वाशिंगटन डी.सी. में जो छह जनवरी को हुआ, उस पर गहराई से सोच कर आगे के लिए सबक लेने की जरूरत है।
बात शुरु कहाँ से होती है? डोनाल्ड ट्रंप यह मानने से इंकार कर देते हैं कि वे पॉपुलर वोट में हार गये हैं। जीत -हार का फर्क कम था, पोस्टल बैलट बहुत से थे, इसलिए शुरु में बहुत से तटस्थ लोगों की भी थोड़ी-बहुत सहानुभूति ट्रंप के साथ थी, लेकिन बाद में जब आरोंपों की तकनीकी जाँच पड़ताल, कानूनी परख हुई तो एक के एक बाद अदालतें और अन्य संस्थाएं ट्रंप के वोट-फ्राड के दावों को खारिज करती चलीं गयीं। ट्विटर ट्रंप के ट्वीट्स पर नोट लगाने लगा कि वोट फ्राड के ये दावे प्रामाणिक नहीं हैं।
ट्रंप अड़े रहे, अपने समर्थकों को भड़काते रहे, कैपिटोल हिल पर हुए उपद्रव ( अमेरिकियों के अपने शब्दो में insurrection यानि सशस्त्र विद्रोह) के दौरान तक भी ट्रंप ने गंभीरता और पौढ़ापन अपनाने के बजाय अपना हिंसक छिछोरापन जारी रखा। नतीजा सारी दुनिया ने देखा। पाँच लोगों की जानें गयीं। उपद्रव के दौरान हिंसा ही नहीं, बदतमीजी भी भरपूर की गयी। कुछ रिपोर्ट्स के अनुसार सदन के सदस्यों के कमरों का मूत्राभिनंदन भी किया गया।
अब स्थिति यह हे कि अमेरिका के राष्ट्रपति का एकाउंट फेसबुक पर बैन है।
लेकिन ट्रंप और उनके समर्थकों की तरफ गलती मानने या माफी माँगने का कोई सीरियस उपक्रम नहीं दिखता।
विचार करने की बात यही है। गलती इंसान से होती ही है। आवेश में बहुत नेक लोग भी भयानक भूलें कर बैठते हैं, लेकिन फिर मान भी लेते हैं, पछताते हैं, प्रायश्चित भी करते हैं।
सच तो यह है कि गलती बस दो तरह के लोग नहीं करते। एक वे जो जन्मे ही नहीं है, दूसरे वे जो मर चुके हैं। वरना तो धरती पर अवतार लेने के बाद स्वयं भगवान भी गलती कर ही बैठते हैं।
ट्रंप केवल एक व्यक्ति नहीं टाइप है। यह हमारे समय की खासियत है कि दुनिया भर में कुछ लोग ट्रंप डिजाइन के लोगों को हीरो ऑफ अवर टाइम मानने लगे हैं। इस डिजाइन के लोग केवल लोकतंत्र के लिए ही नहीं, मानव सभ्यता मात्र के लिये खतरा हैं, क्योंकि वे ऐसे माइंडसेट का निर्माण करते हैं जो अपनी या अपने नेता (बल्कि आराध्य देव) की गलती कभी मान ही नहीं सकता।
जि्द्दी होने और तानाशाही मिजाज की गिरफ्त में होने में बुनियादी फर्क है। तानाशाह जिद नहीं कर रहा होता, वह सचमुच मानता है कि उसकी कोई गलती या कमी है ही नहीं। वह डिल्यूजन--मतिभ्रम--का शिकार होता है। नेता के धरातल पर यह डिल्यूजन खुद को मसीहा समझने के रूप में काम करता है, और उसे देवता मानने वाले अनुयायियों के धरातल पर मसीहाई के दावे में अटूट आस्था के रूप में।
नेता और अनुयायी दोनों एक ही बीमारी के अलग अलग रूपों की जकड़ में होते हैं। एक तरह से, उन्हें इलाज की जरूरत है और यह इलाज का ही हिस्सा है कि उन्हें सत्तातंत्र से बहुत बहुत दूर रखा जाए। आखिरकार, बंदर के हाथ में उस्तरा उसके लिए भी खतरनाक ही साबित होता है ना।
आज के जमाने में इस बीमारी का वाइरस फैलाने में सबसे ज्यादा योगदान टीवी चैनल और वाट्सएप विश्वविद्यालय करते हैं। वैसे इस डिल्यूजन के इतने खतरनाक रूप तक अपन एकाएक नहीं पहुँच गये हैं। बीमारी धीरे-धीरे बढ़ी है और उनके सहयोग से बढ़ी है जिनसे इलाज की तवक्को थी। बीस साल पहले जब सुषमा स्वराज के नेतृत्व में बीजेपी दिल्ली का चुनाव हारी थी तो सुषमाजी की टिप्पणी थी , "कैसे अजीब लोग हैं दिल्ली के, प्याज की कीमतों के चक्कर में राष्ट्रवादी पार्टी को हरा दिया"।
जैसे ट्रंप चुनाव हार ही नहीं सकते वैसे ही सुषमाजी की पार्टी हार ही नहीं सकती, बशर्ते दिल्ली के वोटर राष्ट्रवादी बने रहें। हमसे गलती हुई, यह बात इस तरह के मिजाज में आती ही नहीं।
मीडिया का काम सत्ता को जिम्मेदारी याद दिलाना है, यह याद दिलाना है कि गलती हो रही है, सुधारो। दूसरा काम खबरें देना है, अपनी स्वयं की राजनैतिक सहानुभूति से ऊपर उठकर। हजारों ट्रैकटरो पर दिल्ली की परिक्रमा करते किसान खबर हैं या नहीं? माँगों पर चर्चा के दौरान आप चाहते हैं तो कहिए कि गलत माँगें हैं इतनी बड़ी ट्रैक्टर रैली खबर हे या नहीं?
