पूरा किस्सा इस प्रकार है। 1851 में न्यूयॉर्क ट्रिब्यून के प्रकाशक और सम्पादक होर्स ग्रीली ने लंदन में काम कर रहे एक फ्रीलांस पत्रकार कार्ल मार्क्स को अपने अखबार में विदेश संवाददाता के रूप में नौकरी पर रखा। मार्क्स लंदन से ही, उक्त अखबार के लिए विदेशी मामलो पर अपने डिस्पैच भेजते थे। तब लंदन दुनिया के साम्राज्यवाद का नाभिस्थल था और मार्क्स की टिप्पणियों को बेहद रुचि और उद्विग्नता से पढ़ा भी जाता था। मार्क्स उस अखबार के लिये नियमित रूप से कॉलम लिखने लगे। पर जब कभी मार्क्स किसी अन्य अध्ययन में व्यस्त हो जाते तो, वह कॉलम उनके साथी फ्रेडरिक एंगेल्स लिख दिया करते थे। वैचारिक और दृष्टिकोणीय समानता के कारण, दोनो के लेखन और तार्किकता में कोई बहुत अंतर होता भी नहीं था। इस अखबार में नौकरी के दौरान, कार्ल मार्क्स, की आर्थिक स्थिति बिगड़ गयी और वे निरन्तर अर्थाभाव में रहने लगे। उन्होंने अपनी तनख्वाह बढ़ाने के लिये अखबार के मालिक, ग्रीली और प्रबंध संपादक, चार्ल्स डाना से, कम से कम 5 डॉलर की वृद्धि करने का अनुरोध किया। लेकिन अखबार ने भी यह कह कर कि, उसकी भी आर्थिक स्थिति, अमेरिकी गृह युद्ध के कारण अच्छी नहीं है, अखबार ने भी, भी कार्ल मार्क्स की तनख्वाह बढाने से मना कर दिया। इस पर मार्क्स और एंगेल्स ने अखबार पर उन्हें ठगने और अपने शोषण करने की क्षुद्र पूंजीवादी सोच से ग्रस्त होने का आरोप लगाया और जब मार्क्स की तनख्वाह नहीं बढ़ी तो, उन्होंने ट्रिब्यून की नौकरी छोड़ दी और फिर वे अपने अध्ययन और दर्शन को समृद्ध करने में एंगेल्स के साथ पूरी तरह से जुट गए। फिर जो हुआ, वह बौद्धिक क्षेत्र में एक ऐसा बदलाव था, जिसने दुनिया बदल दी।
इसी प्रकरण पर हल्के फुल्के अंदाज़ में, जॉन एफ कैनेडी टिप्पणी करते हुए कहते हैं,
" यदि एक बार इस पूँजीवादी न्यूयॉर्क ट्रिब्यून अखबार उन ( कार्ल मार्क्स ) से अधिक दयालुता से पेश आया होता, और कार्ल मार्क्स यदि उक्त अखबार में एक विदेश संवाददाता ही बने रहते तो, दुनिया का इतिहास ही कुछ अलग होता है। मैं सभी प्रकाशकों से यह आशा करता हूँ कि, वे इससे यह सबक सीखेंगे और भविष्य में यह ध्यान रखेंगे कि, अगली बार अपनी गरीबी से पीड़ित यदि कोई व्यक्ति, अपने वेतन में थोड़ी भी वृद्धि की मांग करता है तो उस पर विचार करेंगे। "
केनेडी ने भले ही यह बाद हल्के फुल्के अंदाज़ में कही हो, पर इसे एक बेहद तार्किक और गम्भीर कथन के रूप में देखा भी जा सकता है। अभाव में जीता हुआ व्यक्ति यदि उक्त अभाव के कारणों की तह में जाता है और जब अपने उचित अधिकारों के लिये तन कर, उक्त अभाव के समाधान के लिए, समाज मे खड़ा हो, मुखर होने लगता है तो, न केवल उसी की परिस्थितियां बदलती हैं बल्कि वह समाज को एक दिशा भी देने की हैसियत में आ जाता है। वह अकेले नहीं रह पाता है। क्योंकि वही अकेले अभाव में नहीं रहता है बल्कि समाज का अधिसंख्य भी तो उसी अभाव को झेलता रहता है। फिर शोषण और उत्पीड़न की उन परिस्थितियों के खिलाफ एक दिमाग बनता है, सवालात जन्म लेते हैं, उनके उत्तर ढूंढे जाते हैं, और कुछ लोग कसमसाते हैं और फिर खड़े होने लगते हैं। उन्ही में से नेतृत्व उभरता है और फिर जो बदलाव का सिलसिला शुरू होता है वह एक झंझावात में बदल जाता है, जिसे हम क्रांति या रिवोल्यूशन कहते हैं।
अभाव और विपन्नता जब ईश्वर का कोप या पूर्व जन्म के कर्मवाद से व्याख्यायित होने लगती है तो, वह नियतिवाद का आवरण ओढ़ लेती है। यह नियतिवाद सारी प्रगति, और बेहतर होने की कोशिशों को निगल जाता है। वह अक्सर संतोष और धैर्य की बात करने लगता है। सब कुछ पिछले धर्म का किया धरा है अतः अगले जन्म में कुछ न कुछ तो बेहतर हो, इसलिए बेहतर और नैतिक जीवन जीने का उपदेश तो देता है, एक ऐसे भविष्य के सपने तो दिखाता है, जो है भी या नहीं है, के बारे में खुद भी संशयग्रस्त है, पर वर्तमान के अभाव, कष्ट और सामाजिक विषमता जन्य बुराइयों के समाधान के प्रति उदासीन