Sunday, 24 January 2021

शब्दवेध (90) साधो कौन राह ह्वै जाई

जैसे चलते चलते आप किसी चौराहे पर पहुंच जाएं जहाँ  सभी रास्ते बाहर से आकर मिलते न हों, आपके ही रास्ते से शाखाओं की तरह फूट  रहे  हों, और आप  जड़ों से आए रस संचार की तरह  सभी शाखाओं पर एक साथ फैलना चाहें।  वृक्ष के लिए जो काम इतना आसान है,  हमारी अपनी काया में  प्राणसंचार  और रक्त संचार  के लिए इतना अनायास है  कि  वह होता है  और हम  उसे जान भी नहीं पाते, वही मन के लिए,  अभिव्यक्ति के लिए  उतना ही असंभव है।  हम  सभी रास्तों पर  एक साथ चल नहीं सकते, न पावों से, न  भाषा से।  चलने का मोह है  तो एक पर कुछ दूर चल कर, वापस उसी बिंदु पर आना होगा । इस असमंजस में,  मैंने  कल अपनी  पोस्ट लिखी  ही नहीं। सभी रास्ते,  मेरे उससे पहले की  पोस्ट से ही निकले थे। आज सोचा कुछ दूर चल कर वापस आकर दूसरे पर चलने का अभ्यास करें तो शायद आगे का रास्ता आसानी से खुल जाए। 
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इतिहास क्या है
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मैंने  कार  के इतिहास दर्शन को अवैज्ञानिक इसलिए  माना था  कि  वैज्ञानिक इतिहास  सापेक्ष नहीं होता,  उसकी स्वायत्तता होती है।  यह स्वायत्तता  उसे  अपने आंतरिक नियमों से मिलती है जिसके  अभाव में मैंने उनकी तुलना में हंटिंगटन को रखा था।  दोनों में समानता यह है कि वे  इतिहास का उपयोग करना चाहते हैं पर उसे समझना नहीं चाहते।  समझने की चिंता  से विज्ञान पैदा होता है, उपयोग करने की उत्कंठा से  पाक शास्त्र पैदा होता है,  जिसमें,  जो भोज्य है  उसे है ग्राह्य बनाने के लिए नमक मिर्च मसाले  अपनी ओर से मिलाने होते हैं,  या  पहले से उपलब्ध होने,  उनकी लत पड़ जाने, के कारण जरूरी मान लिये जाते हैं। परिणाम पर ध्यान देने वाले  इतिहास को समझते नहीं, कम से कम श्रम और लागत से अधिक से अधिक लाभ उठाने की चिंता में  खान-पान से लेकर, तरह के सामान बनाने और विचार तक में मिलावट के कारोबार  करने वालों की तरह जल्द से जल्द  ऊंचाई पर पहुंचने की कोशिश के कारण   ज्ञान से लेकर  आचार तक की सभी मर्यादाओं को तोड़ते हैं।  वेअपनी ही प्रतिज्ञा पर सही नहीं उतर पाते,   परिणाम पर ध्यान देने वाले किसी अपेक्षा की पूर्ति  नहीं कर सकते।

वे राज्य का विरोध करेंगे और सत्ता की राजनीति की बात करेंगे,  मानवता की बात करेंगे,  और मानवता की समझ को पंगु कर देंगे।  वे सर्वहारा क्रांति की बात करेंगे, वर्गशत्रु को मिटाने की बात करेंगे  और पहले वर्ग शत्रु के नाम पर अपने निर्णय से असहमत होने वालों को उत्पीड़ित करेंगे,  उनकी हत्या करेंगे,  और फिर  उसी सर्वहारा को  इतना व्यग्र  कर देंगे,  कि  थोड़ी सी भी राहत मिलने के बाद उनकी मूर्तियों को तोड़ दे उनके नाम के शहरों के  नाम बदल दे,  और यह सिद्ध कर दे  कि वे मानवता के हत्यारे थे  तो उनके मानववाद का दानववाद से अलग करना  कठिन हो जाता है।

