दुनियाभर के जन संघर्षों की कथा पढ़ते पढ़ते अक्सर यह सवाल मन मे कौंध जाता है कि आखिर सरकारें इतनी ठस और अहंकारी क्यों हो जाती हैं और कैसे जनता की वाजिब मांगो के खिलाफ इतनी बहरी और अंधी हो जाती हैं कि वह जनता की उन समस्याओं के बारे में न तो सुनना चाहती हैं और न ही उन्हें हल करना ? लेकिन आज जब 40 दिन से लाखों किसान 4 डिग्री सेल्शियस से भी कम तापमान पर, बरसते पानी और हाड़ कंपाती इन पूस की रातों में अपनी जायज मांगो के लिये दिल्ली की विभिन्न सीमाओं पर बैठे हैं और सरकार उनकी मांगों पर विचार तक करने के लिये तैयार नहीं है तो बस एक ही बात मन मे कौंधती है कि सत्ता चाहे किसी की भी हो, उसका मूल चरित्र एक सा ही रहता है। सत्ता के अवचेतन में ही, अधिकारवाद और तानाशाही के वायरस मौजूद रहते हैं, और सत्ता इनसे मुक्त रह ही नहीं सकती है। सत्ता सदैव इस गलतफहमी में मुब्तिला रहती है कि वह जो कुछ भी कर रही है वही सत्य शिव और सुंदर है जब कि उनमे से अधिकांश असत्य, अशिव और असुंदर भी होता है। आज हम एक ऐसे जन आंदोलन से रूबरू हैं जो 40 दिन से लगातार बिना किसी हिंसक घटना के चल रहा है, व्यापक है, अपने अधिकार के लिये अडिग है और अपने लक्ष्यप्राप्त के प्रति दृढ़ संकल्पित भी है। पूस की रात और हाड़ कंपाने वाली ठंड, किसान त्रासदी का एक प्रतीक भी है। आजकल पूस की रातें भी हैं, हाड़ कंपाने ठंड भी और नए कॉरपोरेट जमीदारों के पक्ष में खड़ी एक लोकतांत्रिक सरकार भी।
26 नवम्बर को किसानों ने दिल्ली कूच का आह्वान किया था । तब यह आंदोलन पंजाब से उठा था। बिलकुल पश्चिमी विक्षोभ की तरह। भारत सरकार को लगा था कि यह एक राज्य के कुछ मुट्ठी भर किसानों का आंदोलन है। पंजाब मे कांग्रेस की सरकार है तो उस पर यह इल्ज़ाम आसानी से चस्पा भी किया जा सकता है कि वह केंद्र की भाजपा सरकार को असहज करना चाहती है। हरियाणा में भाजपा की सरकार ज़रूर थी, पर वहां की सरकार ने भारत सरकार को यह रिपोर्ट दी कि हरियाणा के किसान इस आंदोलन में शामिल नहीं होंगे। अन्य राज्यों से ऐसी कोई सुगबुगाहट मिल भी नहीं रही थी। दिल्ली अपने मे ही मगन थी। पर जैसे ही यह जत्था हरियाणा की सीमा में पहुंचा, हरियाणा के किसान भी साथ आ गए, फिर तो उत्तरप्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश से भी किसानों के जत्थे आने लगे। आज लगभग 40 दिन इस आंदोलन के हो गए हैं। पर किसान अपनी मांगों पर अडिग हैं और दृढ़संकल्प भी।
किसान आंदोलन की शुरुआत की जड़ में हाल ही में पारित, निम्न तीन कृषि कानून हैं जिनपर अभी बातचीत चल रही है।
● सरकारी मंडी के समानांतर निजी मंडी को अनुमति देना।
● कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में पूंजीपतियों के पक्ष में बनाये गए प्राविधान,
● जमाखोरी को वैध बनाने का कानून।
यही तीनो वे कानून हैं जो किसानों की अपेक्षा पूंजीपतियों या कॉरपोरेट को लाभ पहुंचाते हैं औऱ इन्ही को सरकार कृषि सुधार का नाम देती है। इन कानूनों से किसानों को धेले भर का भी लाभ नहीं होने वाला है। यह तीनों कानून कॉरपोरेट के कहने पर ही तो लाये गये है फिर इन्हें बिना कॉरपोरेट की सहमति के सरकार कैसे इतनी आसानी से वापस ले लेगी ?
