हम अपना लेखन बीते दिनों का रोना रोने के लिए नहीं करते, अपनी वर्तमान अवस्था को समझने और इससे आगे अपनी गलतियों को सुधारने के लिए हम क्या कर सकते हैं, यही हमारे लेखन का उद्देश्य है और इसकी पहली शर्त है अपने वर्तमान और इतिहास दोनों को तथ्यपरक ढंग से समझना।
लंबे समय से अपने आलस्य और आरामतलबी के कारण हम कोई सार्थक काम नहीं कर सकते। दूसरा हमसे प्रलोभन के बल पर या दबाव के बल पर काम अवश्य ले सकता है।
स्वतंत्रता के बाद हमारा आत्मविश्वास बढ़ना चाहिए था, उससे पहले हमारे पास सत्ता नहीं थी,परंतु कुछ दूरदर्शी लोगों के मन में, पश्चिमी आदर्शों से हटकर, अपनी जमीन पर खड़े हो कर, एक ऐसे भविष्य के निर्माण का स्वप्न था जो हमारे लिए ही नहीं, भौतिकवादी तनाव से ग्रस्त पश्चिम के लिए भी अनुकरणीय हो सके। इसमें अपनी सामाजिक आर्थिक विकृतियों से मुक्ति और पश्चिमी अनुकरणीय गुणों को आत्मसात करने का संकल्प भी था।
हुआ उल्टा ही। हमने पश्चिम की विकृतियों को भी जुटा लिया अपनी प्राचीन विकृतियों को नए दरवाजे से प्रवेश करने की छूट दे दी, और यह बोध तक खो दिया कि हम इससे अलग कुछ हो या दूसरों से आगे जा सकते हैं।
हिंदू समाज लगभग 1000 साल की गुलामी के बाद अपनी निजता को भूल कर दूसरों की छाया बनने की कोशिश में लगा रहा। मध्यकाल की धार्मिक यातना, कंपनी काल राजनीतिक और आर्थिक अधोगति के मिले-जुले प्रभाव से हिंदुओं का मनोबल कितना गिरा हुआ था, और उसमें संस्कृत के महत्व पर स्वीकार से इतनी राहत अनुभव की गई इसका अनुमान हम आज नहीं लगा सकते। इसे “Indian Mirror,” Calcutta, 20 September, 1874 में प्रकाशित एक लेख की कुछ पंक्तियों से समझा जा सकता है:
“When the dominion passed from the Mogul to the hands of Englishmen, the latter regarded the natives as little better than niggers, having a civilization perhaps a shade better than that of the barbarians. . . .
The gulf was wide between the conquerors and the conquered. . . . There was no affection to lessen the distance between the two races. . . . The discovery of Sanskrit entirely revolutionized the course of thought and speculations. It served as the ‘open sesame’ to many hidden treasures. It was then that the position of India in the scale of civilization was distinctly apprehended. It was then that our relations with the advanced nations of the world were fully realized. We were niggers at one time. We now become brethren.
इस हीनता ग्रंथि के चलते यदि किसी का ध्यान इस ओर नहीं गया उनके अपने इरादे क्या हैं, क्यों इ शिक्षा अनुसंधान और सर्वेक्षण को अपने नियंत्रण में रखते हुए हमारी चेतना को भी नियंत्रित करना चाहते हैं इसकी समझ तो तब हो ही नहीं सकती थी क्योंकि वह आज तक पैदा नहीं हुई। आज भी हमारे लिए गौरांग वचन प्रमाणम्, पाश्चात्य मेधा वरीया, पाश्चात्य स्वीकृतिः परमोपलब्धिः के अलिखित सूत्र हमारी अंतश्चेतना में विराजमान हैं, यद्यपि। जिस तरह की धूर्तता के उदाहरण हमने विलियम जोंस और मैक्स मूलर के हवाले से दिए हैं, उससे भी अधिक धृष्टता से वही काम आज भी किया जा रहा है। इस काम के विषय में उस समय आज्ञा का जो भाव था वह ऊपर के लेख में इन शब्दों में प्रकट हुआ था “We say again that India has no reason to forget the services of scholars. “ आज भी हम उसी वाक्य में उनकी श्लाघा करते हैं, परंतु स्वयं उन कामों को पूरी निष्ठा से करने के लिए तत्पर नहीं होते जिनको विषाक्त बनाकर पेश करने के लिए उनकी श्लाघा करते हैं।
