26 जनवरी से जुड़े, तीन ईसवी सन, भारत के इतिहास में अमिट रहेंगे। 26 जनवरी 1930 जब देश की पूर्ण स्वतंत्रता के लिये लाहौर में संकल्प लिया गया था। 26 जनवरी 1950, जब हम भारत के लोगों ने एक संप्रभु लोककल्याणकारी राज्य के संविधान को अंगीकृत किया था। और अब 26 जनवरी 2021 जब देश के जन ने एक अनोखे अंदाज में गणतंत्र दिवस के आयोजन का निश्चय किया है। ऐसा बिल्कुल नहीं था कि 26 जनवरी 1950 के बाद से जनता द्वारा मनाया जाने वाला यह पहला आयोजन है। बल्कि राजपथ पर भव्य परेड से लेकर बीटिंग रिट्रीट तक के उत्सव भी जनता के ही थे। पर इस बार जो गणतंत्र दिवस मनाया जा रहा है उसकी पृष्ठभूमि में किसानों द्वारा आयोजित एक व्यापक जनआंदोलन है। यह आंदोलन 26 जनवरी के लिये नहीं चल रहा है बल्कि इस जन आंदोलन के बीच 26 जनवरी पड़ रही है। यह आंदोलन किसानों से जुड़े तीन कृषि कानून जो कृषि सुधार के नाम पर लाये गए हैं के विरोध में किसान उन्हें वापस लेने के लिये आंदोलन कर रहे हैं।
अब इस आंदोलन की क्रोनोलॉजी देखिए।
● 5 जून 2020, को इन तीन कृषि कानूनो के बारे में अध्यादेश लाया गया, जब देश मे कोरोना की आपदा के कारण , लॉकडाउन लगा हुआ था।
● अध्यादेश के बाद से ही इन कानूनो का विरोध शुरू हो गया।
● क्योंकि यह तीनो कानून सरकारी मंडी सिस्टम को कमज़ोर करने, एमएसपी को महज औपचारिक बनाकर रख देने, कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में किसानों को उनके न्यायालय जाने के मौलिक अधिकारों से वंचित करने और मुनाफाखोरों को जमाखोरी की निर्बाध अनुमति देने वाले हैं।
● 17 सितंबर 2020 को यह कानून लोकसभा से पारित किए गए। इनका भारी विरोध हुआ।
● 20 सितंबर 2020 को राज्यसभा से यह कानून पारित घोषित किये गए। पर इसे लेकर बहुत विवाद हुआ औऱ उपसभापति पर भी आक्षेप लगें।
● पंजाब में इन कानूनो को लेकर विरोध हुआ। राज्य सरकार ने उन कानूनो को मानने से मना कर दिया।
● 26 नवंबर 2020 को किसानों का दिल्ली मार्च शुरू हुआ।
● तब से अब तक सरकार ने 11 बार किसानों से बात की पर वह अपनी बात किसानों ङो समझा नहीं पायी।
● 18 जनवरी को, 26 जनवरी के लिये किसानों ने ट्रैक्टर परेड निकालने की अनुमति मांगी।
● 23 जनवरी को दिल्ली पुलिस ने ट्रैक्टर परेड की अनुमति दे दी।
यह इस आंदोलन का प्रथम फेज था।
इस प्रकार, किसान आंदोलन अब दूसरे फेज में है। सरकार अपनी सारी ना नुकर के बाद इस स्थिति में आ पहुंची है कि वह इस जनसैलाब को नज़रंदाज़ नहीं कर सकती है। सरकार समर्थकों के सारे दांव और किसानों को लांछित करने तथा भड़काने के सारे उपाय अब विफल हैं। जिद और अकड़ अभी शेष है और यह जिद और अकड़ किसी भी सत्ता का स्थायी भाव होता है। इनमे भी है। वह ज़िद और अकड़, इसी आंदोलन की आंच से पिघलेगी और खत्म होगी या कम होगी।
