले लिया जाता है, चाहे वह काश्तकार को अग्रिम पूँजी को ऋण के रूप में देता हो या न देता हो। जमीन और उत्पादन में किये जाने वाले किसी भी पूँजी निवेश के बदले में वह जो ले सकता है वह और कुछ नहीं बल्कि पूँजीवादी काश्तकार किसान को दिये गये अग्रिम कर्ज पर ब्याज है। काश्तकार किसान उजरती मजदूर नहीं है। वह अधिशेष का उत्पादन अपने स्वयं के उत्पादन के साधनों, अपने परिवार व भाड़े के श्रम और पूँजीवादी लगानजीवी भूस्वामी द्वारा पट्टे पर दी गयी जमीन पर अपने खुद के निवेश द्वारा करता है और इस जमीन के बदले वह लगान अदा करता है जो कि अधिशेष का ही एक हिस्सा होता है जिसे वह उत्पादन लागत के ऊपर पैदा करता है जिसमें कि उसके जीवन-निर्वाह की लागत भी शामिल होती है।
अब, उत्पादन की परिस्थितियों के अनुसार पूँजीवादी कृषि पर पूँजीवादी लगानजीवी भूस्वामी या पूँजीवादी फार्मर भूस्वामी (Capitalist Farmer Landlord. सी.एफ.एल.एल.) का अधिक प्रभाव हो सकता है। जब तकनीकी विकास और भूमि में सुधार के द्वारा लगान इतना बढ़ जाये कि पूँजीवादी लगानजीवी भूस्वामी के पास निवेश के लिए पर्याप्त पूँजी हो तो पूँजीवादी लगानजीवी भूस्वामी खुद पूँजीवादी फार्मर भूस्वामी में परिवर्तित हो सकता है। लेकिन, यह परिवर्तन किसी भी तरह से अनुत्क्रमणीय (irreversible) नहीं है ओर अनेक प्रकार के कारणों से पूँजीवादी फार्मर भूस्वामी वापस अपने आप को पुनः पूँजीवादी लगानजीवी भूस्वामी में बदल सकता है। उत्सा पटनायक ने इस रूपान्तरण की अस्थिरता को दर्शाया है। वह तर्क देती हैं कि हरित क्रान्ति के दौरान, लगान अवरोध (rent barrier) का अतिक्रमण हो गया था और कई लगानजीवी भूस्वामी खेती की ओर मुड़ गये थे। आज परिस्थिति भिन्न है। भूमण्डलीकरण के दौर में आज हम कृषि में एक पूँजीवादी संकट से गुजर रहे हैं (जिसे अर्द्धसामन्ती सिद्धान्तकार अर्द्धसामन्ती सम्बन्धों के लिए एक साक्ष्य के रूप में लेते हैं, जबकि हकीकत में, जैसा कि मार्क्स, काऊत्स्की और लेनिन पहले ही दिखला चुके हैं, यह कृषि में पूँजीवादी विकास का प्रमाण होता है, पूँजीवादी संकट के सार्वभौमिक प्रक्रिया का कृषि क्षण होता है)। इस समय तो हम फिर से लगानजीविता की ओर वापसी और निवेश के अन्य क्षेत्रों जैसे रियल एस्टेट, सूदखोरी और सट्टेबाज वित्तीय पूँजी की ओर झुकाव के प्रत्यक्षदर्शी बन रहे हैं। इस दौर में काश्तकारी का प्रश्न महत्वपूर्ण बन जाता है, इसलिए अब हम काश्तकारी के सवाल पर आते हैं।
काश्तकारी का प्रश्न
सबसे पहले तो यह समझना जरूरी है कि कृषि अर्थव्यवस्था में काश्तकारी की प्रधानता का अपने आप में अर्द्ध-सामन्ती सम्बन्धों से कुछ भी लेना-देना नहीं है, जैसा कि अर्द्ध-सामन्ती सिद्धान्तकार दावा करते हैं। काऊत्स्की अपनी रचनाओं में 19वीं शताब्दी के अन्त के इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, संयुक्त राज्य अमेरिका और उत्तरी अटलाण्टिक संघ के उदाहरणों से प्रचुर मात्रा में साक्ष्य देते हुए दर्शाते हैं कि पूँजीवादी कृषि के विकास के साथ काश्तकारी