साल 2020 तमाम होते होते, 30 दिसंबर 2020 को सरकार और किसानों के बीच चल रही वार्ता का छठा दौर खत्म हुआ। अखबारों में छपा है कि दोनों के बीच जमी बर्फ कुछ पिघली है। सरकार और किसानों ने एक साथ लंगर छका और किसानों द्वारा भेजे गए एजेंडे में से नीचे से दो बातें सरकार ने स्वीकार भी कर लिया। पर वे दो बातें, वे नहीं थी जिनके कारण यह आंदोलन छेड़ा गया है, या जिनके लिये 26 नवम्बर 2020 को किसानों ने दिल्ली कूच का एलान किया था। यह दो बातें तो उक्त एजेंडे की अपेंडिक्स समझ लीजिए, जिन्हें किसान संघर्ष समिति के नेता योगेंद्र यादव कहते हैं, कि पूंछ निकल गयी और हाथी अटक गया है।
सचमुच अभी तो हाथी, यानी वे तीन कृषि कानूनों पर तो कोई बात ही नहीं हुयी है। किसान चाहते हैं कि, वे कानून रद्द हों और सरकार चाहती है कि वे कानून बने रहें, पर कुछ संशोधन उसमे ज़रूर कर दिये जांय। देहाती पंचायत का एक प्रिय जुमला कि, पंचों की राय सर माथे पर पनाला यहीं गिरेगा। यही परनाला तो किसानों के अस्तित्व के लिये खतरा है और किसान इस खतरे से अनभिज्ञ नहीं है। वे चाहते हैं कि न केवल यह परनाला बंद हो बल्कि यहां एक प्रशस्त मार्ग भी बन जाय ताकि उससे किसान अपने प्रगति पथ पर आगे बढ़े। यानी यह कानून तो रद्द हो ही साथ ही किसान हित मे बेहतर कानून भी बने।
कहने का आशय यह है कि 30 दिसंबर को सरकार और किसान संगठनों के बीच एक बेहतर वातावरण बना है, पर असल पेंच अभी जस की तस है। किसान आंदोलन की शुरुआत की जड़ तो वे तीन किसान कानून हैं जिनपर अभी तक न तो कोई सहमति बनी है और न ही उन्हें वापस लेने के कोई संकेत, सरकार की तरफ से दिये गये है। संक्षेप में, वे कानून हैं,
● सरकारी मंडी के समानांतर निजी मंडी को अनुमति देना।
● कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में पूंजीपतियों के पक्ष में बनाये गए प्राविधान,
● जमाखोरी को वैध बनाने का कानून।
यही तीनो कानून हैं जो किसानों की अपेक्षा पूंजीपतियों या कॉरपोरेट को पूरा लाभ पहुंचाते हैं औऱ इन्ही तीन कानूनों के लागू होने से किसानों को धेले भर का भी लाभ नहीं होने वाला है। इन्ही तीन कानूनों को तो सरकार ने कॉरपोरेट या यूं कहें अम्बानी अडानी के दवाव के कारण कोरोना आपदा के समय, जून में जब लॉक डाउन जैसी परिस्थितिया चल रही थीं तो, एक अध्यादेश लाकर कानून बना दिया था। बाद में तीन महीने बाद ही विवादित तरह से राज्यसभा द्वारा सभी संवैधानिक मर्यादाओं को ताक पर रख कर इन्ही अध्यादेशों को नियमित कानून के रूप में पारित करा दिया गया। आज किसानों की खेती किसानी पर सबसे बड़ा खतरा तो इन्ही तीन कृषि कानूनों के लागू करने से हो रहा हैं।
यह तीन कानून इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि कॉरपोरेट का कृषि सेक्टर में दखल, इन्ही तीन कानूनों के वापस ले लेने से सीधे प्रभावित होगा और पूंजीपतियों को आर्थिक नुकसान भी बहुत उठाना पड़ेगा,क्योंकि वे देश के खेती सेक्टर में अपनी दखल औऱ वर्चस्व बढ़ाने के लिये पिछले चार साल से अच्छा खासा निवेश कर रहे हैं, और उनके इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार भी हो गए हैं। यह तीनों कानून, कॉरपोरेट के कहने पर ही तो लाये गये है। फिर इन्हें बिना कॉरपोरेट की सहमति के सरकार कैसे इतनी आसानी से वापस ले लेगी ? कॉरपोरेट ने चुनाव के दौरान जो इलेक्टोरल बांड खरीद कर चुनाव की फंडिंग की है और पीएम केयर्स फ़ंड में मनचाहा और मुंहमांगा धन दिया है तो, क्या वे इतनी आसानी से सरकार को, इन तीन कृषि कानूनो को वापस लेने देगा ?
