Saturday, 27 February 2021

सोमपान और मधुविद्या

सोमरस विषय में हम इतने भावुक हो कर सोचते रहे हैं कि उसका नित्य सेवन करते हुए भी, उसकी पहचान नहीं कर सके।  अति परिचित असाधारण कैसे हो सकता है।  कुछ ऐसी ही मुग्धता  मधुविद्या को लेकर रही है।  इसका रहस्य  केवल दध्यंग अथर्वा को मालूम था।  उनसे इसका ज्ञान इंद्र को मिला था।  ज्ञान प्राप्त करने के बाद इंद्र ने दध्यंग को चेतावनी  दी,  
“यदि तुमने इस  विद्या का ज्ञान  किसी और को दिया  तो तुम्हारा सिर काट दूँगा।” 

अश्विनी कुमार जो देवों के भी चिकित्सक हैं, उन्हें तो उस विद्या को जानना ही था।  वे दध्यंग के पास पहुँचे। आग्रह किया,   
" मधुविद्या का रहस्य समझाएं।  ज्ञान तो बाँटने के लिए होता ही है।
पर ऋषि होकर भी बेचारे डरे हुए थे, बताया, 
‘’यदि मैंने ऐसा किया तो इंद्र मेरा सिर काट देंगे।’’ 

सभी जानते हैं कि  अंग प्रत्यारोपण (ऑर्गन ट्रांसप्लांट)  के जनक  अश्विनीकुमार हैं।   उन्होंने कहा,
’’ डरने की कोई बात नहीं। मैं आपका सिर काट कर आप की गर्दन पर घोड़े का सिर लगा देता हूँ। आप उस मुँह से मुझे उपदेश दीजिए और उसके बाद  मैं उस सिर को काट कर आपका अपना सिर लगा दूंगा।” 
अब आपत्ति का कोई प्रश्न हो ही नहीं सकता था।  दध्यंग अथर्वा ने,  घोड़े के मुंह से अश्विनी कुमारों को मधुविद्या का रहस्य समझाया ।
(दध्यङ् ह यत् मधु आथर्वणो वाम्, अश्वस्य शीर्ष्णा प्र यत् ईं उवाच, ऋ. 1.116.12)।  
मधुविद्या का ज्ञान, परम ज्ञान है।  इससे ऊपर कोई ज्ञान नहीं।   जिस मुख से उन्होंने अश्विनी कुमारों को उपदेश दिया था उसकी महिमा इतनी बढ़ी कि अनेक महापुरुषों ने उन्हीं के नाम पर अपना नाम रखा - अश्वल, आश्वलायन, घोटकमुख, अश्वघोष, आदि। 

पता लगाना होगा कि क्या मधुविद्या का सोम से क्या नाता है?  
यह दध्यंग अथर्वा कौन थे?  
उन्हें मधुविद्या का  ज्ञान कहाँ से मिला था? 
इन्द्र को उनका पता कैसे चला? 
क्या दध्यंग का कोई संबंध दधीचि से था ?  
अश्विनी कुमार कौन हैं ? 
अन्य देवों के होते हुए वायु और इन्द्र के बाद, अग्नि से भी पहले सोम के अधिकारी ये कैसे हो गए।  इनके कारनामों का रहस्य क्या है? 
मधु विद्या  का भारतीय दर्शन पर क्या प्रभाव पड़ा, और यदि पड़ा तो दार्शनिकों ने अपनी व्याख्या में  इसको उचित स्थान  क्यों नहीं दिया?  

मधुविद्या का रहस्य जानने के बाद अश्विनीकुमारों ने जैसा वादा किया था, दध्यंग की गर्दन से घोड़े का  सिर  काट कर अलग किया और उनका सिर लगा दिया। वह कटा हुआ सिर पर्वत पर गिर कर छितरा गया और सोम बन गया, जो, जैसा हम देख आए हैं, मूज/शर प्रजाति का है। इसके लिए वे स्थल ही उपयुक्त हो सकते थे जहाँ मूज या शर नैसर्गिक रूप में उगता है और  इसलिए पर्वतीय क्षेत्र में मुजवान और शर्यणावती के कगार पर उगता है और इन्द्र इसी के पान की कामना करते हैं ।
(इच्छन् अश्वस्य यत् शिरः पर्वतेषु अपश्रितम्, तद् विदत् शर्यणावति ।। 1.84.14)।[1]
[1] शर्यणावति के अतिरिक्त कुछ और नदियों (सुसोमा, आर्जीका) के कगार पर पैदा होने वाला सोम  पर्वतीय सोम से भी अधिक रसीला माना गया है ।
(अयं ते शर्यणावति सुषोमायां अधिप्रियः, आर्जीकीये मदिन्तमः, 8.64.11)। 
जब इनमें से किसी एक का उल्लेख आता है तो शर्यणावति का ही नाम आता है ।
(मन्दस्वा सु स्वर्णर उतेन्द्र शर्यणावति , मत्स्वा विवस्वतो मती, 8.6.39)। 
इनसे सोम की उपजातियों (जिनकी संख्या धान की किस्मों की तरह बहुत अधिक है, का आभास मिलता है]।  