अब तक आठ दौर की वार्ता हो चुकी है। आज 4 जनवरी को भी बातचीत हो रही है। किसानों ने अपना निम्न एजेंडा भी सरकार को दिया था।
● तीनो कृषिकानून की वापसी की मोडेलिटी।
● एमएसपी को कानूनी रूप दिया जाय।
● पराली जलाने पर किसानों पर एक करोड़ तक के जुर्माने और कारागार की सज़ा से किसानो की मुक्ति।
● प्रस्तावित बिजली कानून का निरस्तीकरण।
इनमे से सरकार ने नीचे से दो मांगे स्वीकार कर ली।
एक तो पराली प्रदूषण से सम्बंधित मांग है, जिसे सरकार ने वापस लेने की बात कही है।
दूसरे प्रस्तावित बिजली कानून के बारे में सरकार ने कहा है कि अब वह यह कानून नहीं लाने जा रही है। इस बिल को सरकार ने फिलहाल बस्ता ए खामोशी में डाल दिया है। सरकार के यह निर्णय किसान हित मे हैं।
अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (एआईकेएससीसी) के वर्किंग ग्रुप ने कहा है कि इन कानूनों को केन्द्र ने ही अलोकतांत्रिक ढंग से किसानों पर थोपा है, जो कृषि बाजार, किसानों की जमीन और खाद्यान्न श्रृंखला पर कारपोरेट तथा विदेशी कम्पनियों का नियंत्रण स्थापित करेंगे तथा बाजार व जमीन पर किसानों के अधिकार को समाप्त कर देंगे। इन कानूनो को वापस लिए बिना मंडियों और कृषि प्रक्रिया में किसान पक्षधर परिवर्तनों और कृषि आय दोगुना करने की संभावना शून्य है। संघर्ष समिति ने कहा कि सरकार को अपना अड़ियल रवैया तथा शब्दजाल छोड़ देना चाहिए क्योंकि सभी प्रक्रियाएं उसी के हाथ में है।
एआईकेएससीसी ने कहा एमएसपी को कानून आधार देने के प्रश्न पर सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि जिस धान की एमएसपी 1868 रु0 प्रति कुंतल है उसे आज निजी व्यापारी 900 में खरीद रहे हैं, यह स्थिति समाप्त हो। साथ में गन्ना किसानों के सालों-साल भुगतान न होने की समस्या को भी हल करना पड़ेगा। निजीकरण के पक्ष वाले मंडी कानून 2020 ने धान की एमएसपी व वास्तविक खरीद में फर्क को पिछले साल 0.67 फीसदी से घटाकर 0.48 फीसदी कर दिया है।
एआईकेएससीसी ने कहा कि मंडी कानून ने भाजपा शासन मध्य प्रदेश में किसानों पर पहला बड़ा हमला कराया है, जब दो किसानों से निजी व्यापारी ने 2581 कुंतल दाल बिना पेमेंट किये खरीद और फिर लापता हो गये। सरकार का एमएसपी जारी रखने के दिखावटी आश्वासन का असर तेलंगाना में भी स्पष्ट है जहां राज्य सरकार ने धान की खरीद रोक दी है और कहा है कि केन्द्र ने मदद नहीं की और उसे ऐसा करने को कहा। वरिष्ठ केन्द्रीय मंत्री लगातार मोदी के आश्वासनों पर भरोसा करने की लगातार अपील करते रहे हैं। एआईकेएससीसी ने मांग की है कि राशन में कोटा को बढ़ा कर 15 किलो प्रति यूनिट किया जाए, क्योंकि भूखे लोगों की विश्व सूची में भारत तेजी से गिरता जा रहा है। मोदी शासन में हर साल भारत पिछड़ता गया है और 107 देशों में भारत 94वें स्थान पर है। बच्चों में ठिगना रह जाने में भी कोई सुधार नहीं हुआ है। एआईकेएससीसी ने कहा कि तेलंगाना सरकार ने धान की खरीद बंद कर दी है। तेलंगाना सरकार का कहना है ऐसा करने के लिये केंद्र सरकार ने उनसे कहा है।