मुझे यह सोच कर ग्लानि होती है, ग्रंथों को अधिकार में रखने वाले ब्राह्मण इतने निकम्मे और निठल्ले थे कि उन्हें यह तक नहीं पता था उनके ग्रंथों में जिन्हें वह अपनी थाती मानते आए थे उनमें लिखा क्या है और विदेशी विद्वान उसके साथ किस तरह का व्यवहार कर रहे हैं, उतने ही निकम्मे और निठल्ले हमारे आज के बुद्धिजीवी हैं जिसके सबसे अलबेले कारखाने की सबसे अलबेली और प्रतिभा को संस्कृत का ज्ञान इसलिए जरूरी नहीं कि संस्कृत में जो कुछ जानने योग्य है उसका अनुवाद किया जा चुका है।
प्रश्न किसी एक व्यक्ति का नहीं है युगप्रवृत्ति का है । उसी कारखाने की उतनी ही महान एक दूसरी प्रतिभा ने कामायनी पर मुक्तिबोध की पुस्तकाकार समीक्षा पर एक संगोष्ठी आयोजित की थी।
हमारा विचार था कि मुक्तिबोध ने जिन इतिहासकारों पर भरोसा करते हुए वैदिक काल को समझा वह इसे एक ऐसे अजीबोगरीब समाज के रूप में जानते थे जिसके सदस्य पशुओं को लूटते, लूट कर चुराते, चुरा कर गँवाते थे और लूटने से पहले ब्रह्म विचार करने बैठ जाते थे। वैदिक काल और समाज के विषय में प्रसाद जी की समझ और इसके स्रोत भिन्न थे।
आक्रामक आर्यों के मिथक को जीवित रखने के लिए मार्शल ने बड़े जोरदार ढंग से यह दिखाना चाहा कि मोहनजोदड़ो की सभ्यता अनार्य सभ्यता है….और लोग इसे ही मानते चले आए हैं।
मुक्तिबोध केअनुसार कामायनी में वर्णित प्रलय ब्रिटिश साम्राज्यवादी पूंजीवाद के आघात से ध्वस्त रही सामंती व्यवस्था की प्रलय है। यह वाजिद अली शाह से होड़ लेने वाली सामंती अय्याशी के ध्वस्त होने की पीड़ा है ….
यह गलत है। अंग्रेजों ने भारत में पूंजीवाद को पूर्ण विकसित ही नहीं होने दिया, उन्होंने अपने कल कारखानों कल कारखाने भी भारत में नहीं लगाए, क्योंकि इससे भारतीय व्यापारिक पूँजी के औद्योगिक पूँजी में बदलने का डर था। … अंग्रेजों ने भारतीय सामंतवाद को कमजोर बनाने के स्थान पर इसे हर तरह से मजबूत बनाया यही कारण था कि सामंत और जमीदार और रियासतदार अपनी रक्षा के लिए अंग्रेजी शासन का समर्थन और स्वतंत्रता आंदोलन विरोध करते थे । आदि।
इस पर उस विभूति को ही कहना उचित था पर एक युवक ने भावोद्गारपूर्ण स्वर में यह बताना आरंभ किया कि पाश्चात्य विद्वानों ने इतने परिश्रम से हमारे साहित्य और इतिहास को व्यवस्थित किया जिसके लिए हमें उनका कृतज्ञ होना चाहिए, और कृतघ्नता यह कि उनकी आलोचना की जा रही है।
क्या हम आज भी ठीक उसी चरण पर ठहरे हुए कविता-कहानी गढ़ कर आह-वाह करने वाले, अपने बौद्धिक दायित्व के प्रति उदासीन, गहन अध्ययन और अनुसंधान का काम अपने मानस को नियंत्रित और निर्देशित करने वालों के ऊपर छोड़ कर निश्चिंत, पाँव पुजाने के लिए आकुल विकल, दुर्बुद्धिजीवियों की जमात नहीं बने रह गए हैं, जिन्हें यह तक पता नहीं कि उनके साथ क्या किया जा रहा है। इसे ही आपके मन मे उतारने के लिए हमें अपने उद्धारकों में अग्रणी मैक्समुलर की जाँच करनी पड़ी। कल यह देखेंगे कि ग्रीक और भारत का तुलनात्मक बौद्धिक स्तर क्या था और इसका एकपक्षीय चित्रण करते हुए किस रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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