यह तीनों कानून कृषि सुधार के नाम पर लाये गये हैं। पर इन तीनों कानून से कॉरपोरेट का ही खेती किसानी में विस्तार होगा, न कि किसानों का कोई भला या उनकी कृषि में कोई सुधार होने की बात दिख रही है। किसान संगठन इस पेचीदगी और अपने साथ हो रहे इस खेल को शुरू में ही समझ गए, इसीलिए वे अब भी अपने स्टैंड पर मजबूती से जमे हैं कि, सरकार इन कानूनों को पहले वापस ले, तब आगे वे कोई और बात करें। ऐसा नही है कि, सरकार किसान वार्ता में, तीनों कृषि कानूनो के रद्दीकरण की बात नहीं उठी थी। बात उठी और सरकार ने यह कहा भी था कि, किसान संगठन ही यह सुझाये कि क्या बिना निरस्तीकरण के कोई और विकल्प है। इस पर किसानों ने यह बात स्पष्ट कर दिया कि वे तीनों कानूनो के निरस्त करने की मांग पर अब भी कायम हैं और उनकी यह प्रमुख मांग है।
जहां तक न्यूनतम समर्थन मूल्य ( एमएसपी ) का प्रश्न है, इस मसले पर सरकार लिखित रूप से आश्वासन देने के लिये तैयार है कि वह एमएससी चालू रखेगी। पर किसानों को उनकी उपज की उचित कीमत के रूप में एमएसपी मिले ही, यह सरकार कैसे सुनिश्चित करेगी ? सरकार इसे स्पष्ट नहीं कर पा रही है। एमएसपी को जहां तक कानूनी रूप देने का प्रश्न है, सरकार ने कहा कि इसमे बजट और वित्तीय विंदु शामिल हैं तो, बिना उन पर विचार किये, इस पर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता है।
पराली प्रदूषण के मामले में सरकार द्वारा किसानों को मुकदमे से मुक्त करने संबंधी सरकार के निर्णय से कॉरपोरेट को कोई नुकसान नहीं पहुंच रहा है और न ही फिलहाल कॉरपोरेट को कोई लाभ होने वाला है। इस एक्ट में पराली जलाने वाले आरोपियों पर एक करोड़ रुपये तक का जुर्माना और जेल की सज़ा का प्राविधान है, जिसे सरकार ने खत्म करने की मांग, मान ली है। यह एक्ट कॉरपोरेट के लिये दिक्कत तलब न तो पहले था और न अब है, क्योंकि न तो वे पराली जलाएंगे और न इस अपराध का उन्हें भय है। रहा सवाल प्रदूषण नियंत्रण कानून का तो, कॉरपोरेट के उद्योग तो, पराली प्रदूषण की तुलना में कहीं, बहुत अधिक प्रदूषण फैलाते रहते हैं और उनके खिलाफ प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड खानापूर्ति टाइप कार्यवाही करता भी रहता है। पराली प्रदूषण एक्ट से किसानों को ही नुकसान था और अब उन्हें ही इससे मुक्त होने पर राहत मिली है। इस एक्ट से कॉरपोरेट को न तो कोई समस्या थी और न इसके हट जाने से उन्हें कोई राहत मिली है।
