Tuesday, 2 February 2021

शब्दवेध (100) खोटा सिक्का खरे को बाहर कर देता है

हमारी समस्या  भारतीय संदर्भ में  पणियों की सही पहचान करने की नहीं है।  हम इसका निबटारा कर चुके हैं,  फिर भी यदि पणियों की मातृ-देवियों की उपासना के आधार पर कोई कहे कि वे कुल्ली संस्कृति  से संबंधित रहे  हो सकते हैं,  या मोहेंजोदड़ो से  प्राप्त  लिंग के रोम से उसके  प्रतिरूप की प्राप्ति के आधार पर  उनको  मोहेंजोदड़ो की प्रशाखा बताना चाहे तो, यह हम इस पर  बहस नहीं करेंगे। सिंधु-सरस्वती सभ्यता के पूरे प्रसार में  मान-बाट,  नगर योजना,  नागर व्यवस्था,  सुरुचि, संस्कार, भाषा,  लिपि,  मुद्रांकन  आदि  की  समानताओं के नीचे  आंचलिक   विविधताएं थीं,  (इसे हेंफिल के दल ने नृतात्विक दृष्ट् से मोहेंजोदड़ो और मेह्रगढ़  के संदर्भ में  उठाया भी था, और उपादान संस्कृति में क्षेत्रीय भिन्नताओं की बात कुछ पुरात्तविदों ने भी की है), इसलिए हमारे लिए महत्वपूर्ण  यह नहीं है कि निर्वासित होने वाले पणियों की सटीक पहचान किससे की जाए।  महत्वपूर्ण ये तथ्य हैं कि 
(1) वे  देव सभ्यता   के विरोधी थे; 
(2) संस्कृत भाषा का, कम से कम,  व्यापक संपर्क के लिए  प्रयोग करते थे, 
(3) वे अपनी भाषा का पारिवारिक दायरे में और अपने पारिवारिक संपर्क में आने वालों के साथ करते थे;  
(4) अपने देवी देवताओं की उपासना करते थे;  
(5) उनके समाज में स्त्रियों को अधिक स्वतंत्रता प्राप्त थी; 
(6)  नौवहन,  उद्योग और  शिल्प में  देववादी   समाज  उन पर ही निर्भर था; 
(7)  जीवनशैली, साहित्य, परंपरा, दर्शन के मामले में यदि संपर्क में आने वाले समाज वैदिक स्वामिवर्ग का अनुकरण करते थे, तो उद्योगविद्या,  कौशल, रीति-व्यवहार के मामले में सीधे जनसंपर्क का महत्व अधिक था और इसलिए उपादान संस्कृति के मामले में इनका ही बोल बाला था। 
 
इतिहास का विचित्र व्यंग्य है कि सभ्यता की दिशा में बढ़ने वाले पहले चरण में 
 - कृषि के प्रयोगों का प्राणपण से विरोध करने वालों (असुरों/राक्षसों) ने एक बड़े भूभाग में कृषि के प्रसार में परोक्ष भूमिका निभाई, क्योंकि उनके आतंक के कारण कृषि कर्मियों को भारतीय भूभाग में और इसके बाहर भी इधर उधर भागते रहना पड़ा।  यदि किसी रहस्यमय योजना या कर्ता की कल्पना करें तो यह उसके द्वारा सभ्यता के बीज बिखेरने जैसी परिघटना है। मानव इतिहास को देखते हुए  जितनी कम अवधि में भूमध्य सागर तट से ले कर फिलीपीन  और चीन तक खेती का आरंभ हुआ वह यातायात की बाधाओं को देखते हुए लगभग एक ही काल में आश्चर्यजनक रूप में घटित परिघटना प्रतीत होता है।  ऐसा  असुर/राक्षसों के उपद्रवों के कारण ही संभव था। जब देवों के अनुनय विनय (नो अपि अस्यां भागं इति) के बाद उन्हें अपने खेती बारी का एक कोना मिल गया (शत.ब्रा. 1.2.5.5-6)  और उन्होंने कुपोषण से मुक्ति पा ली,  तब भी घुड़की और धौंस जारी रही: “तुम लोग अपनी इंद्र-भक्ति लिए-दिए कहीं दूर चले जाओ (उत ब्रुवन्तु नो निदः निः अन्यतः चित् आरुज, दधाना इन्द्रे इत् दुवः, ऋ. 1.4.5)।

