हम लिपि पर विचार नहीं कर रहे। सभ्यता की विकास धारा पर विचार कर रहे हैं, लिपि एक निर्णायक चरण के बाद के विकास को समझने की कुंजी है।
भारत में बहुत प्राचीन काल से कई प्रकार की लेखन पद्धतियां चलती रही हैं और लेख सामग्री और लेखन के यंत्र भी कई तरह के रहे हैं। मैजिक स्लेट अभी हाल में देखने में आई है, लिखा और बुझा दिया। धूल/ रेत पर लेखन और फिर मिटा कर नया लेखन, इसका परदादा है।
कमल की पत्ती, ताड़ की पत्ती, वस्त्र, भित्ति, भोजपत्र की छाल से लेकर काठ की पटरी, पत्थर और धातु (ताँबा, चाँदी, सोना) पत्र, शिला, स्तंभ, और लिखने के लिए रंगीन मिट्टी, चूरा, नाखून, पथरी, उंगली, सरकंडा, पतली बेंत(किरिच), नरकुल, साही के काँटे के दोनों सिरे, धातु की नुकीली कील, छेनी, उकेरनी, तूली, कूची आदि। रंग के लिए चावल की पीठी, हल्दी, फूल और पत्ती का रस, गेरू रामरज, कालिख की स्याही आदि। भारतीय लेखन के इतिहास को समझने के लिए इस वैविध्य पर ध्यान दिया जाना चाहिए और इसके साथ साहित्यिक उल्लेख और पुरातात्विक सामग्री का महत्व तो है ही जिनसे क्रम-व्यवस्था को समझने में आसानी होती है।
सेंधव लिपि की सभी पूर्वापेक्षाएं ऋग्वेद की साहित्यिक सामग्री में पूरी होती दिखाई देती है। पूषा से पणियों के पत्थर जैसे हृदय पर आरा से अपना अनुरोध टंकित करा कर उसे कोमल और अपने अनुकूल बनाने की याचना की गई है:
आ रिख किकिरा कृणु पणीनां हृदया कवे । अथ ईं अस्मभ्यं रन्धय ।। 6.53.7
आरा की व्याख्या करते हुए सायणाचार्य ने इसे लोहे के पैने नोक वाला दंड - तीक्ष्णाग्र लौह दंड - कहा है। सेंधव मुद्राओं को उकेरने के लिए इससे उपयुक्त कोई यंत्र नहीं हो सकता।
इससे आगे की ऋचा में ही आरा के लिए एक अन्य विशेषण का प्रयोग किया गया है। यह है ब्रह्मचोदनी । ब्रह्म का अर्थ है मंत्र। इसमें आरा को मंत्रों को उद्भासित करने वाला कहा गया है। और इसके माध्यम से सभी के ह्रदय को विनम्र बनाने का आग्रह किया गया। पूषा के लिए जाज्वल्यमान (आघृणि) विशेषण का प्रयोग किया गया है: "यां पूषन् ब्रह्मचोदनीं आरां बिभर्षि आघृणे । तया समस्य हृदयं आरिख किकिरा कृणु ।। 6.53.8"
प्रसंग वश कह दें कि सायण ने ब्रह्म का अर्थ अन्न किया है जो इतना बेतुका है कि न तो संदर्भ से मेल खाता है न ब्रह्म के सामान्य प्रयोगों से। इसका अर्थ है मंत्र - विश्वामित्रस्य रक्षति ब्रह्मेदं भारतं जनम् ।। 3.53.12
विश्वामित्र का यह मंत्र भारत जन की रक्षा करता है। एक अन्य प्रसंग में यही बात दूसरे ढंग से दोहराते हुए मंत्र को वर्म की तरह सुरक्षा प्रदान करने वाला बताया है- ब्रह्म वर्म ममान्तरम्।
हम नहीं जानते कि लिखित मंत्र की भाषा के लिए ब्राह्मी शब्द का प्रयोग उस काल में भी होता था या नहीं। इस पर अधिक खींचतान करना ठीक न होगा यद्यपि ब्रह्मा की लिखावट के विषय में कठोर फलक पर टंकन करने और उनकी लिपि के सामान्य बुद्धि से परे होने का विश्वास इस बात की संभावना जगाता है कि यदि ब्रह्म और ब्रह्मा और ब्राह्मी की संगति पर ध्यान दें तो यह उस मिश्र संकेत चिन्ह वाली टंकित भाषा के लिए प्रयुक्त हो सकती थी या उस समय से ही इसका प्रयोग होता आ रहा था जिसमें सही अर्थ जानने के लिए किसी सुयोग्य व्यक्ति की सहायता की आवश्यकता होती थी।