प्रथा अधिकाधिक प्रचलित होती जाती है। वह दर्शाते हैं कि पूँजीवादी कृषि में स्वत्वधारी खेत (स्वामी किसानों के खेत) और साथ ही साथ काश्तकार किसानों के भी खेत होते हैं। काश्तकार किसान पट्टे पर लिये गये खेत पर अपने परिवार और भाड़े के मजदूरों के साथ अधिशेष का उत्पादन करते हैं। इस अधिशेष का एक हिस्सा भूस्वामी को लगान के रूप में, एक हिस्सा सूदखोर/ऋणदाता को ब्याज के रूप में जाता है और शेष वह अपने मुनाफे के रूप में रख लेता है; स्वत्वधारी किसान यदि कोई ऋण है, तो उस पर ब्याज के भुगतान के बाद अपना मुनाफा प्राप्त करता है और पूँजीवादी भूस्वामी अपना लगान प्राप्त करता है। हालाँकि काऊत्स्की इंगित करते हैं कि स्वत्वधारी किसान के स्वामित्व के अधिकार पूँजीवादी कृषि के विकास के साथ केवल एक औपचारिक न्यायिक-वैधिक तथ्य बनकर रह जाते हैं। स्वत्वधारी किसान को बाजार की प्रतिस्पर्द्धा में टिके रहने के लिए अधिकाधिक पूँजी की आवश्यकता होती है। वह इसे अपनी सम्पत्ति पर रेहन ऋण (mortgage loan) के रूप में प्राप्त करता है। इस ऋण के बदले में उसे रेहन ऋणदाता (mortgage creditor) को अपना भूमि लगान हस्तान्तरित करना पड़ता है और यह रेहन ऋणदाता एक राजकीय संस्था या फिर एक गैर-संस्थागत ऋणदाता जैसे सूदखोर हो सकता है। वास्तविकता में, यह उत्पादक का जमीन से अलगाव होना है। काऊत्स्की इसे इस प्रकार समझाते हैं, ‘‘भूस्वामी और उद्यमी के बीच विभाजन अब भी मौजूद होता है, यद्यपि विशेष न्यायिक-वैधिक रूपों के पीछे छिपे हुए रूप में। पट्टेदारी प्रथा के अन्तर्गत भूमि-स्वामी को प्राप्त होने वाला भूमि लगान रेहनदारी प्रथा के अन्तर्गत रेहन ऋणदाता के पास पहुँचता है। परिणामतः भूमि लगान के मालिक के रूप में, वह (रेहन ऋणदाता) परिणामतः जमीन का असली मालिक होता है। इसके उलट, जमीन का नाममात्र का मालिक पूँजीवादी उद्यमी है जो उद्यम पर मुनाफा और भूमि लगान प्राप्त करता है और फिर रेहन ऋणदाता को रेहन ऋण पर ब्याज के रूप में भुगतान करता है…पट्टेदारी प्रथा और रेहनदारी प्रथा में अन्तर यह होता है कि रेहनदारी प्रथा में जमीन के वास्तविक मालिक को पूँजीपति कहा जाता है और वास्तविक पूँजीवादी उद्यमी को एक भूस्वामी। इसी भ्रम की कृपा से हमारे फार्मर (यहाँ कोई भारत में अर्द्ध-सामन्ती सिद्धान्तकारों/नव-नरोदनिकों को पढ़ सकता है – लेखक), जो कि वास्तव में स्वयं पूँजीवादी कार्यकलापों को अंजाम देते हैं, ‘‘चलायमान पूँजी’’ अर्थात रेहन ऋणदाता के द्वारा किये जाने वाले शोषण पर काफी गुस्से में आ जाते हैं, जो वास्तव में वही आर्थिक भूमिका निभाता है जो पट्टेदारी प्रथा के तहत भूस्वामी निभाता है।’’ (पृष्ठ 225, वही)। वह तर्क देते हैं कि इस प्रक्रिया से सम्पत्तिधारी सर्वहारा में नहीं, बल्कि एक काश्तकार किसान में रूपान्तरित हो जाते हैं। काऊत्स्की आगे स्पष्ट करते हैं, ‘‘फिर भी, कृषि में प्रगति और समृद्धि अपने आपको अपरिहार्य रूप से रेहन ऋणग्रस्तता की बढ़ोत्तरी के रूप में अभिव्यक्त करती है, पहले तो इस वजह से कि ऐसी वृद्धि पूँजी की बढ़ती आवश्यकता को जन्म देती है और दूसरा इस वजह से कि कृषि ऋण का विस्तार भूमि-लगान को बढ़ने देता है।’’ (पृष्ठ 226, वही) ऐसा पूँजीवादी रूपान्तरण को अक्सर गलती से खेती की तबाही के रूप में देखा जाता है और कुछ लोगों को ‘‘किसानों को बचाओ’’ के आह्वान तक लेता जाता है। लेनिन इस भ्रम को साफ-साफ खण्डित करते हैं ओर काऊत्स्की को उद्धृत करते हैं, ‘‘किसानों के संरक्षण (der Bauernschutz) का अर्थ व्यक्ति किसान (the person of peasant) का संरक्षण नहीं होता (अवश्य ही कोई भी इसका विरोध नहीं करेगा), बल्कि किसानों की सम्पत्ति का संरक्षण होता है। वैसे वास्तव में यह ठीक किसान की सम्पत्ति ही है जो उसके दरिद्रीकरण और उसकी दुर्दशा का मुख्य कारण होती है। भाड़े के खेतिहर मजदूर अब अक्सर ही छोटे किसानों की तुलना में बेहतर स्थिति में होते हैं। किसानों की सुरक्षा गरीबी से सुरक्षा नहीं है बल्कि उन बेडि़यों की सुरक्षा है जो उसको गरीबी में जकड़े हुए हैं।’’ (लेनिन, रिव्यू ऑफ काउत्स्कीज डी अग्रारफ्रगे, पृष्ठ 226, वही)। और ‘‘इस प्रक्रिया को रोकने के प्रयास प्रतिक्रियावादी और नुकसानदेह होंगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वर्तमान समाज में इस प्रक्रिया के परिणाम कितने कष्टदायक होते हैं, इस प्रक्रिया को रोकने के परिणाम और भी बदतर होंगे और मेहनतकश आबादी को और भी दयनीय और निराशाजनक स्थिति में पहुँचा देंगे।’’ (पृष्ठ 267, वही)
माओ का अर्द्ध-सामन्ती अर्द्ध-औपनिवेशिक सामाजिक संरचना का सिद्धान्त और वर्तमान अर्द्ध-सामन्ती सिद्धान्तकारों द्वारा इसका त्रासद विनियोजन
स्पष्टतः, पर्याप्त मात्रा में काश्तकारी अपने आप में अर्द्ध-सामन्ती सम्बन्धों की सूचक नहीं है। माओ ने साफ-साफ परिभाषित किया है कि अर्द्ध-सामन्ती सम्बन्धों से उनका क्या तात्पर्य है। माओ दलील देते हैं कि क्रान्ति-पूर्व चीन में अधिकांश भूमि जमींदारों, कुलीन वर्ग और सम्राट के मालिकाने में थी; किसानों को दासों के रूप में काम करने के लिए बाध्य किया जाता था; प्राकृतिक आत्म-निर्भर अर्थव्यवस्था के आधारों को नष्ट किया जा रहा था लेकिन सामन्ती जमींदारों द्वारा किसान आबादी का आर्थिकेतर शोषण जस का तस बरकरार रखा गया था और यह दलाल पूँजीपति वर्ग और सूदखोर पूँजी से जुड़ गया था। (माओ, संकलित रचनाएं, खण्ड 2, 1976, पृष्ठ सं. 312-13) माओ के लिए अर्द्ध-सामन्तवाद एक पृथक उत्पादन पद्धति नहीं बल्कि साररूप में यह पूँजीवाद की ओर संक्रमणशील अवस्था या रूप में सामन्तवाद है, लेकिन एक ऐसा संक्रमण जो सामन्ती जमींदारों, दलाल बुर्जुआ और साम्राज्यवाद द्वारा अवरुद्ध कर दिया गया था, और इसी कारण यह संक्रमण नव-जनवादी क्रान्ति के बिना पूरा नहीं हो सकता था। यहाँ वह चीज जो सबसे मूलभूत महत्व की है वह है लगान का सामन्ती चरित्र, अस्वतन्त्र दास श्रम, सामन्ती वर्ग की विधायी, कार्यकारी और न्यायिक शक्तियों के रूप में विखण्डित राज्य की मौजूदगी, दलाल बुर्जुआ और साम्राज्यवाद का प्रभुत्व। स्पष्टतः अर्द्ध सामन्ती