यहाँ एक भूलभुलैया का सामना करना होता है। सोम की उत्पत्ति से जुड़ी दो कहानियाँ हो जाती हैं। 
पहली में गायत्री (वाणी), धरती (कद्रु),  से मात खाने के बाद, द्युलोक से सोम को भू लोक पर लाने को बाध्य होती है।  
दूसरी में  पार्थिव सोम की उत्पत्ति दध्यंग अथर्वा के कटे हुए सिर के पर्वत पर गिरने से होती है।  
ये दोनों कथाएँ खेती आरंभ होने के  बहुत बाद में गढ़ी गईं कथाएँ हैं, जब कि सोम आदिम अवस्था (कल्प-वृक्ष/तरु/ लता) से ही, मनुष्य के पोषण का प्रमुख स्रोत रहा है।  किसी का देवत्व यदि उस चरण पर सोम से जुड़ता है तो वह हैं रुद्रशिव जिनको सोमनाथ की मुद्रा में सिंधु-सरस्वती सभ्यता की प्रसिद्ध मुद्रा पर भी उकेरा गया लगता है। सोम का उष्णीष, पर्याहण (पहनावा), सोम की आसन्दी, सोम के सींग 
(तनूनपात्पवमानः शृंगे शिशानो अर्षति ।
अन्तरिक्षेण रारजत् ।। 9.5.2;  एष शृंगणि दोधुवच्छिशीते यूथ्यो वृषा । नृम्णा दधान ओजसा ।। 9.15.4) 
का रुद्र के माथे पर आरोपण (चन्द्रभाल) एक मात्र औचित्य प्रतीत होता है। 

विश्वप्रपंच को समझने के लिए कहानियाँ तो आदि काल से गढ़ी जाती रही हैं पर उन्हें शास्त्रीय रूप कृषिजन्य समृद्धि की देन है।  यदि हम इनकी प्रकृति और अन्तर्वस्तु पर ध्यान दें तो इनके पूर्वापर संबंध या विकास के चरणों को भी काफी दूर तक निर्धारित कर सकते हैं। यहाँ हम इनकी गहरी छानबीन में नहीं जा सकते, पर यह निवेदन कर सकते हैं कि खेती के स्थाई होने से पहले सूर्य का इन्द्र के रूप में नया देवत्व नहीं आ सकता था, खनिज और व्यापारिक अभियानों से पहले इन्द्र का अपराजित जेता (क्षत्रिय और नेता) का रूप प्रकट नहीं हो सकता था और देशान्तर में अपने प्राकार रक्षित अड्डे कायम करने से पहले विलासी और ईर्ष्यालु इन्द्र की कल्पना नहीं की जा सकती थी।  इसी तरह अराल पहिए और रथ से पहले अश्विनीकुमार की जोड़ी कल्पनातीत थी और इस संभावना को नकारा नहीं जा सकता कि इन्द्र से पहले और मरुद्गणों के बाद और संभवतः उनसे भी उनसे भी पहले वर्षा के देवता सोम या चन्द्रमा रहे हों।  ऋग्वेद में सोम(चंद्रमा) को अनेक बार उन्हीं नामों और गुणों से युक्त दिखाया गया है जिनके लिए इन्द्र प्रसिद्ध हैं:
उभा देवा नृचक्षसा होतारा दैव्या हुवे । पवमान इन्द्रो वृषा ।। 9.5.7
इन्दुरिन्द्रो वृषा हरिः पवमानः प्रजापतिः ।। 9.5.9
वृषा सोम द्युमाँ असि वृषा देव वृषव्रतः । वृषा धर्माणि दधिषे ।। 9.64.1

सोम पान के तीन रूप हैं ।
एक  जिसका पान  मनुष्यों द्वारा किया जाता है; 
दूसरा जिसका पान  इंद्र और मरुत् के द्वारा किया जाता है;   
तीसरा जिसका आयोजन  असाधारण साहस  और संपन्नता वाले लोग अधिक संपन्न होने के लिए (व्यापार, विणिज्य और खनन) करते हैं।
और आप चाहे तो इसका एक 
चौथा रूप भी मान सकते हैं जिसका  याजिकीय  विधान की आड़ में देवताओं के नाम पर पुरोहित करते थे और जिसके कारण यह दावा करते थे देवताओं का परम अन्न सोम है ।
(एतत् वै देवानां परमन्नं यत् सोमः, तै. 1.3.3.2; एतत् वै देवानां परमन्नाद्यं यत् सोमः, कौषी. 13.7)  
और धरती पर देवों के प्रतिरूप ब्राह्मण हैं इसलिए सोम के अधिकारी ब्राह्मण हैं  
(ब्राह्मणानां स भक्षः, ऐत. 7.29)  यहाँ तक कि  सोम को ही ब्राह्मण बना दिया जाता है ।
(सोमो वै ब्राह्मणः, तांड्य. 16.23.5)। 

सोम के धरती पर आने की दोनों कथाओं का सार यह कि चंद्रमा  से ही धरती पर सोम आया था इसलिए दध्यंग चन्द्रमा ही है।  उसी का सिर अमावस्या को कट जाता है और दूज को दुबारा जुड़ जाता है। चंद्रमा को ही दूध या दही से भरा कल्पित किया जाता रहा है।  दधीच भी दध्यंग से भिन्न नहीं लगते।
(युवं दधीचो मन आ विवासथोऽथा शिरः प्रति वामश्व्यं वदत् ।। 1.119.9)। 
कृष्ण चतुर्दशी की धनुषाकार चन्द्ररेखा ही  दधीचि की वह अस्थि है जिससे इन्द्र ने वृत्रों का वध किया था। 
(इन्द्रो दधीचो अस्थभिर्वृत्राण्यप्रतिष्कुतः । जघान नवतीर्नव ।। 1.84.13)। 

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

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