पर अब 26 जनवरी के ट्रैक्टर परेड में शांति बनी रहे और यह अनोखा आयोजन बिना किसी विघ्न बाधा के पूरा हो इसे सुनिश्चित करना आयोजकों की एक बड़ी जिम्मेदारी है। सरकार की निगाह भी इस परेड के शांतिपूर्ण समापन पर लगी है और दुनियाभर के मीडिया की भी। दिल्ली पुलिस की अनुमति के बाद, इस परेड के लिये, एक व्यापक योजना आयोजकों ने बनायी है। करो या न करो की विस्तृत गाइडलाइंस जारी की है। जगह जगह वालंटियर नियुक्त किये गए हैं। नशे की हालत में परेड में शामिल होने से रोका गया है। किसी भी प्रकार के अस्त्र शस्त्र को लाने पर रोक लगाई गयी है। किसान परेड आयोजको के हेल्पलाइन नम्बर जारी किए गए हैं। एम्बुलेंस की व्यवस्था की गयी है दिल्ली पुलिस सहायता के लिये तैनात भी रहेगी। यह सब इस आंदोलन की संगठन क्षमता को भी बताता है। किसान नेता दर्शन पाल ने कहा कि ट्रैक्टर परेड करीब 100 किलोमीटर चलेगी। परेड में जितना समय लगेगा, वो हमें दिया जाएगा। उन्होंने कहा कि यह परेड ऐतिहासक होगी जिसे दुनिया देखेगी।
दिल्ली एनसीआर में निकलने वाली ट्रैक्टर परेड में शामिल होने के लिए कई राज्यों के किसान दिल्ली आ रहे हैं। मीडिया की खबरों के अनुसार, किसान यूनियन के अनुसार, भिवानी जिले से पांच हजार ट्रैक्टर दिल्ली में प्रस्तावित किसानों की ट्रैक्टर परेड में शामिल होने के लिए रवाना होंगे। किसान नेता ने आरोप लगाते हुए कहा कि करीब दो महीने से किसान ठंड के मौसम में अपने हक के लिए बॉर्डर पर धरने पर बैठे हैं लेकिन सरकार अपना हठवादी रवैया छोड़ने को तैयार नहीं है। सरकार अब सरकारी व सावर्जनिक क्षेत्र को बर्बाद करने के बाद खेती व खाद्य सुरक्षा को उजाडऩे के लिए तीन कृषि कानून के लेकर आई है।
2019 में किये गए भाजपा के कृषि सुधार सम्बंधित वादो का अगर आकलन किया जाय तो नए कृषि कानून उन वादों के बिल्कुल उल्टे बनाये गए हैं। वादा किसी और सुधार का है और इन कानूनों द्वारा सुधार किसी और का किया जा रहा है। दरअसल वादा तो जनता से वोट लेने का एक छल भरा तमाशा होता है और, जो किया जाता है वह जनता के लिये नहीं बल्कि कॉरपोरेट और कुछ चहेते पूंजीपतियों के लिये किया जाता है।
अब कुछ वादों और उनके क्रियान्वयन पर नज़र डालते हैं।
● 2022 तक किसानों की आय दुगुनी करने का वादा।
-- सच यह है कि अधिकांश राज्यो में कृषि लागत ही नही निकल रही है। जिन राज्यों में लागत मिल भी रही है वहां उसका एक बड़ा कारण एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद है। नियमित एमएसपी, किसानों की आय का एक निश्चित आश्वासन है। आज किसान यही मांग कर रहे हैं कि उन्हें अपनी फसल का, कम से कम न्यूनतम समर्थन मूल्य तो मिले । जब सरकार एमएसपी पर ही किसान की फसल, जितनी भी वह खरीदती है, खरीद सकती है तो, यही बाध्यता वह निजी क्षेत्र या कॉरपोरेट पर, क्यों नही एक कानून बना कर लाद सकती कि, वे भी एमएसपी पर ही फसल खरीदें, जिससे किसानों को कम से कम न्यूनतम मूल्य तो मिले ? इसमें जो पैसा व्यय होगा, वह खरीदने वाले का ही तो होगा। कॉरपोरेट हो, स्थानीय व्यापारी हो या कोई भी पैन कार्ड होल्डर हो, जो भी फसल खरीदे, सरकार द्वारा न्यूनतम दर पर तो कम से कम खरीदे ही । आखिर, कॉरपोरेट या कोई भी निजी संस्था या व्यक्ति, अपनी निजी मंडी द्वारा किसान की फसल खरीदना चाहता है तो जिस भाव पर सरकार, बगल में ही स्थित सरकारी मंडी में किसान से फसल खरीद रही है तो, निजी मंडी वाले वही न्यूनतम दर उसी फसल का क्यों नहीं दे सकते हैं ?