सम्बन्ध मार्क्सवादी सिद्धान्त और राजनीतिक अर्थशास्त्र की विशेष श्रेणियाँ हैं और इन्हें भारतीय वास्तविकता पर आज के अर्द्धसामन्ती सिद्धान्तकारों की सनक व कल्पनाओं के अनुसार लादा नहीं जा सकता। क्या हम कह सकते हैं कि भारत में भूस्वामी-भूदास सम्बन्ध कृषि सम्बन्धों का प्रभावी रूप है? तथाकथित बँधुआ श्रम ग्रामीण श्रम शक्ति का एक प्रतिशत भी नहीं है। अन्यत्रवासी जमींदारी भाड़े के श्रम से स्वयं कृषि उत्पादन (self-cultivation) द्वारा, जैसा कि हम बाद में देखेंगे, विस्थापित हो रही है। और अगर ऐसा विस्थापन न हो रहा होता तो भी इसे अनिवार्य रूप से सामन्तवाद के एक प्रमाण के रूप में नहीं लिया जा सकता।
सांख्यिकीय तथ्यों के आइने में वास्तविकता
काश्तकार खेती के अन्तर्गत आने वाला क्षेत्रफल भारत में 1951-52 में 12 प्रतिशत से गिरकर 1991-92 में 8.28 प्रतिशत पर आ गया है। अपंजीकृत काश्तकारी भी अपनी ढलान पर है। बटाईदारी वाली खेती काश्तकारी का प्रमुख रूप है। उत्तर और पूर्वी भारत के 334 गाँवों के अपने नमूना सर्वेक्षण में बर्धन ने दिखाया है कि बटाईदार खेती अधिकांशतः 50:50 के आधार पर की जाती है (पी. बर्धन, ‘टर्म्स एण्ड कण्डीशंस ऑफ शेयरक्रॉपिंग कॉण्ट्रैक्ट्स’, जर्नल ऑफ डेवेलपमेण्ट स्टडीज, खण्ड 16, 1977)। यह एक बहुत बड़ी भ्रामक सोच है कि बटाईदार खेती वाली काश्तकारी अर्द्ध-सामन्तवाद का एक प्रमाण है। बटाईदारी खेती वाली काश्तकारी के अन्तर्गत भूस्वामी कृषि के सुधार में रुचि दिखाता है। अन्यत्रवासी भूस्वामी से भिन्न, नया भूस्वामी अक्सर कृषि में पूँजी का निवेश बीज, खाद, मशीन आदि के लिए करता है। वह केवल जमीन का मालिक ही नहीं होता बल्कि पूँजी उधार देने वाला भी होता है। अशोक रूद्रा और पी. बर्धन ने दर्शाया है कि तथाकथित अटैचमेण्ट/सेमीअटैचमेण्ट (खेतिहर मजदूर और भूस्वामी के बीच करारनामे की एक किस्म जिसके कई संस्करण पाये जाते हैं) श्रम की सुनिश्चित और समयबद्ध आपूर्ति के लिए भूस्वामी की चिन्ता को दिखाता है, न कि आर्थिकेत्तर उत्पीड़न को। (बर्धन, रूद्रा, ‘लेबर एम्प्लॉयमेण्ट एण्ड वेजेस इन एग्रीकल्चर’, इपीडब्ल्यू, नवम्बर 1980)। भूस्वामी की आय का अधिकांश हिस्सा सूदखोरी से नहीं बल्कि लगान और मुनाफे से आता है। 1952 में गैर-संस्थागत ऋण का हिस्सा 95 प्रतिशत था जो 1981-82 तक घटकर 60 प्रतिशत हो गया। यद्यपि, पिछले दो दशकों के दौरान यह बढ़ा है, लेकिन नये सूदखोर पेशेवर सूदखोर नहीं हैं, बल्कि पेशेवर निम्न-पूँजीपति वर्ग के अन्य सदस्य हैं जैसा कि बसोले और बसु ने अपने शानदार अध्ययन (‘रीलेशन्स ऑफ प्रोडक्शन एण्ड मोड ऑफ सरप्लस एक्सट्रैक्शन इन इण्डिया’, अमित बसोले एण्ड दीपांकर बसु, अर्थशास्त्र विभाग, मैसाच्युसेट्स यूनिवर्सिटी, एमहर्स्ट, एम.ए., यू.एस.