देववादियों की संख्यावृद्धि और साथ ही उनके  अधिक संगठित और शक्तिशाली हो जाने  के बाद इनके वनांचलों के निरंतर अधिक्रमण के कारण, इन्हें  निराश्रय हो कर उन्हीं देववादियों (कृषि के उन्नायकों) से कृषि उत्पाद के लिए उनकी सोवा को तैयार होने के बाद समुचित  लाभांश के लिए होने वाली तकरारों के बाद दमन और उत्पीड़न से बचने के लिए देशान्तर को पलायन करने वालों ने सभ्यता और वैदिक भाषा  और भारतीय संस्कृति  का प्रसार किया।

यहाँ हम एक बौद्धिक उलटबाँसी की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहेंगे।  भारतीय इतिहास की बहुत मार्मिक व्याख्या करते हुए नीरद चंद्र चौधरी लिखते हैं:
To consider cultural history first, there has never been any civilization in India which had not have a foreign origin, has not have foreign inspiration behind it, and has not been created substantially by incoming foreign ethnic elements.  
(An Autobiography of an Unknown Indian, 1998, 563)
इसे वह इतने ही ठोस प्रमाणों से पहले वह समझा आए हैं जिससे अपने अपने तरीके से दूसरे सभी ‘प्रबुद्ध’ भारतीय जानते और मानते हैं।  इसे मान लेने पर आप का सम्मानजनक प्रवेश उस बिरादरी में हो जाता है जिसमें सभ्यता, वस्तुपरकता और मतनिरपेक्षता के विरुद वितरित किए जाते है। असहमत होते ही आप कहते क्या हैं, किस आधार पर असहमत होते हैं यह सुनने को, यह पता चल जाने के बाद कि आपके निष्कर्ष उस मान्यता से भिन्न हैं आप का लिखा पढ़ने को भी उस बिरादरी के सदस्य तैयार नहीं होते, इसका मुझे लंबा अनुभव है । उनकी फटकार मुस्कराते हुए सुनने के बाद अपने संदेहों का निवारण करने के लिए जब उनसे अनुरोध किया तो वे सभी बगलें झाँकने लगे, जब कि वे सभी पुरातत्व, नृतत्व, इतिहास और तुलनात्मक भाषाविज्ञान की अनन्य विभूतियाँ थीं।  

अधिक संभव है कि आप भी उस धारणा के कायल हों, क्योंकि इसे मुख्वेय विजारधारा माना जाता है, और जो दावा किया गया है वह हवाई  नहीं, कतिपय दृष्टांतों पर आधारित हैं। अब इस संदर्भ में  निम्न तथ्यों पर ध्यान दें जिनको मैंने  उन धुरीण दिद्वानों के सामने कभी इस रूप में नही रखा। चौधरी की सारगर्भित  ठिप्पणी के बाद, आप को भा उनसे सहमत मान कर पहली बार आप के सामने रखना जरूरी है।  सभ्यता के प्रवाह की दिशा तय करने के लिए लेखन पूर्व की परंपरा इतिहास का उतना ही अपरिहार्य स्रोत है जैसे लेखन।  

अब सुमेर जिसे सभ्यता के जनक के रूप में याद  किया जाता है, उसका, बेरोसस, उनके अपने ही इतिहासकार, के अनुसार रहस्य यह है:
Oannes, in Mesopotamian mythology, an amphibious being who taught mankind wisdom. Oannes, as described by the Babylonian priest Berosus, had the form of a fish but with the head of a man under his fish’s head and under his fish’s tail the feet of a man. In the daytime he came up to the seashore of the Persian Gulf and instructed mankind in writing, the arts, and the sciences. Oannes was probably the emissary of Ea, god of the freshwater deep and of wisdom. 
(Wikipedia).