-- सरकारी मंडी मे तो 6 % टैक्स भी लगता है। पर निजी मंडी को तो टैक्स की छूट तक नए कानून में दे दी गयी है। यह सीधे सीधे सरकारी मंडी को जिओ को लाभ पहुंचाने के लिये बीएसएनएल को जानबूझकर बर्बाद करने के तरीके की रणनीति है और सरकार इस जुर्म में कॉरपोरेट के साथ शरीके जुर्म है।
● 10 हजार से अधिक किसान उत्पादन संगठनों के गठन में सरकार सहायता करेगी।
-- 2019 के बाद सरकार यही बता दे कि उसने किसने किसान उत्पादन संगठन के गठन किये हैं ? इन संगठनों का उद्देश्य क्या है ? इससे किसानों की आर्थिक स्थिति में क्या लाभ पहुंचा है ?
● ई नाम ग्राम और प्रधानमंत्री आशा योजना के जरिये एमएसपी प्राप्त करने के लिये बाजार पैदा करने के पर्याप्त अवसर पैदा किये जायेंगे।
-- जब निजी मंडियों या कॉरपोरेट को एमएसपी पर खरीद करने की कानूनी बाध्यता के प्राविधान पर सरकार राजी ही नहीं हो रही है और सरकारी खरीद का दायरा बढ़ाने की कोई योजना ही सरकार के पास नहीं है तो, वह एमएसपी प्राप्त करने के लिये बाजार कहाँ से पैदा करेगी ?
-- सरकार तो ऐसा बाजार पैदा इन कानूनो के माध्यम से करने जा रही है कि जहां न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसी कोई चीज ही नही होगी। बाजार तो बन रहे हैं, पर एमएसपी की बात ही सरकार नहीं करती है।
● सभी सिंचाई परियोजनाओं को पूरा करने की दिशा में काम होगा।
-- सभी सिंचाई परियोजना बंद हैं। कोई प्रगति नहीं है। कोई सरकारी आंकड़ा हो तो बताएं।
● हर गांव को हर मौसम लायक सड़क से जोड़ने की योजना।
-- इस पर भी क्या प्रगति है, सरकार बताये।
● भूमि का सिंचित रकबा बढ़ाया जाएगा।
-- इसके आंकड़े उपलब्ध नही है कि 2019 के बाद सिंचित भूमि कितनी बढ़ी है।
● किसान सम्मान निधि दी जाएगी।
-- यह कार्यक्रम चल रहा है। प्रतिदिन के 16 रुपये और चार महीने में 2,000 रुपये सरकार इस योजना में दे रही है।
● 60 वर्ष की उम्र से अधिक किसानों को सामाजिक सुरक्षा और पेंशन की व्यवस्था।
-- यह योजना भी अभी धरातल पर नहीं आयी है। पेंशन निधि के लिये किसानों को ही धन की किश्तें जमा करनी है। जो कभी पूरी होती हैं तो कभी नहीं होती हैं।
● भूमि का डिजिटलकरण किया जाएगा।
-- यह काम अब इन तीन कानूनो के लागू होने के बाद निजी क्षेत्र द्वारा किया जाएगा। इसका डेटा निजी क्षेत्र के पास ही रहेगा। अब लेखपाल, खसरा, खतौनी और भू प्रबंधन से जुड़े महकमे और व्यवस्था का क्या होगा, फिलहाल पता नहीं है।
उपरोक्त तथ्यों से यह स्पष्ट है कि भाजपा अपने संकल्पपत्र मे किये गए वादों से यूटर्न ले चुकी है और जो भी वादे सरकार ने किसानों को उनकी आय दुगुनी करने, एमएसपी के लिये नए अवसर खोलने, सिंचित भूमि का रकबा बढ़ाने, वरिष्ठ नागरिकों जो किसान हैं को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने और पेंशन देने, भूमि व्यवस्था में पारदर्शिता हेतु भू अभिलेखों का डिजिटलकरण करने के घोषणापत्र मे किये गए हैं से ठीक उल्टे सरकार ने कदम उठाये हैं। और अब सरकार कह रही है कि यह कानून किसान हित मे हैं !
सरकार का कहना है कि वह कानूनों को डेढ़ दो साल के लिये होल्ड कर सकती है। पर ऐसा कोई दृष्टांत मिला नहीं कि, सरकार ने संसद द्वारा पारित किसी कानून को होल्ड किया हो। उसे अनौपचारिक रूप से लागू भले ही न किया हो पर एक समय सीमा तक उसे होल्ड नहीं किया गया है। संसद द्वारा पारित कानून पुनः संसद द्वारा ही रद्द किया जा सकता है या वापस लिया जा सकता है, या यदि उसकी संवैधनिकता को चुनौती दी गयी है तो, सुप्रीम कोर्ट में उसे स्थगित कर के उसके संवैधनिकता के मुद्दे पर संविधान पीठ का गठन कर के, सुनवाई की जा सकती है, पर क्या सरकार यानी कार्यपालिका को ऐसा कोई अधिकार है कि वह संसद द्वारा पारित किसी कानून को होल्ड पर रख दे और होल्ड पर रखने की समय सीमा मनमानी तरह से तय की गयी हो ?