भी बना रहता है। जब कोई आवाज़ उठती है, कहीं कुछ खदबदाता है तो उसमें अराजकता ढूंढने लगता है। अराजकता, जनता का जागना, अपने शोषण औऱ अन्याय के खिलाफ खड़े होना, नहीं होता है, बल्कि अराजकता, राज्य का विधिक औऱ लोककल्याणकारी शासन से अलग हट कर, खुद या कुछ की स्वार्थपूर्ति को प्राथमिकता में रख कर, राज करना भी है। राज्य द्वारा किया जा रहा ज्यादतीभरा और दमनकारी शासन, ही असल मे अराजकता है, न कि इस अराजक शासन व्यवस्था के विरुद्ध जनता का उठ खड़ा होना और राज्य को उसके दायित्व और कर्तव्यों के प्रति सचेत करना। अभाव और विपन्नता, न तो ईश्वर प्रदत्त होती है और न ही यह किसी नियति का परिणाम है। यह सामाजिक ढांचे, सामाजिक व्यवस्था, राज व्यवस्था और अन्य परिस्थितियों का परिणाम होती है। उनके कारणों की पड़ताल कर के निदान को खोजा जा सकता है। मार्क्स उन्ही कारणों की पड़ताल की, समस्या की पहचान की और फिर उनके निदान का एक सिद्धांत प्रतिपादित किया, जिसे उनके अनुयायियों ने अपने अध्ययन और कार्यो से और समृद्ध किया। इसी शृंखला में, केनेडी, लेनिन, स्टॅलिन, माओ, कास्त्रो और चे का नाम लेते हैं। केनेडी मर्ज को पहचान चुके हैं और उस मर्ज के तात्कालिक निदान के रूप में ही उन्होंने अपने पूंजीवादी मित्रो को परामर्श दिया कि, वे अभाव और विपन्नता को इतना न बढ़ने दें कि अंसन्तोष फूट पड़े। उनके कथन में अफसोस है या सीख या इतिहास के एक करवट की व्याख्या, इस पर सबकी अलग अलग राय हो सकती है।
कैनेडी एक पूंजीवादी व्यवस्था वाले देश के सेनेटर थे और बाद में वह उस देश के राष्ट्रपति भी बने। उन्हे अमेरिका के बेहतर राष्ट्रपति के रूप में गिना जाता है। यह भी एक विडंबना है कि उनकी हत्या हुयी । निश्चित ही वे जिस दौर मे थे, उस दौर में, शीत युद्ध का काल था। और अमेरिका तथा सोवियत रूस की आपसी प्रतिद्वंद्विता में उनका समय शीत युद्ध के काल का एक अंग था और दुनिया दो खेमों में बंटी हुयी थी। आजकल की तरह एक ध्रुवीय दुनिया नहीं थी। वे शीत युद्ध का उल्लेख करते हैं और तब तक रूस के साथ साथ चीन, क्यूबा और कुछ लैटिन अमेरिकी देशों में पूंजीवाद विरोधी क्रांति या तो हो चुकी थी या होने वाली थी। एशिया और अफ्रीका के जो उपनिवेश, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद आज़ाद हो रहे थे, वे सब शोषित और उत्पीड़ित समाज के थे। पूंजीवादी और साम्राज्यवादी शोषण से सद्य: मुक्त ये देश, स्वाभाविक रूप से समाजवादी विचारधारा के करीब थे। ऐसे ही समय मे, भारत भी आज़ाद हुआ था और भारत ने भी जो आर्थिक मॉडल चुना था वह मिश्रित अर्थ व्यवस्था का था जो समाजवाद की ओर झुका था। जब संविधान में समाजवादी शब्द नहीं जोड़ा गया था, तब भी हमारा संविधान लोककल्याणकारी और समाजवादी समाज के स्थापना के उद्देश्य पर ही आधारित था और अब भी है। संविधान के नीति निर्देशक तत्व और मौलिक अधिकार, इसे स्वतः स्पष्ट करते है।
केनेडी अपने भाषण में यही रेखांकित करते हैं कि, बढ़ता हुआ आर्थिक और सामाजिक शोषण, अभाव और विपन्नता में धकेलती हुयी राज्य व्यवस्था, क्रांति और बदलाव की भूमिका लिखने लगती है। बस उसे नेतृत्व, दिशा, वैचारिक सोच, परिस्थितियों और अवसर की प्रतीक्षा रहती है। केनेडी के भाषण का अंश अंग्रेजी में इस प्रकार है,
"Karl Marx left his job after NY Tribune refused a pay hike. He then devoted himself to the cause that gave birth to Lenin, Stalin, Mao, Castro, Che.If only this capitalistic New York newspaper treated him more kindly; if only Marx had remained a foreign correspondent, history might have been different, and I hope all publishers will bear this lesson in mind the next time they receive a poverty-stricken appeal for a small increase in the expense account from an obscure newspaper man."
( विजय शंकर सिंह )
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