जब हम यथार्थ को उसके नियम से समझने का प्रयत्न करते हैं, तो हमें ऐसी सचाइयों का सामना करना पड़ता है जो हमें चकित कर देती हैं, कारण हम उससे पहले यह सोच भी नहीं पाते कि ऐसा हो भी सकता है। इस दृष्टि से विज्ञान सबसे बड़ा जादूघर है। म्यूजियम (अपनी विचत्रता से उत्फुल्ल करने वाला संग्रह) में भी यह भाव छिपा है, पर अजायबघर इसे अधिक सही बयान करता है। अज्ञात सत्य से अधिक आश्चर्यजनक कुछ नहीं होता। मैं अपने लेखन में कितने आश्चर्यों से गुजरता हूँ इसकी गिनती नहीं, पर चौंकाने के लिए कुछ नहीं लिखता, यह विश्वास है।
जब हम अपनी जरूरत से अपने नियम गढ़कर सचाई को देखना चाहते हैं तो सच्चाई मरीचिका में बदल जाती है और हम उसे पकड़ने की कोशिश में हम नई जुगत तैयार करते रहते हैं, पर वह और पीछे हटती जाती है। ‘अब हाथ आई, आई, पर नहीं आई’ का खेल कभी खत्म नहीं होता। सिद्धांतों के पहाड़ खड़े हो जाते हैं और वे स्वयं भी समाधान को असंभव ही नहीं बनाते जाते हैं, लौटने का रास्ता भी बंद कर देते हैं।
सत्य की ‘खोज’ करने वाले इस मामूली बात को नहीं समझ पाते किसी दूसरे के नियम से किसी चीज को नहीं समझा जा सकता। पाश्चात्य इतिहास और समाजशास्त्र की सबसे बड़ी सीमा यही रही है। मानविकी के क्षेत्र में उसने अपनी जरूरत से गढ़े गए नियम यथार्थ पर लादने के प्रयत्न किए, इसलिए उसके सहारे सचाई को नहीं समझा जा सकता। उसके नियमों से सर्वोपरि बने रहने की उसकी लालसा को अवश्य समझा जा सकता है।
पाश्चात्य ज्ञानशास्त्र ने समाधान के प्रयास में निरंतर नई समस्याएं पैदा कीं, परंतु किसी भी समस्या का निर्णायक हल नहीं कर सका । अधूरे समाधान, उल्टी प्रस्तुति, और वह भी इस योजनाबद्ध रूप में जिसमें यूरोप के सभी विद्वानों की साझेदारी लगती है, इसलिए, उसी अनुपात में, शोधविधि (मेथडालॉजी) के मामले में उनकी विलक्षणता के बावजूद, उनके निष्कर्षों पर भरोसा नहीं होता।
हमने पहले जिन खाइयों और असंगतियों का उल्लेख किया था, वे उनके उस ‘विवेचन’ से पैदा हुई हैं जिसमें विवेक पर लालसा हावी थी । उनका विवेचन सच्चाई को तोड़-मरोड़ कर झुठलाने की कोशिश का दूसरा नाम है। टुकड़े टुकड़े में वे सभी बातों को जानते और मानते हैं, परंतु संयोजन की जगह जानबूझकर कुयोजन करते हैं। समझ की कमी से अधिक बड़ा आरोप है नीयत में खोट पाया जाना, परंतु जब तक औपनिवेशिक खुमार में सोचने की जगह ऊँघने और बर्रा देशों के बुद्धिजीवी उनके निर्भर करते हैं तब तक उनको इस खोट के पकड़े जाने की भी चिंता नहीं होती।
वे मानते हैं कि भारोपीय संपर्क में आने से पहले पूरा यूरोप पशुचारण की अवस्था में था। इसलिए उनकी भाषा ऊंचाई पर नहीं पहुंच सकती थी जिसकी पुष्टि ग्रीक, रोमन और संस्कृत में प्रतिबिंबित होती है।
बोगाज़कोई के अभिलेखों से, जिसे इंडो-हित्ताइत (हित्ती) की संज्ञा दी गई, यह भी प्रकट हुआ कि यह भाषा भारतीय आर्यभाषा है, फिर भी इसे बदल कर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया कि यही मूल भाषा का सबसे प्राचीन रूप है और समानता रखने वाली भाषाओं की तरह’भारतीय आर्य-भाषा भी इसी की उपज भारत-ईरानी की उपशाखा है, जब कि हित्ती का ईरानी से कोई संबंध न था, भारतीय से सीधा नाता था। इसके साथ ही उन्हें यह भी पता था कि लघु एशिया में प्रतिष्ठित होने वाले भारतीय आर्य-भाषा भाषी वहां मध्येशिया के अश्वक्षेत्र से, जिसे शिंतास्ता (सिंधियों का उपनिवेश) से पहुंचे थे, इसलिए इंडो-हित्ताइत मूल भाषा का प्राचीनतम रूप नहीं हो सकती। उससे अधिक प्राचीन मध्येशिया की भाषा हुई। यहां वे सभी एक सुर से सच्चाई को उलट कर पेश करते हैं और बताते हैं कि हित्ती भारत आने के रास्ते में मध्येशिया पहुंचे थे और इसलिए मध्येशिया की भाषा जिसका कोई खाका उनके पास नहीं, भारतीय आर्य भाषा का पूर्वरूप हुई, जब कि शिंतास्ता नाम से भी प्रकट है कि मध्येशिया में बसने वाले भारत से वहां पहुंचे थे। इतने उलटफेर में सभी विद्वानों की साझेदारी यदि नीयत की खोट नहीं है तो इसे और कौन सी संज्ञा दी जा सकती है। और नियत में खोट का पता चलने के बाद, जितने भी आडंबर के साथ किसी विषय में दावे किए जायं, आडंबर के अनुपात में ही अपनी विश्वसनीयता खो देते हैं।