किसान मंडी व्यवस्था और एमएसपी को लेकर सरकार के आश्वासन पर यकीन नहीं कर पा रहे हैं। हालांकि एमएसपी के मसले पर सरकार लिखित रूप से आश्वासन देने के लिये तैयार है। पर जहां तक एमएसपी को कानूनी संरक्षण देने का प्रश्न है, इस पर सरकार अभी कुछ स्पष्ट नहीं कह पा रही है। कृषि मंत्रालय ने साल 2007 से 2010 के बीच एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य के संदर्भ में एक अध्ययन कराया। उक्त अध्ययन में यह जानने की कोशिश की गई कि कितने किसानों को एमएसपी के बारे में जानकारी है और किस तरह की मुश्किलों का सामना किसानों को करना पड़ रहा है। इस स्टडी से यह ज्ञात हुआ कि
● 81 प्रतिशत किसानों को एमएसपी के बारे में कोई जानकारी ही नहीं है।
● आंध्र् प्रदेश, यूपी, पंजाब, उत्तराखंड के 100 फीसद किसानों ने कहा कि उन्हें एमएसपी के बारे में जानकारी है।
● बिहार के 98, कर्नाटक के 80 और मध्यप्रदेश के 90 फीसद किसानों को एमएसपी के बारे में जानकारी है।
● इसमें लगभग हर राज्य का किसान कह रहा है कि उन्हें एमएसपी की जानकारी तो है लेकिन मिलती नहीं. जिसके चलते फसलों को औने पौने दाम पर बेचना पड़ता है।
अब अगर कोई यह बताने की कोशिश करे कि किसानों को एमएसपी के बारे में जानकारी ही नहीं है, या इससे किसानों को कुछ लेना देना नहीं है तो वह गलतबयानी कर रहा है। यह बात सच है कि बहुत कम किसानों को एमएसपी का लाभ मिलता है । इसका मतलब यह नहीं कि बचे हुए किसानों ने एमएसपी को ठुकरा दिया है या लेने से इनकार कर दिया है। उन्हें एमएसपी दी नहीं जा रही है, गलती सरकार की है और इस पर सवाल सरकार से पूछा जाना चाहिए। इस स्टडी में 14 राज्य, 36 जिले, 72 ब्लॉक, 1440 घरों को शामिल किया गया था। यह विवरण यदि आप पढ़ना चाहते हैं तो, नीति आयोग की वेबसाइट पर जाकर पढ़ सकते हैं।
कृषि और किसानों की समस्या पर लगातार अध्ययन करने वाले पी साईंनाथ इन कृषि कानूनो को किसानों के लिए 'बहुत ही बुरा' बताते हैं। बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में वे कहते हैं,
"इनमें एक बिल एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केट कमेटी (एपीएमसी) से संबंधित है जो एपीएमसी को विलेन की तरह दिखाता है और एक ऐसी तस्वीर रचता है कि 'एपीएमसी (आढ़तियों) ने किसानों को ग़ुलाम बना रखा है.' लेकिन सारा ज़ोर इसी बात पर देना, बहुत नासमझी की बात है क्योंकि आज भी कृषि उपज की बिक्री का एक बड़ा हिस्सा विनियमित विपणन केंद्रों और अधिसूचित थोक बाज़ारों के बाहर होता है। इस देश में, किसान अपने खेत में ही अपनी उपज बेचता है. एक बिचौलिया या साहूकार उसके खेत में जाता है और उसकी उपज ले लेता है. कुल किसानों का सिर्फ़ 6 से 8% ही इन अधिसूचित थोक बाज़ारों में जाता है. इसलिए किसानों की असल समस्या फ़सलों का मूल्य है. उन्हें सही और तय दाम मिले, तो उनकी परेशानियाँ कम हों."
