कौन कहता है नही हाजत रवाये कानपुर,
तोफ शाही पर करे है हर गदाये कानपुर |
मजीद खाँ
कानपुर का भूभाग सभी को आकर्षित करता रहा,चाहे गोपालकृष्ण गोखले, लाला लाजपतराय और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक हो सभी इस क्रांतिधरा पर पधारे । इसी क्रम मे महात्मा गान्धी भी कानपुर की पुण्य तीर्थ रेणु पर पधारे । गाँधी जी कानपुर मे सात बार आए और २० दिवसीय प्रवास किया | महात्मा गान्धी की सातो यात्राओ सन् १९१६ से १९३४ तक का विवरण निम्नवत है |
१ - महात्मा गांधी की पहली यात्रा
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१९१६ दिसम्बर २८ , लखनऊ अधिवेशन मे दो पत्रकार महत्मा गांधी से पहली बार मिलने गए | दोनो युवा थे, २५ - २६ वर्ष के |
गांधी जी कांग्रेस कैंप मे भी अपने सिद्धान्त के अनुरुप चक्की पीस रहे थे | एक बैरिस्टर और इतना बड़ा नेता चक्की पीसे, इससे अंग्रेजो के साचे मे ढले नेताओ को घृणा सी होती थी और राष्ट्रीय नेता गांधी जी की उपेछा करते थे | किंतु ग्रामीण उन्हे देखना चाहते थे ,जानना चाहते थे |
एक युवक ने कहा - गांधी जी कानपुर आइए |
गांधी जी ने कहा - हां हां कानपुर के और भाई भी मेरे पास आए थे | उनसे मैने कहा कि "प्रताप" का संपादक गणेशशंकर विद्यार्थी आवे तो बात करके जवाब दूंगा | तो अब मै कानपुर आऊंगा पर मै तुम्हारे पास ही ठहरूंगा |
युवक ने तत्काल कहा - मेरे छापेखाने मे तो धूल उड़ती है | हम कानपुर के लोग आपको बहुत अच्छी जगह ठहराएंगे |
गांधी जी खिलखिलाकर बोले - भाई मुझे अच्छी जगह नही ठहरना है , मुझे तुम्हारे पास ठहरना है | अच्छा जाओ , देर होती है |
उसी समय दोनो युवक उठकर चले गए | गांधी जी को कानपुर आने का निमंत्रण देने वाले युवक स्पष्ट है , गणेशशंकर विद्यार्थी थे और साथ थे दूसरे युवा पत्रकार माखनलाल चतुर्वेदी |
चौथे दिन १ जनवरी १९१७ माखनलाल चतुर्वेदी "प्रताप" प्रेस पहुँचे तो देखा - गांधी जी वहां पहुंचे हुए हैं | वह उस समय पत्र लिखने मे व्यस्त थे | एक साधारण सी कलम थी , आलपिन की जगह बंबूल के कांटे रखे हुए थे, और प्रताप प्रेस के नल पर उनके कपड़े धुल रहे थे | लोगो से मिलने का समय होते ही उन्होने अपना लिखना बंद कर दिया और चर्चा करने लगे |
गणेशशंकर विद्यार्थी सवाल करते , गांधी जी जवाब देते साथ मे थे कानपुर के थियोसाफिकल हाईस्कूल के हेडमास्टर श्री परांजपे | वह भी बीच बीच मे गांधी जी से सवाल करते | गांधी जी उनके सवालो का भी जवाब दे रहे थे |
माखनलाल जी प्रश्नोत्तर नोट करने लगे, जो छपा | सिर्फ गणेशशंकर के प्रश्नोत्तर के रूप मे |
( हेमन्त : पत्रकार योद्धा , सामयिक प्रकाशन, पेज - ७२)
" १९१६ मे लखनऊ मे हुए कांग्रेस अधिवेशन मे गांधी जी भी पहुंचे | यह उनका दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद पहला अधिवेशन था | लखनऊ से लगभग ८० किलोमीटर दूर कानपुर मे जहाँ कांग्रेस संगठन का ढ़ांचा भी नही था, वहाँ पर गणेश जी ने जो स्वयं उस समय पत्रकार रहते हुए कांग्रेस की गतिविधियो मे कभी कभी भाग लेते थे | वह लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन मे कानपुर लखनऊ नजदीक होने की वजह से और कानपुर के कांग्रेसी नेता , शायर गणेश जी के बचपन के मित्र हसरत मोहानी के कहने पर पहुँचे थे | यह उनका प्रथम कांग्रेस अधिवेशन था | गणेश जी ने निश्चय किया कि लखनऊ अधिवेशन से लौटते वक्त गांधी जी और लोकमान्य तिलक को कानपुर लाया जाये | इसके लिए दोनो महान विभूतियो को गणेश जी ने आमंन्त्रित किया और वे दोनो लोग तैयार हो गए |
कानपुर मे कांग्रेस के संगठन का अभाव और अंग्रेजो के भय के कारण तिलक जी को इतने बड़े शहर मे ठहरने के लिए कही कोई जगह नही मिली तो मजबूरन उन्हे ईआईआर के पुराने जंक्शन स्टेशन के पास एक धर्मशाला पर ठहराया गया | तिलक जी का कानपुर मे बड़ी धूमधाम से जुलूस निकाला गया और एक सार्वजनिक सभा मे उनका भाषण भी हुआ | चम्पारण सत्याग्रह के सिपाही राजकुमार शुक्ल ने स्वयं इस भाषण को सुना था | उन्होने अपनी डायरी मे लिखा है कि लगभग इस जनसभा मे १०००० आदमियो की संख्या थी |
गांधी जी की यह पहली कानपुर की यात्रा थी | उनके साथ दक्षिण अफ्रीका मे सत्याग्रह के दौरान उनके सहयोगी रहे मिस्टर पोलक भी थे | गांधी जी जब कानपुर पहुँचे थे तो उनके लिए न कोई जुलूस निकला था न उनका कोई व्याख्यान हुआ था | गांधी जी को कानपुर रेलवे स्टेशन से लेकर " प्रताप " कार्यालय तक लाने वाले प्रताप प्रेस के सहयोगी दशरथप्रसाद द्विवेदी लिखते है कि