प्रस्तावित बिजली कानून 2020 नही लाया जाएगा, यह वादा भी सरकार ने किया है। इस कानून का विरोध तो बिजली सेक्टर के इंजीनियर साहबान और कई जागरूक बिजली उपभोक्ता संगठन पहले से ही कर रहे हैं। यह मसला अलग है। अब यह बिल सरकार ने फिलहाल बस्ता ए खामोशी में डाल दिया है। यह स्वागतयोग्य और अच्छा कदम है। सरकार का यह निर्णय किसान हित मे है। हालांकि इस बिल को कॉरपोरेट लाना चाहते हैं। यहां भी उनका यही उद्देश्य है कि बिजली सेक्टर, पूरी तरह से निजी क्षेत्र में आ जाय।
अब देखना यह है कि उन कृषि कानूनो पर सरकार का क्या दृष्टिकोण और पैंतरा रहता है जो सीधे सीधे कॉरपोरेट को लाभ पहुचाने और कृषि में उनका वर्चस्व स्थापित करने के लिये 'आपदा में अवसर' के रूप में लाये गये है । सरकार क्या अपने चहेते कॉरपोरेट को नाराज करने की स्थिति में है ? या वह कोई ऐसा फैसला करने जा रही है जिनसे पूंजीपतियों को सीधे नुकसान उठाना पड़ सकता है। इन तीनो कृषि कानून की वापसी का असर कॉरपोरेट के हितों के विपरीत ही पड़ेगा। इस बात का संकेत देते हुए कृषिमंत्री पहले ही दिन से कह चुके हैं कि कॉरपोरेट का भरोसा सरकार से हट जाएगा।
अब अगली बातचीत, 4 जनवरी 2021 को होगी। आंदोलन अभी जारी रहेगा और इसे अभी जारी रहना भी चाहिए। आज तो अभी असल मुद्दों पर सरकार ने कुछ कहा भी नही है। पर सरकार ने यह ज़रूर कहा है कि आंदोलन शांतिपूर्ण है और आंदोलनकारियों को उन विभाजनकारी शब्दो से नहीं नवाजा है, जिनसे बीजेपी आईटी सेल आंदोलन की शुरूआत से ही आक्षेपित करता रहा है। सरकार जनता के पक्ष में खड़ी रहती है या पूंजीपतियों के, यह अब 4 जनवरी को ही पता चलेगा।
किसान से अधिक उपभोक्ताओं के लिये यह कृषिकानून नुकसानदेह साबित होंगे। यह आंदोलन जिन तीन बिलों के खिलाफ हो रहा है उनमें से एक बिल में गेंहू-चावल आदि खाद्यान्न को आवश्यक वस्तु से बाहर कर दिया गया है और उनके असीमित भंडारण की अनुमति भी कानूनन दे दी गयी है। इसका क्या असर उपभोक्ताओं पर पड़ेगा, यह जानने के पहले हमें 2015 में चलना होगा जब हम सब अच्छे दिन के इंतजार में खुश हो रहे थे। 2015 वह साल है जब अधिकतर वस्तुओं में महंगाई दर गिर रही थी, लेकिन तुअर, मूंग, अरहर आदि दालों की कीमत बढ़ने लगी थी। अचानक दालों की कीमतें आसमान छूने लगी।साल 2014 में 70-80 रुपये प्रति किलो दर से बिकने वाली तुअर दाल ने पहले ₹ 100 का आंकड़ा पार किया फिर धीरे धीरे उसकी कीमत ₹ 200 - 220 तक पहुँच गयी। अब सवाल उठता है ऐसा क्यों हुआ ? क्या दालों का उत्पादन गिर गया या अचानक खपत बढ़ गयी। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था।
देश के तुअर और मूंग के 4 मुख्य उत्पादक प्रदेशों, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा सब जगह ठीकठाक फसल हुई थी। फिर कीमतों में ऐसा उछाल क्यों ?
