किसी भी व्यवधान के कारण विषय पर पूनः लौटते समय पिछली कड़ी से जुड़ पाना मेरे लिए आसान नहीं होता। बीच में अपनी अध्ययन विधि के उन पहलुओं के विषय में अपनी स्थिति स्पष्ट करते रहना होता है, जिनके विषय में, मेरे अनुमान के अनुसार, पाठकों के मन में आशंकाएं पैदा होती होगी। दो कारण हैं, पहला यह कि मैं पेशेवर भाषाविज्ञानी नहीं हूँ। मुझे तुलनात्मक और ऐतिहासिक भाषा विज्ञान के क्षेत्र में किए गए काम की जितनी जानकारी है उससे अधिक, उसकी विकास दिशा उस क्षेत्र में किए गए कामों से असहमति है। और मैं भी जानता हूं कि मेरी तर्क और प्रमाण जितने भी निर्णायक क्यों न हों, बीच-बीच में उनकी विश्वसनीयता को देखकर पाठकों के मन में संदेह होना स्वाभाविक है, और इसे दूर करना मेरी जरूरत भी है।
हमने शब्द विचार करते हुए सोचा क्यों न यह चर्चा ‘शब्द’ की उत्पत्ति से आरंभ की जाए और फिर मुख से उच्चरित होने वाली कुछ अन्य ध्वनियों को लेकर भी यह दिखाया कि जितने भी शब्द हैं, भले वे पहली नजर में अनुकारी न प्रतीत हों, वे हैं अनुकार-परक ही। भाषा के दूसरे पर्यायों - वाक्, वाणी, वाशी, भणिति, के साथ भी ऐसा ही है। इनकी उत्पत्ति का भी संक्षिप्त उल्लेख करना होगा। इससे भी पाठकों के मन में बेचैनी हो सकती है कि 99.9 प्रतिशत पढ़े लिखे लोग अपने शब्द भंडार से इतने संतुष्ट होते हैं और शब्द के मर्म को समझने को इतना नीरस पाते हैं कि मामूली संदेह होने पर भी, सामने कोश पड़ा हो तो भी, उसमें शब्दों का अर्थ नहीं देखते, फिर क्या इस लेखमाला को ऊब कर बेहोश होने तक हमें इस ‘फालतू’ चर्चा में उलझे रहेंगे। उन्हें संशय होगा कि क्या हम एक नए किस्म का व्युत्पत्तिपरक शब्दकोश का निर्माण करना चाहते हैं चाहते है?
हमारा लक्ष्य कोश निर्माण नहीं है, मात्र यह दिखाना है कि हमारी आधारभूत समग्र शब्दावली प्राकृतिक नाद के वाचिक अनुनादन या अपनी ध्वनि सीमा में अनुकरण से पैदा हुई है। हम बहुत पहले कह आए हैं कि चिर आदिम अवस्था में मनुष्य को जितने सीमित संसार और गतिविधियों में सिमटा रहना पड़ता था उसमें उसका काम इक्के दुक्के व्यंजनों और स्वरों से चल सकता था। ये अक्षर आरंभ में किस रूप में उच्चरित हुए और होते रहे थे, इसका सही अनुमान आज नहीं लगाया जा सकता। परंतु अपना काम चलाने के लिए हम उनके उस वर्ण या वर्णों की पहचान वर्णमाला के किसी अक्षर को इसके लिए चुन सकते हैं भले वह अल्पप्राण या महाप्राण या विविध यूथों में कुछ भिन्न। स्वरों में ई और ऊ की भूमिका अधिक स्पष्ट रही लगती है। यह भी मात्र अनुमान है क्योंकि नितांत पिछड़ी अवस्था में ठहरी रह गई आदिम बोलियों से जिस चरण पर हमारा परिचय होता है, उस समय तक वे कई बोलियों के संपर्क में आकर पहले की अपेक्षा बहुत बदल चुकी और समृद्ध हो चुकी रहती हैं।
