अभी तक हमने भारतीय स्रोत सामग्री के आधार पर अपनी बात कही है। सिक्के के दूसरे पहलू पर भी विचार करना जरूरी है, परंतु साथ ही यह भी याद रखना है कि तुलनात्मक भाषा विज्ञान के क्षेत्र में आरंभ से ही विचार के नाम पर धाँधली से काम लिया जाता रहा है।
हमें केवल इस बात का लाभ है कि सच झूठ के सिर पर सवार होकर बोलता है - लाख कोशिश के बाद भी उसमें ऐसी असंगतिया बनी रह जाती हैं, जिनसे उस फरेब का भी तिलिस्म टूटता है, जिसे इतने श्रम और सावधानी से तैयार किया गया था, कि कोई पोच न रह जाए।
विलियम जोंस के व्याख्यानों को यदि ध्यान से पढ़ें तो विवेचन के स्थान पर एक छटपटाहट दिखाई देती है जो डूबने से बचने के लिए हाथ पाँव मारते हुए आपदा ग्रस्त व्यक्ति में दिखाई देती है जो बचने की लाख कोशिश के बाद भी डूब जाता है। भारत को संस्कृत की मूल भूमि मानने से कतराने की सारी कोशिशों के बाद विलियम जोंस अपने अंतिम अभिभाषण में यह मानने को बाध्य होते हैं कि भारत से ही और भारतीयों के द्वारा ही संस्कृत भाषा और भारतीय सभ्यता और संस्कृति का और ग्रीस में प्रवेश हुआ था और फिर पूरे यूरोप में इसका कई चरणों में कई रूपों में विस्तार हुआ था। इसके उजागर हो जाने के बाद बहस करने के लिए कुछ बचा नहीं था, परंतु विलियम जोंस के समूचे अध्ययन में से केवल उस एक वाक्य को जो उनकी व्याख्या में गलत सिद्ध हो चुका था, आधार बनाकर सारी बहस की जाती रही, हर मौके पर झूठ पकड़ा जाता रहा और फिर बयान बदला जाता रहा। एक छोटा सा नमूना मैक्समूलर के उसी चौथे खंड से उन्हीं के शब्दों में:
Similar coincidences and divergences have been brought to light by a comparative study of the history of astronomy, of music, of grammar, but, most of all, by a comparative study of philosophic thought. There are indeed few problems in philosophy which have not occupied the Indian mind, and nothing can exceed the interest of watching the Hindu and the Greek, working on the same problems, each in his own way, yet both in the end arriving at much the same results.Such are the coincidences between the two, that but lately an eminent German professor, published a treatise to show that the Greeks had borrowed their philosophy from India, while others lean to the opinion that in philosophy the are the pupils of the Greeks.
अर्थात् "इसी तरह की समानताएँँ और भिन्नताएँ ज्योतिर्विज्ञान, संगीत, व्याकरण, के इतिहास के तुलनात्मक अध्ययन से, और सबसे अधिक दार्शनिक विचारों के तुलनात्मक अध्ययन से उजागर हुई हैं। सच कहें तो दर्शन की शायद ही कोई ऐसी समस्या हो जिस पर भारतीय मेधा ने विचार न किया हो, और भारतीयों और यूनानियों को उन्हीं समस्याओं पर विचार करते हुए और लगभग एक जैसे निष्कर्षों पर पहुँचते हुए देखने से अधिक रोचक कोई दूसरा काम नहीं हो सकता। दोनों के बीच पारस्परिक समानताएँ ऐसी हैं कि अभी कुछ ही समय पहले एक विख्यात जर्मन आचार्य ने एक मीमांसा प्रकाशित की है जिसमें उसने सिद्ध किया है कि यूनानियों ने अपना दर्शन भारतीयों से लिया है, जबकि कुछ दूसरे लोग यह मानते हैं कि दर्शन के क्षेत्र में भारतीय यूनानी यों के शिष्य हैं।"
इस पैराग्राफ को बहुत ध्यान से पढ़ें। अंतिम पंक्ति “जबकि कुछ दूसरे लोग यह मानते हैं कि दर्शन के क्षेत्र में भारतीय यूनानी यों के शिष्य हैं”, और भी ध्यान से। कारण जिन दूसरे लोगों का हवाला उन्होंने दिया है उनमें ऐसे हिम्मती लोग भी थे जो मानते थे कि भारत के धूर्त ब्राह्मणों ने सिकन्दर के हमले के बाद यूनानी भाषा की नकल पर एक पूरी भाषा ही रच डाली। संस्कृत वही भाषा है इसे तर्क कहें या हुड़दंग, यह तय करना कठिन हो जाता है परंतु ऐसा ही हुड़दंग भारत और एशिया के विषय में पश्चिम के पूरे चिंतन में देखने में आता है जो आज तक बना रह गया है और इसी को रट कर हमारे विख्यात विद्वान हमें पाठ पढ़ाते रहे। इस खुराफात की तर्कपद्धति को समझना जरूरी है इसलिए हम अपने समय के सबसे विख्यात दार्शनिक और अध्यापक, जेम्स मिल के अध्यापक डूगल्ड स्टीवर्ट (वर्क्स, 1823, तीसरा खंड में संस्कृत भाषा की उत्पत्ति के विषय में कुछ अँटकलबाजियाँ शीर्षक से लिखे निबंध के लंबे उद्धरण का, विस्तार से बचने के लिए, हिंदी अनुवाद दिए बिना उद्धृत करना जरूरी समझते है। इसे औरभी ध्यान से पढ़ें:
These conjectures were suggested to me by a remark thrown out by Mr. Gibbon in his history. "I have long harboured a suspicion" he observes, "that some, perhaps much, of the Indian science was derived from the Greeks of the Bactriana." To this hint, however I paid little attention, till I found the same opinion stated with considerable confidence by the very learned Meiners...who refers to.... The proofs alleged by Bayer in his Historia Regni Graecorum Bactriani. But on looking into this work of Bayer, I was much disappointed to find that it embraces only a very narrow corner of Indian science; relating almost entirely to the names of numbers; the division of time into minutes, hours, weeks and months, etc, the Hindoo calender ; and certain astronomical cycles; which he labours to show that the Indians derived from the Greeks and not the Greeks from Indians....