" गांधी जी उस समय तीसरे दर्जे मे सफर करते थे, नंगे पैर रहते थे, सर पर एक काठियावाड़ी ढंग की पगड़ी बांधा करते थे और एक चौबन्दी पहना करते थे | अपने कन्धे पर खादी का एक झोला भी टाँगे रहते थे | भरी हुई एक स्पेशल ट्रेन से वह रात को ८:०० - ९:०० बजे कानपुर उतरनेवाले थे | शिवनारायण जी और मै स्टेशन पर उन्हे लेने गये थे | बड़ी मुश्किल से हम लोग उन्हें ढूँढ़ पाये | बहुत कोशिश की खादी का झोला हम लोग उनसे ले लें , परन्तु हम लोग अपने इस प्रयत्न मे विफल रहे | कानपुर के लोग तो उस समय लोकमान्य तिलक को अपने यहाँ ठहराने मे डरते थे, तो उनके लिए अपनी सवारी कौन देता | इसलिए मजबूरन गांधी जी और मिस्टर पोलक को रात मे शिवनारायण जी के ताँगे पर लोग स्टेशन से प्रताप कार्यालय ले आये | उन दिनो रात को गांधी जी दूध के सिवा कुछ नही लेते थे | प्रताप आफिस के बड़े कमरे में फर्श पर एक बड़ी दरी बिछी और मिस्टर पोलक और गांधी जी ने वही जमीन पर विश्राम किया | मिस्टर पोलक उस समय लुंगीनुमा एक धोती अथवा पाजामा और कुर्ता पहना करते थे | गांधी जी की खुराक उस समय कच्ची मूँगफली और बिना घी की खिचड़ी थी | दूसरे दिन यही उन्हे अर्पित किया गया | मिस्टर पोलक ने भी इसमे हिस्सा बंटाया और कौतुहलवश हम लोगो ने भी उसे चखा |"
कानपुर की जनता मे कांग्रेस का अच्छा प्रभाव हो जाने पर भी इस समय तक वहाँ के जन नेताओ मे कांग्रेस के प्रति एक उदासीनता की भावना थी | इसलिए भोजन करने के बाद जब गांधी जी ने नगर के नेताओ से बात करने की इच्छा व्यक्त की तो उन्हे निराशा ही हाथ लगी | इतने बड़े कानपुर मे केवल डा. मुरारीलाल तथा नारायण प्रसाद निगम ही अपने २- ४ मित्रो के साथ मिलने वहाँ आये और इन दोनो महानुभाव मे भी डा. मुरारीलाल चिकित्सकीय व्यवसाय के साथ भवन निर्माण के कार्य मे व्यस्त रहते थे | श्री नारायण प्रसाद निगम ही ऐसे व्यक्ति थे जो सामाजिक कार्यो मे रुचि लेते थे | विद्यार्थी जी के मित्रो की संख्या भी उस समय सीमित थी , फिर भी उन्होने दो महान नेताओ को एक साथ कानपुर आमंन्त्रित किया | सम्भवतः गांधी जी कानपुर के जन नेताओ के इस उपेक्षापूर्ण व्यवहार से खिन्न हो गये थे | उन्होने डा. मुरारीलाल और श्री नारायण प्रसाद निगम से वार्तालाप किया |
विद्यार्थी जी ने गांधी जी से शिकायत की कि हम नौजवानो को काम करने के लिए प्रोत्साहित करनेवाला साथ देने वाला तक यहाँ कोई नही है | गांधी जी ने डा. मुरारीलाल से कहा -
" डाक्टर साहब आप क्यो नही इन नौजवानो से काम लेते ? अगर इन्हे आप उत्साहित करेंगे तो यह बहुत कुछ कर दिखायेगे | आप सभापति बन जाया कीजिए, यह लोग और सब कुछ कर लेगे |"
डाक्टर साहब ने ऐसा करने का वचन दिया | विद्यार्थी जी इसके बाद हर राजनैतिक काम मे डाक्टर साहब को खीचने लगे और डाक्टर साहब तभी से राजनीति मे अधिक भाग लेने लगे |
गांधी जी " प्रताप " के सम्पादक गणेशशंकर विद्यार्थी के अनुरोध पर कानपुर गये और प्रताप प्रेस कार्यालय मे रुके थे | वहां पर पुनः शुक्ल जी ( राजकुमार शुक्ल) ने गांधी जी से मुलाकात की | गांधी जी लिखते हैं कि -
" लखनऊ से मै कानपुर गया था | वहां भी राजकुमार शुक्ल हाजिर ही थे | वहां शुक्ल जी ने गांधी जी से कहा कि यहां से चम्पारण बहुत नजदीक है एक दिन दे दीजिए | गांधी जी का जवाब था कि अभी मुझे माफ कीजिए पर मै चम्पारण आने का वचन देता हूँ ।"
( अजीतप्रताप सिंह : चम्पारण सत्याग्रह का गणेश , लोकभारती प्रकाशन , पेज - ७६ से ७८ व १०७ )
१ जनवरी १९१७ को प्रताप पत्र मे महात्मा गांधी जी का लखनऊ कांग्रेस मे अखिल भारतीय एक भाषा व एक लिपि सम्मेलन मे २९/१२/१९१६ को दिया गया भाषण प्रकाशित हुआ था | इसी दिन गांधी जी ने शहर छोड़ा |
२ - महात्मा गांधी की दूसरी यात्रा
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महात्मा गांधी जी इलाहाबाद से लाहौर जाते हुए कानपुर मे दूसरी बार २१ जनवरी १९२० को आए | शहर मे मेस्टन रोड पर स्वदेशी भंडार का शुभारंभ किया था एवं शाम को कानपुर छोड़ दिया व २२ जनवरी को मेरठ पहुँचे थे |
महात्मा गांधी जी की एक चिट्ठी मे इस मार्मिक यात्रा का विवरण कुछ इस प्रकार से है ...