अब 2015 के एक साल पहले 2014 में चलिये। 2014 में अडानी ग्रुप ने सिंगापुर की एक मल्टीनेशनल कंपनी विल्मार के साथ एक संयुक्त उपक्रम स्थापित किया। यह कंपनी अडानी विल्मार ग्रुप के नाम से बनी। यह कंपनी फार्च्यून के नाम से खाद्य पदार्थों और तेलों की खरीद बिक्री के आयात-निर्यात का काम करती है। इस कंपनी ने और कुछ और इन्हीं जैसी अन्य कंपनियों ने केवल 30 रुपये किलो में किसानों से दाल खरीदी और इसी प्रकार से पूरे भारत में किसानों और छोटे स्टॉकिस्टों से, सस्ती दर पर दालों की खरीददारी की गई। लेकिन जब खाद्य कानूनों की अड़चन सामने आई, जिसमें स्टॉक की सीमा तय थी तो सरकार पर दबाव डाल कर दालों को इन कानूनों के दायरे से बाहर करवा दिया गया। बिना किसी लिमिट के प्रति दिन 300 टन दाल खरीदी गई और वो भी मात्र 30 रुपये किलो के भाव से और करीब 100 लाख टन दाल गोदामो में स्टॉक कर दी गई।
जब दालों की किल्लत बजार में हुई तो उन्हें महंगे दामो पर बाज़ार में निकाला गया और इस प्रकार, आज, सरकार का यह तर्क कि, यह कृषि कानून, बिचौलियों को खत्म करने के उद्देश्य से लाये गए हैं, के विपरीत एक बेहद बड़ा और कॉरपोरेट बिचौलिये को किसानों के समक्ष खड़ा कर दिया गया। 5 से 6 महीनों तक म्यांमार से दालों का आयात नही होने दिया गया क्योंकि इससे दालों की कीमत गिर सकती थी। पर अडानी ग्रुप का केवल एक फसल पर उसके एकाधिकार और वर्चस्व का परिणाम देश के उपभोक्ताओं को ही अधिक भुगतना पड़ा।
फिर एक खेल और किया गया। जब खेतो में दालों की फसल आ गयी तो, ऐन किसानों की फसल के आने के समय दालों का आयात जानबूझकर किया गया। वह भी इन्ही की विदेशी कंपनियों के जरिये खरीदी गई और उनकी कीमत थी ₹ 80 रुपये किलो के। मतलब पहले जनता को लूटा, फिर सरकार के जरिये 30 की दाल सरकार को जनता की राहत के नाम पर 80 में बेची और फिर जब ये दाल बाजार में आई तो भाव गिर गए। परिणामस्वरूप किसानों को फिर बाजार के गिरे दामों के चलते सस्ते में दाल बेचनी पड़ी। तब तो फिर भी अन्य कानून थे, जिनके आधार पर ऐसे शातिर व्यापार पर नियंत्रण सरकार कर सकती थी, पर अब नए कृषि कानून ने तो कॉरपोरेट को मनचाहे दाम तय करने असीमित भंडारण करने सहित अनेक सुविधाएं कानूनन दे दी हैं। सच तो यह है कि, यदि ये काले कानून जस के तस लागू हो गए तो घर का पूरा बजट केवल अनाज और तेल खरीदने में ही खर्च हो जाएगा। क्योंकि तब केवल दाल नहीं बल्कि हर खाद्य पदार्थ की कीमत आसमान छूएगी और इसका खामियाजा न केवल किसान बल्कि आम उपभोक्ताओं को भी उठाना पड़ेगा।