 मैं, एक समय में,  जब केवल पढ़ने का दौर था कार का प्रशंसक था।   जुमलों के मोह का शिकार था।  मैं किसी भी विषय को उस पर लिखने से पहले समझ नहीं पाता।   लेखन वह कसौटी है जिसकी अंतःसंगति के  निर्वाह में  असंगत प्रतीत होने वाली मान्यताएं छँट कर अलग हो जाती है।  सत्य सामने आ जाता है,  परंतु तभी जब आप अपने को सही सिद्ध करने के लिए प्रमाण नहीं जुटा रहे होते हैं,  प्रमाण जो कुछ कहते हैं उनके समक्ष  नतशिर हो जाते हैं।  इतिहास का अपने समय या जरूरत के लिए इस्तेमाल करने वाले इसका ध्यान नहीं रख पाते।  वे इतिहास की वैज्ञानिकता को नष्ट करते हैं,  और इतिहास की गलत समझ उनको नष्ट कर देती है और वे  भौचक्के रह जाते हैं हमारी अपेक्षाओं के विपरीत,  प्रयत्न के विपरीत यह परिणाम आया  कहां से? 

उत्तर छोटा सा है।  

 इतिहास की नासमझी से। पर यह छोटा सा उत्तर उनकी समझ में नहीं आ सकता क्योंकि  आरत के चित रहत न चेतू। पुनि पुनि कहई आपनै हेतू।

मैं  इसे दो उद्धरणों से स्पष्ट करना चाहूंगा।  
Carr divided facts into two categories, "facts of the past", that is historical information that historians deem unimportant, and "historical facts", information that the historians have decided is important. Carr contended that historians quite arbitrarily determine which of the "facts of the past" to turn into "historical facts" according to their own biases and agendas. Wikipedia. 

 इसकी व्याख्या  जिस रूप में हो सकती है और जिस रूप में की जाती रही है वह  है कि अतीत से सभी तथ्य एंतिहासिक उपयोग के नहीं होते, केवल वे होते हैं जिनका कोई इतिहासकार उपयोग करना चाहता है और यहीं से इतिहास की जानकारी के स्थान पर तथ्यों के मनमाने उपयोग का रास्ता खुलता है जो कम के कम भारत का इतिहास लिखने वाले मार्क्सवादी इतिहासकारकों की सबसे बड़ी व्याधि सिद्ध हुई, उनकी कब्र भी सिद्ध हुई।

दूसरे:

The Soviet Impact on the Western World, (1946) में, कार का तर्क था "The trend away from individualism and towards totalitarianism is everywhere unmistakable", 
और 1956, में Carr did not comment on the Soviet suppression of the Hungarian Uprising while at the same time condemning the Suez War.

मैं अपने इस निष्कर्ष पर केवल दूसरों के विचारों को पढ़ने के बाद नहीं पहुंचा हूं अपितु भारत में इस सिद्धांत सोचने लिखने और चलने वाले संगठनों और दलों को  उनकी उस परिणति पर पहुंचते  देखने के बाद और स्वयं अपने इतिहास लेखन में उस इतिहास दर्शन की सीमाओं को समझने के बाद पहुंचा।   आज भी कम्युनिस्ट संगठन और दल  उनकी एकहरी सोच से मुक्त नहीं हो पाए हैं।
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सरस्वती-सिन्धु लिपि
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सरस्वती-सिन्धु को  हड़प्पा सभ्यता की संज्ञा देने वालों को यह पता था कि जिसे परिपक्व हड़प्पा कहा जाता है या जिसके लिए नागर चरण का प्रयोग किया जाता है वह सभ्यता के ठहराव का काल था  जिसके बाद गिरावट ही शेष रह जाती है।  इस चरण में व्यापारिक क्षेत्र विस्तार और उपनिवेशों की संख्या में वृद्धि  को छोड़कर किसी तरह का नया विकास नहीं हुआ।   इसके निर्माण का दौर इसका सारस्वत  चरण है।  यही कारण है कि  ऋग्वेद के प्राचीन मंडल सरस्वती को प्रधानता देते हैं और उनमें सिंधु शब्द का प्रयोग नदी के अर्थ में अधिक है विशेष नदी के आशय में इसे हम नए मंडलों में पत्र नए मंडल  सेंधव  चरण  की देन हैं।  