लाहौर
माघ सुदी ६ ( २७ जनवरी ,१९२० )
दिल्ली से मुझे प्रयाग तो जाना ही था | वहां पण्डित मोतीलाल नेहरू से मिलकर वापस लौट रहा था तभी मुझ पर कानपुर जाने के लिए जोर डाला गया | कानपुर के नागरिको का आग्रह था कि वहां मुझे मात्र कुछ घण्टे रुकना होगा | स्वदेशी भण्डार का उद्घाटन करके मै दूसरी गाड़ी से वहां से विदा ले सकूगा | मै उन्हे निराश नही कर सका |
प्रयाग से दिल्ली जाते हुए कानपुर रास्ते मे ही पड़ता है और वह मेल गाड़ी से केवल चार घण्टे का रास्ता है | कानपुर बम्बई की तरह ही व्यापार का और कपड़ा मिलो का केन्द्र है | वहां की जलवायु भी बहुत अच्छी है | इस नगर मे स्वदेशी भण्डार खोलने का यह पहला ही प्रयत्न है और उसमे मुख्य हाथ हसरत मोहानी साहब का है | इस भण्डार के उद्घाटन के समय हजारो आदमी एकत्र हुए थे ; उनके उत्साह की सीमा नही थी |
एक दु:खद घटना।
मेरे यहां पहुँचने के पहले ही अली भाई पहुँच चुके थे | उनके सम्मान मे एक बड़ा जुलूस निकाला गया था | उनकी गाड़ी का घोड़ा भड़का और लातें मारने लगा | भीड़ बहुत ज्यादा थी | गाड़ी के पास ही अब्दुल हफीज नाम का एक हष्ट पुष्ट युवक खड़ा था | पिछले कुछ दिनो से वह सार्वजनिक सेवा का काम करने लगा था | घोड़े की लात से उसकी छाती पर चोट लगी और वह गिर पड़ा | जिसके मरने की कभी कल्पना ही नही की जा सकती थी ऐसा वह युवक क्षण मात्र मे चल बसा | अली भाई तुरन्त गाड़ी से उतरे , उन्होने एक खाट मंगवाई , उसके ऊपर युवक का शव रक्खा गया , और दोनो भाइयो ने उसमे अपना कन्धा दिया | कुछ दूर तक वे स्वयं उसकी इस शवयात्रा मे गये | बाद मे कन्धा बदलने पर अपने काम पर गये | जो जुलूस खुशी का था वह इस घटना के बाद शोक का हो गया और शव के साथ गया | सारा दिन शोख की इस छाया से मलिन हो गया |
इस घटना को घटित हुए चार घण्टे हुए होगे कि इतने मे मै पहुँचा | मुझे यह दु:खद संवाद स्टेशन पर ही मिल गया था | मैने माँग की कि मेरे लिए आयोजित जुलूस स्थगित कर दिया जाय , मुझे सीधे भण्डार ले जाया जाय , और उद्घाटन की क्रिया पूरी कराने के बाद वहां ले जाया जाय जहां अब्दुल हफीज का शव है | नगर के नेताओ ने मेरा अनुरोध स्वीकार किया | भण्डार का उद्घाटन करने के बाद हम कुछ लोग भाई अब्दल हफीज का शव देखने के लिए जा पहुँचे | दृश्य अत्यंत ह्रदय द्रावक था | उसकी हष्ट पुष्ट देह और सुन्दर चेहरा देखकर मुझे गहरा दु:ख हुआ | आसपास खड़े हुए मुसलमान भाइयो की हिम्मत से मैने धैर्य धारण किया | वहाँ मैने कोई रोना धोना नही देखा | मानो घोर निद्रा मे सोये हुए किसी भाई के आसपास बातचीत हो रही हो, इस प्रकार वे लोग निर्भयतापूर्वक बातचीत कर रहे थे और मुझे सुना रहे थे कि युवक की मृत्यु कैसे हुई | इस दृश्य से मै बहुत प्रभावित हुआ | ऐसे अवसर पर हिन्दुओ मे कितना रोना धोना होता है, इस बात की याद आई | मन मे विचार आया कितना अच्छा होता कि यदि हम इस पाप से बचते | यदि हम मृत्यु का डर छोड़ दे तो अनेक अच्छे कार्य हो सकते है | जिस धर्म के अनुयायियों मे मृत्यु का भय कम से कम होना चाहिए उन्ही मे वह सबसे ज्यादा है | यह विचार कई बार मेरे मन मे आया है और उससे बड़ी लज्जा का अनुभव हुआ है | आत्मा अमर है, देह क्षणभंगुर है, कोई ऐसा कार्य नही जिसका परिणाम न होता हो -- बचपन से यह सब हम सीखते है | तो फिर मृत्यु का भय क्यो होना चाहिए ? अब्दुल हफीज का एकमात्र पुत्र मेरे पास खड़ा हुआ था ; वह भी निर्भयतापूर्वक बात कर रहा था | भगवान अब्दुल हफीज की आत्मा को शान्ति प्रदान करे |
( मूल पत्र गुजराती मे था / नवजीवन ०१/ ०२/ १९२० )
३ - महात्मा गांधी की तीसरी यात्रा
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महात्मा गांधी जी की तीसरी कानपुर यात्रा भी सन् १९२० ई० मे १४ अक्टूबर की है | इस यात्रा को भी गांधी जी के शब्दो मे देखे ...
" हर एक यात्रा मे मुझे इतने अधिक अनुभव हो रहे है कि उनकी चर्चा करके पाठको को उनके परिणामो से अवगत कराना मेरे लिए कठिन हो रहा है | इसलिए मै अबतक जो कह चुका हूँ , उसके साथ अनुशासन और संघटन की आवश्यक्ता पर अतिरिक्त जोर देकर ही मुझे सन्तुष्ट होना पड़ेगा | मै कानपुर तक की अपनी यात्रा के विषय मे लिख चुका हूं | मै डर रहा था कि कानपुर -- मौलाना हसरत मोहानी और डा.मुरारीलाल के कानपुर -- मे पहुँच कर क्या होगा ? दोनो ही बड़े कार्यकर्ता है | स्टेशन पर जैसी व्यवस्था होनी चाहिए वैसी ही थी | जबरदस्त भीड़ हमारी प्रतीक्षा कर रही थी किन्तु वह इतनी अनुशासित रही कि हम लोग जनता की दो घनी पंक्तियों के बीच से आसानी के साथ आगे बढ़ते चले गये और जबतक मोटर गाड़ियो मे जाकर अपनी अपनी जगह नही बैठ गये एक भी व्यक्ति टस से मस नही हुआ | जिस काम मे फिजूल ही ३० मिनट चले जाते,उसमे पाँच मिनट भी नही लगे | जुलूस का कार्यक्रम छोड़ दिया गया था, इससे खुशी हुई | कार्यक्रम भी स्टेशन की ही तरह व्यवस्थित और काम से काम रखने वाला था | हम लोग (डेरे पर ) करीब ८ बजे पहुँचे | एक ही दिन वहां रुका जा सकता था | किन्तु उतने ही समय मे कार्यकर्ताओ के साथ बैठक, शिकागो ट्रिब्यून के श्री फ्रेजहण्ट को निजी भेंट , विधवाश्रम देखना, राष्ट्रीय गुजराती शाला का उद्घाटन, गुजराती महिलाओ की एक सभा ( जिसमे महिलाएं बड़ी संख्या मे उपस्थित थी ), राष्ट्रीय समझौता अदालत का उद्घाटन, सार्वजनिक सभा और अन्त मे मुलाकातियों से बातचीत की | ये सारे ही काम बिना किसी अतिरिक्त भागदौड़ और परेशानी के निपट गये | सार्वजनिक सभाके समय प्रारम्भ मे थोड़ी सी गड़बड़ी हुई | यह जान पड़ा कि स्वयंसेवको को पहले से कुछ हिदायते नही दी गई है, किन्तु थोड़े ही प्रयत्न के बाद वहां भी पूरी शान्ति हो गई अतः लोगो ने लम्बे लम्बे भाषण पूरी तरह शान्त रहकर सुने | मेरा विश्वास है कि जैसे ही हम संगठित हुए और हममे अनुशासन आया वैसे ही हमे स्वराज्य मिल जायगा | यदि हम एक होकर किसी भी विदेशी शक्ति द्वारा शासित होने से इन्कार कर दे तो हमारे जैसे देश को इससे अधिक और कुछ करने की जरूरत नही | लखनऊ मे बिल्कुल इससे उलटा रहा | ......"