अभी यह कानून पूरी तरह से लागू नहीं हुए हैं, लेकिन निजी व्यापारियों की लूट के किस्से सामने आने लगे हैं। मीडिया और अखबारों के अनुसार, मध्य प्रदेश, जहां यह व्यवस्था लागू हो गयीं है वहां कई ऐसे मामले सामने आए हैं जहां निजी व्यापारी किसानों की उपज तो खरीद रहे हैं पर बिना पैसा भुगतान किए फरार हो जा रहे हैं। जो चेक वे दे रहे हैं वे चेक बाउंस हो जा रहे है।
एक उदाहरण इस प्रकार हैं।
मध्य प्रदेश के हरदा जिले में एक कंपनी ने दो दर्जन किसानों के साथ फसल का समझौता किया, लेकिन बाद में बिना भुगतान किए हुए कंपनी चलाने वाले फरार हो गए। दो दर्जन किसानों से मूंग-चना के लिए करीब 2 करोड़ रुपये का समझौता हुआ था, लेकिन कंपनी ने किसानों को उनका पैसा नहीं दिया।
आजतक वेबसाइट के अनुसार, हरदा, देवास में 22 किसानों ने खोजा ट्रेडर्स से समझौता किया था। लेकिन जब भुगतान का वक्त आया तो ट्रेडर्स का कुछ अता पता नहीं लगा। जब किसानों ने ट्रेडर्स की खोज शुरू की तो मालूम चला कि तीन महीने के अंदर ही उन्होंने अपनी कंपनी का रजिस्ट्रेशन खत्म कर दिया है। किसानों का दावा है कि आसपास के इलाकों में करीब 100-150 किसानों के साथ इस तरह की घटना हुई है. किसानों को इस मामले में शक तब हुआ जब ट्रेडर्स द्वारा दिया गया चेक ही बाउंस कर गया। खोजा ट्रेडर्स ने उन्हें मंडी रेट से 700 रुपये कुंतल अधिक दाम देने की बात कही थी।
एनडीटीवी ने भी ऐसी ही एक घटना का उल्लेख अपने कार्यक्रम में किया था, जिसमें दर्जनों किसानों को ठगा गया। किसान पुष्पराज सिंह ने 40 एकड़ में धान बोया था। पुष्पराज का कहना है कि हमने अनुबंध पर खेती की. "करार यह था कि मंडी का जो भी रेट होगा, उससे 50 रुपये अधिक पर लेंगे। जब रेट 2300-2400 रुयपे था, तब दिक्कत नहीं थी. जैसे ही 2,950 रेट हुआ तो 3,000 पर खरीद करना था, लेकिन फॉर्चून के अलावा जितनी कंपनियां थीं, सबके फोन बंद हो गए।
पुष्पराज ने कहा,
"मुख्यमंत्री शिवराज जी जो कह रहे हैं कि किसानों को न्याय दिलाया, न्याय की बात तो तब आती जब कंपनी ने बेईमानी की होती या वे हमारी गिरफ्त से भाग गई होती. न्याय किससे दिलाया? हमारा जो बिल है, वह अन्नपूर्णा ट्रेडर्स के नाम पर है, लेकिन इस पर न तो बिल नंबर है, न टिन नंबर. इसमें सबसे बड़ा नुकसान यह भी है कि वे दवा की जो किट देते हैं, वह भी लेना है, चाहे उसकी ज़रूरत हो या न हो. इधर ज्यादा दे रहे हो, उधर दवा के माध्यम से ज्यादा वसूल भी रहे हो."