हमारी चुनौती, एक ओर तो, उन्हीं के द्वारा, टुकड़ों-टुकड़ों में पेश की गई सचाई को सँजोने की है, क्योंकि हमारे पास सत्तर साल की आजादी के बाद भी बाहरी जानकारी का अपना कोई स्रोत नहीं है, और दूसरी ओर उनके कोलाज को दरकिनार करके एक सुसंगत चित्र बनाने की है जिसमें सच्चाई स्वयं अपने निखरे रंग में प्रस्तुत हो जाय। पाश्चात्य आधे अध्येताओं ने ज्ञान के स्रोतों को नष्ट करके विशाल मलबा का तैयार किया है और हमारी चुनौती उस मलबे से टुकड़े जुटाते हुए, जहां तक संभव है, उन्हें जोड़कर उनके पूर्व रूप में लाने की है। इन टुकड़ों को जोड़ने के लिए जरूरी सूचना जो गोंद या आसंजक का काम करेगी, उसे हमें अपने प्रयत्न से अब तक उपेक्षित स्रोतों से भी जुटाना होगा जिन तक हमारी पकड़ किसी अन्य से अधिक अच्छी हो सकती है।
इसमें किसी तरह का संदेह नहीं कि मध्येशिया के रास्ते से लघु एशिया पहुंचने वाले जत्थे नौचालन में दक्ष नहीं हो सकते थे। इसलिए हम यह भी नहीं कह सकते कि यूनानी और रोमन क्षेत्रों को सभ्य बनाने में इंडो-हित्ताइत शाखा का ही हाथ था। इसका अधिक श्रेय फिनीशियनों को दिया जाता रहा है, जिनके लिए, अब, हम आश्वस्त होकर ‘पणि’ शब्द का प्रयोग इसलिए कर सकते हैं कि यह सकी भी है और सुविधाजनक भी।
परिवहन की इस खाई को पाटते हुए हम एक नई खाई के सामने पहुँचते हैं। वह यह कि यदि हम ग्रीक स्रोतों पर भरोसा करें तो पणि पर्णक्षेत्र या फिनीशिया में 2500 ई.पू. में पहुँच गए थे। यह तिथि बोगाज़कोई के अभिलेखों से और कुछ रियायत देते हुए क्षेत्र में आर्य वासियों के पहुंचने की तिथि 2000 ख्रिस्ताब्द पूर्व से भी पीछे जाती है, परन्तु क्रीत की मिनोअन (मानव) संस्कृति की काल रेखा को देखते हुए (The Minoan civilization was a Bronze Age Aegean civilization on the island of Crete and other Aegean Islands, flourishing from c. 3000 BC to c. 1450 BC until a late period of decline, finally ending around 1100 BC. It represents the first advanced civilization in Europe, leaving behind massive building complexes, tools, artwork, writing systems, and a massive network of trade.) अतिरंजना को घटाने के बाद अधिक बेमेल नहीं लगती। यदि ऐसा है तो यूनानियों और रोमनों के बीच भारतीय भाषा और सभ्यता का प्रसार देव परंपरा से संबंध रखने वालों से पहले असुर परंपरा के उत्तराधिकारियों ने किया था जिनकी उपासनापद्धति शाक्त थी। इसके कुछ प्रमाण जोंस ने अपने आठवें अभिभाषण में दिया था और इसके पुरातात्विक साक्ष्य निम्न लिंक पर देखे जा सकते है यद्यपि इनमें रोम से प्राप्त सभी नमूनों का प्रतिनिधि नहीं माना जा सकता:
https://in.pinterest.com/lindapullis1/roman-phallic-symbols/पर भूमध्य सागरीय क्षेत्र में नौचालन और इसका ज्ञान लेकर वे सीधे नहीं पहुँच सकते थे। इसका उत्तर इथिओपिया पर उनके अधिकार के रूप में देखा जा सकता है, जिसकी वकालत जोंस ने पुरजोर की है परंतु यहाँ कुछ तथ्य तथ्य उनकी विचार परिधि से छूट गए लगते हैं। इन्हें हम सही क्रम में रखें तो इथिओपिया में प्रवेश के शताब्दयों बाद वहां अपनी धाक जमाने के बाद उनकी पहुँच मिस्री सभ्यता तक हो सकती थी, जिसे पहले नौचालन का अनुभव पहले से इसलिए नहीं रहा हो सकता था कि उसे मूलतः आबाद करने वाले नूबियन सूखे क्षेत्रों से आए थे। स्वेज नहर बनने से युगों पहले लालसागर से एक नहर नील नदी से जोड़ी गई थी। इसके प्रेरक और आरंभिक उपयोक्ता पणि ही रहे हो सकते है. इसके अभाव में पणि अपने जलयानों के साथ भूमध्यसागर क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकते थे। अब इस नए कालबोध के साथ पीछे के सभी अनुक्रम बदल जाते हैं। हमने पहले यह देखा था कि लेखन के प्रयोग और नए सुधार असुरों के द्वारा किए गए और अब हम कहने जा रहे हैं कि भारोपीय क्षेत्र में भाषा और संस्कृति के प्रसार में अग्रणी भूमिका असुरों की थी। क्या यह कड़वी खूराक हजम की जा सकती है? इंतजार फिर भी खत्म न हुआ। कल की फिर कल को देखी जाएगी, घने बादल हैं आसमानों में।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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