( यंग इण्डिया, २७/१०/१९२० )
राय साहबी छोड़ कर सक्रिय राजनीति मे आने वाले डा. मुरारीलाल रोहतगी के सभापतित्व मे परेड मे सभा हुई थी | १४ अक्टूबर १९२० को महात्मा गांधी जी ने कानपुर के परेड मैदान मे आयोजित सभा मे असहयोग पर भाषण दिया ...
" यूरोप की सबसे बड़ी ताकत से हमारी यह लड़ाई चल रही है | ऐसी लड़ाई मे विजय चाहते है तो हमे उसकु आवश्यक शर्ते समझ लेनी चाहिए | इनमे एक शर्त है संगठन की क्षमता | अंग्रेजो जैसी संगठन की क्षमता के बिना हम अपना काम-काज चला भी नही सकते | .... .... एक बार मुझे दस हजार आदमियो की एक सैनिक टुकड़ी के साथ सुबह के पहले पहर मे चलने का मौका आया था | सारे सैनिक पूर्ण अनुशासन का पालन कर रहे थे | लेकिन वह सैनिक ताकत से जीती जाने वाली लड़ाई थी | हम इस लड़ाई मे असहयोग के हथियार का उपयोग करके जीतना चाहते है | यहाँ अनुशासन की और भी अधिक आवश्यक्ता है | दूसरी शर्त है हिन्दू - मुस्लिम एकता | यह एकता जबानी जमा खर्च की नही बल्कि ह्रदयो की एकता होनी चाहिए | हिन्दुओ और मुसलमानो की समझ मे ज्योंही यह बात आ जायगी कि उनके सहयोग के बिना ब्रिटिश शासन असम्भव है और ज्योंही वे उन्हे अपना सहयोग देना बन्द कर देगे, त्योंही विजय हमारे साथ होगी | हम अपनी शक्ति का परिचय खून खराबी या आगजनी के कामो के द्वारा नही करा सकते | अपनी शक्ति का परिचय तो हम आत्मोत्सर्ग और समर्पण के कार्यो द्वारा ही दे सकते है | मेरा दृढ़ विश्वास है कि बलिदान ही सचाई की सच्ची कसौटी है और सचाई तबतक विजयी नही होती जबतक उसके पीछे बलिदान की सच्ची भावना न हो | आप अपने बच्चो को सरकारी स्कूलो से निकाल ले, अदालतो और कौंसिलो के चुनावो का बहिष्कार करे तथा विलासिता का जीवन छोड़कर स्वदेशी को अपनाये | "
(लीडर , २१/१०/ १९२० )
४ - महात्मा गांधी की चौथी यात्रा
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लखनऊ से कानपुर महात्मा गांधी जी ९ अगस्त १९२१ को पहुँचे | कानपुर मे सबसे पहले महिलाओ की सभा मे गांधी जी.ने स्वदेशी अपनाने और विदेशी वस्त्र त्यागने की अपील की थी | इसके बाद मारवाड़ी विद्यालय मे आयोजित वस्त्र व्यापारियो की सभा मे गांधी जी ने उन्हे भी विदेशी वस्त्र का बहिष्कार करने की आवश्यक्ता समझाई | इसके बाद कानपुर के नागरिको द्वारा अभिनन्दन पत्र के उत्तर मे भी व्याख्यान दिया |
" महात्मा जी ने आरम्भ मे सबको धन्यवाद देते हुए कहा कि आप लोगो के अभिनन्दन पत्र मे त्रुटि है | आप लोगो ने मौ. मुहम्मद अली का नाम इसमे नही लिया, इससे ऐक्य मे फर्क पड़ता है | इस समय हिन्दू- मुस्लिम ऐक्य की परम आवश्यक्ता है | इसी ऐक्य पर खिलाफत तथा पंजाब के अन्यायो का निपटारा और अंत मे स्वराज्य की सिद्धि निर्भर है | गोरक्षा का प्रश्न भी खिलाफत पर ही निर्भर है | हिन्दुओ को बिना किसी बदले के खिलाफत के वास्ते आत्मत्याग करने के लिए प्रस्तुत रहना चाहिए | मै नित्य प्रातःकाल गौओ की रक्षा के लिए प्रार्थना करता हूँ | गोवध हिन्दुओ के पाप का फल है | और उन्ही पापो के कारण हमारे साथ हमारे भाइयो की सहानुभूति नही है | हम लोगो को अपने पापो का प्रायश्चित करना चाहिए | हिन्दु- मुस्लिम ऐक्य की अत्यन्त आवश्यक्ता है ताकि खिलाफत प्रश्न का सन्तोषजनक निर्णय हो | खिलाफत ही हिन्दू- मुसलमानो को एक करेगी |
इसके साथ-साथ शान्ति और अहिंसा की भी बड़ी आवश्यक्ता है | हम लोगो को अपने क्रोध को जीतना चाहिए और ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि हम लोगो मे क्रोध का लोप हो जाय |
