बालाजीविश्वनाथ भट का सेनाकर्ते के पद से मराठा साम्राज्य के पेशवा तक का सफर।
ये सच है कि तारारानी साहेब ने मुश्किल वक़्त में मराठा साम्राज्य को बहुत बहादुरी से संभाला। ख़ास कर राजाराम महाराज की मृत्यु के बाद 1700 से लेकर 1707 तक वे अकेली औरंगज़ेब से लोहा लेती रहीं, लेकिन क्या ये सब ऐसा ही था ?? नहीं...क्योंकि औरंगज़ेब इतना ताक़तवर था कि उससे सतत लड़ते रहना उस वक़्त मुमकिन ही नहीं था, लेकिन तारारानी की तरफ से देखें, तो उनके प्रयास में कोई कमी नहीं थी, क्योंकि उनको तो यही लग रहा था कि संघर्ष जारी है। दरअसल इस वक़्त औरंगज़ेब मराठों से लड़ाई कर ही नहीं रहा था, वो तो सिर्फ खेल रहा था, क्योंकि मराठा साम्राज्य अब जितना रह गया था, उससे औरंगेजेब को कोई फर्क नहीं पड़ता था और विस्तार की संभावनाएं वो संभाजी महाराज को ख़त्म कर के ख़त्म कर चुका था। सो इस दौरान वो बेरार(गोलकुंडा की क़ुतुबशाही) और बीजापुर(आदिलशाही) पर काम कर रहा था।
ख़ैर....12 जनवरी 1708 को शाहू जी महाराज, छत्रपती बन गए और धनाजी जाधव उनके सेनापति। बालाजीविश्वनाथ को बनाया गया "सेनाकर्ते"। तो ऐसा क्या था जो उन्हें सेनाकर्ते ही बनाया गया ?? इसका जवाब ये है कि इस वक़्त बालाजी की सबसे ज़्यादा ज़रूरत इसी पद पर थी। हालांकि शाहू जी बालाजीविश्वनाथ का भविष्य पहले ही सोच चुके थे और बालाजी ने भी अपना लक्ष्य पहले ही सोच लिया था, लेकिन ना तो शाहू जी जल्दबाज़ी करना चाहते थे और ना ही बालाजी। अब सेनाकर्ते ही क्यों ? तो जिस वक्त शाहू जी सतारा घेर रहे थे और तारारानी सतारा छोड़ कर निकल गई थीं( खेड़ के युद्ध से पहले), तब तारारानी अपने साथ मराठा साम्राज्य का सारा ख़ज़ाना भी ले गई थीं। सो शाहूजी के हाथ गढ़ तो लगा था, लेकिन धन के नाम पर कुछ भी नहीं था, यहां तक कि हथियार भी नहीं छोड़े थे। जून 1707 से लेकर अक्टूबर 1707 के बीच बालाजीविश्वनाथ कई मराठा व्यापारियों-साबुकारों से भी मिले और उन्हें शाहूजी महाराज के साथ आने के लिए राज़ी भी किया। इन्हीं व्यापारियों में सबसे ख़ास और सबसे धनी थे, महादजी जोशी, जो तारारानी के सबसे ख़ास माने जाते थे। जिनके लिए लोग कहते थे कि एक बार शिवाजी द्वितीय(तारारानी के पुत्र) तारारानी को छोड़ सकते हैं, लेकिन महादजी जोशी नहीं, लेकिन कहने वाले ये भूल गए थे कि दूसरी तरफ जो शख़्स था उसका नाम बालाजीविश्वनाथ भट था।
बालाजी जब माहादजी जोशी को उनके धन के साथ शाहू जी महाराज के दरबार में लेकर आए थे, तभी खेड़ के युद्ध का परिणाम तय हो गया था। इसी तरह और भी कई व्यापारियों से बालाजी ने संपर्क किया और सेना के लिए धन की व्यवस्था की। जिस धन से हथियार बनाए गए और सेना फिर से खड़ी की गई। धनाजी जाधव तो सेनापति थे ही और इतने जांबाज़ और तजुर्बेकार सेनापति जो छात्रपती शिवाजी महाराज के वक़्त से मराठा साम्राज्य के लिए तलवार संभाले हुए थे। बस इसी वजह से शाहू जी को सेनाकर्ते जैसे पद के लिए बालाजीविश्वनाथ से बेहतर कोई नज़र नहीं आया और 12 जनवरी 1708 को छत्रपती की गद्दी संभालते ही उन्होंने बालाजीविश्वनाथ भट को सेनाकर्ते नियुक्त कर दिया।