इस तरह के कामाें से मीडिया उस बीमारा माइंडसेट का निर्माण करने के पाप का बराबर का भागीदार बन जाता है, जिसकी चर्चा हम कर रहे हैं।
1962 में चीन ने जो भूमि दबा ली, उसके लिए नेहरू आज तक गरियाए जाते हैं कयोंकि भारतीय सेना के पीछे हटने की दुखद खबरों तक को दबाने का प्रयत्न नहीं किया गया। संसद में बहस के ऐन दौरान बाहर जुलूसों का आयोजन करते , "बेशर्म हुकूमत सोती है " जैसे तीखे नारे गढ़ने वाले नेताओं को एंटी नेशनल नहीं कहा गया। मीडिया में उन्हें अपमानित नहीं किया गया।
और आज, अव्वल तो हमारी सीमा में कोई घुसा ही नहीं, फिर भी बीस भारतीय सैनिक न जाने कैसे शहीद हो गये, फिर चीन से सीमावार्ता जारी है, हालांकि चीन का रुख अड़ियल है, अरे भैया जब कोई घुसा ही नहीं अतिक्रमण हुआ ही नहीं तो वार्ता क्या अचार मुरब्बे बनाने की विधियों के बारे में हो रही है?
ये सवाल पूछे जाएँ यह देश की सुरक्षा के लिए ही नहीं, समाज के मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी जरूरी है। यदि आप जान कर भी न मानें कि आप मिसाल के तौर पर कोविड-19 की चपेट में आ चुके हैं तो आप अकेले तो जाएंगे नहीं, कंपनी के लिए दो एक निकटवर्तियों को भी ले ही जाएंगे।
गलती न मानने को हीरोइक्स बदलने वाले लोग--नेता, मीडिया, टिप्पणीकार-- समाज को मूर्खता और क्रूरता की खाई में ढकेल रहे हैं, कुछ जानबूझ कर ऐसा कर रहे हैं ताकि समाज की मूर्खता उनकी ऐयाशियों का सामान जुटाती रहे, तो कुछ उसी मूर्खता की गिरफ्त में आकर।
बात ट्रंप बनाम बाइडेन, भाजपा बनाम कांग्रेस की नहीं है। न तो बाइडेन फरिश्ते हैं न कांग्रेस दूध की धुली है।
बात सोचने विचारने की कूवत, उससे भी पहले सहज मानवीय करुणा बनाये रखने बचाये रखने की है। थोड़ी देर के लिए आवेशमुक्त हो कर सोचिए, एक आदमी की गला रेत कर हत्या कर दी जाए, ह्त्यारा अपने भतीजे से वीडियो बनवा कर प्रसारित करे...और यह बात पढ़ते समय भी आप याद करने की कोशिश करने लगें कि वह सायको हत्यारा हिन्दू था या मुसलमान...एक औरत के साध तीन-चार मर्द हद दर्जे की दरिंदगी करें और आपके चहेते नेतागण, आप स्वयं टिप्पणी दरिंदों और उनकी शिकार की सामाजिक-धार्मिक पहचान तय कर लेने के बाद ही करें, ऐसी खबर सुनकर जो घिन जो क्रोध आना चाहिए वह तक सहज रूप से न आए...
सोचिए सचमुच....आप इतमीनान से खुद को इंसान कह सकते हैं क्या?
सोशल मीडिया के माहौल का जो अनुभव है, उसके आधार पर लगता है कि इस पोस्ट पर गालियाँ उचारने वाले भी दो चार तो आ ही सकते हैं। निवेदन यही है कि चाहूँ तो मैं भी ऐसी गालियाँ दे सकता हूँ कि जिन्हें दी जा रही हैं, उन्हें छोड़, बाकी सुनने वाले कापी-पेंसिल लेकर या अपना स्मार्टफोन लेकर नोट करने बैठ जाएँ। लेकिन, बेफिक्र रहें, दूँगा नहीं। बस, यह याद दिला दूँ कि जैसे घर की दीवाल पर टाँग उठाने की अनुमति प्राणी विशेष को नहीं देता, वैसे ही इस दीवाल पर...
और फिर मेरी यह दीवाल किसी अमेरिकन सीनेटर का दफ्तर भी नहीँ, और सौभाग्य से अपने यहाँ स्टॉप दि स्टील भी फिलहाल तो चल रहा नहीं...
( डॉ पुरुषोत्तम अग्रवाल )
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