स्वदेशी के बिना स्वराज्य नही मिल सकता | महिलाओ का धर्म है कि वे खादी ही पहिनें | उनको महीन वस्त्रो का त्याग कर देना चाहिए | मुझे पूर्ण आशा है कि पहली जनवरी तक स्वराज्य अवश्य मिलेगा | यदि उस समय तक स्वराज्य न मिला तो जीवन भारी हो जायगा | हम लोग स्वावलम्बन भूल गये है | हम लोगो को यह सीखना है कि मरना किस तरह चाहिए | यदि गोली चले तो उसे हमे अपनी छाती पर रोकना चाहिए न कि उसे पीठ देनी चाहिए | यदि अंग्रेज हमारे देश मे रहना चाहते है तो उन्हे सहयोगी तथा सेवको की ही तरह रहना सीखना पड़ेगा | वे अब मालिक की हैसियत से यहाँ नही रह सकते | महिलाओ को विदेशी वस्त्र का बहिष्कार तथा चर्खा चलाना अपना धर्म समझना चाहिए ताकि यदि मै जेल मे रहूं य़ा फांसी पर चढ़ा दिया जाऊँ तब भी स्वराज्य अवश्य मिले | "
(आज , ११/०८/१९२१ एवं गांधी वांगमय खंड -२० )
९ अगस्त को ही कानपुर मे आज के प्रतिनिधि से भेट कर स्वदेशी पर इन्टरव्यु दिया जो आज अखबार मे १०/०८/१९२१ को प्रकाशित हुआ था | कानपुर प्रवास मे ही मणिलाल कोठारी और फूलचन्द शाह को ०९/०८/१९२१ को पत्र लिखा |
५ - महात्मा गांधी की पाँचवी यात्रा
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महात्मा गांधी जी ने कानपुर की पाँचवी य़ात्रा २३ दिसम्बर से २९ दिसम्बर १९२५ को कांग्रेस अधिवेशन मे शामिल होने के लिए की थी | वह शहर मे सप्ताह भर रूके यह कानपुर मे गांधी जी का दीर्घप्रवास था | अधिवेशन मे बहुत से भाषण दिए | उनमे स्वदेशी प्रदर्शनी उद्घाटन पर, अध्यक्ष पद छोड़ते समय, दक्षिण अफ्रीकी भारतीयो से सम्बन्धित प्रस्ताव पर , विषय समिति मे मतदान सम्बन्धी प्रस्ताव पर दिए गये व्याख्यान चर्चित रहे |
"२४ दिसम्बर १९२५ को स्वदेशी प्रदर्शनी का उद्घाटन करते हुए गांधी जी ने कहा - " मै इसे एक पुण्य कार्य मानता हूं | सरोजिनी देवी ने मुझे बताया कि यहाँ इस सप्ताह मे ३० सम्मेलन होने वाले है और इनमे से बहुत से सम्मेलनो मे मुझे सभापति पद ग्रहण करने के लिए कहा गया है | मैने अपनी विवशता प्रकट कर दी है क्योकि मै अपने को केवल इस स्वदेशी प्रदर्शनी का उद्घाटन करने योग्य मानता हूं | मै हिन्दु मुस्लिम एकता का पक्षपाती जरूर हूं पर यदि उसमे खद्दर को स्थान नही दिया जायगा तो मै उसे भी स्वीकार न करूंगा |
मै केवल खद्दर ही का स्वप्न देखा करता हूं | मैने प्रदर्शनी खोलने की जिम्मेदारी उसी समय ली, जब जवाहरलाल जी ने मुझसे इस बात का विश्वास दिला दिया कि इस प्रदर्शनी मे कोई भी विदेशी चीज नही रक्खी जायगी | मै अपने पाँच वर्ष के खद्दर- सम्बन्धी अनुभव के आधार पर यह कह सकता हूं कि हमने पर्याप्त प्रगति कर ली है | १९२० मे मैने अपने हाथ से सत्रह आने गज खद्दर बेचा था और लोग खुशी से खरीदते और पहनते थे | आजकल अच्छा खद्दर नौ आने गज मिल सकता है | क्या यह उन्नति श्लाघनीय नही है ? शुरू शुरू मे जो खद्दर की टोपिय़ाँ पहनते थे, लोग उन्ही को खद्दरधारी समझ लेते थे | पर अब यह बात नही है | ऐसे लोगो की संख्या जो पूरी तौर पर खद्दर पहनते है और दूसरा कपड़ा पहनते ही नही है, काफी बढ़ गई है | बहुत से लोगो ने खद्दर के प्रति सहानुभूति दिखलाई और प्रतिज्ञा भी की पर खद्दर पहना नही | इसके लिए मै क्या कर सकता हूँ ? कोई कारण नही था कि मै इनकी बातो पर अविश्वास करता | लोगो ने अपनी प्रतिग्या पूरी नही की, इसी कारण हम आशा के अनुरूप, १ वर्ष के अन्दर स्वराज्य प्राप्त नही कर सके | आज भी मै आपको पूरे विश्वास के साथ यकीन दिलाता हूं कि यदि आप सब विदेशी तथा देशी मिलो के कपड़ो का पूरा-पूरा बहिष्कार कर दे तो एक वर्ष से कम समर मे ही हमे स्वराज्य मिल सकता है | पर आपको मेरा यह कहना अक्षरशः मानना पड़ेगा |"
(लीडर , २६/१२/१९२५ )
महात्मा गांधी ने २४ दिसम्बर को ही अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद से निवृत्त होते हुए और कांग्रेस की बागडोर श्रीमती सरोजिनी नायडू को सौपते हुए कहा --