साईनाथ आगे कहते हैं,
"किसानों को अपनी फ़सल के लिए भारी मोलभाव करना पड़ता है. क़ीमतें बहुत ऊपर-नीचे होती रहती हैं. लेकिन क्या इनमें से कोई भी बिल है जो फ़सल का रेट तय करने की बात करता हो? किसान इसी की माँग कर रहे हैं, वो अपने मुद्दे से बिल्कुल भटके नहीं हैं."
'कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग' - फ़ायदा या नुक़सान, विषय पर साईनाथ कहते हैं कि एक अन्य कृषि बिल के ज़रिए मोदी सरकार 'कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग' यानी अनुबंध आधारित खेती को वैध कर रही है। वे बताते हैं,
"मज़ेदार बात तो यह है कि इस बिल के मुताबिक़, खेती से संबंधित अनुबंध लिखित हो, ऐसा ज़रूरी नहीं. कहा गया है कि 'अगर वे चाहें तो लिखित अनुबंध कर सकते हैं। ये क्या बात हुई? ये व्यवस्था तो आज भी है. किसान और बिचौलिये एक दूसरे की बात पर भरोसा करते हैं और ज़ुबानी ही काम होता है. लेकिन किसान की चिंता ये नहीं है. वो डरे हुए हैं कि अगर किसी बड़े कॉरपोरेट ने इक़रारनामे (कॉन्ट्रैक्ट) का उल्लंघन किया तो क्या होगा? क्योंकि किसान अदालत में जा नहीं सकता. अगर वो अदालत में चला भी जाए तो वहाँ किसान के लिए उस कॉरपोरेट के ख़िलाफ़ वकील खड़ा करने के पैसे कौन देगा? वैसे भी अगर किसान के पास सौदेबाज़ी की शक्ति नहीं है तो किसी अनुबंध का क्या मतलब है?"
किसान संगठनों ने भी यही चिंता ज़ाहिर की है कि 'एक किसान किसी बड़े कॉरपोरेट से क़ानूनी लड़ाई लड़ने की हैसियत नहीं रखता.'
जबकि सरकार का दावा है कि, कॉन्ट्रैक्ट के नाम पर बड़ी कंपनियाँ किसानों का शोषण नहीं कर पाएँगी, बल्कि समझौते से किसानों को पहले से तय दाम मिलेगा। साथ ही किसान को उसके हितों के ख़िलाफ़ बांधा नहीं जा सकता। किसान उस समझौते से कभी भी हटने के लिए स्वतंत्र होगा और उससे कोई पेनल्टी नहीं ली जाएगी।
'मंडी सिस्टम जैसा है, वैसा ही रहेगा'
केंद्र सरकार यह भी कह रही है कि 'मंडी सिस्टम जैसा है, वैसा ही रहेगा. अनाज मंडियों की व्यवस्था को ख़त्म नहीं किया जा रहा, बल्कि किसानों को सरकार विकल्प देकर, आज़ाद करने जा रही है। अब किसान अपनी फ़सल किसी को भी, कहीं भी बेच सकते हैं. इससे 'वन नेशन वन मार्केट' स्थापित होगा और बड़ी फ़ूड प्रोसेसिंग कंपनियों के साथ पार्टनरशिप करके किसान ज़्यादा मुनाफ़ा कमा सकेंगे.'
लेकिन किसान संगठन सवाल उठा रहे हैं कि 'उन्हें अपनी फ़सल देश में कहीं भी बेचने से पहले ही किसने रोका था?' उनके मुताबिक़, फ़सल का सही मूल्य और लगातार बढ़ती लागत - तब भी सबसे बड़ी परेशानी थी। पी साईनाथ किसानों के इस तर्क से पूरी तरह सहमत हैं। वे कहते हैं,
"किसान पहले से ही अपनी उपज को सरकारी बाज़ारों से बाहर या कहें कि 'देश में कहीं भी' बेच ही रहे हैं. ये पहले से है. इसमें नया क्या है? लेकिन किसानों का एक तबक़ा ऐसा भी है जो इन अधिसूचित थोक बाज़ारों और मंडियों से लाभान्वित हो रहा है. सरकार उन्हें नष्ट करने की कोशिश कर रही है."