हम कृषिकर्मियों द्वारा अपनी भूसंपदा से वंचित, उशना के नेतृत्व में निर्वासित, पाताल लोक में पहुँचने की कथा का इससे संबंध पहले दिखा चुके हैं। 

ईरान के विषय में हर्त्जफील्ड ने (Zoroaster and His World, II, 1947 , 330)  वहां की परंपरा का उल्लेख किया है जिसके अनुसार वहाँ सभ्यता का सूत्रपात करने वाले आदि पुरुष  (यम जमशीद) भारत में तब तक हो चुके समस्त विकासों का ज्ञान लेकर पहुँचते हैं।  पाठकों  के मन में इनमें से कुछ के विषय में आशंका पैदा हो सकती है, इसलिए उद्धृत अंश में उनके साथ कोष्ठक में वैदिक शब्द दे दिया है:
Yama-Djashid teaches the fabrication of weapons(आयुधानि), saddles, bridles(रश्मि),   other tools and implements, spinning and weaving of silk(ऊर्णा), linen(तार्प्य कोशेय)  and cotton, the whole national economy, quarrying(खनि, आकर) and massoning of stones, making chalk and cement, architecture, hydraulic wheels(कूचक्र) and mills(चक्री), bridge building(सेतु), mining, perfumery(सुगंधि), pharmaceutics(ओषधि/, medicine(भेषज), shipbuilding and pearl fishery (कृशनम्). .   

यदि किसी स्थल से भारत के विलक्षण माने जाने वाले - मोर, गन्ना, चंदन, आदि के निर्यात का उल्लेख पढ़ कर हम बिना किसी आशंका के यह कह सकते हैं कि वह भारतीय व्यापारियों का अड्डा था, या वहाँ के व्यापारी भारतीय संपर्क में थे, उसी तरह भारत में किसी चरण के समस्त  विकासों  को लेकर पहुँचने वाले व्यक्ति या आदि पूर्वज के विषय में दो टूक फैसला कर सकते हैं कि वह वहाँ भारत से पहुँचा था।।

हम विलियम जोंस द्वारा जुटाए गए साक्ष्यों के माध्यम से देख चुके हैं  कि यूनानी परंपरा के अनुसार ग्रीस और रोम के लोग मानते थे कि सभ्यता के सभी तत्व दक्षिण में अवस्थित भारत (इथियोपिया) से वहीं पहुँचे थे। ठीक यही विचार जर्मन अध्येता Hans G. Niemeyer के सीथियनों (पणियों) के संबंध में (शबवेध 94)हैं।

अब नीरद चंद्र चौधरी की भारतीय इतिहास  विषयक उस ‘सुचिंतित’, ‘निष्पक्ष’ और सभी ‘संकीर्णता से मुक्त धारणा’ पर दुबारा विचार कीजिए तो पूरी तस्वीर ही बदल जाएगी। अब इसका नया पाठ बनेगा:
To consider cultural history first, there has never been any civilization in  the world which had not have an Indian origin, has not have Indian inspiration behind it, and has not been created initially by outgoing Indian ethnic elements.  ,  

परंतु यदि आपने इस सही और प्रामाणिक पाठ को इतिहास का सत्य कहा तो आप हिंदुत्ववादी, संकीर्ण, पूर्वाग्हों से ग्रस्त घोषित कर दिए जाएँगे जब कि यूरोपीय आततायियों के प्रवेश से पहले भारत पूरे विश्व के लिए सपनों और विचित्रताओं का, संपन्नता और वैभव का देश था। प्रसिद्ध जुमला ऑल रोड्स लीड टु रोम केवल यूरोप के संदर्भ में, तीन चार सौ सालों के लिए सही था।  यदि आप कहें, सारे जहाज भारत या भारतीय अड्डों तक पहुँचने के इरादे से रवाना होते थे तो यह विश्व इतिहास का सच होगा, परंतु सच को कह पाना और झूठी कहानियों को सच मानने और सर्वज्ञात और सर्वमान्य सत्य को सुनने तक को तैयार न होने वालों को इसे समझा पाना, कितना कठिन है। संचार और प्रचारसाधनों के बल पर प्रचारित झूठ सच को आपकी चेतना और विचार-परिधि से बाहर कर देता है, और सच के पक्षधर का मुँह झूठ पर पली इस उन्मादी भीड़ के द्वारा काला कर दिया जाता है।
( समाप्त )

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )


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