" कमेटी के सभी सदस्यो ने मेरा सदा समर्थन किया,इसके लिए मै उनके प्रति कृतग्यता प्रकट करता हूं | कमेटी के सदस्यो ने एकबार भी मेरे निर्णयो के प्रति शंका प्रकट नही की और मेरे सभी आदेशो का तुरन्त पालन किया | अगर वे यह नीति उन प्रस्तावो के सम्बन्ध मे भी रखते जिन्हे कि उन्होने स्वयं पास किया था तो हमारी स्थति अधिक अच्छी और दृढ़तर हो गई होती | अब कांग्रेस के नेतृत्व का भार श्रीमती सरोजिनी नायडू के कन्धो पर आया है | मेरी यही कामना है कि उन्हे पूरी सफलता मिले | ईश्वर से मेरी प्रार्थना है कि उनके काल मे हमारी स्थिति अधिक अच्छी बने | और जो बादल मँडरा रहे है, छिन्न- भिन्न हो जायेँ | श्रीमती सरोजिनी नायडू ने दक्षिण अफ्रीका मे जाकर भारतवासियो की अत्यन्त आश्चर्यजनक सेवा की है | अपनी काव्यशक्ति से उन्होने वहाँ के यूरोपीयो को मुग्ध तथा अपनी विवेकशक्ति और मधुर संभाषण कला के द्वारा विरोधियो का मुँह बन्द कर दिया ; अपनी राजनीतिग्यतापूर्ण कार्यशैली से उन्होने सिंह का सामना उसकी माँद मे ही किया | फिलहाल तो एशिया विरोधी कानून का पास होना स्थगित हो गया है | आज दक्षिण अफ्रीका के यूरोपीय यह समझने लगे है कि अगर श्रीमती सरोजिनी नायडू जैसे व्यक्ति दक्षिण अफ्रीका जायं तो कोई झगड़ा होगा ही नही | दक्षिण अफ्रीका निवासी मेरे अंग्रेज दोस्तो के पत्र मेरे पास बराबर आते है और वे कहते है कि श्रीमती सरोजिनी नायडू को या उन्ही की तरह के अन्य व्यक्तियो को फिर दक्षिण अफ्रीका भेजा जाय | इन सब बातो से प्रकट होता है कि वह बहुत कुछ कर सकती है और काँग्रेस का नेतृत्व करने के योग्य है , लेकिन मै उन्हे कांग्रेस कोष के. सम्बन्ध मे सावधान करता हूं कि वे अत्यन्त उदार न हो जाये जैसा कि स्त्रियां साधरणतः हुआ करती है | कांग्रेस का कोष इस समय सम्भवतः १|| लाख से अधिक नही है |"
( हिन्दुस्तान टाइम्स, २७/१२/१९२५ )
इस यात्रा मे महात्मा गान्धी जी ने शहर के मुंशी दयानरायन निगम के उर्दू मासिक पत्र जमाना को सन्देश दिया और २९ दिसम्बर को एसोसिएटेड प्रेस आफ इण्डिया के प्रतिनिधि को साक्षात्कार दिया था |
कानपुर प्रवास के दौरान लक्ष्मीदास आसर, तुलसीदास मेहरा, बालाजी गो० देसाई, वसुमती पण्डित और एक बहिन को पत्र लिखा |
६- महात्मा गान्धी की छठवीं यात्रा
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महात्मा गांधी जी ने छठवीं कानपुर यात्रा मे तीन दिन प्रवास किया इसमे से एक दिन उनका मौन दिवस रहा | गांधी जी ने ११सितम्बर से १८ नवम्बर १९२९ तक का संयुक्त प्रान्त मे खादी के लिए दौरा किया | २२ सितम्बर को कन्नौज से कानपुर गांधी जी आये और तीन दिनो मे अनेक सभाएं की | स्त्रियो की सभा मे उन्होने स्वदेशी आपनाने और खादी ग्रहण करने की अपील की ; सार्वजनिक सभा मे उन्होने रचनात्मक कार्यो का स्वतंत्रता तथा राष्ट्र निर्माण के आन्दोलन मे क्या स्थान है, यह समझाया | क्राइस्टचर्च कालेज मे छात्रो की जो सभा हुई उसमे कहा --
" मै आपको १९३० मे जरूरत पढ़ने पर हँसते हुए मौत का सामना करते देखना चाहूँगा | किन्तु वह मौत पापी और अपराधी की न हो | ईश्वर केवल उन्ही का बलिदान स्वीकार करता है जो ह्रदय से पबित्र होते है इसलिए मृत्यु मे भी देश की सेवा का योग्य अस्त्र बनने के लिए आपको आत्मशुद्धि करनी चाहिए |"
कानपुर से ही गांधी जी ने २३/०९/१९२९ को आश्रम की बहिनो को पत्र भी लिखा था |
७ - महात्मा गांधी जी की सातवीं यात्रा
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महात्मा गांधी जी की कानपुर की सातवीं यात्रा २२ जुलाई से २६ जुलाई १९३४ ई० तक पाँच दिवसीय रही | मुख्य रुप से इसमे हरिजनोद्धार का मुद्दा था , महात्मा गांधी जी बहुत से कार्यक्रमो मे शामिल हुए और व्याख्यान भी दिए |
२२ जुलाई को सार्वजनिक सभा मे मानपत्र व थैली भेंट पर गांधी जी ने अपने भाषण मे कहा ....