ए.) में दर्शाया है। इसके अलावा, यह ऋण प्रणाली के निजीकरण और ऋण सेवाओं से राज्य के हाथ वापस लेने के कारण अधिक है। लेकिन, यह किसानी (काश्तकार और मालिक किसान दोनों) के सूदखोर पूँजी द्वारा सामन्ती प्रभुत्व के समान नहीं है। जैसा कि हम पहले ही दिखा चुके हैं, अगर अस्वतन्त्र/दास श्रम नहीं है तो ग्रामीण ऋणग्रस्तता अपने आप में अर्द्ध-सामन्ती सम्बन्धों का प्रमाण नहीं हो सकती। इसके अतिरिक्त, यहाँ तक कि पूँजीवाद के अन्तर्गत भी श्रम पूरी तरह ‘‘स्वतन्त्र’’ नहीं होता है। जैसा कि टॉम ब्रास और उत्सा पटनायक ने तर्क पेश किया है कि सभी पूँजीवादी करारनामों में अन्तर्निहित रूप से विभिन्न प्रकार की अस्वतन्त्रताएँ मौजूद रहती हैं। श्रम की स्वतन्त्रता सामान्य नियम या प्रवृत्ति होते हैं। लेकिन जो कोई भी इसे शब्दशः लेता है वह एक भारी भ्रम का शिकार है। इसलिए ग्रामीण ऋणग्रस्तता और सूदखोर पूँजी कृषि के पूँजीवादी रूपान्तरण को और अधिक सघन बना सकते हैं, बशर्ते कि पूँजीवादी विकास की अन्य पूर्वशर्तें पूरी होती हों (उदाहरण के लिए, श्रम शक्ति और जमीन का माल में तब्दील होना, पूँजीवादी भूमि लगान का अस्तित्व में आना, एकीकृत घरेलू बाजार का निर्माण, इत्यादि)। आइये इस विषय पर मार्क्स के विचार देखते हैं। मार्क्स कहते हैं कि सूदखोरी उत्पादन के कोने-कोने में व्याप्त होती है; यह पूँजी होती है क्योंकि यह अधिशेष श्रम को विनियोजित करती है, लेकिन उत्पादन पद्धति से बिना कोई सम्बन्ध रखे हुए ही; यह उसी उत्पादन-पद्धति को और अधिक निन्दनीय बनाकर मजबूत करती है, चाहे वह सामन्ती हो या पूँजीवादी। सूदखोर पूँजी मुद्रा पूँजी है जो उत्पादन प्रक्रिया के नियन्त्रण/संगठन के द्वारा अधिशेष को विनियोजित नहीं करती है, बल्कि ब्याज के उपकरण के जरिये ऐसा करती है; यह उत्पादक का स्वामित्वहरण करती है लेकिन उन्हें एक बड़ी उत्पादक गतिविधि में संकेन्द्रित नहीं करती और उन्हें बिखरा हुआ व और भी अधिक दरिद्र, ऋणग्रस्त छोटे उत्पादक के रूप में छोड़ देती है। लेकिन, सूदखोरी पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के तहत भी जारी रहती है और यहाँ तक कि पूँजीवादी विकास का एक उपकरण बन सकती है, अगर पूँजीवादी उत्पादन पद्धति की अन्य शर्तें मौजूद हों। (कार्ल मार्क्स, पूँजी, खण्ड 3, मास्को, फॉरेन लैंग्वेजेज पब्लिशिंग हाउस, 1959, पृष्ठ 580-599)
बसु और बसोले ने यह भी दिखलाया है कि समग्रता में काश्तकारी अपनी ढलान पर है। वे इसके लिए पर्याप्त तथ्य देते हैं। पट्टे पर भूमि देने वाले परिवारों का हिस्सा 1971-72 में 25 प्रतिशत से गिरकर 2003 में 12 प्रतिशत हो गया; पट्टे पर दी गयी भूमि का क्षेत्रफल 1971-72 में 12 प्रतिशत से घटकर 2003 में 7 प्रतिशत हो गया; आंशिक रूप से या पूर्ण रूप से पट्टे पर दी गयी जमीन का हिस्सा 1960-61 में 24 प्रतिशत से गिरकर 2002-03 में 10 प्रतिशत हो गया; सम्पूर्ण प्रयुक्त क्षेत्रफल में पट्टे पर चढ़ी भूमि का हिस्सा 10.7 प्रतिशत से घटकर 2002-03 में 6.5 प्रतिशत हो गया। अतः अविवादित रूप से काश्तकारी खेतों से भाड़े को श्रम की सहायता से की जाने वाली स्व-उत्पादित कृषि की ओर परिवर्तन हुआ है। अर्द्ध-सामन्ती सिद्धान्तकार दावा कर सकते हैं कि छोटे उत्पादकों में काश्तकारी बढ़ी है। लेकिन ऐसा मामला भी नहीं है। सभी क्षेत्रफल प्रवर्गों में काश्तकार जोत का हिस्सा घटा है। वास्तव में बड़ी जोतों में काश्तकारी बढ़ी है, जो पूँजीवादी काश्तकारी के पूर्ण प्रभुत्व को दर्शाता है। 