सरकार का यह कहना कि, यह विनियमित विपणन केंद्र और अधिसूचित थोक बाज़ार रहेंगे।
इसके जवाब में साईनाथ कहते हैं,
"हाँ वो रहेंगे, लेकिन इनकी संख्या काफ़ी कम हो जाएगी. वर्तमान में जो लोग इनका उपयोग कर रहे हैं, वो ऐसा करना बंद कर देंगे। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में भी यही विचारधारा लागू की गई. वहाँ क्या हुआ, बताने की ज़रूरत नहीं। वही कृषि क्षेत्र में होगा। सरकार ने अपने आख़िरी बजट के दौरान ज़िला स्तर के अस्पतालों को भी निजी क्षेत्र को सौंपने के संकेत दिए थे। सरकारी स्कूलों को लेकर भी यही चल रहा है। अगर सरकारी स्कूलों की व्यवस्था को पूरी तरह नष्ट करने के बाद ग़रीबों से कहा जाए कि 'आपके बच्चों को अब देश के किसी भी स्कूल में पढ़ने की आज़ादी होगी.' तो ग़रीब कहाँ जायेंगे. और आज किसानों से जो कहा जा रहा है, वो ठीक वैसा ही है।"
जमीन छिनने के डर पर सरकार का कहना है कि "बिल में साफ़ लिखा है कि किसानों की ज़मीन की बिक्री, लीज़ और गिरवी रखना पूरी तरह प्रतिबंधित है. समझौता फ़सलों का होगा, ज़मीन का नहीं।"
साथ ही सरकार की ओर से यह भी कहा जा रहा है कि "कॉरपोरेट के साथ मिलकर खेती करने से किसानों का नुक़सान नहीं होगा क्योंकि कई राज्यों में बड़े कॉर्पोरेशंस के साथ मिलकर किसान गन्ना, चाय और कॉफ़ी जैसी फ़सल उगा रहे हैं. बल्कि अब छोटे किसानों को भी ज़्यादा फ़ायदा मिलेगा और उन्हें तकनीक और पक्के मुनाफ़े का भरोसा मिलेगा।"
लेकिन पी साईनाथ सरकार की इस पर कहते हैं,
"कॉरपोरेट इस क्षेत्र में किसानों को मुनाफ़ा देने के लिए आ रहे हैं, तो भूल जाइए। वे अपने शेयरधारकों को लाभ देने के लिए इसमें आ रहे हैं। वे किसानों को उनकी फ़सल का सीमित दाम देकर, अपना मुनाफ़ा कमाएँगे। अगर वो किसानों को ज़्यादा भुगतान करने लगेंगे, तो बताएँ इस धंधे में उन्हें लाभ कैसे होगा? दिलचस्प बात तो ये है कि कॉरपोरेट को कृषि क्षेत्र में अपना पैसा लगाने की ज़रूरत भी नहीं होगी, बल्कि इसमें जनता का पैसा लगा होगा। रही बात कॉरपोरेट और किसानों के साथ मिलकर काम करने की और गन्ना-कॉफ़ी जैसे मॉडल की, तो हमें देखना होगा कि अनुबंध किस प्रकार का रहा। वर्तमान में प्रस्तावित अनुबंधों में, किसान के पास सौदेबाज़ी की ताक़त नहीं होगी, कोई शक्ति ही नहीं होगी। लिखित दस्तावेज़ को आवश्यक नहीं रखा गया है। सिविल अदालतों में जाया नहीं जा सकता। तो ये ऐसा होगा जैसे किसान ख़ुद को ग़ुलामों में बदलने का ठेका ले रहे हों।"
साईनाथ बिहार का उदाहरण देते हैं,
" बिहार में एपीएमसी एक्ट नहीं है. 2006 में इसे ख़त्म कर दिया गया था। वहाँ क्या हुआ? क्या बिहार में कॉरपोरेट स्थानीय किसानों की सेवा करते हैं? हुआ ये कि अंत में बिहार के किसानों को अपना मक्का हरियाणा के किसानों को बेचने पर मजबूर होना पड़ा. यानी किसी पार्टी को कोई लाभ नहीं हो रहा।"
" अब महाराष्ट्र के किसानों का उदाहरण ले लीजिए। मुंबई में गाय के दूध की क़ीमत 48 रुपए लीटर है और भैंस के दूध की क़ीमत 60 रुपए प्रति लीटर। किसानों को इस 48 रुपए लीटर में से आख़िर क्या मिलता है? साल 2018-19 में, किसानों ने इससे नाराज़ होकर विशाल प्रदर्शन किए। उन्होंने सड़कों पर दूध बहाया. तो यह तय हुआ कि किसानों को 30 रुपए प्रति लीटर का भाव मिलेगा. लेकिन अप्रैल में महामारी शुरू होने के बाद, किसानों को सिर्फ़ 17 रुपए लीटर का रेट मिल रहा है. यानी किसानों के दूध (उत्पाद) की क़ीमत क़रीब 50 प्रतिशत तक गिर गई. आख़िर ये संभव कैसे हुआ? इस बारे में सोचना चाहिए."