संविधान विशेषज्ञ इस पर अपनी राय दे सकते हैं। लेकिन सरकार को इस प्रकार का अधिकार देना संसद की सर्वोच्चता पर सवालिया निशान लगाता है। विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका इन तीनो के ही अलग अलग कार्य हैं और इनकी अलग अलग शक्तियां और अधिकार क्षेत्र हैं। पर इन तमाम चेक और बैलेंसेस के बावजूद, संसद की सर्वोच्चता निर्विवादित है। अब अगर यह कानून संसद ने पारित कर दिया है तो यह देश का कानून, लॉ ऑफ द लैंड बन गया है।
यदि इस कानून में कोई संवैधानिक पेंच है तो, इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है और वहां केवल इस कानून की संवैधनिकता पर ही विचार होगा, न कि कानून के असर पर। कानून के असर या मेरिट, डीमेरिट पर संसद में बहस हो चुकी है और संसद ने उसे पास कर दिया है। यदि सरकार को लगता है कि कानून के कुछ प्राविधान गलत बन गए हैं या उनका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा तो सरकार या तो संसद में उन पर संशोधन ला सकती है या उसे रद्द कर के री ड्राफ्ट कर सकती है। पर जो भी होगा संसद से ही होगा।
कानून बनने के बाद उसकी नियमावली बनती है। उसी नियमावली के अंतर्गत उक्त कानूनो को लागू किया जाता है। फिर उसके प्रोसीजर बनते हैं। और भी कई निर्देश जारी होते हैं। आज सरकार यह तो कह रही है कि वह उन कानूनो को जिनके खिलाफ किसान आंदोलन कर रहे हैं वह डेढ़ दो साल के लिये होल्ड पर रख कर एक कमेटी बना कर विचार करने के लिये तैयार है। पर यही काम संसद में विधेयकों को स्टैंडिंग कमेटी के सामने भेज कर भी तो किया जा सकता था ? पर जब दिमाग मे अहंकार, जिद और जो कुछ है मैं ही हूँ भरा हो तो, ऐसी बात सूझती भी कहाँ है !
सरकार को चाहिए कि
● वह यह सब तमाशा छोड़े और एक अध्यादेश ला कर इन क़ानूनों को रद्द करे।
● कानूनो के रद्दीकरण का संसद से अनुमोदन कराये।
● कृषि विशेषज्ञों और किसान संगठनों की एक कमेटी बना कर कृषि सुधार का कोई दस्तावेज लाये।
● उस पर बहस हो और फिर कानून बने तथा नियमानुसार संसद, स्टैंडिंग कमेटी और मतदान की प्रक्रिया से पार होकर विधिवत कानून बने।
होल्ड करने का निर्णय, बेतुका, नियमों के प्रतिकूल, और एक गलत परंपरा की शुरुआत करना होगा। कल कोई भी सरकार इस परंपरा की आड़ में किसी भी कानून को अपनी मनमर्जी से असीमित समय तक के लिए होल्ड रख सकने की परंपरा का दुरुपयोग कर सकती है और यह संसद की सर्वोच्चता की अवहेलना ही होगी।
केंद्र के कृषि कानूनों के विरोध में महाराष्ट्र के किसानों ने भी व्यापक प्रदर्शन की तैयारी की है। महाराष्ट्र के 21 जिलों के हजारों किसानों ने नासिक से मुंबई तक मार्च किया है। मुंबई के आजाद मैदान में विशाल किसान रैली का आयोजन किया गया है। यह रैली कृषि कानूनों के विरोध में पहले से ही हजारों की संख्या में दिल्ली बॉर्डर पर डटे हुए किसानों के समर्थन में हैं। कुछ ही दिन पहले एनसीपी नेता, शरद पवार ने किसानों का समर्थन करते हुए किसानों की मांगें न मानने के लिए केंद्र सरकार की आलोचना की थी. शरद पवार ने कहा था कि किसान इतनी ठंड में किसान दिल्ली के आसपास प्रदर्शन कर रहे हैं, किसानों की भावनाओं को समझने में नाकाम रहने पर तो केंद्र को अंजाम भुगतने पड़ेगा। पिछले महीने भी पवार ने कुछ ऐसी ही चेतावनी देते हुए कहा था कि केंद्र को किसानों के धैर्य की परीक्षा नहीं लेनी चाहिए।