इधर तारारानी के वक़्त के मराठा साम्राज्य को समझना भी बहुत ज़रूरी है, कि उस वक़्त छत्रपती से ज़्यादा मालदार उनके सरदार हो चुके थे और उनकी आगे की महत्वकांक्षाएं भी बहुत बड़ी और ज़्यादा थीं। वे छत्रपती के वफादार तो थे, लेकिन खुद की स्थति और बेहतर करना चाहते थे। वैसे तो ये आपस में भी एकजुट नहीं थे, लेकिन अगर कोई एक चीज़ इन्हें बांधे हुए थी, जो दिखाई तो नहीं देती थी, मगर थी, तो वो थी छत्रपती शिवाजी महाराज के तप से जन्मीं स्वराज की भावना।
सब कुछ ठीक चल ही रहा था कि जून 1708 में धनाजी जाधव की मृत्यु की ख़बर से सतारा के दरबार में एक अजीब सी ख़ामोशी छा गई। हर तरफ उदासी थी और इस ख़बर से शाहूजी महाराज और बालाजीविश्वनाथ को बहुत धक्का लगा था, क्योंकि धनाजी जाधव जैसे शूरवीर का बदल उस वक़्त नहीं था। हालांकि कई सरदार ऐसे थे, जो उनकी जगह लेना चाहते थे। इनमें से एक थे खांडेराव दाभाड़े...जो कि बहुत ही बहादुर मराठा सरदार थे और धनाजी जाधव के भरोसे के भी। जिन्हें खेड़ के युद्ध के बाद धनाजी ही तारारानी कि तरफ से खींच कर शाहू जी की तरफ लाए थे, लेकिन उनका दावा दरकिनार कर धनाजी के पुत्र चंद्रसेन जाधव को मराठा सरसेनापति नियुक्त किया गया, क्योंकि धनाजी के बाद अब शाहू जी के सबसे क़रीबी सिर्फ बालाजीविश्वनाथ ही थे, जिन्होंने ख़ुद चंद्रसेन का नाम आगे किया था।
यहां थोड़ी सी चूक बालाजीविश्वनाथ से हुई। वे धनाजी जाधव को इतना मानते थे कि चंद्रसेन की तरफ से उन्हें बिलकुल भी ऐसी उम्मीद नहीं थी, कि चंद्रसेन बालाजी को ही अपना दुश्मन समझता है। दरअसल इसकी वजह ये थी कि उसने हमेशा ही अपने पिता को खुद से ज़्यादा बालाजी पर विश्वास करते देखा था और इसीलिए वो बालाजी जे जलन रखता था। धनाजी जाधव जब सरसेनापति थे, तब तो कोई परेशानि नहीं थी, लेकिन अब चंद्रसेन को लगने लगा कि सेनाकर्ते के पद पर बैठे बालाजी का सीधा हस्तक्षेप सेनापति के काम में भी है। यानी वो सेनापति तो है, लेकिन अधूरा और वो पूरी ताक़त अपने हाथों मे चाहता था। यही वजह रही कि 1711 में चंद्रसेन शाहू जी महाराज को छोड़ कर तारारानी की शरण में चला गया।
तारारानी सतारा छोड़ चुकी थीं और खेड़ में हार कर छत्रपती की गद्दी भी, लेकिन उन्होंने छत्रपती की गद्दी फिर से हासिल करने की उम्मीद नहीं छोड़ी थी। इधर शाहू जी ने बालाजीविश्वनाथ और चंद्रसेन के बीच की लड़ाई को ख़त्म करने के उद्देश्य से मराठा सरदार परशुराम पंत और खांडेराव दाभाड़े को मध्यस्था के लिए चंद्रसेन के पास भेजा, लेकिन यहां शाहू जी से भी चूक हो गई, क्योंकि वे नहीं जानते थे, कि ये दोनों भी अंदरखाने उनके साथ नहीं थे और बालाजीविश्वनाथ से जलन रखते थे। जब परशुराम पंत और खांडेराव दाभाड़े चंद्रसेन के पास पहुंचे तो चंद्रसेन खुद तो शाहू जी के पास लौटने को राज़ी नहीं हुआ, उल्टा उसने परशुराम पंत और दाभाड़े को तारारानी के पास चलने के लिए मना लिया। तो तारारानी के पास अब चंद्रसेन जैसा सेनापति था, जिसकी रगों में धनाजी जैसे वीर का खून दौड़ रहा था और परशुराम पंत, खांडेराव दाभाड़े जैसे सरदार भी, साथ ही रामचंद्र पंत जैसे सलाहकार। इससे तारारानी की इच्छाओं को और बल मिला। अब उन्होंने योजना बनाई की शाहू जी की तरफ हो चुके बाकी