सरकार की ओर से लाए गए कृषि बिलों का विरोध कर रहे किसानों की एक बड़ी चिंता ये भी है कि सरकार ने बड़े कॉरपोरेट्स पर से अब फ़सल भंडारण की ऊपरी सीमा समाप्त कर दी है।किसान संगठन बिचौलियों और बड़े आढ़तियों की ओर से की जाने वाली जमाख़ोरी और उसके ज़रिए सीज़न में फ़सल का भाव बिगाड़ने की कोशिशों से पहले ही परेशान रहे हैं. लेकिन अब क्या बदलने वाला है?
इस पर पी साईनाथ कहते हैं,
"अभी बताया जा रहा है कि किसानों को एक अच्छा बाज़ार मूल्य प्रदान करने के लिए ऐसा किया गया। लेकिन किसानों को तो हमेशा से ही फ़सल संग्रहित करने की आज़ादी थी। वो अपनी आर्थिक परिस्थितियों और संसाधन ना होने की वजह से ऐसा नहीं कर सके। अब यह आज़ादी बड़े कॉरपोरेट्स को भी दे दी गई है और ज़ोर इस बात पर दिया जा रहा है कि इससे किसानों को बढ़ा हुआ दाम मिलेगा। पर कैसे?"
देखा यह गया है कि जब तक फ़सल किसान के हाथ में रहती है तो उसका दाम गिरता रहता है, और जैसे ही वो व्यापारी के हाथ में पहुँच जाती है, उसका दाम बढ़ने लगता है. ऐसे में कॉरपोरेट की जमाख़ोरी का मुनाफ़ा सरकार किसानों को कैसे देने वाली है? बल्कि इन बिलों के बाद व्यापारियों की संख्या भी तेज़ी से घटेगी और बाज़ार में कुछ कंपनियों का एकाधिपत्य होगा. उस स्थिति में, किसान को फ़सल की अधिक क़ीमत कैसे मिलेगी? जिन कंपनियों का जन्म ही मुनाफ़ा कमाने के लिए हुआ हो, वो कृषि क्षेत्र में किसानों की सेवा करने के लिए क्यों आना चाहेंगी ?
लेकिन कुछ लोगों की राय है कि प्राइवेट कंपनियों के कृषि क्षेत्र में आने से कुछ सुविधाएँ बहुत तेज़ी से बेहतर हो सकती हैं. जैसे बड़े कोल्ड स्टोर बन सकते हैं. कुछ और संसाधन या तकनीकें इस क्षेत्र को मिल सकती हैं. तो क्यों ना इन्हें एक मौक़ा दिया जाए?