" आपने मुझे जो ११००० रु० की थैली दी है, उसके लिए मै आपका आभारी हूं | लेकिन मै आपके कानपुर शहर को नही जानता, यह बात तो नही है | मै समझता हूं , कि जो हरिजन कार्य हमारे सामने है उसकी महत्ता को अगर आपने महसूस किया होति , तो मुझे इससे कई गुना अधिक धन आप देते |
मुझे मालूम हुआ है कि कानपुर मे कुछ ऐसे लोग है, जो मेरी हरिजन प्रवृत्ति को पुण्य कार्य नही, बलकि पाप कार्य समझते है | इनकी तरफ से जनता मे बहुत से पर्चे बांटे गये है | मुझे यह देखकर दु:ख हुआ, कि वे पर्चे सरासर असह्य, हानि-कारक अर्द्धसत्य , अत्युक्ति और तोड़- मरोड़ कर बनाई हुई बातो से भरे हुए है | यह सब सत्य का अपलाप है | उन्होने मेरे बारे मे समझ कर ऐसा नही लिखा, ऐसा मै मान लेना चाहता हूं | उदाहरण के लिए, यह कहा जाता है, कि एक जगह निर्दयतापूर्वक सनातनियों को कतल करवा दिया | मगर मै इस विषय मे कुछ भी नही जानता | अगर मुझे इसका पता होता , तो मै इसके विरुद्ध जरुर कड़ी कार्रवाई करता | मै कोई चुप बैठने वाला आदमी नही हूँ | यह कितने अफसोस की बात है, कि ऐसी ऐसी मिथ्या बातो का प्रचार सनातनधर्म के नाम पर किया जाता है | मै सनातनियो से प्रार्थना करता हूं कि वे इस मिथ्या प्रचार की हीन प्रवृत्ति को रोके |"
( हरिजन सेवक , ०३/०८/१९३४)
" २२जुलाई को म्युनिसिपैलिटी और डिस्ट्रिक बोर्ड ने एक ही जगह पर अपने अपने मानपत्र गांधी जी को दिए | यह बड़ा अच्छा हुआ, कि दोनो ही सार्वजनिक संस्थाओ की संयुक्त सभा हुई और गांधी जी को उनके गिरते स्वास्थ्य को देखते हुए, म्युनिसिपैलिटी और डिस्ट्रिक बोर्ड ने बजाय इसके कि उन्हे आफिस मे ले जाने का कष्ट दिया जाय उन्हे उनके निवास स्थान जवाहरलाल ( डा. जवाहरलाल रोहतगी ) के बंगले पर जाकर ही मानपत्र दिये |
कानपुर की म्युनिसिपैलिटी ने प्रशंसनीय हरिजन सेवा की है | १९३२ के पहले ही उसने १५००० रु० खर्च करके अपने हरिजन कर्मचारियो के लिए कुछ मकान बनवा दिए थे | लेकिन बाबू ब्रजेन्द्रस्वरुप जी जब से चेयरमैन हुए तब से म्युनिसिपैलिटी ने खासी कर्मण्यता दिखाई है | १९३३ मे चेयरमैन ने बोर्ड के आगे यह योजना पेश की कि मेहतरो के लिए १६८००० रु० खर्च करके दो या तीन साल मे ५५० मकान बनवा दिये जाय | इम्प्रूवमेण्ट ट्रस्ट ने फार्बस कम्पाउण्ड मे जो ६० क्वार्टर हाल मे बनवाये है , उन्हे म्युनिसिपैलिटी ने २६५०० रु० मे खरीद लिया है | ट्रस्ट ३ रु० मासिक किराया फी क्वार्टर वसूल करता था मगर म्युनिसिपैलिटी २ रु० ही भाड़ा लेती है | माल पर अपने ' केटल बैरक कम्पाउण्ड ' मे म्युनिसिपैलिटी ने ४० क्वार्टर बनवाये है, जिन पर १५००० रु० खर्च हुए है | यहां सिर्फ १ रु० मासिक किराया लिया जाता है और हाल ही सीसामऊ घोसियाना मे १८ क्वार्टर ६५००) मे बोर्ड ने खरीद लिये है | इस तरह एक साल के अन्दर ही म्युनिसिपैलिटी ने ४८०००) कीमत के १८८ अच्छे, हवादार और साफ सुथरे मकान अपने हरिजन मुलाजिमो के लिए बनवा दिए या खरीद दिए | हमे आशा है कि म्युनिसिपैलिटी की यह प्रगति दिन दिन बढ़ती जायगी और अन्य स्थानो की म्युनिसिपैलिटियां इस सुन्दर उदाहरण का अनुकरण करेगी | यहां की म्युनिसिपैलिटी ने हरिजन बस्तियो मे लालटेनें और नल लगवा दिये है | हरिजनो के लिए ५ गुसलखाने बनवा देने का भी विचार है जिसमे ५५००) लगेगें | एक हरिजन बस्ती मे एक अच्छा सा बाग लगवाने का भी म्युनिसिपैलिटी ने निश्चय किया है | इसके लिए १००००) की जमीन ले ली गई है |
" पर इस सब से हर्गिज नही समझ लेना चाहिए कि कानपुर की म्युनिसिपैलिटी ने अपने हरिजन मुलाजिमो के प्रति अपना फर्ज अदा कर दिया था या वह उऋण हो गई | गांधी जी ने यहां की नौ हरिजन बस्तियो का निरीक्षण किया | कुछ बस्तियो के घर क्या थे, चूहो के बिल थे | न कही से हवा उनमे आती है न रोशनी | कुछ तो बिल्कुल तहखाने जैसे थे | म्युनिसिपैलिटी चाहे, तो जो काम वह तीन साल मे पूरा करना चाहती है उसे बड़ी आसानी से ६ महीने मे खत्म कर सकती है | फार्वस कम्पाउण्ड मे क्वार्टर बहुत धीरे धीरे बन रहे है; वहां के बाशिन्दो की बुरी हालत है | एक तरह से बेचारे बिना घर-बार के ही वहां रह रहे है | ग्वालटोली के क्वार्टर तो मनुष्य के रहने ही लायक नही | फिर एक और आफत है | इस बस्ती मे सत्यानाशी ताड़ी की दो दुकाने है जिनके खिलाफ मालूम होता है , आवाज उठाई ही नही गई | लोगो की और भी अनेक शिकायते है | उनके कुछ कष्ट तो ऐसे है जिनका निवारण तुरन्त होना चाहिए | म्युनिसिपैलिटी चूंकि समाज के इन तिरस्कृत तथा उपेक्षित सेवको के पारति कुछ कुछ अपना कर्त्तव्य पालन कर रही है इसलिए हम आशा करते है कि वह उनकी सारी ही उचित शिकायतो को यथाशीघ्र दूर कर देगी |"
( हरिजन सेवक , ०३/०८/१९३४)
२४ जुलाई को महात्मा गांधी जी ने तिलक हाल का उद्घघाटन किया | इस अवसर पर अपनी पहली यात्रा का स्मरण करते हुए कहा था ....
" मैने आज प्रातःकाल जब सुना, कि मुझे तिलक-हाल खोलने का कार्य करना है, तो मुझे एक बात का स्मरण आ गया | जब मै पहली बार कानपुर आया था , तब मेरी यहां किसी से जान पहिचान नही थी | कानपुर आकर मै गणेश शंकर विद्यार्थी को कैसे भूल सकता हूं ? उन्होने ही मुझे अपने घर पर टिकाया था | उस समय और किसी व्यक्ति की हिम्मत नही थी, कि वह मुझे अपने घर पर ठहराता | वह उन दिनो नौजवान थे | उस समय मुझे देश मे थोड़े से लोग जानते थे | मै स्वयं भी नही जानता था कि यहां के राजनीतिक क्षेत्र मे मेरा क्या स्थान होगा | सद् भाग्य से तिलक महाराज भी उसी दिन नगर मे पधारे | उस जमाने मे तिलक जी को अपने घर मे ठहराना कोई आसान काम नही था | यह चिन्ता हुई, कि उन्हे कौन स्थान देगा | यह काम तो निर्भीक युवक गणेशशंकर से ही हो सकता था | मेरे ह्रदय मे तो इस नगर के संसर्ग के साथ ही गणेशशंकर जी की स्मृति भी कायम रहेगी | हम लोग जैसा जानते है, उन्होने वीर मृत्यु पाई | गणेशशंकर जी की सेवाएं क्या थी, उनका त्याग कैसा था, इसका आपको मुझसे ज्यादा पता है | उनको इस अवसर पर मै कैसे भूल सकता हूं ?