मराठा सरदारों को अपनी तरफ कैसे किया जाए। मराठा साम्राज्य का ख़ज़ाना वैसे भी उनके ही पास था, जिसके बारे में शाहूजी के पूछने पर वो पहले ही मुकर चुकी थीं कि कुछ बचा ही नहीं। सो उन्होंने पैसा दे कर धीरे-धीरे सरदारों को अपनी तरफ करना शुरू किया और योजना ये थी कि पूरी ताक़त से फिर सतारा पर हमला करेंगे। इसी कड़ी में चंद्रसेन ने दूसरे सरदारों को भी तारारानी की तरफ कर लिया, जिनमें दामाजी थोराट, कृष्णराव खटवाकर और उदाजी चावन जैसे छोटे लेकिन अहम सरदार भी शामिल थे।
नियति किस ओर करवट ले, कह नहीं सकते और नियत अगर सही नहीं है तो क़ुदरत भी साथ नहीं देती। ऐसा ही कुछ तारारानी के साथ भी हुआ। ये वक़्त 1712-से 13 के बीच का था। एक तरफ मराठा सरदारों को अपनी तरफ करने में तारारानी का सारा खज़ाना ख़ाली हो गया और सेना को पगार देने तक के लिए उनके पास पैसा नहीं बचा। तो दूसरी तरफ शाहू जी महाराज के पास सिर्फ बालाजीविश्वनाथ ही बचे थे.... लेकिन वे तो.... अकेले ही काफी थे। बालाजी ने उस दौर में शाहूजी महाराज का साथ नहीं छोड़ा कि जब पैसे की लालच में भरोसेमंद से भरोसेमंद सरदार तारारानी के पास चले गए थे। कहते हैं कि लालच के दिन ज़्यादा नहीं होते, तो तारारानी के पास मराठा साम्राज्य का ख़ज़ाना तो था, लेकिन उनके पास छत्रपती की पगड़ी और मराठा साम्राज्य नहीं था, जहां से चौथ या अन्य रूप में पैसा मिलता रहे। सो उनका खज़ाना खाली हो गया, लेकिन बालाजीविश्वनाथ ने अपनी पूरी ताक़त लगा कर व्यापारियों, साहूकारों और अपने दोस्तों से जम कर मदद हासिल की और सेना में नई भर्तियां कीं, नए हथियार ख़रीदे और 1712-13 में छत्रपती शाहूजी महाराज के लिए बिलकुल नई नवेली और मज़बूत सेना खड़ी करने में कामियाबी हासिल की, जिसे नाम दिया "हुज़ूरत सेना"।
छत्रपती शिवाजी महाराज के वक़्त से ही मराठा साम्राज्य की रीढ़ की हड्डी उनकी नोसेना को माना जाता था। इस वक़्त यानी 1713 में ये नोसेना और महाराष्ट्र का तटीय इलाक़ा सरदार कान्होजी आंग्रे के पास था और कान्होजी आंग्रे हमेशा से ही तारारानी के साथ थे। जब सतारा में शाहूजी और तारारानी के बीच ग्रह युद्ध चल रहा था, तब कान्होजी नोसेना की कमान संभाले हुए थे और उनका तटीय इलाके से हटना यानी पुर्तुगालियों, अंग्रेज़ों और मुग़लों का मराठा इलाक़ों पर क़ाबिज़ हो जाना, इसलिए उन्होंने अपना इलाक़ा नहीं छोड़ा, लेकिन बाद में उन्होंने तारारानी के लिए तटीय इलाके के कई किलों के साथ बड़े भूभाग पर क़ब्ज़ा कर लिया जो अब तक शाहू जी के क़ब्ज़े में थे। कान्होजी उस वक़्त सबसे मज़बूत सरदार थे और उनके बग़ैर मराठा साम्राज्य अधूरा ही था।
सो शाहू जी ने अक्टूबर 1713 में अपने पेशवा को सेना के साथ उनकी तरफ भेजा। उस वक़्त बहिरोपन्त पिंगले मराठा साम्राज्य के छठे पेशवा थे और ये पद सेनाकर्ते से बड़ा पद था। बहिरोपन्त पिंगले उसी पिंगले परिवार से थे, जिससे शिवाजी महाराज के पेशवा मोरोपन्त त्रयम्बक पिंगले थे। वे मराठा साम्राज्य के प्रथम पेशवा थे। उस वक़्त पेशवा राजा के सलाहकार परिषद "अष्टप्रधान" के सबसे प्रमुख होते थे। राजा के बाद इन्हीं का स्थान आता था। छत्रपती शिवाजी महाराज के अष्टप्रधान मंत्रिमंडल में "पेशवा" प्रधान मंत्री अथवा वज़ीर का पर्यायवाची पद था। 'पेशवा' फारसी शब्द है जिसका अर्थ 'अग्रणी' है। लेकिन छत्रपति राजाराम के समय में पंत-प्रतिनिधि का नवनिर्मित पद, राजा का प्रतिनिधि होने के नाते पेशवा से बड़ा ठहराया गया था, जो अब तक क़ायम था।