इस पर पी साईनाथ कहते हैं,
" सरकार ये काम क्यों नहीं करती. सरकार के पास तो ऐसा करने के लिए कोष भी है. निजी क्षेत्र के हाथों सौंपकर किसानों को सपने बेचने का क्या मतलब? सरकार भी तो बताए कि उसका क्या सहयोग है? भारतीय खाद्य निगम ने गोदामों का निर्माण बंद कर दिया है और फ़सल भंडारण का काम निजी क्षेत्र को सौंप दिया है. इसी वजह से, वो अब पंजाब में शराब और बियर के साथ अनाज का भंडारण कर रहे हैं. अगर गोदामों को निजी क्षेत्र को सौंप दिया जाएगा तो वो किराए के रूप में एक बड़ी क़ीमत माँगेंगे. भंडारण की सुविधा मुफ़्त नहीं होगी. यानी कोई सरकारी सहायता नहीं रहेगी।"
अगर किसान एकजुट होकर आपसी समन्वय स्थापित करें, तो वो हज़ारों किसान बाज़ार बना सकते हैं. किसान ख़ुद इन बाज़ारों को नियंत्रित कर सकते हैं. केरल में कोई अधिसूचित थोक बाज़ार नहीं हैं. उसके लिए कोई क़ानून भी नहीं हैं. लेकिन बाज़ार हैं. इसलिए मैं कह रहा हूँ कि ख़ुद किसानों के नियंत्रण वाले बाज़ार होने चाहिए. कुछ शहरों में भी अब इस तरह के प्रयास हो रहे हैं. आख़िर क्यों किसी किसान को अपनी फ़सल बेचने के लिए कॉरपोरेट पर निर्भर होना चाहिए ?
किसानों का कहना है कि मंडी समिति के जरिये संचालित अनाज मंडियां उनके लिए यह आश्वासन थीं कि उन्हें अपनी उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल जाएगा। मंडियों की बाध्यता खत्म होने से अब यह आश्वासन भी खत्म हो जाएगा। किसानों के अनुसार, मंडियों के बाहर जो लोग उनसे उनकी उपज खरीदेंगे वे बाजार भाव के हिसाब से खरीदेंगे और यह उन्हें परेशानी में डाल सकता है। बाजार भाव बाजार तय करता है। बाजार मांग और आपूर्ति से तय होता है। अब जब जमाखोरी कानूनन अपराध नहीं रही तो बाजार को मांग और पूर्ति के अनुसार मुनाफाखोरों के हित मे झुकाया जा सकता है। किसान जब फसल लेकर बाजार में आता है या कोई व्यापारी जिसके पास भंडारण की क्षमता हो और धन हो तो वह उस फसल को बाजार के भाव की आड़ में खरीदना चाहता है। किसान लम्बे समय तक बाजार बढ़ने की उम्मीद में रुक भी नहीं सकता है क्योंकि फसल भंडारण की क्षमता उसके पास न होने के कारण, वह फसल के संभावित नुकसान की आशंका से भी ग्रस्त होता है। एमएसपी, उसे एक आश्वासन की तरह एक ऐसी व्यवस्था है, जिसे वह यह मान कर चलता है कि कम से कम इतना तो मूल्य उसे अपनी फसल का मिल ही जायेगा। पर सरकारी मंडियों के साथ साथ निजी क्षेत्र के प्रवेश और एमएसपी से कम मूल्य पर खरीद को कानूनन दण्डनीय अपराध न बनाये जाने के कारण, वह जो भी मूल्य उसे मिलेगा उसी पर अपनी उपज बेच कर निकलना चाहेगा। और वह ऐसा करता भी है।
अभी तक देश में कृषि मंडियों की जो व्यवस्था है, उसमें अनाज की खरीद के लिए केंद्र सरकार बड़े पैमाने पर निवेश करती है। इसी के साथ किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का आश्वासन मिल जाता है और करों के रूप में राज्य सरकार की आमदनी हो जाती है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने तब कहा था कि किसान अब अपनी उपज पूरे देश में कहीं भी बेच सकेंगे। ‘एक देश एक मंडी’ जैसे नारे भी दिए गए थे। लेकिन सरकार का यह दावा न केवल गलत है, बल्कि हास्यास्पद भी है। 