2003 में, काश्तकारी भूमियों का 70 प्रतिशत बड़ी जोतों (झ 2.5 एकड़) द्वारा संचालित किया जाता था, अर्थात सभी संचालित जोतों के केवल 3 प्रतिशत द्वारा। काश्तकारी की शर्तें साफ-साफ दिखाती हैं कि पूँजीवादी सम्बन्ध निस्सन्देह रूप से प्रभावी बन चुके हैं। तय लगान (मुद्रा रूप में और वस्तु रूप में) 2002-03 में कुल लगान का 51 प्रतिशत बनाता था, जो 1960-61 में 38 प्रतिशत था। फसल हिस्सेदारी (बटाईदारी) 2002-03 में 40 प्रतिशत थी जो 1960-61 में 40 प्रतिशत थी। पंजाब और हरियाणा, जो सर्वाधिक विकसित पूँजीवादी कृषि वाले राज्य हैं, में अधिकतम काश्तकारी पायी गयी। विपरीत काश्तकारी सभी राज्यों में अब पर्याप्त रूप से विचारणीय परिघटना बन चुकी है। बसु और बसोले ने यह भी दिखाया है कि गैर-संस्थागत ऋण की मात्रा में हालिया वृद्धि को मुख्यतः सर्वाधिक उन्नत पूँजीवादी कृषि वाले राज्यों से आया हुआ माना जा सकता है (पंजाब, तमिलनाडु, आन्ध्रप्रदेश)। ऐसा इसलिए क्योंकि गैर-संस्थागत ऋण में यह वृद्धि और कुछ नहीं बल्कि ऋण प्रणाली का पूँजीवादी निजीकरण और वित्तीयकरण है। फिर भी, अभी भी कृषि में सम्पूर्ण ऋण का आधा हिस्सा संस्थागत स्रोतों से आता है।
कृषि में बाजार का प्रवेश भी आँकड़ों के माध्यम से देखा जा सकता है। अधिकांश खाद्य फसलों में अधिशेष का 85 प्रतिशत से भी अधिक विपणित कर दिया जाता है। कुल कृषि उत्पादन में कृषकों के विभिन्न वर्गों के लिए विपणित अधिशेष इस प्रकार है : प्रभावी रूप से भूमिहीन के लिए 44 प्रतिशत; सीमान्त किसानों के लिए 54 प्रतिशत; छोटे किसानों के लिए 65 प्रतिशत; मध्यवर्ती किसानों के लिए 66 प्रतिशत; और बड़े किसानों के लिए 71 प्रतिशत। कृषि में सकल पूँजी निर्माण (Gross Capital Formation in Agriculture) 1961 और 1999 के बीच 3 प्रतिशत की दर से बढ़ा है जो अपने आप में एक विचारणीय वृद्धि है।
किसानों के विभेदीकरण को समझने के लिए, जो कि लेनिन के अनुसार कृषि के पूँजीवादी रूपान्तरण के लिए सबसे महत्वपूर्ण पैमाना है, हमें भूमिहीनता और भूमि मालिकाने की संरचना से भी सम्बन्धित आँकड़ों को देखने की जरूरत है। कृषि श्रम का 62 प्रतिशत उन घरों से आता है जो 0.025 से लेकर 1 एकड़ जमीन तक के मालिक हैं। ये ‘‘प्रभावी रूप से भूमिहीन’’ हैं; ये परिवार अपनी आय का 60 प्रतिशत से भी अधिक हिस्सा उजरत के रूप में पाते हैं, और उनके उत्पादन का 44 प्रतिशत विपणित होता है, जो कि भूमिहीन आबादी के इस वर्ग के लिए पर्याप्त रूप से बड़ा हिस्सा है। 