अमेरिकी पुरातत्व विदों का परिपक्व हड़प्पा काल के संबंध में यही विचार है परंतु पूर्ववर्ती चरण को लेकर वह लंबे समय तक सांकेतिक रूप में यश जाते रहे हैं की सभ्यता के तत्व पश्चिम से आए हो सकते हैं इसलिए सारस्वत चरण की उपलब्धियों की ओर ध्यान सचेत रूप में नहीं दिया उनमें कोई वैदिक साहित्य का पता भी नहीं था इसलिए हम यह आरोप भी नहीं लगा सकते कि उन्होंने ऐसा जानबूझकर किया परंतु सभ्यता के विकास की दिशा को समझने में उनके इस संभ्रम की वजह से उलझन अवश्य पैदा हुई।
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सिंधु लिपि और ब्राह्मी 
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 जिस लिपि के लिए  सेंधव लिपि का प्रयोग होता आया है उसका विकास  प्राचीन मंडलों के समय तक हो चुका था।  उसके लिए वे किसी शब्द का प्रयोग करते थे या नहीं यह हम नहीं जानते परंतु इतना अवश्य जानते हैं कि   टंक लिपि के विषय में एक लोक विश्वास है ब्रह्मा हमारे माथे पर हमारा भाग्य जन्म से पहले ही लिख देते हैं- यद् धात्रा निज भाग्यपट्ट लिखितं स्तोकं महद् वा फलं। ब्रह्मा की इस लिखावट को सभी पढ़ नहीं सकते।   भाग्यपट्ट पर लेखन का यह रूपक सरस्वती-सिन्धु कालीन लेखपट्टिका पर अंकन से इतना मेल खाता है यह सोचकर हैरानी होती है ऋवेद में ब्राह्मी  शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है, यद्यपि ब्रह्मा शब्द का प्रयोग मंत्र के लिए कथन के लिए,  व्याख्याता के लिए अनेक बार हुआ है।  संभव है इसे सूर्या आता जाता रहा हो (सूर्यां यो ब्रह्मा विद्यात्) ऐसा मानने का सबसे बड़ा कारण यह है कि ऋग्वेद में लिखित वाणी के लिए  'सूर्यस्य दुहिता' का प्रयोग हुआ है।  यही दृश्य वाणी,  अज्ञान और अंधकार को मिटाने वाली  उषा के समान बताई गई है (सूर्यायाः पश्य रूपाणि तानि ब्रह्मा तु शुन्धति।) और ऐसे स्थलों पर इससे पूर्व लिपि के जानकार व्यक्ति को भी ब्रह्मा  कहा जाता था। वाणी  स्वयं अपना परिचय देते हुए कहती है कि मैं जिसे चाहती हूं उसे ब्रह्मा, ऋषि, चिंतक  बना देती हूं (यं कामये तंतमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम् ।। 10.125.5) इसके आधार पर दावे के साथ तो नहीं कहा जा सकता कि यहां ब्रह्मा का अर्थ लेखक या लिखित  पाठ को करने में सक्षम  व्यक्ति  है परंतु इसकी संभावना से इनकार भी नहीं किया जा सकता। 

सरस्वती सिंधु लिपि के वाचन में तत्काल में जो कठिनाई आती थी इसलिए थी के मात्रिक हो चुकी थी, स्वर के विकारी चिन्ह  व्यंजन से जुड़ते थे,  परंतु साथ साथ  शब्द प्रतीकों, भाव प्रतीको का भी प्रयोग होता था जिसमें चिन्ह वही होते हुए संदर्भ  के अनुसार उसके अर्थ बदल सकते थे।  लिपि को समझने के प्रयत्न में कई साल तक श्रम करता रहा कुछ भी स्पष्ट नहीं दिखाई दिया और मैंने उस पर अधिक समय लगाना उचित नहीं समझा।  परंतु इसका यह लाभ अवश्य है मैं दूसरों द्वारा इसके निर्वाचन के  दावों की सीमाओं को समझ सकता हूँ और बिचार, सुझाव पर तर्क और प्रमाण प्रस्तुत कर सकता हूं और करता आया  हूँ ।
(जारी)

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )


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