It is universally known that after the conquests of Alexander in Asia it was one great object of his policy to secure the possession of his new empire by incorporating and assimilating, as for as possible, his Asiatic and his European subjects... On the other hand, he encouraged the Persian nobles to learn the Greek language and to cultivate a taste for Greek literature. We find him in prosecution of the same design, not only marrying one of the daughters of Darius, but choose ing wives for hundreds of his principal officers in the most illustrious Persian families. The example was so eagerly followed by the lower ranks, that, we are told, above ten thousand Macedonians married Persian women, and received marriage gifts from Alexander, as a mark of his approbation.75-76
If these facts be duly weighed, the conjecture of Meiners will not perhaps appear extravagant that, that it was in consequence of this intercourse between Greece and India, arising from Alexanders conquests, that the Brahmins were led to invent their sacred language. "For, unless," he observes, "they had chosen to adopt at once a foreign tongue," against which obvious and unsurmountable objections must have presented themselves, "it was necessary for them to invent a new language, by means of which they might express their newly acquired ideas, and, at the same time, conceal from other Indian castes their philosophical doctrines, when they were at variance with the commonly received opinions." I cannot, however agree with Meiners, in thinking that this task would be so arduous as to require labor of many generations, for with the Greek language before them as model, and their own language as their principal raw material, where was the difficulty of manufacturing a different idiom, borrowing from the Greek the same, or nearly the same system, in the flections of the nouns and conjugations of the verbs, and thus disguising, by new terminations and a new syntax, their native dialect? If Psalmanazar was able to create, without any assistance, a language, of which not a single word had a previous existence but in his own fancy, it does not seem very bold hypothesis, that an order of men, amply supplied with a stock of words applicable to all matters connected with the common business of life, might, without much expense of time and ingenuity, bring to a systematic perfection of an artificial language of their own, having for their guide the richest and most regular tongue that was ever spoken on earth; - a tongue too abounding in whatever abstract and technical words their vernacular speech was incompetent to furnish.....
But although a very moderate degree of industry might have been sufficient to bring this language to such a degree of perfection as would fit for the essential purposes which its framers had in view, it was perhaps the work of successive ages to bestow on it all the improvements of which it was susceptible. It is difficult to conceive how far these improvements might be carried in the unexampled case of a language, which was never contaminated by the lips of the vulgar, and which was spoken only by men of contemplative and refined habits, peculiarly addicted to those abstract speculations which are so nearly allied to the the study of grammar and philology. 79-80
रोचक बात यह है कि मैक्समुलर ऐसे लोगों का उपहास भी करते हैं और ग्रीक या यूरोपीय श्रेष्ठता की हिमायत में दबे स्वर में इनका सहारा भी लेते हैं। इतने ही से संतुष्ट न हो कर वह स्वयं इसी तरह के कुतर्क और फतवेबाजी से वहाँ काम लेते हैं. जहाँ भारत की पश्चिम से तुलना करनी होती है, इसे हम आगे की पोस्टों मे देखेंगे।
दुर्भाग्य से उसी पाठ को स्वायत्त कर लेने के बल पर हमारा बुद्धिजीवी वर्ग अपने को बुद्धिजीवी समझता है। दुर्भाग्य यह नहीं है कि यह सीमा केवल स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के बुद्धिजीवी वर्ग की है जिसने उत्साह से पश्चिम के वैचारिक और कला आंदोलनों को आत्मसात करने के प्रयत्न के साथ उनकी बराबरी पर आना चाहा और यह भूल गया कि अनुकर्ता अनुकरणीय की समकक्षता में कभी आ नहीं सकता, अपितु इससे पहले स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले बुद्धिजीवियों में भी कोई इस फरेब को भाँप नहीं पाया, क्योंकि उनको पद, प्रतिष्ठा और संरक्षण दे कर संभ्रांत अनुचर तो बनाया ही जा चुका था, ब्राह्मणों में यह मिथ्या बोध पैदा करने मैं उन्हें सफलता मिली थी कि वे भी शासक वर्ग से, कुछ दूर से ही सही, रिश्ता रखते हैं। अतः इससे तिलक भी मुक्त न हो पाए थे। भारत का नवजागरण भी जमुहाई से आगे नहीं बढ़ पाया। ऐसे में अकेले प्रकाशस्तंभ के रूप में खड़ा केवल एक व्यक्ति दिखाई देता है जो पाश्चात्य फरेब से मुक्त दिखाई देता है और वह हैं स्वामी दयानंद सरस्वती जिनकी भूमिका का सही मूल्यांकन आज तक हुआ ही नहीं। उस गहन तिमिर में एक मात्र जलती मशाल।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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