यह जो तिलक-हाल का उद्घाटन हो रहा है, और इसके अन्दर कानपुर के लोगो की जो श्रद्धा है, उसको मै जानता हूं | तिलक महाराज ने तो अपना सारा ही जीवन भारतवर्ष की उन्नति के लिए दे दिया | यह बात मेरे लिएभी प्रस्तुत है, और आपके लिए भी प्रस्तुत है | हिन्दू धर्म को अगर तिलक महाराज नही जानते थे, तो कोई नही जानता था | उन्होने जिस प्रकार वेद शास्त्रो पर प्रकाश डाला, उसके अर्थो का संशोधन किया, वैसा और किसने किया ? वह तो सच्चे सनातनी थे | पर उनाहोने यह कभी ख्याल नही किया, कि हम उच्च है, और वे नीच है | उनके साथ मैने इस विषय पर काफी बहस की थी | उन्होने जो कुछ हमे दिया, उसका चिरस्थायी स्मारक , जबतक हिन्दुस्तान को कायभ रहना है, तबतक कायम रहेगा | आज तो स्वराज्य की बात अस्वाभाविक सी लगती है | पर स्वराज्य मिलने पर भी यह स्वाभाविक हो जायगी | तब उनका दिया हुआ राजनीतिक सबक तो भूला भी जा सकेगा,पर उनकी विद्वता, उनकी आत्मशुद्धि और उनके संयम का विषय तो, हिन्दुस्तान जबतक जिन्दा रहेगा, तबतक सारी दुनिया मे अमर रहेगा | उसे कोई कैसे भूल सकता है ? तिलक महाराज का वह स्मारक तो अमर स्मारक रहेगा |"
( हरिजन सेवक, ०३/०८/१९३४)
निर्देशिका
२२ जुलाई
कलकत्ता से कानपुर आये | कानपुर : म्युनिसिपैलिटी और डिस्ट्रिक बोर्ड के मानपत्र | सार्वजनिक सभा, मानपत्र और थैली ११०००), सन्ध्या की प्रार्थना के समय धन संग्रह ५१ रुपये १३ आने |
२३ जुलाई।
कानपुर: मौन दिवस, सन्ध्या प्रार्थना के समय धन संग्रह ५७ रुपये ६|| आने |
२४ जुलाई
कानपुर: तिलक मेमोरियल हाल का उद्घाटन, सनातनियों तथा संयुक्त प्रान्तीय हरिजन सेवक संघ वालो से मुलाकात, विद्यार्थियो की सभा, सनातन धर्म कालेज के विद्यार्थियो का मानपत्र तथा थैली ५११ रुपये सवा दो आने , मेहतर सभा का मानपत्र | दिनभर का कुल धन संग्रह ३२४२ रुपये सवा पन्द्रह आने |
२५ जुलाई
कानपुर से लखनऊ और वापसी, ९० मील रेल से | उन्नाव स्टेशन पर थैली तथा फुटकर २८२ रुपये साढ़े बारह आने, लखनऊ मे महिला सभा तथा थैली इत्यादि ११७६ रुपये सवा छः आने, बालसभा मे १०१ रुपये, सार्वजनिक सभा, सनातनियो और हरिजनो के मानपत्र तथा थैली व फुटकर संग्रह ३९४५ रुपये पौने बारह आने | कानपुर : जिला हरिजन सेवक संघो के प्रतिनिधियो से मुलाकात; इटावा की थैली ७३२रुपये, फर्रूखाबाद की थैली ६४५ रुपये, मुरादाबाद की थैली ३२२ रुपये आठ आने, जालौन की थैली ६०१ रुपये, बालमीकि सुधार सभा आगरा की थैली ९ रुपये साढ़े पाँच आने, सीतापुर की थैली ३०१ रुपये सवा नौ आने, बांदा की थैली १८५ रुपये दो आने, युक्तप्रान्तीय आर्य प्रतिनिधि सभा का मानपत्र तथा थैली १३७ रुपये | हरिजन बस्तियो का निरीक्षण , गुजरातियो का मानपत्र तथा थैली ११३१ रुपये चार आने , गुजराती स्कूल के बच्चो की थैली १२ रुपये तीन आने, संध्या की प्रार्थना के समय धन संग्रह ८२ रुपये आठ आने साढ़े दस पाई | दिन भर का कुल धन संग्रह १०९४३ रुपये साढ़े सात पाई |
२६ जुलाई
कानपुर: कांग्रेस वालों तथा कानपुर जिले के हरिजन कार्य-कर्ताओ और यू०पी० के खादी व्यापारियो से मुलाकात , सेठ कमलापत सिंघानिया से भेंट किया १५४१ रुपये , महिलाओ की सभा, मानपत्र तथा धन संग्रह ७४३ रुपये साढ़े दस आने, हरिजन बस्तियो का निरीक्षण , संध्याकालीन प्रार्थना के समय धन संग्रह २२० रुपये सवा तीन आने | दिन भर का कुल धन संग्रह ३५९२ रुपये तेरह आने |
कानपुर से बनारस के लिए प्रस्थान रेल से २०१ मील |
( हरिजन सेवक , ०३/०८/१९३४)
महात्मा गांधी ने कानपुर की अग्रवाल परिषद , डा. मुरारीलाल रोहतगी, डा. जवाहरलाल रोहतगी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, परशुराम मेहरोत्रा, ग.ग. राय, तीरथराम जुनेजा, मोतीलाल और संपादक रिपब्लिक ज.प्र. नैयर को कई पत्र लिखे थे | गान्धी जी के पत्रो व लेखो मे हसरत मोहानी, सेठ रामस्वरुप नेवटिया, लालइमली व विद्यार्थियो व व्यापारियो का भी जिक्र मिलता है | कानपुर की सभा, गणेशशंकर विद्यार्थी व गणेशशंकर विद्यार्थी स्मारक पर भी गान्धी जी ने कलम चलाई थी |
( अनूप कुमार शुक्ल "अनूप " , सचिव
कानपुर इतिहास समिति व पर्यटनोदय विकास संस्थान, कानपुर )
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