मन (मत) - 1. जल (मीन - मत्स्य); 2. मन/मान/मत/मंत/वान/ वत/ वंत - युक्त (श्री) मान/मती/मंत, धनवान, भगवत/भगवंत। 3. चन्द्रना (मनो वै चन्द्रमा) चन्द्रमा मन से पैदा हुआ (चन्द्रमा मनसो जातः)। यही मन E. moon ( O.E. mona, G. mond, L. mensis),- a planet,(मस/ मनस) month (मास), lunar- (मास्य), nune- anything in the shape of half moon; lunacy - insanity (देखें, मन्मथ, मदन) ; lone, alone एकाकी, mon(o) एक- >monarch एकाधिकारी, Gr. monos- single; यूरोपीय प्रतिरूपों में मनस् या E, mind (L. mens) मस्तिष्क, mend, -ment, ment- (al/or), memo-, memory, menarche - the first menstruation, mend, menstruum, mention, को किसी एक संकुल से जिसमें द्रव, प्रकाश, ज्ञान, चिंतन. आशय, अल्पता, बहुलता, मध्यता (mean/ meaning, mean - low in rank of birth, mean - intermediate, main -L. magnus (?), maintain- to observe or practice ; to keep in existence or state को किसी एक सर्वसमावेशी सूत्र से जोड़ कर समझना संभव नहीं, क्योंकि वहाँ बिखराव है, इसलिए वहाँ हारिल की लकड़ी की तरह समान ध्वनि और अर्थ का आभास कराने वाले सजात (कॉग्नेट) शब्दों की खोज की जाती रही और उसे ही व्युत्पत्ति बताया जाता रहा और आज भी बताया जाता है। यह काम भारत में हो सकता था जहाँ उल्टी थी, फिर भी यहाँ धातुओं की तलाश कर ली गई थी जो ध्वनि संकुल और अर्थ संकुल के नियम का अधिक सफलता से निर्वाह कर लेता था, जिससे नियम का भ्रम पैदा तो होता था पर उसी धातु से व्युत्पन्न विरोधी अरथों के सामने चें बोल देता था। गल/ ग्ल - पानी >ग्लानि>फा. गिला, अं गल्प/ ग्लो/ ग्लॉस, की अकाट्य सजातता के बाद भी किसी धातु या मूल (स्टेम) के सहारे नहीं समझा जा सकता।
मनु
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बात हो मन की और मनु पर न आए, यह तो संभव ही नहीं है, लेकिन मनुष्य के लिए प्रयुक्त अंग्रेजी पर्याय मैन (man, O.E./ Ger. mann, Du. man) के संदर्भ में मनु का नाम नहीं आता। हमारी अपनी चिंता धारा में भी अनेक मनुओं का हवाला मिलता है। कई मन्वंतरों की कल्पना की गई है।
जिस दौर में कल्पना की गई वह कल्पित चरण से 4-5 हजार साल बाद आता है। हमारे बुद्धिजीवियों में जो लोग मिथक के शिल्प-विधान से परिचित नहीं है, जो पाश्चात्य विद्वानों के भरोसे रहे हैं, कि वे जो कुछ समझाना चाहेंगे उसे समझा देंगे और उससे उनका काम चल जाएगा, उन निठल्ले विद्वानों के पास एक ही विकल्प था कि इन्हें निरा गप कह कर खारिज कर दें, और प्राचीन ज्ञान के एक अमूल्य स्रोत को नष्ट कर दें जो उनके दुर्भाग्य से मानवीय विरासत के रूप में केवल भारत में बचा रह गया, और इसलिए जिसके विश्लेषण की पहली जिम्मेदारी हमारे ऊपर आती है।
हमें केवल यह समझना होगा शिक्षा की कमी और सूचना के साधनों के अभाव के कारण कुछ शताब्दियों के भीतर ही इतना अंधकार पैदा हो जाया करता रहा है कि लोग अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए क्षीणतम सूचनाओं के आधार पर अपनी श्रद्धा और वितृष्णा के योग से कैसी-कैसी कथाएं इतिहास सच के रूप में गढ़ और प्रचारित कर लिया करते हैं। कुछ लोग तो अपने जीवन काल में ही मिथक बन जाया करते हैं। इसके बाद ही चार-पाँच हजार साल का अंतराल अतीत का किस तरह का आख्यान तैयार करने की संभावना पैदा कर सकता है इसकी समझ पैदा हो सकती है।
इतिहासकार का काम पुरातत्वविद की तरह कूड़े के ढेर में से सार्थक सूचनाएं देने वाले टुकड़ों को सँजोने का, उनकी धूल-मैल हटाकर उन सच्चाइयों तक पहुंचने का होता है जिन तक जाने के बाद एक पुरातत्वविद यह तक बताने में समर्थ होता है कि किसी औजार से आघात किस कोण पर किया जाता था। अपने निष्कर्ष के प्रति वह इतना निःसंशय होता है कि उस पर किसी तरह का संदेह करने वालों को वह हिकारत से परे हटा देता है। विश्वास करें, हम उसी विश्वास से अपने क्षेत्र में काम कर सकते हैं।