26 जनवरी को गणतंत्र दिवस की किसान परेड के आयोजन के बारे में किसानों के मसले पर निरंतर मुखर रहने वाले पी साईंनाथ ने इस परेड को गणतंत्र को पुनः प्राप्त करने का एक आंदोलन बताया है। इस सरकार ने एक एक कर के सभी संवैधानिक संस्थाओं को कमज़ोर किया है। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट भी सरकार के इस संस्थातोड़क अभियान का एक अंग बन चुकी है। आज सुप्रीम कोर्ट के सीजेआई कहते हैं कि हमे बदनाम किया जा रहा है। उनका यह दुःख हम सबको साल रहा है। पर सीबीआई जज लोया के संदिग्ध मृत्यु की जांच, राफेल सौदे की जांच से जुड़ी याचिका, सीबीआई प्रमुख को रातोरात हटा देने के सरकार के गलत निर्णय, अनुच्छेद 370, यूएपीए कानून, सीएए आदि महत्वपूर्ण याचिकाओं पर विलंबित सुनवाई, अर्णब गोस्वामी के मुकदमो पर ज़रूरत से अधिक तवज़्ज़ो आदि ऐसे तमाम उदाहरण हैं जिनके कारण सुप्रीम कोर्ट पर सीधे सवाल खड़े हुए और सबको कठघरे में रखने की हैसियत रखने वाली न्यायपालिका आज खुद जनता के कठघरे में है। सरकार ने आरबीआई की साख को नुकसान पहुंचाया। दो महत्वपूर्ण जांच एजेंसियां, सीबीआई, ईडी की यह हालत कर दी गयी है कि उनके हर छापे सन्देह की दृष्टि से देखे जाने लगे हैं। योजना आयोग तो तोड़ कर नीति आयोग बनाया गया जिसका अब तक यही एक मक़सद सामने आया है कि वह सभी सरकारी कंपनियों को कुछ चहेते पूंजीपतियों को सौंपने के एजेंडे पर काम कर रही है। आरटीआई सिस्टम को कमज़ोर किया गया।
लेकिन जब सरकार ने एपीएमसी सिस्टम को तोड़ने के लिये कदम बढ़ाए तो किसान, विशेषकर उन क्षेत्रो के किसान जो सरकारी मंडी की बदौलत सम्पन्न हैं ने इस खतरे को भांप लिया और वह अपने अस्तित्व के लिये एकजुट हो गए। यह किसान आंदोलन इस गणतंत्र के लिये एक नयी उम्मीद बन कर आया है। गणतंत्र दिवस 2021 पर होने वाली किसानों की ट्रैक्टर परेड एक ऐतिहासिक घटना होगी। इस किसान आंदोलन को हतोत्साहित करने के लिये न केवल उन्हें ट्रोल किया गया, बल्कि कुछ मीडिया चैनलों पर इनके विरुद्ध दुष्प्रचार भी किया गया। सरकार ने ईडी को सक्रिय किया और खालिस्तानी, पाकिस्तानी आदि नारों से उन्हें विभाजनकारी भी बताया गया।
किसानों का मनोबल तोड़ने के लिये, कुछ फर्जी किसान संगठन भी खड़े किए। इस आंदोलन को आढ़तियों और बिचौलियों का आंदोलन कह कर प्रचारित किया गया और दो महीनों में लगभग सौ से अधिक किसानों की दुःखद मृत्यु पर न तो प्रधानमंत्री जी ने कुछ कहा और न ही, सरकार ने। ऐसा लगा मरने वाले किसान, इस मुल्क के हैं ही नहीं। पंजाब के बाद जब हरियाणा के किसान खुल कर सामने आए तो दोनो राज्यो में विवाद का विंदु सतलज यमुना लिंक कैनाल का मुद्दा तक उछाला गया। धर्म के नाम पर तोड़ने की कोशिश की गयी। अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त स्वयंसेवी संस्था, खालसा एड इंटरनेशनल को ईडी की नोटिस दी गयी, पर जब इस संस्था को नोबेल पुरस्कार के लिये नामित करने की खबर आयी तो यह नोटिस वापस ले ली गयी। खालसा एड लम्बे समय से आंदोलन में अपना लंगर चला रही है। सरकार का आकलन इस आंदोलन को लेकर गलत दिशा में है। यह आंदोलन इतिहास मे इससे पहले किये गए अनेक जन आंदोलनों की तरह व्यापक हैं। और इसे दबाना अब सरकार के लिये आसान भी नहीं रह गया है।
ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि शहरी मिडिल क्लास इस आंदोलन को लेकर, इससे अलग है। आखिर शहरी मिडिल क्लास की जड़ भी तो कहीं न कहीं गांवों से ही है। उन्हें भी किसानों का दुखदर्द पता है। 2018 में जब मुंबई में लाखों किसान पैदल मार्च करते हुए आये थे तो मुंबई का शहरी मिडिल क्लास उनके स्वागत और उन्हें खिलाने पिलाने के लिये सड़को पर उतर आया था। यही दिल्ली में भी हो रहा है। लोग जा जा कर न केवल किसानों का हौसला बढ़ा रहे हैं, बल्कि उनकी ज़रूरतों की चीजें उन्हें दे रहें हैं।
सरकार किसान बातचीत के घटनाक्रम का कभी अध्ययन कीजिए तो, उसका एक उद्देश्य यह भी दिखेगा कि, यह आंदोलन बिखरे, थके और टूट जाये। दो महीने से हो रही यह लंबी वार्ता, थकाने की भी रणनीति हो सकती है। पर जब चुनौती अपनी अस्मिता औऱ संस्कृति तथा जब, सब कुछ दांव पर लगा हो तो समूह बिखरता नहीं है, वह और एकजुट हो जाता है, और उनके संकल्प दृढ़तर होतेे जाते है। सरकार ने जब जब, जहां जहां बुलाया, किसान संगठनों के नेता वहां वहाँ गए। बातचीत में शामिल हुए। अपनी बात रखी। बस अपने संकल्प पर वे डटे रहे। इन दो महीनों में एक भी ऐसी घटना किसानों द्वारा नहीं की गयी, जो हिंसक होने का संकेत देती हो। हरियाणा पुलिस के वाटर कैनन के प्रयोग, सड़क खोदने, पुल पर लाठी चलाने जैसे अनप्रोफेशनल तरीके से भीड़ नियंत्रण के तऱीके अपनाने के बाद भी किसानों ने कोई हिंसक प्रतिरोध नहीं किया। वे आगे बढ़ते रहे और जहां तक जा सकते थे गए औऱ फिर वहीं बैठ गए। उन्होंने सबको बिना भेदभाव के लंगर छकाया, व्यवस्थित बने रहे और अपनी बात कहते रहे। दुनियाभर में इस धरना प्रदर्शन के अहिंसक भाव की सराहना हो रही है। सरकार ने भी किसानों के धैर्य की सराहना की है।
26 जनवरी की यह ट्रैक्टर रैली, किसान संगठनों द्वारा चलाये जा रहे धरना प्रदर्शन के धैर्य की एक परीक्षा भी होगी। हिंसा किसी भी कीमत पर नहीं होनी चाहिए और आंदोलनकारियों को चाहिए कि वे पुलिस से किसी भी प्रकार का कन्फ्रण्टेशन न होने दे। इस आंदोलन की सबसे बड़ी ताकत है, इतनी अधिक संख्या में किसानों का, दो महीने तक शांतिपूर्ण रह कर अपने लक्ष्य और संकल्प पर दृढ़ रहना। दुनिया मे ऐसा व्यापक और शांतिपूर्ण प्रतिरोध शायद कम ही हुआ होगा।आज तक इसी अहिंसा ने सरकार को बेबस बना रखा है । हिंसक आंदोलन, कितनी बडी संगठित हिंसा के साथ क्योँ न हो, से निपटना आसान होता है पर अहिंसक आन्दोलन और धरने को हटाना बहुत मुश्किल होता है। यह बेबसी अब दिखने भी लगी है। 30 जनवरी को महात्मा गांधी की हत्या हुयी थी। एक अहिंसक, शांतिपूर्ण और सामाजिक सद्भाव से ओतप्रोत 26 जनवरी का यह किसान गणतंत्र दिवस समारोह शांति और सद्भाव से सम्पन्न हो, इससे बेहतर श्रद्धांजलि, महात्मा गांधी को, उनकी पुण्यतिथि 30 जनवरी पर, नही दी सकती है।
( विजय शंकर सिंह )
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