2004-5 में 1 एकड़ से कम भूमि वाले परिवारों का हिस्सा 76.6 प्रतिशत था; 1-2 एकड़ जमीन वाले परिवारों का हिस्सा 12.2 प्रतिशत था; 2 एकड़ से अधिक जमीन वालों का हिस्सा 11.2 प्रतिशत था। प्रभावी भूमिहीनता 1960-61 में 44.2 प्रतिशत से बढ़कर 2002-3 में 60.1 प्रतिशत हो गयी; गरीब ग्रामीण परिवारों का 60 प्रतिशत खेती के अन्तर्गत जमीन के मात्र 6 प्रतिशत का स्वामित्व रखते हैं। प्रभावी रूप से भूमिहीन और सीमान्त किसानी का हिस्सा कुल ग्रामीण परिवारों के 1961 में 66 प्रतिशत से बढ़कर 2003 में 80 प्रतिशत हो गया; बहुत बड़े खेतों (झ10 एकड़) का हिस्सा 1961 में 12 प्रतिशत से घटकर 2003 में 3.6 प्रतिशत हो गया; 2.5-10 एकड़ वाले किसान भूमि का हिस्सा 1961 में 23 प्रतिशत से घटकर 2003 में 17 प्रतिशत हो गया; छोटे किसान परिवारों (2.5 एकड़ से कम) के स्वामित्व की भूमि 1961 में 8 प्रतिशत से बढ़कर 2003 में 23 प्रतिशत हो गयी; बड़े किसानों (झ10 एकड़) का हिस्सा 1961 में 60 प्रतिशत से घटकर 2003 में 35 प्रतिशत हो गया और मध्यवर्ती किसानों (2.5-10 एकड़) का हिस्सा 1961 में 33 प्रतिशत से बढ़कर 2003 में 42 प्रतिशत हो गया।
निष्कर्ष
ये आँकड़े स्पष्ट रूप से किसानों के विभेदीकरण और खेतिहर उजरती मजदूरों के एक विशाल वर्ग के निर्माण को दर्शाता है। हम बाजार के लिए उत्पादन, ऋण प्रणाली और जमीन के मालकरण (commodification) के प्रभुत्व से जुड़े हुए आँकड़े भी पहले ही उद्धृत कर चुके हैं। ये आँकड़े भारत में लागू भूमि-सुधारों की प्रकृति को भी दर्शाते हैं। हम निश्चित रूप से भूमि-सुधार के प्रशियन पथ के साक्षी बने हैं, जिसमें भूमि काश्तकारों और भूमिहीन मजदूरों को पुनर्वितरित नहीं की गयी; पहले के सामन्ती जमींदारों को अपने आपको पूँजीवादी लगानजीवी भूस्वामी या पूँजीवादी फार्मर भूस्वामी में रूपान्तरित होने दिया गया। कृषि के बाजारीकरण, संस्थागत और गैर-संस्थागत पूँजीवादी ऋण प्रणाली के विकास, किसानों के विभेदीकरण, एक एकीकृत घरेलू बाजार के निर्माण, आदि से जुड़े हुए आँकड़ों को प्रचुर मात्रा में पेश किया जा सकता है। लेकिन दुर्भाग्य से जगह की कमी हमें इस लेख में ऐसा करने की आज्ञा नहीं देती।
इससे पहले कि हम उपसंहार करें, एक और गौरतलब सवाल सामने रख दिया जाना चाहिए। हमारे विचार में, कृषि के पूँजीवादी रूपान्तरण की बात को निश्चित ही अनम्य और पुराने पड़ चुके अर्द्ध-सामन्ती सैद्धान्तिक फ्रेमवर्क से कोई चुनौती नहीं दी जा सकती है, जैसा कि उपरोक्त तथ्यों से साफ-साफ दर्शाते हैं; लेकिन अर्द्ध-सामन्ती थीसिस की अरक्षणीयता और अन्तरविरोधों के कारण अर्द्ध-सामन्ती सिद्धान्तकारों का पूरा तर्क बुर्जुआजी के चरित्र पर आकर अटक जाता है। इस विषय के लिए अलग से विस्तृत लेख की जरूरत पड़ेगी, लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है : पिछले 6 दशकों के दौरान भारतीय बुर्जुआजी का व्यवहार किसी भी तरह से दलाल बुर्जुआजी का बर्ताव नहीं रहा है; भारतीय राज्य एक विशेष प्रकार का उत्तर-औपनिवेशिक (देरिदियन अर्थों में नहीं) पूँजीवादी राज्य है जो एक ऐसी बुर्जुआजी द्वारा पहचाना जा सकता है जो कि न तो राष्ट्रीय है (क्योंकि इसका कोई भी हित भारतीय जनता के साथ साझा नहीं होता), न ही दलाल (क्योंकि, यह राजनीतिक रूप से आश्रित नहीं है और स्वेज नहर विवाद, सोवियत एशिया मैत्री संघ के मुद्दे