दूसरों के लिए मन्वंतरों की कल्पना एक खुराफात है, इन पंक्तियों के लेखक के लिए वह इतिहास की इतनी बड़ी सचाई कि उसके खुलने पर आंखें खुली की खुली रह जाएँ। मनुओं की कल्पना लेखन पूर्व अतीत में सभ्यता के इतिहास में घटित निर्णायक मोड़ों का प्रतीकांकन है। इनकी संख्या, कल्पों की कालावधि, यहाँ तक कि युगों के काल और नामकरण में कल्पना का अतिरेक अवश्य दिखाई देता है। परंतु यही उन्हें विश्वसनीय भी बनाता है, बिना जंग खाया, चमकता हुआ औजार पुरातनता का दावा नहीं कर सकता।
इनकी संख्या 14 बताई गई है: 1.स्वायम्भु, [2.स्वरोचिष, 3.औत्तमी, 4.तामस मनु, 5.रैवत, 6.चाक्षुष,] 7.वैवस्वत,[8.सावर्णि,] 9.दक्ष सावर्णि, 10.ब्रह्म सावर्णि, [11.धर्म सावर्णि, 12.रुद्र सावर्णि, 13.रौच्य या देव सावर्णि और 14.भौत या इन्द्र सावर्णि]। इनमें जिनको हम कल्पना की देन मानते हैं उनको कोष्ठबद्ध [ ] कर दिया है, यद्यपि उनमें से कुछ का नाम विकल्प के रूप में सोचा गया लगता है।
स्वायम्भ मनु उसे सतयुग के प्रतीक पुरुष हो सकते हैं, जब मनुष्य प्रकृति पर पूरी तरह निर्भर था और आसुरी अवस्था में था। वैवस्वत उस विवस्वान या विष्णु से पैदा हुआ जिसे यज्ञ या कृषि उत्पादन का, कृषि कर्म के लिए भूमि के विस्तार का, श्रेय दिया गया है और जिसका प्रतीकांकन वलि और वामन की कथा में हुआ है।
कृषि कर्म में अग्रणी सूर्यवंशियों की पैतृकता इसी मनु के शौर्य और संरक्षक रूप से जुड़ी है। रामकथा कृषि के आविष्कार, संस्थापन और विस्तार से जुड़ी है इसका कुछ विस्तार से विवेचन हम ‘रामकथा की परंपरा’ में कर आए हैं। दक्ष कौशल, कृषि और वाणिज्य के समेकित विकास का चरण है जिसमें दक्षक्रतु सौधन्वनों की वंदना सी की गई है और ब्रह्म उस चरण का जिसमें कर्मकांडीय यज्ञ उत्पादक यज्ञ पर हावी हो जाता है। यह एक मोटा प्रथम दृष्टि मे उभरने वाला समीकरण है जिसकी और छानबीन करते हुए इसे स्थापना का रूप दिया जा सकता है।
मनु का शाब्दिक अर्थ है मनस्वी, चिंतन करने वाला, पुरानी मान्यताओं और बंधनों से आगे बढ़ने वाला और इस तरह नए युग का प्रवर्तक। पश्चिमी धर्म चिंता में ‘आदम’ को जिसे मैं मन की जगह आत्म पर आधारित नामकरण मानता हूं, (क्योंकि मनु के अवतार की कहानियाँ लघु एशिया में प्रभुत्व कायम किए हुए भारोपीय भाषियों की देन मानता हूं) नए चिंतन और नए विकास, विज्ञान सभी को पतन के रूप में दर्शाया गया इसलिए क्षरित कथा-बंध के अतिरिक्त वहां कुछ नहीं पाया जा सकता। मनु और मनुष्य का मनस्वी रूप तो कदापि नहीं, यद्यपि हम देख चुके हैं कि माइंड, मेमरी, मेंटल, मेंटर मैं आदि में मनस्विता का भाव स्पष्ट दिखाई देता है।
मैन को manus - hand, से संबद्ध या जा सकता था, परंतु मनुष्य जिसके पास हाथ होते हैं यह व्याख्या किंचित हास्यास्पद लगी होगी। इसे इसीलिए कोश में स्थान न देकर दूसरे समरूप शब्द रखे गए, यद्यपि इसकी छाया पश्चिमी चिंतन में बनी रही है, जिसमें यह समझाया जाता रहा है कि मनुष्य ने जब अपने हाथ से काम लेना शुरू किया तब वह वानर अवस्था से आगे बढ़ा। man -हाथ, का प्रयोग manual, manufacture- to make by hand; manubrium- any handle like structure; manner - method, fashion जिसकी व्युत्पत्ति लातिन मैनस से दिखाई गई है। measure - मान, प्रमाण।
हमें ऐसा लगता है लातिन सहित दूसरी भाषाओं में भी हाथ मनुष्य और मान के विषय में जो अस्पष्टता और घालमेल है वह संस्कृत मान और भारतीय मानदंडों में ऊंचाई नापने के लिए पुरुष प्रमाण जिसे भोजपुरी में पोरिसा/पोरसा कहते हैं की सही समझ न होने के कारण है।
हम तो मनोभाव पर विचार करने चले थे परंतु मनस्विता की छानबीन मैं इतने उलझ गए कि आगे बढ़ ही नहीं पाए। इन पर कल विचार करेंगे।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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