पुष्पराज ने कहा कि
" सरकार कह रही है कि किसान कहीं भी माल ले जाकर बेच सकते हैं, लेकिन जब 200 क्विंटल धान पैदावार हुई तो क्या हम उसे बेचने केरल जाएंगे? उन्होंने कहा कि छोटे किसान अनुंबध की खेती में बर्बाद हो जाएंगे।"
कृष्ण कांत अपनी फेसबुक वॉल पर एक घटना का उल्लेख करते हैं, जो इन कानूनों के पीछे कंपनियों की शातिर चाल को और स्पष्ट करती है।
ब्रजेश पटेल नामक किसान ने फॉर्चून कंपनी से अनुबंध करके 20 एकड़ में धान लगाया था। अब कंपनी कह रही है कि धान में कीटनाशक ज्यादा है। ब्रजेश का धान उनके खलिहान में ही पड़ा है। कंपनी ने धान उठाने से मना कर दिया। दो बार लैब टेस्ट करवाया। लेकिन एक बार भी रिपोर्ट नहीं दी। आरोप है, रिपोर्ट देने के बदले 8,000 रुपये मांग रहे हैं। ब्रजेश का कहना है कि अब कभी अनुबंध नहीं करेंगे। ब्रजेश पटेल ने कहा कि
" जो अनुबंध मिला, वह एक पन्ने का है, जिसमें कंपनी का कोई सील - हस्ताक्षर नहीं हैं। जिस दुकान से दवा - खाद लेते हैं, उसका नाम है, लेकिन हस्ताक्षर उसके भी नहीं हैं। उन्होंने कहा कि कंपनी का कोई प्रतिनिधि बात भी नहीं करता. वे हमें ठग रहे हैं।"
किसान घनश्याम पटेल ने एक दूसरी कंपनी वीटी के साथ अनुबंध किया. इनका धान भी कंपनी ने रिजेक्ट कर दिया है। अनुबंध के नाम पर एक पन्ने के भी कागज नहीं है। खाद, दवा, कीटनाशक की पर्ची ही इनके लिये अनुबंध का सर्टिफिकेट था। घनश्याम ने कहा कि कंपनी वालों ने कोई कागज नहीं दिया। आधार कार्ड की फोटोकॉपी ली थी। वीटी वालों के एजेंट आते हैं। कोई कागज़ नहीं है हमारे पास शिकायत करने के लिए। अगर कॉन्ट्रैक्ट फॉर्मिंग आया तो हम जैसे किसान बर्बाद हो जाएंगे।
एनडीटीवी की रिपोर्ट में यह सवाल भी उठाया गया है जो बेहद दिलचस्प है कि नया कानून तो सितंबर के आखिरी हफ्ते में लागू हुआ और कॉन्ट्रैक्ट जून-जुलाई में ही हो गया था। आखिर सरकार जो नए कानून का ढिंढोरा पीट रही है, क्या वह कानून संसद से पारित होने और राष्ट्रपति का हस्ताक्षर लागू होने से पहले ही लागू हो गया ? पंजाब के किसानों की आशंका के कुछ डरावने उदाहरण मध्य प्रदेश में साकार हो रहे है। नया कृषि कानून पास होते ही मध्य प्रदेश में किसानों को लूटने की कई घटनाएं सामने आ रही हैं. लुटेरे फर्जी कंपनी बनाकर फसल खरीद रहे हैं और बिना पैसा दिए फरार हो जा रहे हैं। नये कानून की जिन बातों पर विरोध है, उनमें से एक बात ये भी है कि कानून में कोई विवाद होने पर कोर्ट जाने का हक किसानों से छीन लिया गया है.
आज इन्ही सब तमाम विसंगतियों भरे तीन कानूनो के कारण हम एक जन आंदोलन से भी रूबरू हैं। वह जन आंदोलन किसानों का उनकी कुछ बेहद महत्वपूर्ण मांगों को लेकर है। यह आंदोलन न केवल उनके आर्थिक लाभ और हानि से ही जुड़ा है, बल्कि यह आंदोलन, कृषि संस्कृति, भारतमाता ग्राम वासिनी की अस्मिता और सब कुछ निगल लेने को आतुर दैत्याकार कॉरपोरेट की सर्वग्रासी प्रवित्ति के विरुद्ध एक सशक्त प्रतिरोध है। नए साल की शुभकामनाये, अपने हक़ के लिये संघर्षरत उन किसानों को भी जो अपने अस्तित्व के लिये इस घोर सर्दी में भी, गांधी जी के आदर्शों पर चल कर अपनी बात सरकार तक पहुंचा रहे हैं। अंत मे नए साल के आगमन की शुभकामनाएं, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ साहब के इस शेर से,
ऐ नये साल बता तुझ में नयापन क्या है ,
हर तरफ़ खल्क ने क्यों शोर मचा रखा है ।
तू नया है तो दिखा, सुबह नयी शाम नयी
वर्ना इन आँखों ने देखे हैं, नये साल कई ।
( विजय शंकर सिंह )
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