से लेकर कोपेनहेगेन शिखर बैठक आदि तक के मामलों में इसने मेट्रोपोलिटन साम्राज्यवादी बुर्जुआजी के विरोध में जाकर अपने स्वतन्त्र राजनीतिक निर्णय लिये हैं), और न ही एक साम्राज्यवादी बुर्जुआजी (क्योंकि भारतीय बुर्जुआजी का पूँजी आयात अभी भी इसके पूँजी निर्यात से कहीं ज्यादा है जो कि निश्चित रूप से पिछले दो दशकों के दौरान लगातार वृद्धि करता रहा है) है। तो फिर भारतीय बुर्जुआजी का चरित्र क्या है? हमारे विचार में भारतीय बुर्जुआजी साम्राज्यवादियों के जूनियर पार्टनर के रूप में पहचानी जा सकती है (किसी एक अकेले साम्राज्यवादी देश की नहीं, बल्कि पूरी साम्राज्यवादी व्यवस्था की); यह राजनीतिक रूप से स्वतन्त्र है लेकिन आर्थिक रूप से आश्रित; मेट्रोपोलिटन बुर्जुआजी द्वारा कभी-कभी इसकी बाँहें मरोड़ी जाती हैं (क्योंकि यह जूनियर पार्टनर है!) लेकिन यह अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता कभी नहीं छोड़ता है और विभिन्न साम्राज्यवादी शिविरों के बीच मोलतोल के द्वारा अपने ‘‘राष्ट्रीय’’ वर्ग हितों में सन्तुलन और प्रति-सन्तुलन बनाते हुए एक ‘टाइट रोप वॉकिंग’ करता है। साम्राज्यवादी विश्व की एकध्रुवीयता केवल अस्थायी और भ्रामक परिघटना ही हो सकती है। जैसा कि लेनिन ने दर्शाया है एकाधिकार अपनी विरोधी गति यानी कि प्रतिस्पर्द्धा के साथ-साथ चलता है और यह द्वन्द्व अन्य कारकों के साथ मिलकर क्रान्तिकारी परिस्थिति का निर्माण करता है।
उपसंहार करते हुए हम इतना कहेंगे कि अगर भारतीय मार्क्सवादी-लेनिनवादी आन्दोलन को प्रगति करनी है तो उसे अर्द्धसामन्ती अर्द्ध-औपनिवेशिक सैद्धान्तिकीकरण की बेडि़यों को तोड़ना होगा। हमारे विचार में अधिकांश माले पार्टियों और बुद्धिजीवियों को अर्द्ध-सामन्ती अर्द्ध-औपनिवेशिक सैद्धान्तिकीकरणों की वर्तमान भारतीय परिस्थिति और साथ ही भारतीय इतिहास पर भी इसकी प्रयोज्यता पर दोबारा सोचने की जरूरत है। कार्यक्रम के सवाल को विचारधारा के सवाल में नहीं बदल दिया जाना चाहिए, जैसा कि भारत में कठमुल्लावादी वाम ने किया है। अगर कोई पूँजीवादी विकास या समाजवादी क्रान्ति की मंजिल की बात करता है तो उन्हें अक्सर त्रात्स्कीपन्थी कह दिया जाता है क्योंकि यह लगभग एक आकाशवाणी या स्वयंसिद्ध तथ्य जैसा बन चुका है कि ऐसा कहना ही लेनिन के दो चरणों में क्रान्ति के सिद्धान्त को खारिज करने के समान है! यह एक विडम्बना की, बल्कि त्रासदी की, स्थिति है, जिससे जितनी जल्दी हो सके छुटकारा पा लिया जाना चाहिए।
( अभिनव सिन्हा )
(प्रसिद्ध बांग्ला पत्रिका ‘अनीक’ के अंक अक्टूबर 2012 में प्रकाशित)
(इस लेख का अंग्रेजी संस्करण इस लिंक पर पढ़ा जा सकता है :
http://redpolemique.wordpress.com/2012/11/11/development-of-capitalist-agriculture-in-india-and-the-intellectual-origins-of-the-fallacy-of-present-semi-feudal-thesis/)
हिन्दी अनुवाद : प्रशान्त
(दिशा सन्धान – अंक 2 (जुलाई-सितम्बर 2013) में प्रकाशित )
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