जब हम आदिम शब्दावली की बात करते हैं तो हमारा अभिप्राय भाषा के घटकों के जोड़-तोड़ से शब्दनिर्माण से पहले के चरण की भाषा से होता है जिसके भी कई चरण समुदायों के मिश्रण और नई ध्वनियों और शब्दों के समावेश के अनुसार हो सकते हैं। प्रकृति के नियमों को समझते और उसके साथ छेड़छाड़ ने क्रम में जहाँ से अपने जोड़-तोड़ से नए औजार बनाने लगा वहीं भाषा के आदिम चरण के घटकों या शब्दों के जोड़तोड़ से न कि प्राकृत ध्वनियों अनुकरण से नए शब्दों का निर्माण करना आरंभ किया।
यह भी एक काम चलाऊ स्पष्टीकरण है, क्योंकि उस अवस्था तक वह प्राकृत ध्वनि में एक आध अक्षर जोड़कर, बदलकर, नई वस्तुओं, क्रियाओं, भावों आदि के लिए शब्द गढ़ लिया करता था, परंतु ये अक्षर सार्थक शब्द नहीं हुआ करते थे, जबकि दूसरी अवस्था में पुरानी युक्ति से तो काम लेता ही रहा, पुराने सार्थक शब्दों को भी जोड़ कर नए शब्द बनाने लगा। इस अंतर को हमने विस्तार से आर्य-द्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता (1973, अब ‘आर्य-द्रविड़ भाषाओं के अंतःसंबंध स्पष्ट करना उपयोगी होगा:
प्राकृत अवस्था
पत्
पत्ते के गिरने से उत्पन्न ध्वनि > पात > पातर > पतरी > सं- पात्र >अ. पॉट> पॉटरी (pot> pottery); पट, पटु, पटल (अं. पेटल, बाटल) आदि।
पानी की बूँद की आवाज > भो. पत = पानी, पातर = सांद्रता में क्षीण> पन> पानी, आदि।
पाँव के जमीन पर पड़ने की आवाज> पत/ पद/ पाद > पथ/पाथ > पथ्य => पाथेय, आदि।
पक्षी के पंख फड़फड़ाने का आवाज, *पत- पंख, पतत्रि. पताका, पतन - उड़ान आदि।
कृत्रिम
प्रा. पाती, सं. पत्र> ताम्रपत्र> पत्राचार; पटवारी/पटेल/पाटिल, आदि।
*पत> पतवार, *पथ/पाथ > पाथोज, *पद> पद्म; *पन - पानी आदि।
पदाति, पादप, पदवी, पद्य, पाद्य, पादुका आदि।
पतंग, पतत्रि = पक्षी; पतत्रिन् =तीर, पताकिन= ध्वजवाहक
हम केवल यह दिखाना चाहते हैं की भाषा के सभी प्रथमिक शब्द और घटक प्राकृत संगीत - सूनृता वाक - के स्फुट नादों के वाचिक अनुनादन से उत्पन्न हुए हैं और उनके ही जोड़-तोड़ से हम आज भी आवश्यकता होने पर नई शब्दावली गढ़ कर तैयार करते हैं।
यह बात केवल हम नहीं कह रहे हैं। भाषा की उत्पत्ति की समस्या पर विचार करने वाले सभी भाषाविज्ञानी सिद्धांत रूप में इसे मानते हुए भी इसके लिए पर्याप्त प्रमाण जुटा न पाने के कारण हार कर यह नतीजा निकाल लेते रहे हैं कि अनुनादन या अनुकरण से एक सीमित शब्दावली ही निकली है (इमेनाे, इंडिया ऐज ए लिंग्विस्टिक एरिया रीविजिटेड, 1956), इसलिए वे इस समस्या को असाध्य मानकर चुप लगा जाते रहे हैं।
हाल के वर्षों में कुछ अध्येता भाषा परिवार पुरानी अवधारणाओं को अपर्याप्त और दोषपूर्ण मान कर नया समाधान तलाश तो रहे हैं पर वे किसी प्रोटो लैंग्वेज से भाषाओं की ग्रंथि से मुक्ति न पाने के कारण गलत दिशा में चले जाते हैं। ऐसे ही एक अध्येता मिशिगन विश्वविद्यालय में एमेरिटस प्रोफेर माधव देशपांडे हैं जिनकी चर्चा हम कल करेंगे।
( भगवान सिंह )
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