1976 में पंजाब के ही किसानों ने अपनी फसल को कही भी बेचने के लिये एक आंदोलन किया था। 40 दिन तक वह आंदोलन चला। यह मामला पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट भी गया। अदालत ने यह फैसला दिया कि किसान बिना किसी प्रतिबंध के अपनी फसल उपज देशभर में कहीं भी बेच सकता है। वह स्टॉकिस्ट नहीं माना जायेगा। 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी तब यह कानून भी बन गया। आज जो सरकार एक मंडी एक देश की बात कह रही है, वह कोई नयी बात नहीं है।
ऐसी बिक्री पर आढ़तियों को जहां 2.5 फीसदी का कमीशन मिलता है तो वहीं मार्केट फीस और ग्रामीण विकास के नाम पर छह फीसदी राज्य सरकारों की जेब में चला जाता है। यही वजह है कि किसानों के अलावा स्थानीय स्तर पर आढ़तिये और राज्य सरकारें भी इसका विरोध कर रही हैं। यह बात अलग है कि जिन राज्यों में बीजेपी या एनडीए की सरकारें हैं वे विरोध की स्थिति में नहीं हैं।नए कानून के हिसाब से कोई भी व्यक्ति जिसके पास पैन कार्ड हो वह कहीं भी किसानों से उनकी उपज खरीद सकता है- उनके खेत में भी, किसी कोल्ड स्टोरेज में भी और किसी बाजार में भी। केंद्र सरकार का कहना है कि कृषि उपज का ट्रेडिंग एरिया जो अभी तक मंडियों तक सीमित था, उसे अब बहुत ज़्यादा विस्तार दे दिया गया है।
सितंबर महीने में जब हम देश की विकास दर के 24 फीसदी तक गोता लगा जाने पर आंसू बहा रहे थे, तब इस बात पर संतोष भी व्यक्त किया जा रहा था कि कृषि की हालत उतनी खराब नहीं है। देश की बड़ी आबादी जिस कारोबार से जुड़ी है उसकी विकास दर भले ही कम हो लेकिन संकट काल में भी वह सकारात्मक बनी हुई। ऐसा नही है कि 8 दौर तक की वार्ता में तीनों कृषि कानूनो के रद्दीकरण की बात नहीं उठी थी। बात उठी और सरकार ने किसान संगठनो से पूछा कि क्या निरस्तीकरण के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प है ? इस पर किसानों ने यह स्पष्ट कर दिया कि वे तीनों कानूनो के निरस्त करने की मांग पर अब भी कायम हैं और यह उनकी प्रमुख मांग है।
यदि 4 जनवरी 2021 की सरकार किसान वार्ता सफल नहीं होती है तो, किसान संगठनों के अनुसार, यह आंदोलन अभी जारी रहेगा। लेकिन भयंकर ठंड, बर्फीली हवा, और थपेड़ों भरी बारिश ने किसानों के तंबू ट्रॉली, लंगर को तो ज़रूर कुछ न कुछ नुकसान पहुंचाया है पर किसानों का मनोबल और उनके संकल्प के प्रति दृढ़ता को कोई आघात नहीं पहुंचा है। 40 दिन में 50 किसान इस धरने में अब तक अपनी जान गंवा चुके हैं पर लगता है, दिल्ली की सत्ता पर कोई असर तक नहीं हुआ। क्रिकेटर शिखर धवन के अंगूठे मे लगभग डेढ़ साल पहले जब खेलते हुए चोट लग गयी थी तो, प्रधानमंत्री जी ने ट्वीट कर के अंगूठे के स्वास्थ्य पर चिंता जाहिर की थी। आज 60 किसान अपने अधिकार, अस्मिता और अस्तित्व के लिये दिल्ली की सीमा पर दिवंगत हो गए हैं और प्रधानमंत्री जी या सरकार का इन किसानों की असामयिक और दुःखद मृत्यु पर एक शब्द भी न कहना, यह बताता है कि, सरकार की प्राथमिकता में न तो किसान हैं, न गरीब, न मज़दूर और न जनता। एक ठेंगा भी, 60 किसानों की मौत पर भारी पड़ जाता है यदि संवेदनाएं मर गयीं हों तो ।
( विजय शंकर सिंह )
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