बहरहाल शाहू जी महाराज के पेशवा बहिरोपन्त पिंगले अक्टूबर में सेना की एक टुकड़ी के साथ कान्होजी आंग्रे को ललकारने अलीबाग़ तक जा पहुंचे, जहां एक युद्ध में कान्होजी आंग्रे ने उन्हें हराया और बंदी बना लिया। ये ख़बर सतारा की गद्दी की कमर तोड़ देने के लिए काफी थी। इस ख़बर से निराशा तो हुई, मगर इसी में आशा भी छुपी हुई थी। तो अब यहां से शुरू हुआ मराठा साम्राज्य के विस्तार का पहला अध्याय। पेशवा बहिरोपन्त पिंगले के बंदी बन जाने पर शाहू महाराज टूटे तो सही लेकिन बिखरे नहीं, क्योंकि उनके पास अभी बालाजीविश्वनाथ थे...। सो नवम्बर 1713 में छत्रपती शाहूजी महाराज ने "कुछ समय" के लिए बालाजी को मराठा साम्राज्य का पेशवा नियुक्त किया और उन्हें आंग्रे मुहीम पर अपनी हुज़ूरत सेना के साथ भेजा। लक्ष्य था अलीबाग़ के किले पर हमला करना और पेशवा बहिरोपन्त पिंगले को आज़ाद करवाना।
बालाजीविश्वनाथ अलीबाग़ तक जा पहुंचे, लेकिन उन्होंने सरदार कान्होजी आंग्रे पर हमला नहीं किया। कहते हैं कि हर जंग का फैसला तलवार से नहीं किया जाता। सो बालाजीविश्वनाथ ने वही किया, जिसके लिए उनकी ख्याति सतारा से लेकर दिल्ली तक थी। उन्होंने कान्होजी आंग्रे पर सैन्य अभियान करने के बजाए उनसे मिलने की बात रखी और उन्हें शाहूजी की तरफ करने में कामियाबी हासिल की। ये एक ऐतिहासिक घटना थी, जिससे पूरे मराठा साम्राज्य में बालाजीविश्वनाथ का डंका बज उठा और कई छोटे-बड़े सरदार भी कान्होजी की वजह से बालाजी के साथ आ गए।
बालाजीविश्वनाथ जब सतारा लौटे तो उनके साथ सिर्फ पेशवा बहिरोपन्त पिंगले नहीं थे बल्कि कान्होजी आंग्रे भी थे और दूसरे मराठा सरदार भी। बस फिर क्या था, इस बड़ी जीत से खुश हो कर छत्रपती शाहूजी महाराज ने वो काम किया जिसकी योजना उन्होंने बहुत पहले ही अपने मन मे बना ली थी, मगर सही समय का इंतज़ार कर रहे थे। नवंबर 1713 में बालाजीविश्वनाथ भट को सर्वसम्मति से मराठा साम्राज्य का सातवां पेशवा बनाया गया, लेकिन एक बदलाव के साथ, कि अब से मराठा साम्राज्य में 'पेशवा' छत्रपती के बाद सबसे बड़ा पद होगा। वो न सिर्फ नीति निर्धारण करेगा, बल्कि सैन्य अभियानों की अगुवाई भी करेगा और सेनापति भी पेशवा के अधीन ही होगा। यानी कि अब पूरी ताकत पेशवा के हाथों में होगी। सो अब से बालाजी कहलाए गए "श्रीमंत पेशवा बालाजीविश्वनाथ भट"। एक छोटे से कर अधिकारी से मराठा साम्राज्य के पेशवा तक का सफर श्रीमंत बालाजीविश्वनाथ भट ने अपनी मेहनत, निष्ठा, बहादुरी और दिमाग़ के बल पर तय किया था। हालांकि अभी उन्हें और भी कई बड़े काम करना थे।
नूह आलम
Nooh Alam
नोट- पिछ्ला अधयाय पढ़ने के लिए नीचे दी गई लिंक पर जा कर देख सकते हैं।
तीसरा अध्याय -
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/03/blog-post_27.html
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