विश्वामित्र स्वयं कहते हैं कि उन्हें ससर्परी का ज्ञान जमदग्नि से प्राप्त हुआ था । यूं तो शिक्षा और अक्षर ज्ञान गुरु के अभाव में संभव नहीं है और इसका एकमात्र अर्थ यह नहीं किया जा सकता कि लिपि के गूढ़ संकेतों से जमदग्नि ने उनको परिचित कराया था, परंतु इन दो ऋचाओं का तेवर यही है:
ससर्परीरमतिं बाधमाना बृहन्मिमाय जमदग्निदत्ता ।
आ सूर्यस्य दुहिता ततान श्रवो देवेष्वमृतमजुर्यम् ।।
ससर्परीरभरत् तूयमेभ्योऽधि श्रवः पाञ्चजन्यासु कृष्टिषु ।
सा पक्ष्या नव्यमायुर्दधाना यां मे पलस्तिजमदग्नयो ददुः ।। 3.53.15-16
यहां कुछ बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिए:
1. ससर्परी का अर्थ सायण ने “शब्दरूपतया सर्पणशीला वाक्" किया है, अर्थात् ध्वनि और आकृति युक्त वाणी। लिखित भाषा। बोलचाल की भाषा के लिए किसी एक व्यक्ति की जरूरत नहीं पड़ती । इस न्याय से भी यह लिखित भाषा है।
2. परंतु एक दूसरी व्याख्या के अनुसार यह “सर्वत्र गद्यपद्यात्मकेन सर्पणशीला वाग्देवता” है । मैं सर्पणशीला का अर्थ टंकलिपि से अलग, ‘हस्तलिपि’ या नश्वर लेख्य सामग्री - वस्त्र, ताड़पत्र, भूर्जपत्र आदि - पर लिखे पाठ के आशय में, जब कि टंक लेख को ब्राह्मी के आशय में ग्रहण करना चाहता हूँ।
3. इस वाणी को अज्ञान को दूर करने वाली कहा गया है और इसकी आवाज अधिक दूर तक - जहाँ बोलने वाला नहीं होता है या चुप रहता है वहाँ भी जानकारों तक पहुँचती है, जो लिखित भाषा की विशेषता है।
4. जिस तरह उषा का प्रकाश अंधकार का विनाश कर देता है उसी तरह यह अनिश्चय को दूर कर देती है। दृश्य होने के कारण इसकी तुलना उषा से की गई है।
5. इसमें निबद्ध प्रशस्ति या विरुद अजर और अमर होता है। वचनीय बोलने के साथ ही शेष हो जाता है, स्मृति में रहा तो कुछ अंश भूल जाता है, पर लिखित वाणी सर्वत्र यथातथ्य बनी रहती है।
6. इसको पक्ष्या कहा गया है। हम जानते हैं कि अंग्रेजी के पेन का मूल अर्थ पंख है क्योंकि हस्त लेखन पंख के दंडमूल से आरंभ हुआ।
इस संदर्भ में यह भी याद रखा जाना चाहिए कि ऋग्वेद में वाणी को अक्षर से मापने की बात आई है। छन्द के वाक, पद (चरण) का उसी क्रम में उल्लेख है। यह लिखित वाणी में ही संभव है। गेय में इस तरह का विभाजन संभव न था-
यद्गायत्रे अधि गायत्रमाहितं त्रैष्टुभाद् वा त्रैष्टुभं निरतक्षत ।
यद्वा जगज्गत्याहितं पदं य इत्तद्विदुस्ते अमृतत्वमानशुः ।। 1.164.23
गायत्रेण प्रति मिमीते अर्कमर्केण साम त्रैष्टुभेन वाकम् ।
वाकेन वाकं द्विपदा चतुष्पदाऽक्षरेण मिमते सप्त वाणीः ।। 1.164.24
यदि इसके बाद भी किसी को संदेह बना रहता है कि वेदिक समाज लेखन से परिचित न था तो इसका इलाज तो अश्विनीकुमार ही तलाश सकते हैं।
प्रश्न यह नहीं है वैदिक समाज लेखन से परिचित था या नहीं, हमारे सामने प्रश्न यह है कि यदि विश्वामित्र को भाषा का ज्ञान जमदग्नि से प्राप्त हुआ था, तो उनका क्या योगदान था कि यह विश्वास बना रहा है कि ब्रह्मा की सृष्टि के समानांतर उन्होंने हर चीज की रचना की। इसका एक ही अर्थ निकलता है कि पहले की बहुमिश्र भाषा के शब्द संकेतों, चित्र संकेतों और भाव लेखों को हटाकर उन्होंने पहली बार एक नई मात्रिक या सिलेबिक लिपि माला का आरंभ किया जो अपनी सफलता के कारण बहुत शीघ्र ही लोकप्रिय हो गयी। यही लिपि हमें ज्ञात सैंधव लिपि और ब्राह्मी के बीच की संक्रमण कालीन लिपि प्रतीत होती है।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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